शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

कहानी और तत्व रहित सिनेमा

सिनेमा की दुनिया के एक सबसे मशहूर और कमोवेश अपनी कलम से वजूद की अमिट लकीर खींचने वाले लेखक सलीम खान से एक अच्छी बातचीत दो दिन पहले मनोरंजन के एक चैनल ने दिखायी। सलीम वो शख्सियत हैं जिनकी पूरी पर्सनैलिटी में एक थमा हुआ ऐसा समुद्र नजर आता है जो भीतर ही भीतर बड़ी दूर तक गया है, जिसका अपनी व्यापकता और विस्तार है।

निश्चय ही यह विस्तार संघर्ष और अनुभवों से आया है। उनको देखते हुए व्यतीत समय में उन तमाम बड़ी सुपरहिट फिल्मों के सिनेमाघरों और चौराहों पर लगे बड़े-बड़े पोस्टर और होर्डिंग याद आते हैं जिनमें उनका नाम निर्माता और निर्देशक के नाम की मोटाई वाले अक्षरों की तरह ही लिखा होता था। जंजीर, दीवार, त्रिशूल, शोले, डॉन, ईमान-धरम, चाचा-भतीजा आदि बहुत सी ऐसी फिल्में हैं।

बहरहाल अनुभवों से बयाँ सच किसी जीवट इन्सान की जिन्दगी की किताबों के पन्ने इस तरह खोलता है कि बहुतेरे सीख कर सही रास्ते पर चल सकते हैं, अपना जीवन बना सकते हैं। प्रश्रकर्ता जब उनके बारे में यह कहता है कि इस समय उन्हें रुपए गिनने से फुर्सत नहीं है तो वे सहजता से हँस देते हैं। सलीम साहब तो कलाकार से अधिक अपने लिखे का पाने वाले सितारा लेखक रहे हैं। उनके लिए पैसे का बरसना या बरसना बन्द होना एक ही सा है। सभी दौर इस अनुभवी इन्सान को संयत और आदर्श रखते हैं।

आज की फिल्मों के प्रति एक लेखक के रूप में उनका यह आकलन बड़ा सटीक है कि कहानी में कन्टेन्ट की बेहद कमी हो गयी है। उन्होंने यह भी कहा कि अब फिल्में लेखकों से सीडी और कैसेट देकर लिखवायी जाती हैं। जाहिर है ये सीडी और कैसेट उन फिल्मों की होती हैं जिनसे आइडिया चुराना होता है। अब ज्ञान और कल्पनाशीलता की आवश्यकता नहीं रह गयी है। संवाद में भाषा और प्रभाव भी दिखायी नहीं देता। इसका कारण वे यही मानते हैं कि अब कोई पढऩा नहीं चाहता।

एक लेखक को पढऩा कितना जरूरी है, यह वे बेहतर बताते हैं। वे बेहिचक इस को स्वीकार करते हैं कि वे भी दीवार में सात सौ छियासी नम्बर के बिल्ले या शोले में सिक्के उछालने वाले आइडिए को कहीं से लेते हैं मगर उसकी जगह और सार्थकता का ख्याल करके। आज शायद इतना शऊर हमारे लेखकों के पास नहीं होगा जो कूड़ा फिल्में लिखकर खुदभ्रमित रहते हैं।

सलीम ने सिनेमा में लेखक की प्रतिष्ठा को शिखर पर ले जाने की चुनौती अपने उस्ताद अबरार अल्वी के सामने उठायी थी। बाद में वो उन्होंने कर भी दिखाया। आज इतनी जहमत कोई लेखक उठाना नहीं चाहता।

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