रविवार, 31 अक्तूबर 2010

सुरक्षित ओपनिंग और अंदेशों का मैदान

सिनेमा व्यवसाय में हर निर्माता का अपना सुरक्षा बोध होता है। जाहिर है, पैसे के नाम पर दाँव पर वही लगा होता है। फिल्म में काम करने वाले हरेक आदमी को उसका दाम मिल चुका होता है, फिल्म बनने के बाद प्रदर्शन करते समय सारा अदा किया हुआ कई गुना मुनाफे के साथ लौटे, यह सपना देखना प्रोड्यूसर के लिए स्वाभाविक होता है। ऐसे दौर में खासतौर पर निर्माता का रक्तचाप बढ़ा ही रहता है, जब बड़ी-बड़ी फिल्मों को दर्शक अचानक खारिज कर देता है। हरेक निर्माता प्राय: अच्छे बैकग्राउण्ड का नहीं होता तो वह कर्ज लेकर ही फिल्में बनाता है और बनाकर, कमाकर लौटाता है। ऐसे में अगर फिल्म बैठ गयी तो घाटा बर्दाश्त करने का कलेजा किसका, कितना मजबूत हो सकता है, कहा नहीं जा सकता। झटके, हमेशा आदमी को गिराने का काम करते हैं, यदि वह सम्हलकर खड़ा नहीं है तो, यदि पैर मजबूत हैं तो गिरने से बच जायेगा, लडख़ड़ाकर रह जायेगा। गिर गया तो फिर ध्वस्त होना तय है।

नवम्बर का महीना शुरू हो गया है। 5 तारीख दीपावली का दिन है और शुक्रवार का भी दिन है। शुक्रवार का दिन फिल्म के प्रदर्शन का दिन भी होता है। एक समय था जब देश भर में शुक्रवार को और मध्यप्रदेश में गुरुवार को फिल्में रिलीज हुआ करती थीं। तब ओपनिंग का परिणाम मध्यप्रदेश से ही निर्धारित होता था। गुरुवार को फिल्म का क्या हश्र हुआ, यह मुम्बई सहित देश को मालूम हो जाया करता था। ऐसे में वितरक सावधान हो जाते थे, सिनेमाघर सजग हो जाते थे और एक रात में खरीदी-बेची का प्रतिशत उठ और गिर जाया करता था। अब शुक्रवार का दिन प्रदर्शन का सब जगह तय को गया है, बावजूद इसके, सिनेमा के असुरक्षित व्यवसाय में भाग्यविधाताओं, ज्योतिषियों की पौ-बारह है, वे अपने ढंग से निर्माता को सुझाव देते हैं। इस शुक्रवार प्रदर्शित होने वाली दो फिल्मों एक्शन रीप्ले और गोलमाल भाग तीन क्रमश: शुक्रवार और शनिवार को रिलीज हो रही हैं।

विपुल शाह, अपनी फिल्म एक्शन रीप्ले को लेकर आश्वस्त हैं मगर रोहित शेट्टी अपने लिए सुरक्षित दिन चाहते हैं, इसीलिए उन्होंने शनिवार को अपनी फिल्म सिनेमाघरों में लगाने का फैसला किया है। अलग-अलग दिन ओपनिंग का भीड़-विभाजन भले ही कर दें मगर फिल्म की किस्मत नहीं बदल सकते। फिल्म तभी चलेगी, जब अच्छी होगी। दर्शकीय दृष्टि किसी पैथोलॉजी से कम नहीं है। वहाँ से आयी रिपोर्ट दूध का दूध पानी का पानी कर देती है और रिपोर्ट आने के पहले दिल धक-धक करता रहता है।

शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

दूर का राही किशोर कुमार

किशोर कुमार द्वारा निर्मित और निर्देशित फिल्में जैसे दूर गगन की छाँव में या दूर का राही दुर्लभ थीं। अच्छी खबर यह कि दोनों ही फिल्में एक कम्पनी ने पिछले दिनों जारी कीं जिसमें से एक दूर गगन की छाँव में पर एक रविवार हम बात कर चुके हैं। दूर का राही पर इस बार बात करते हैं।

1971 में आयी, दूर का राही की शुरूआत, बर्फीले पहाड़ों में दूर से एक बुजुर्ग आदमी चला आ रहा है। लांग शॉट का यह दृश्य धीरे-धीरे हमारी नजर होता है। हम पहचानते हैं कि कुछ-कुछ सान्ताक्लाज के गेटअप में किशोर कुमार हैं। चलते-चलते, हाँफते-हाँफते गिर पड़ते हैं। कैमरा चेहरे पर होता है। आँखें कुछ भीगी सी दिखायी देती हैं। किरदार फ्लैश बैक में जाता है। एक नौजवान को एक बस्ती में देखते हैं। एक घर के सामने से निकलता है तो बाहर बैठा एक बुजुर्ग उसे तमाम दुआएँ देता है, उसके कल्याणकारी कामों के लिए। यह फिल्म का नायक है। किशोर कुमार ने यह भूमिका निभायी है।

मेरे बाप के, बाप के, बाप के, बाप के, बाप के, बाप के, बाप हमारे........नायक ने यह दिलचस्प वाक्य बस्ती के बच्चों को पाठ की तरह पढ़ाया हुआ है। बच्चे नायक को घेर लेते हैं, सुनाने की कोशिश करते हैं मगर जल्दी बोलना कठिन है, तब नायक बोलता है। एक निर्लिप्त किस्म का इन्सान है जिसे दुनिया की निन्दा, स्वार्थ, छल, कपट, धूर्तता आदि से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वह अपने जीवन में सबको खुशी देने, सबके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने और सबसे अपनापन स्थापित करने आया है। वह एक भाई जैसे मित्र के घर जाता है, उसकी मुसीबत में रक्षा करता है, एक अकेले और दुखी परिवार में जाता है, वहाँ अपनापन स्थापित करता है। फिल्म के क्लायमेक्स में एक स्थिति ऐसी बनती है जब पति को खो चुकी वैधव्य जीवन व्यतीत कर रही नायिका के लिए उसके ससुर विवाह के लिए अनुरोध करते हैं मगर नायक वहाँ भी यह बात बताता है कि अपने जीवन में उसका ठहराव कहीं नहीं है।

दूर का राही की दृश्यावलियाँ खूबसूरत हैं। सब तरफ पहाड़, वीराना और एक घर, जीवन, परिवार...। बड़ी गम्भीरता से सोचने को जी चाहता है कि क्यों भला खिलन्दड़ छबि के इस हरफनमौला ने इतनी संवेदनशील फिल्में बनायीं? दूर का राही, दूर वादियों में कहीं, दूर गगन की छाँव में फिल्मों में दूर शब्द के इस्तेमाल के गहरे निहितार्थ लगते हैं। एक गाना है, बेकरारे दिल, तू गाये जा, खुशियों से भरे वो तराने, जिन्हें सुन के दुनिया झूम उठे, और झूम उठे दिल दीवाने...अशोक कुमार और तनूजा पर फिल्माया गया है, मन में ऐसा बैठता है कि आसानी से निकलना मुश्किल।

अन्तिम दृश्य में नायक यादों में देखता है, मन्दिर में पड़ा रोता-बिलखता बच्चा, कुछ साधु उसकी परवरिश करते हैं। अच्छा ज्ञान और शिक्षा देते हैं। पिता सा स्नेह देने वाला साधु मृत्युशैया पर इस बच्चे को जो सीख देकर जाता है, जीवन पर वहीं निबाहता है यह नायक। सचमुच अनूठी फिल्म।

शुक्रवार, 29 अक्तूबर 2010

बिग बॉस के कुनबे में रोटियों का झगड़ा

बिग बॉस में इस बार एक कमाल खूब हुआ है, बहुत सारे एक ही प्रवृत्ति के लोग चुन-चुनकर लिए गये हैं। इनका काम एक ही तरह के मसलों पर एक राय होना है। दिलचस्प यह है कि मसले बड़े तुच्छ से हैं। कई बार हम बहुत सी चीजों के प्रति सहमत नहीं होते, कई बार एक साथ एक राय होना भी मुमकिन नहीं होता। विचार और धाराएँ अलग होती हैं।

प्रवृत्तियाँ भी अलग होती हैं मगर लोक लाज में, जमाने को दिखाने में कुछ भलमनसाहत नकलीपन में ओढक़र अपने को उघडऩे से बचाया जाता है मगर अब चैनलों ने या तो बहुतों के नकाब उतार लिए हैं या उनके भीतर-बाहर की दीवार को पारदर्शी कर दिया है। बिग बॉस में इस बार एक ही तरह की चीज बड़ी समदर्शी होकर नजर आयी है, अफसोस है कि मसला सामने भी आया तो क्या आया, रोटियों का।

जब बिग बॉस की शुरूआत हुई थी तो दर्शकों की अपार जिज्ञासा इसी बात को लेकर थी कि तीन माह एक साथ बिताने वाला भीतर का कुनबा कैसा होता है। एक-एक करके जिस तरह के लोग आते गये, भीतर जाते हुए, कुल मिलाकर आकलन उत्साहजनक नहीं रहा। जैसे-जैसे एक-एक करके लोग अन्दर जाते गये, मुँह बनना और षडयंत्र होना शुरू होते गये।

हालाँकि अब इस बात को लेकर बड़े भ्रम और असमंजस होने लगे हैं कि दिखायी देने वाला यथार्थ वास्तव में अधिरोपित और दिखावटी है या सच्चा? इसका जवाब किसी के पास नहीं है। यह पता नहीं चलता कि सौहार्द्र असली है या वैमनस्य। पल-पल में मर्यादा कैरेक्टर को झटककर दूर खड़ी हो जाती है और अशिष्टता अनावृत्त हो जाती है।

सबसे विकट मसला रोटियों का है। शुरूआत के ही एपिसोडों में से जो वकील साहब बाहर हुए उनके बारे में भीतर के एक-दो लोगों की बड़ी मासूम आपत्तियाँ थीं। एक तो खैर खर्राटों को लेकर थी मगर दूसरी थी रोटी अधिक खाने को लेकर। बाहर होने के बाद वकील साहब सफाइयाँ देते रहे कि वे बेचारे दरअसल खाते कितनी रोटियाँ थे। बाद में जब खली भीतर गये तो उनके जाते ही सबको, सबसे बड़ी आपत्ति उनकी खुराक को लेकर हुई। रोटियों को लेकर खासकर। इस मसले पर सब उनके विरुद्ध थे।

गनीमत है, बिग बॉस ने उनके लिए खाने का अलग इन्तजाम कर दिया वरना उनकी रोटी को लेकर भी धिक्कार पता नहीं क्या रूप ले लेता। गुरुवार को एक झगड़ा जिस घटिया स्तर तक जा पहुँचा उसके पीछे भी मसला रोटी का था, इरादतन बासी रोटी खाने को देने का। कुल मिलाकर यह कि रोटी, बिग बॉस में अब झगड़े की सबसे बड़ी जड़ है।

इधर नजीर अकबराबादी की रचना याद आती है, जब आदमी के पेट में आती हैं रोटियाँ, फूली नहीं बदन में समाती हैं रोटियाँ...........।

गुरुवार, 28 अक्तूबर 2010

साईं छबि में जैकी श्रॉफ

इस शुक्रवार जैकी श्रॉफ की शिरडी के साईं बाबा के चरित्र को परदे पर निबाहने वाली फिल्म मालिक एक प्रदर्शित हो रही है। जैकी इस फिल्म के प्रदर्शन को लेकर बड़े खुश हैं। कुछ समय पहले मुम्बई में उनसे हुई मुलाकात में उन्होंंने इस फिल्म के बारे में बताया था। वैसे जब तक यह फिल्म बनी, इस बात का प्रचार कम ही हुआ कि जैकी को यह भूमिका ऑफर की गयी है। जैकी ने स्वयं एकाग्रता और अपनी लगन के चलते गम्भीरता से इस काम को अंजाम देना उचित समझा। वे इन दिनों चुनिंदा फिल्में कर रहे हैं। उनका प्रयास यह भी है कि एक बार में एक फिल्म को पूरा वक्त भी दिया जाये।

निर्माता-निर्देशक दीपक बलराज विज उनके पुराने दोस्त भी हैं। साईं बाबा के प्रति उनकी भी गहरी श्रद्धा है। वे काफी दिनों से एक ऐसी फिल्म बनाना चाह रहे थे जिसके माध्यम से वे साईं बाबा के व्यक्तित्व और उन अनूठे अनछुए पहलुओं को दर्शकों के सामने ला सकें जिन्हें देखकर भक्त और आसक्त दर्शकों की श्रद्धा सतत गहरी हो। उन्हें जैकी की पर्सनैलिटी और खासकर देखने की शैली में मालिक एक की शीर्ष भूमिका के लिए अपना किरदार मिल गया। जैकी को जब यह प्रस्ताव मिला तो उनके लिए कम चुनौती नहीं थी। साईं बाबा के प्रति उनकी भी अगाध श्रद्धा है। उन्होंने तय किया कि वे बाबा की भूमिका को गम्भीरता से जीने की कोशिश करेंगे। लगभग दो साल की अवधि में यह फिल्म पूरी हुई है और जैकी ने अपना पूरा वक्त और निर्देशक की अपेक्षा के साथ अपनी क्षमता के अनुरूप काम किया है।

बीच में यह फिल्म जुलाई-अगस्त के आसपास प्रदर्शित होने को थी किन्तु परफेक्शन के लिहाज से कुछ काम बाकी रह जाने के कारण दो महीना और लग गया। बहरहाल, मालिक एक के माध्यम से हम एक लम्बे अरसे बाद साईं बाबा पर एक अच्छी और मनोयोग से बनी फिल्म देखेंगे। खास पत्रिका और पत्रिका के पाठकों के लिए जैकी श्रॉफ ने बताया कि जब तक इस फिल्म का काम चला है, उन्होंने हर वक्त अपने कैरेक्टर को भीतर से जीते रहने की कोशिश की है। संवादों की लोच, सहजता, दिव्य प्रभाव और सम्प्रेषण के लिहाज से यह एक गहरी चुनौती थी मगर जैकी ने उसको निभाने का प्रयास किया। जैकी बताते हैं कि मालिक एक का यह प्रभाव था कि इस अवधि में उनको मन में पूर्ण शान्ति मिलती रही और एक तरह की सकारात्मक ऊर्जा मिलती रही, किरदार को सजीव प्रभाव के साथ निबाहने के लिए।

जैकी कहते हैं कि साईं भक्तों की विराट संख्या है जो देश से लेकर दुनिया तक फैले हुए हैं। मैं सबके पास अत्यन्त आत्मीय और स्नेह भाव से पहुँचना चाहता हूँ।

दिल में बसा के प्यार का तूफान ले चले............

मध्यप्रदेश अपने समय की उत्कृष्ट, अविस्मरणीय और यादगार फिल्मों के फिल्मांकन का भी गवाह रहा है। अपने आयाम और विस्तार में सात पड़ोसी राज्यों का आत्मिक स्पर्श करने वाले इस राज्य में समय-समय पर अनूठी फिल्में बनी हैं जिन्होंने भारतीय सिनेमा में अपनी मूल्यवान जगह बनायी है। बी. आर. चोपड़ा, राजकपूर, सुनील दत्त, मेहबूब खान, बासु भट्टाचार्य, गुलजार जैसे फिल्मकारों ने अपनी फिल्मों के खूबसूरत दृश्य और गीतों का फिल्मांकन यहाँ किया है।

1952 में मेहबूब खान ने फिल्म आन के लिए इन्दौर में एक बग्गी में, दिलीप कुमार और नादिरा पर एक गाना फिल्माया था, दिल में बसा के प्यार का तूफान ले चले, हम आज अपनी मौत का सामान ले चले....आन अपने जमाने की एक मशहूर फिल्म थी जिसे मेहबूब साहब की एक अविस्मरणीय फिल्म के रूप में जाना जाता है।

1953 में राजकपूर की फिल्म आह का क्लायमेक्स जरूर आप सभी को याद होगा जिसमें नायक को तांगे में बैठाकर तांगेवाला गाता हुआ जा रहा है, छोटी सी ये जिन्दगानी रे, चार दिन की जवानी तेरी, हाय रे हाय, गम की कहानी तेरी......इस गाने में भी हम नायक को सतना स्टेशन पर उतरकर तांगे से रीवा जाते हुए देखते हैं........

राजकपूर की एक फिल्म श्री चार सौ बीस का गाना, मेरा जूता है जापानी में मध्यप्रदेश के जिले मील के पत्थर के रूप में नजर आते हैं। यह फिल्म 1955 की है। फिल्म का नायक है, जो यह बताता है कि भले ही पश्चिम की नकल में हमने अपने जूते, पतलून और टोपी विदेशी धारण कर लिए हों मगर दिल तो हिन्दुस्तानी ही है वह विदेशी होने से बचा हुआ है......
फिर भी दिल है हिन्दुस्तानी.......।

सदाबहार अभिनेता देव आनंद की फिल्म नौ दो ग्यारह का एक गाना, हम हैं राही प्यार के हम से कुछ न बोलिए, जो भी प्यार से मिला, हम उसी के हो लिए, की शुरूआत भले ही दिल्ली से होती है मगर आगे उस गाने के हिस्से मध्यप्रदेश में फिल्माए गये। फिल्म में हम नायक को, इन्दौर रेल्वे स्टेशन के बाहर खड़े होकर महू के लिए सवारी की आवाज लगाते हुए भी देखते हैं, इन्दौर-महू साढ़े छ: आना, इन्दौर-महू साढ़े छ: आना......। यह फिल्म 1957 में आयी थी।

बलदेव राज चोपड़ा, यानी बी.आर. चोपड़ा की फिल्म नया दौर का इतिहास, भोपाल और बुदनी से कैसे जुड़ता है, यह मध्यप्रदेश की राजधानी की पीढिय़ों को मालूम है। नया दौर का प्रदर्शन काल भी 1957 का है। इस फिल्म का क्लायमेक्स, तांगा दौड़ का फिल्मांकन बुदनी में हुआ था। साथी हाथ बढ़ाना, एक अकेला थक जाए तो मिलकर बोझ उठाना, गाने में हमको मध्यप्रदेश की अपनी जमीन पर सितारे दिलीप कुमार, वैजयन्ती माला और हमारे इन्दौर के जॉनी वाकर दिखायी देते हैं। साथी हाथ बढ़ाना, विकसित होते हिन्दुस्तान का सपना देखने वाले हर इन्सान की परस्पर दूसरे से की जाने वाली अपेक्षा और सद्इच्छा का गीत है।

सौन्दर्य सलिला नर्मदा जिस भेड़ाघाट में संगमरमरी चट्टानों से खिलवाड़ करते हुए असीम वेग से बहते हुए आगे जाती है, वहीं पर फिल्माया गया था, अपने समय का वो मधुर गीत, ओ बसन्ती पवन पागल.....राजकपूर और पद्मिनी पर फिल्माया गया यह गीत, फिल्म जिस देश में गंगा बहती है, का था। 1960 में यह फिल्म आयी थी। उस समय हमारे देश में दस्यु समस्या चरम पर थी, मध्यप्रदेश के चम्बल में डाकुओं का आतंक था। यह फिल्म दुर्दान्त दस्युओं के हृदयपरिवर्तन की भावनात्मक आकांक्षा के साथ बनायी गयी थी।

इसी ज्वलन्त विषय को छुआ था, अभिनेता और निर्देशक सुनील दत्त ने फिल्म मुझे जीने दो बनाकर। मुझे जीने दो, 1963 की फिल्म है जो बड़े जोखिम के साथ चम्बल के बीहड़ों में ही फिल्मायी गयी। इस फिल्म के आरम्भ में ही सुनील दत्त, मध्यप्रदेश सरकार के प्रति अपना आभार व्यक्त करते हैं..........वहीदा रहमान और सुनील दत्त पर फिल्माया गया, इस फिल्म का गीत, नदी नारे न जाओ श्याम पैंया पड़ूँ, आशा भोसले की आवाज़, लच्छू महाराज की कोरियोग्राफी और मधुर गीत-संगीत रचना के कारण आज भी हमारे ज़हन में ताज़ा है।

1966 में बनी फिल्म दिल दिया दर्द लिया की शूटिंग मध्यप्रदेश में माण्डू और उसके आसपास हुई थी। दिलीप कुमार और वहीदा रहमान इस फिल्म के कलाकार थे। इस फिल्म के अनेक दृश्यों के पाश्र्व में माण्डू अपने इतिहास और सौन्दर्यबोध की धीरजभरी, शान्त मगर भीतर ही भीतर हमसे संवाद करती अनुभूति से रोमांचित करता प्रतीत होता है। दिलरुबा मैंने तेरे प्यार में क्या-क्या न किया, दिल दिया दर्द लिया, गाना फिल्म के जिक़्र के साथ ही याद आ जाता है हमें।

बासु भट्टाचार्य की फिल्म तीसरी कसम, गीतकार-निर्माता शैलेन्द्र की एक बड़ी दार्शनिक परिकल्पना थी। इस फिल्म के बहुत से हिस्से मध्यप्रदेश में फिल्माए गये थे। सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है, सहित फिल्म के कई गीत, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी, सजनवा बैरी हो गये हमार, चिठिया हो तो हर कोई बाँचे, भाग न बाँचे कोय में जीवन की क्षणभंगुरता और उसके यथार्थ तक पहुँचने का रास्ता हमें अपने अन्तर से महसूस होता है। कुरवाई, बीना स्टेशन पर फिल्म का नायक खड़ा होकर सामान और सवारी की प्रतीक्षा करता है, नायक अर्थात राजकपूर।

दिल दिया दर्द लिया के निर्माण के ग्यारह वर्ष बाद 1977 में एक बार फिर एक अच्छी फिल्म किनारा के बहुत से दृश्य माण्डू में फिल्माए गये। निर्देशक गुलजार की इस फिल्म की कहानी में माण्डू, हादसे की शिकार नायिका के व्यथित और एकाकी मन के साथ जैसे एक हमदर्द की तरह दिखायी देता नजऱ आता है, नाम गुम जाएगा, चेहरा ये बदल जायेगा, मेरी आवाज़ ही पहचान है, गर याद रहे.............

मधुर, मर्मस्पर्शी और हमेशा याद रह जाने वाले गानों के माध्यम से हमने जिन फिल्मों को याद किया, केवल उतनी ही फिल्में मध्यप्रदेश में बनीं हों, ऐसा नहीं है। मध्यप्रदेश में रानी रूपमति से लेकर हाल की राजनीति और पीपली लाइव तक अनेक फिल्मों का निर्माण हुआ है। मध्यप्रदेश प्रतिष्ठित निर्देशकों, बड़े निर्माण घरानों और विख्यात कलाकारों की उपस्थिति, काम और स्थापित प्रतिमानों से गुलज़ार रहा है।

यह यात्रा अनवरत् जारी है.........................

बुधवार, 27 अक्तूबर 2010

दो ध्वस्त फिल्में और एक रोबोट

बीते सप्ताह प्रदर्शित दो फिल्में आक्रोश और नॉक आउट ध्वस्त हो गयीं। दोनों ही फिल्में बड़ी मँहगी बनी थीं। दोनों ही फिल्मों में बड़े सितारे थे। खासा प्रचार दोनों फिल्मों का किया जा रहा था मगर बॉक्स ऑफिस पर दोनों ही फिल्मों का धंधा बिगड़ गया। दरअसल दबंग की कामयाबी और सिनेमाघर में जमकर नोट गिनने वाले थिएटर मालिकों को टिकिट बेचने वालों के लिए यह एक झटका ही था। दो-तीन हफ्ते भरपूर कमाई देकर विदा हुई दबंग के हैंगओवर से सिनेमा मालिक बाहर भी न आ पाये थे कि आक्रोश और नॉक आउट के असफल हो जाने का झटका लगा।

आक्रोश का विषय ज्वलन्त था, प्रियदर्शन फिल्म के निर्देशक थे। अजय देवगन और अक्षय खन्ना तो मुख्य भूमिका में थे ही परेश रावल की भूमिका भी बड़ी सशक्त थी। एक अच्छे कलाकार अतुल तिवारी का रोल भी बहुत अच्छा था, जिनकी चर्चा कम ही हुई। बिपाशा बसु को जरूर अण्डरकैरेक्टर प्रस्तुत किया गया। बिपाशा अपनी जिन ख्यातियों की वजह से जानी जाती हैं, उसके उलट उनको पेश किया गया। कहानी मजबूत होने के बावजूद फिल्म इतनी एकतरफा हो गयी कि वह ठीक-ठीक परिणामसम्मत बनकर सामने नहीं आ सकी। ऐसे में असफल होना ही था। नॉक आउट, अच्छे इरफान खान के बावजूद उम्रदराज होते संजय दत्त और कमसिन कंगना की क्षमतागत सीमाओं के कारण असफल हो गयी। विदेशों में फिल्मांकन कई बार फिल्मों की अपनी अस्मिता को भी मार देता है।

अमेरिका में फिल्म शूट करके अमरीकन फिल्म नहीं बनायी जा सकती, यह हमारे निर्देशक नहीं समझ पाते। अपने देश का मौलिक परिवेश भी किसी सफल फिल्म का प्रबल सबब बन जाया करता है। रमेश सिप्पी की शोले से बड़ा उदाहरण भला और क्या होगा? पिछले सप्ताह की इन्हीं दो फिल्मों के बीच दबंग के जरा बाद आकर अब तक सिनेमाघरों में लगी रहने वाली रोबोट को लेकर सिनेमाघर मालिक आज भी अच्छी राय दे रहे हैं। वे कहते हैं कि आक्रोश और नॉकआउट के बजाय रोबोट पर दर्शक ज्यादा मेहरबान हैं। वे दर्शक रोबोट देखते हुए मजे में हैं जो रजनीकान्त को हमेशा नहीं देखते। देखा जाए तो रजनीकान्त की फिल्म ही बड़े बरसों बाद इस तरफ आयी। हमें जरा इस बात पर विचार करना चाहिए कि आखिर सिनेमा के सन्दर्भ में नयी पीढ़ी के फिल्मकारों की अपनी धाराणाएँ हैं क्या? जिनकी फिल्में बनकर प्रदर्शन की कतार में हैं, वे तो दर्शकों के फैसले पर ऊपर-नीचे हुआ ही करेंगे मगर जिनका काम अब शुरू होगा, क्या वे भी करने जाने के पहले यह तय नहीं करेंगे कि जोखिम किस तरह के हैं?

बहरहाल रोबोट फ्लॉप फिल्मों के झटके को बर्दाश्त करने के लिए थिएटर मालिकों के लिए एक बड़ी राहत का नाम है। सेल्यूट रजनीकान्त साहब......।

मंगलवार, 26 अक्तूबर 2010

सिनेमा और संवेदना के सरोकार

दो दिन पहले इन्दौर में देवी अहिल्या विश्वविद्यालय में भोपाल के सिने-रसिक डॉ. अनिल चौबे के एक लम्बे दृश्य-श्रव्य और प्रस्तुतिकरणप्रधान कार्यक्रम का हिस्सा बनने का अवसर प्राप्त हुआ। लगभग पौने चार घण्टे के इस प्रेजेन्टेशन के सहभागी लगभग दो सौ दर्शक-श्रोता बने जिनमें सभी उम्र के लोग थे और कुछेक फिल्म पत्रकारिता के विद्यार्थी भी। राकेश मित्तल और श्रीराम ताम्रकर की पहल पर सम्भव हुए इस प्रस्तुतिकरण का आरम्भ स्वर्गीय बिमल राय की फिल्म देवदास के उस दृश्य से हुआ जहाँ चन्द्रमुखी और पारो एक दृश्य में पल भर को आमने-सामने होती हैं, जबकि दोनों एक-दूसरे को नहीं जानतीं। एक देवदास से दोनों का कोई रिश्ता है यह भी एक-दूसरे से बाँटने की स्थितियाँ नहीं हैं।

प्रस्तुतिकरण का समापन आलाप फिल्म के गीत से हुआ। इस दिलचस्प और सुरुचिपूर्ण प्रेजेन्टेशन को प्राध्यापक और सिनेमा को एक दर्शक की विशिष्ट लेकिन गहरी निगाह रखने वाले डॉ. अनिल चौबे ने अपनी व्याख्या से ऊ र्जा और ऊष्मा से भरने का काम किया। बीच में एक जगह उन्होंने साठ के दशक की सदाशिवराव जे. कवि की फिल्म भाभी की चूडिय़ाँ का गाना, ज्योति कलश छलके, दिखाया। बड़ा भावुक और मर्मस्पर्शी गीत है जिसमें भोर के साथ गाने की शुरूआत होती है। मीना कुमारी नायिका हैं जो एक भारतीय गृहिणी की तरह होते हुए उजाले में बाहर आकर ईश्वर को प्रणाम करती हैं, घर-आँगन बुहारती हैं, नहाकर रंगोली सजाती हैं, तुलसी की परिक्रमा करती हैं, गाने में एक छोटा बच्चा भी है जो देवर है मगर पुत्र की तरह उसकी परवरिश हो रही है। इस गाने का एक उत्तरार्ध यह भी है कि भाभी मृत्युशैया पर है, देवर बड़ा हो गया है, भाभी के पैरों के पास बैठा हुआ गा रहा है, दर भी था, थी दीवारें भी, तुमसे ही घर, घर कहलाया...।

इस गाने को देखते हुए हॉल में बैठे कई लोगों की आँखें भीग गयीं, कई अपने आँसू पोंछते दिखे। इस घटना से इस बात को प्रमाणित किया कि सिनेमा, अच्छा सिनेमा हमारी संवेदना को बड़े गहरे स्पर्श करता है। एक पूरा का पूरा समय, भारतीय सिनेमा, खासकर हिन्दी सिनेमा में व्यतीत हो चुका है जिसमे फिल्में हमें स्पन्दित करने का काम करती थीं। खोए हुए भाई, पिता-पुत्र, माँ-बेटे मिलते थे तो उस दृश्य में किरदारों के साथ-साथ हमारी आँखें भी नम हो जाया करती थीं। आज ऐसा नहीं रहा।

आज का सिनेमा हमें स्पन्दित करने के बजाय उत्तेजना प्रदान करता है। हर उम्र का दर्शक, आज की फिल्में देखते हुए भद्देपन से उछलकूद करती, इठलाती नायिका को देखकर उत्तेजित हो जाया करता है। एक अलग ही तरह की दुनिया में चला जाता है। घटिया सिनेमा या मनोरंजन हमारी अभिरुचियों को भी घटिया बनाने में अपना योगदान करता है। वो सारी चेतना धूमिल हो जाया करती हैं जिनसे स्पन्दन या संवेदना का कोई सरोकार स्थापित हो सकता है।

सोमवार, 25 अक्तूबर 2010

पुख्ता कलाकारों की जगहें

ध्यान करो तो कई बार बहुत से अच्छे, प्रभावी और कुछ समय पहले तक अपनी सिनेमाई उपस्थिति से आकृष्ट करने वाले कलाकार अब दिखायी नहीं देते। या तो उनके मतलब का सिनेमा बनना बन्द हो गया है, जो कि सही ही है, या उन तक आज के काबिल फिल्मकारों का ध्यान ही न जाता हो, जिसकी कि सम्भावना भी कम ही है। बहरहाल दर्ज इतिहास आज खण्डहर नहीं माने जा सकते। मजबूत कलाकार हो सकता है, आराम में हों या हो सकता है जीविका और अस्मिता के साथ संघर्ष भी करते हों मगर काम मांगने जाना इन्हें गवारा नहीं होता। अपनी दृढ़ता, अपने स्वाभिमान को जीने का भी मजा ही कुछ और है।

रमेश सिप्पी ने शोले जैसे बड़ी हिट बनाने के बाद जब शान बनायी तो खलनायक ढूँढकर लाना चुनौती थी। सब अपेक्षा करते थे कि गब्बर का विकल्प लाया जाये। सिप्पी कुलभूषण खरबन्दा को शाकाल बनाकर लाये। फिल्म ज्यादा नहीं चली। अमिताभ, शशि, सुनील दत्त, शत्रुघ्र सिन्हा का उतना नुकसान नहीं हुआ जितना खरबन्दा का हुआ। फिर भी वे एक सशक्त कलाकार थे सो बाद की फिल्मों में चरित्र भूमिकाएँ करते हुए उन्होंने अपनी जगह बनायी। वैसे तो महेश भट्ट की अर्थ उनको पूरे हीरो की एक बड़ी अलग तरह की छबि देती है, आज भी वह याद है मगर रवीन्द्र धर्मराज की चक्र, श्याम बेनेगल की जुनून, यश चोपड़ा की नाखुदा और जे.पी. दत्ता की गुलामी और बॉर्डर में वे अलग से नजर आये थे। इन दिनों वे फिल्मों में दिखायी नहीं देते। कुछ समय पहले जरूर धारावाहिक शन्नो की शादी में उनकी भूमिका मर्मस्पर्शी लगी थी।

ऐसे ही सदाशिव अमरापुरकर भी हैं जिनको गोविन्द निहलानी अर्धसत्य में रामा शेट्टी की भूमिका के लिए खोजकर लाये थे। यह किरदार आज भी जीवन्त है। ओमपुरी के साथ उनका कन्ट्रास्ट भुलाए नहीं भूलता। बाद में अनिल शर्मा की हुकूमत, फरिश्ते आदि फिल्मों में अच्छे खलनायक वे बने। इन्द्र कुमार की फिल्म इश्क और डेविड धवन की आँखें में कॉमेडी की। आज उनके लिए भी फिल्में शायद नहीं हैं। डैनी को भी एक सशक्त कलाकार की तरह माना जाता है। यह अन्तर्मुखी अभिनेता उतना सामाजिक भले न हो मगर अपने किरदारों से याद रहता है। मेरे अपने से लेकर धर्मात्मा हो या काला सोना हो या फिर अग्रिपथ, डैनी हीरो के बराबर जगह रखने वाला रसूख हासिल किए रहे। आज वे भी मनमाफिक भूमिकाएँ और फिल्में ऑफर न होने से लाइमलाइट से दूर हो गये हैं।

ऐसी विडम्बनाएँ कई कलाकारों के साथ जुड़ती हैं। ऐसे कलाकारों में आशीष विद्यार्थी, रघुवीर यादव, परीक्षित साहनी आदि कितने ही नाम गिनाए जा सकते हैं। अब सचमुच चरित्र अभिनेताओं के लिए स्पेस खत्म हो गया है। चरित्र अब गढऩे की फुरसत भी किसे है?

रविवार, 24 अक्तूबर 2010

धर्मेन्द्र : किस्से अरबों हैं....

बीकानेर के प्रीतम सुथार नवम्बर के आखिरी सप्ताह में साइकिल से मुम्बई के लिए निकलेंगे और 8 दिसम्बर को सदाबहार अभिनेता धर्मेन्द्र को जन्मदिन की शुभकामनाएँ देंगे। यों बरसों से हर साल 8 दिसम्बर को मुम्बई पहुँचकर शुभकामनाएँ देना उनका दस्तूर है मगर इस बार तीन योग मिलने से वे विशेष रूप से उत्साहित हैं लिहाजा रेल के बजाय साइकिल से दो हफ्ते की यह कठिन और जटिल यात्रा करने का इरादा उन्होंने बनाया है। तीन योग हैं, उनके अपने धर्मेन्द्र कलर लैब की स्थापना को पच्चीस साल, धर्मेन्द्र के कैरियर के पचास साल और धरम जी की उम्र के पचहत्तर साल पूरे होना। प्रीतम, धरम जी के आसक्त भक्त की तरह हैं। बीकानेर में एक छायाकार के रूप में उनका कैरियर शुरू हुआ। आगे चलकर कलर लैब बन गया। घर में मन्दिर बनाकर बरसों से रोज धरम जी की पूजा करने वाले प्रीतम मानते हैं कि उनके भाग्य का सितारा धरम-भक्ति से प्रबल हुआ। अपने-अपने विश्वास हैं।

धर्मेन्द्र की पहली फिल्म दिल भी तेरा हम भी तेरे का प्रदर्शन काल 1961 का है। इस लिहाज से आ रहा साल कैरियर के स्वर्ण जयन्ती वर्ष का है। धर्मेन्द्र इन दिनों दो बड़ी फिल्मों को पूर्ण कर रहे हैं जिनमें से एक उनकी अपनी होम प्रोडक्शन फिल्म यमला पगला दीवाना है जिसमें सनी और बॉबी भी काम कर रहे हैं और दूसरी फिल्म हेमा मालिनी निर्देशित टेल मी ओ खुदा है जिसमें वे पहली बार बेटी ऐशा के साथ काम करने जा रहे हैं। यमला पगला दीवाना तो दिसम्बर के अन्तिम सप्ताह में प्रदर्शित की जायेगी, हो सकता है टेल मी ओ खुदा आगामी वर्ष में सिनेमाघर पहुँचे। जाहनू बरुआ की एक फिल्म हर पल भी पूरी है जिसमें धर्मेन्द्र ने विशेष सराहनीय भूमिका अदा की है, वह भी रिलीज जल्द होगी।

धर्मेन्द्र अपने समय को बड़ा उल्लेखनीय मानते हैं। उनकी जिन्दादिली, सक्रियता और चुस्ती-फुर्ती हमेशा की तरह है। एक्सरसाइज और फिटनेस का बड़ा ध्यान रखने वाले धर्मेन्द्र पाँच दशक के अपने कैरियर को अपने लिए स्वर्णिम मानते हैं। उनकी यह खासियत रही है कि उन्होंने अपने समय के श्रेष्ठ निर्देशकों के साथ काम किया है। बिमल राय, हृषिकेश मुखर्जी, चेतन आनंद, मोहन कुमार, अर्जुन हिंगोरानी, रघुनाथ झालानी, राज खोसला, जे. ओमप्रकाश, सुभाष घई आदि अनेक ऐसे निर्देशक हैं जिनके साथ उनकी यादगार फिल्में आयी हैं।

वे फूल और पत्थर जैसी अनेक सशक्त फिल्मों के नायक रहे हैं जिनकी वजह से अज्ञात कुलशील निर्देशक भी नाम वाले हो गये थे। अपने लम्बे सफल कैरियर में एक कलाकार और एक इन्सान के रूप में धर्मेन्द्र भीतर-बाहर एक से हैं। वे इतने सहृदय हैं कि अपने घर में चोरी की नीयत से घुसे चोर को भी पिटने से बचाते हैं और पुलिस को नहीं देते उल्टा खाना अलग खिलाते हैं। उनकी पारदर्शिता, संवेदनशीलता, भावुकता के किस्से अरबों हैं।

चल री सजनी अब क्या सोचे......

रविवार को चर्चा करने के लिए देव आनंद की यादगार फिल्म बम्बई का बाबू अचानक ही प्रासंगिक लगी जब प्रख्यात पाश्र्व गायक स्वर्गीय मुकेश का गाया यह गीत सुनने को मिला, चल री सजनी अब क्या सोचे, कजरा न बह जाये रोते-रोते.....। यह एक विदाई गीत है जो फिल्म के क्लायमेक्स या कह लें लगभग अन्त की तरफ जाती हुई फिल्म में होता है। बम्बई का बाबू, 1960 की फिल्म थी जिसे राज खोसला ने निर्देशित किया था। उस दौर की यह देव आनंद की चुनिन्दा श्रेष्ठ फिल्मों में से एक थी जिसमें सुचित्रा सेन ने ऐसी नायिका की भूमिका की थी, जिससे नायक रिश्तों के अजीब से द्वन्द्व में फँसकर मिलता है और वह भी बड़े विरोधाभासों के साथ।

यह फिल्म एक ऐसे युवक बाबू की कहानी है जो चोरी, डकैती, जुए आदि तमाम बुराइयों में लिप्त है। उसका बचपन का दोस्त पुलिस इन्स्पेक्टर है जो बार-बार उसे अच्छाई के रास्ते पर लाना चाहता है मगर वह दोस्त को यह कठोर बात कहकर निरुत्तर करता है कि छोटी उम्र में जब हम दोनों एक छोटी सी गल्ती के लिए थाने में बन्द कर दिए गये थे तब तुम्हारे पिता केवल तुम्हें छुड़ा ले गये थे, मैं गरीब और अनाथ था, मेरी एक न सुनी गयी। मेरा रास्ता तभी से तय हो गया था। बाबू, तक की बम्बई में अपनी गेंग के आदमियों के साथ अपराध की दुनिया से बाहर ही आना नहीं चाहता। एक दिन जब वह जज्बात में आकर बुरे काम छोडऩा चाहता है तो उसका मुखिया उसे मजबूर करता है, एक गलतफहमी में बाबू से उसका खून हो जाता है। पुलिस से बचने के लिए बाबू भागता है और हिमाचल के एक ऐसे गाँव में उस परिवार का खोया हुआ बेटा बनकर रहने लगता है, जो वास्तव में बाबू का परिवार था।

अंधी माँ, बुजुर्ग बाप को अपने बेटे और बहन को भाई का इन्तजार है। बहन, बाबू को भैया कहती है जबकि बाबू मन ही मन उससे प्यार करता है। उस पार गाँव के जो बुरे आदमी लाभ के लालच में बाबू को उस परिवार का हिस्सा बनवा देते हैं, उन्हीं से एक दिन बाबू इस परिवार के मान-सम्मान और धन की रक्षा बेटा बनकर करता है और नायिका को एक भाई की तरह विदा करता है। यह फिल्म उन दृश्यों में बड़ी द्वन्द्वपूर्ण, भावनात्मक और मर्मस्पर्शी हो जाती है जब नायिका भर यह जान पाती है कि बाबू उसका भाई नहीं है। वह बाबू की भावना को समझती है लेकिन आत्मग्लानि और आत्मबोध के चरम में बाबू बहुत बड़ा त्याग करता है जिससे बुजुर्ग पिता और अंधी माँ अनभिज्ञ हैं।

देव आनंद और सुचित्रा सेन के एंगल पर यह फिल्म बड़ी विशिष्ट हो जाती है। बम्बई का बाबू देव आनंद की श्रेष्ठ अभिव्यक्ति का अहम प्रमाण है। राजिन्दर सिंह बेदी के संवाद मन को छू जाते हैं। मजरूह सुल्तानपुरी के गीत और एस.डी. बर्मन का संगीत भी यादगार है।

शुक्रवार, 22 अक्तूबर 2010

पुरस्कार, अपेक्षा और उपेक्षा

फिल्म पुरस्कारों को लेकर कलाकार के मन में व्याप्त धारणा के दो अलग-अलग आयाम हैं। कुछ कलाकार चाहे वो कितनी भी ऊँचाई पर क्यों न पहुँच जाएँ, अपने नवाजे जाने को लेकर भीतर अच्छा भाव रखते हैं। पुरस्कार का सम्मान करना हर गम्भीर कलाकार के स्वभाव में होता है। आखिरकार तमाम विवादों और संदिग्धताओं के बावजूद अनेक स्तर और संस्थाओं के पुरस्कारों की अपनी निष्पक्षता है। यही कारण है कि बहुत सारे चालू पुरस्कारों की भेड़चाल के बावजूद कहीं-कहीं पुरस्कारों और सम्मानों को भेदभाव छू तक नहीं गया है। किसी स्तर पर अपने आग्रह, पूर्वाग्रह और कई बार दुराग्रह भी होते होंगे मगर बावजूद इसके निष्पक्षता का घी पूरी तरह मिलावटी नहीं होता।

अभी एक राष्ट्रीय समाचार पत्र में नेशनल अवार्डों के सन्दर्भ में एक खबर प्रकाशित हुई कि फिल्म समारोह निदेशालय ने उन कलाकारों को नई दिल्ली में अपने अवार्ड समारोह में पधारने के लिए निमंत्रित किया है जिन्हें अलग-अलग श्रेणी में पुरस्कार मिले हैं। निदेशालय ने स्पष्ट किया है कि कलाकार अपना पुरस्कार लेने स्वयं ही आयें, अपने किसी प्रतिनिधि को न भेजें। समाचार में यह बात भी स्पष्ट की गयी थी कि जो कलाकार पुरस्कार लेने नहीं आयेंगे उनका पुरस्कार उनके घर के पते पर कोरियर से भेज दिया जायेगा। एक संस्थान को इस तरह की दृढ़ता दिखाने के लिए साधुवाद है कि उसने अपने अवार्डों की गरिमा को इस तरह बरकरार रखने की कोशिश की है। सिनेमा के राष्ट्रीय पुरस्कार बड़े मायने रखते हैं।

आज के दौर में भले ही उनकी सम्मान राशि बढ़ाए जाने के बावजूद बहुत आकर्षक न हो मगर वह पुरस्कार सृजन की श्रेष्ठता का सम्मान है जो एक गरिमामय समारोह में भारत के राष्ट्रपति द्वारा प्रदान किया जाता है। इस पुरस्कार का दायरा समूचे हिन्दुस्तान तक विस्तीर्ण है। हिन्दी सहित भारतीय भाषाओं का सिनेमा विभिन्न श्रेणियों में अपनी उत्कृष्टता के पुरस्कार का हकदार होता है। इस पुरस्कार के जरिए ही देश में सिनेमा के क्षेत्र में हो रहा सार्थक काम समाज और दर्शकों के सामने आता है वरना सुदूर राज्य में ऐसे श्रेष्ठ काम वहीं आये और गये होकर रह जाते हैं। इस नाते नेशनल अवार्ड एक बड़े श्रेय के भी हकदार हैं।

पा के ऑरो, महानायक अमिताभ बच्चन को इस बार श्रेष्ठअभिनय के लिए फिर राष्ट्रीय अवार्ड मिल रहा है। तीसरी बार वे श्रेष्ठ अभिनय के लिए सम्मानित हुए हैं। मध्यप्रदेश सरकार ने जब अमिताभ बच्चन को राष्ट्रीय किशोर कुमार सम्मान प्रदान किया था तब भी वे इस सम्मान को ग्रहण करने भोपाल अपने खर्च पर निजी विमान से शाम को आये थे और सम्मान ग्रहण कर रात में वापस चले गये थे। सम्मान की मर्यादा और आदर के फिक्रमन्द ऐसे कलाकार हमेशा अलग ही दिखायी देते हैं।

गुरुवार, 21 अक्तूबर 2010

उल्टे पैर भागता सिनेमा

इन दिनों एक्शन रीप्ले के प्रोमो टेलीविजन चैनलों पर दिखाये जा रहे हैं जिसमें अभिनेता अक्षय कुमार गरदन तक लम्बे बालों, चुस्त पैण्ट-बेलबॉटम के साथ चटख रंगी बुशर्ट में नजर आते हैं। ऐश्वर्य उनकी हीरोइन हैं, वे भी चालीस साल पुराने सिनेमा की छबि के आसपास तैयार दीखती हैं। सत्तर के दशक के सिनेमा की याद दिलाने वाली यह एक और फिल्म है जिसे प्रचारित करते हुए, बड़े सोफेस्टिकेटेड वे में कहा जाता है, ये सेवंटीज़ की फिल्मों की याद दिलाने वाली फिल्म है। क्या दिलचस्प अन्दाज है, फिल्म कॉमेडी है, चालीस साल पुराने वातावरण को याद किया गया है, आज की आधुनिकता को धकेल कर चालीस साल पहले के बदलते जमाने को दिखाया गया है, गोया अब यह असुरक्षित और अन्देशे से भरे सिनेमा के नियति सी हो गयी है।

सेवंटीज़ का सिनेमा, याद दिलाया जा रहा है, आपका, हम सबका मुँह मोडक़र पीछे की तरफ घुमाया जा रहा है। सबसे पहला इस तरह का उपक्रम फराह खान ने किया था ओम शान्ति ओम बनाकर। शाहरुख खान की फिल्म थी। पैसा भरपूर खर्चने की पूरी आजादी थी। किंग खान का वक्त उससे पहले जरा कठिन सा चल रहा था और फराह को इस कठिन समय में समर्थन देकर वे अपने लिए भी आने वाले समय को लेकर उम्मीद से हो गये थे। फिल्म चल गयी और सत्तर के दशक का शिगूफा कामयाब हो गया। बीच में ऐसा प्रयोग किसी और ने नहीं करना चाहा क्योंकि यह फार्मूला सदा काम आयेगा, इसका विश्वास किसी को नहीं था। अभी दो महीने के भीतर दो ऐसी फिल्में इसी सेवंटीज, पैटर्न की एकदम से आयीं और सफल हो गयीं जिनमें से एक तो सलमान की फिल्म दबंग थी और दूसरी अजय देवगन की फिल्म वन्स अपॉन टाइम एट मुम्बई।

दबंग की सफलता ने सचमुच अचम्भा खड़ा किया, खासकर बॉक्स ऑफिस पर बेपनाम कलेक्शन के साथ। दबंग के साथ बात यह थी कि वह मँहगी बनी भी थी, सो पूरब की कहावत की तरह जितना गुड़ डाला उतनी ही वो मिठाई भी। वन्स अपॉन टाइम एट मुम्बई की सफलता में आश्चर्य यह था कि वह बहुप्रचारित नहीं थी और उन एकता कपूर की फिल्म थी जिनके सितारे सीरियल से लेकर सिनेमा तक बड़े गर्दिश में चल रहे हैं। उनके लिए इस फिल्म की सफलता का बड़ा अर्थ निकला। अब हम चौथी सेवंटीज़ पैटर्न की फिल्म एक्शन रीप्ले कुछ दिन में देखेंगे जिनमें हिप्पीनुमा हीरो है। विपुल शाह की यह फिल्म है, वे भी खासे खर्चीले हैं और अक्षय उनके लिए लकी भी।

अगर यह भी चल गयी तो फिर जल्दी ही भेड़चाल मचने में देर न लगे शायद। जहाँ तक हम दर्शकों का सवाल है, हम सिनेमा को गुजिश्ता वक्त की तरफ उल्टे पैर भागता देख कर अचरज ही कर सकते हैं, और क्या?

बुधवार, 20 अक्तूबर 2010

बिजली दौड़ती थी शम्मी कपूर की देह में

शम्मी कपूर 21 अक्टूबर को अस्सीवें वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं। भारतीय सिनेमा का एक अहम हिस्सा, हिन्दी सिनेमा है और आज के समय में जिन पितृ-पुरुषों की यशस्वी उपस्थिति हमें गौरवशाली इतिहास का स्मरण कराती है, उनमें दिलीप कुमार, प्राण, देव आनंद के साथ शम्मी कपूर भी प्रमुखता से आते हैं। देव आनंद अपनी देखभाल और चिन्ता किए जवाँ बने रहते हैं मगर शेष कलाकार उम्र के साथ-साथ स्वास्थ्य की विकट कठिनाइयों से अपने भरपूर जीवट से जूझ रहे हैं। शम्मी कपूर भी उनमें से एक हैं जिन्हें शायद रोज ही डायलिसिस कराना होता है मगर उनके हौसले वही के वही हैं। वे सार्वजनिक मौकों और उत्सवों में जाते हैं, सबसे मिलते-जुलते हैं, इन्टरनेट के तो खैर वे गहरे आसक्त और सर्चिंग-सर्फिंग के मास्टर हैं ही, साथ ही अपने कुटुम्ब में आज सबसे बड़े होने की विरासत को भी गरिमा के साथ सहेजे हुए हैं।

शम्मी कपूर की उपस्थिति और उनकी फिल्मों के कुछ नाम याद कर लेना बड़ा दिलचस्प लगता है। खासकर आज इसलिए भी उनकी चर्चा करना महत्वपूर्ण लगता है कि स्वास्थ्य की गम्भीर कठिनाइयों के बावजूद वे अपने पोते रणबीर कपूर की एक फिल्म रॉकस्टार में काम करने के लिए तैयार हो गये और उन्होंने शूटिंग भी की। निर्देशक इम्तियाज अली और पोते रणबीर ने उनको यह प्रस्ताव किया। इसकी खूब चर्चा है।

शम्मी कपूर का फिल्मों में आना, अपने आपमें एक विरासत का अनुपालन कितना रहा होगा, कह नहीं सकते, मगर चुनौतीपूर्ण भी कम नहीं था। वे ऐसे वक्त में अपना काम शुरू कर रहे थे जब उनके बड़े भाई राजकपूर ने शुरूआत कर दी थी और पिता पृथ्वीराज कपूर ने अपना वर्चस्व बना रखा था। शम्मी कपूर के लिए चुनौती अपने अन्दाज को सिरजना, उससे दर्शकों को सहमत करना और सफल होना आदि कई आयामों में थी लेकिन उन्होंने अपना एक दर्शक वर्ग बनाया। तुमसा नहीं देखा, दिल दे के देखो, जंगली, प्रोफेसर, चाइना टाउन, राजकुमार, तीसरी मंजिल, एन इवनिंग इन पेरिस ब्रम्हचारी आदि बहुत सी फिल्में स्मरण मात्र से रील की तरह गुजर जाती हैं हमारे जेहन में।

वे आशा पारेख, शर्मिला टैगोर, अमिता, राजश्री, सायरा बानो के नायक रहे। पाश्र्व गायन में उनके लिए मोहम्मद रफी ने खास तरह का अन्दाज विकसित किया। प्राण उनके दोस्त, उनके साथ कई फिल्मों में खलनायक रहे। खानपान में शाही और खासे रुचिवान होना ही शम्मी कपूर के पहाड़ से हो जाने का कारण बना मगर उत्तरार्ध में चरित्र अभिनेता के रूप में भी वे खूब सक्रिय रहे।

जंगली, शम्मी कपूर की एक ऐसी अविस्मरणीय फिल्म है, जो उनके लिए ट्रेंड सेटर ही नहीं बल्कि पक्की पहचान देने वाली मानी जायेगी। शम्मी कपूर पर अपने को कुछ देर एकाग्र करके देखिए, आप पायेंगे, कि हमारे बीच एक ऐसा अकेला और अनोखा महानायक है, जिसकी देह में सतत् स्पार्क होता रहता है।

मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

एक्शन और आतिशबाजियों का साम्य

पटाखे सैद्धांतिक रूप से अपने रंग और तरीके से छोड़े-छुटाए जाते हैं। जिस तरह का अवसर होता है, वातावरण भी अपने आपको उसी के अनुकूल ढाल लिया करता है। मनोरंजन के तमाम साधन उसी के अनुरूप अपनी दिशा तय करते हैं। इसकी तैयारियाँ हालाँकि बहुत पहले से की जाती हैं मगर सही वक्त पर सही परिवेश रचने के अपने लाभ और लोकप्रियताएँ भी हैं। यों तो हमारे सिनेमा में साल भर आतिशबाजियाँ चला करती हैं। बदमाशों और उनके अड्डे पर ही गोला-बारूद और माल-असबाब नहीं होता, हीरो भी उनसे निबटने के लिए इस तरह की तैयारियाँ करके रखता है। आखिर उसे जीतना है और दर्शकों की तालियाँ भी अपने सरवाइव के लिए उसको चाहिए। ऐसे में ढाई घण्टे की फिल्म पटाखों और धमाकों का एक खास पर्याय बनकर सामने आती है।

कुछ समय पहले ही प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में बम, पिस्तौल, धमाकों की इफरात हमने देखी थी। यह फिल्म वास्तव में एक समानान्तर आतिशबाजी ही थी। हर किरदार आग में जल रहा था और एक-दूसरे पर पटाखा बनकर फट पडऩे के लिए अमादा था। इस फिल्म ने अच्छा-खासा व्यवसाय करके उस बीच के अन्तर को पाटने का काम किया जहाँ लम्बे समय से कोई एक्शन फिल्म ढंग की नहीं आयी थी और न ही सफल हो पायी थी। इधर दशहरा, दीपावली की बेला पर एक बार फिर एक्शन फिल्मों की आमद हो चली है। प्रियदर्शन की आक्रोश और मणिशंकर की नॉक आउट ताजा उदाहरण हैं। इनमें आक्रोश को ज्यादा पसन्द किया गया है और नॉक आउट को जरा कम मगर धाँय-धाँय वहाँ की भी दर्शकों को भा रही है। मौसम के अनुकूल बनने वाले दर्शकों के मनोविज्ञान को समझने वाले निर्देशक-निर्माता खूब मुनाफे में रहते हैं।

दीपावली के मौसम में बोतल में रॉकेट लगाकर आसमान तक उड़ाने वाले दर्शक को इसी सीमित समय में धूम-धड़ाका खूब सुहाता है। पटाखों की आवाजें कमजोर मन के लोगों का भले ही दिल दहला दें मगर आँख मिचकाकर, दिल थामकर भी वो धमाके का आनंद लेता है। साल पूरा होने में दो महीने से कुछ ज्यादा समय शेष है, इधर इस बचे समय में तीन-चार फूहड़ कॉमेडी, कुछेक एक्शन फिल्में और दो-तीन अच्छी फिल्में दर्शकों तक पहुँचेंगी, यदि घोषित तिथियों में उनका प्रदर्शित होना सम्भव हो सके। आमिर खान की धोबी घाट, टिगमांशु धूलिया की पान सिंह तोमर, फराह खान की तीस मार खाँ और संजय लीला भंसाली की गुजारिश से अच्छी उम्मीदें हैं।

सिनेमा के मान से साल के उत्तरार्ध को हम जरा अच्छा मान सकते हैं। इस दौर में कुछ अच्छी फिल्मेें आयी हैं और आयेंगी। आज के दौर में किसी भी निर्देशक से शोले जैसी यादगार आतिशबाजी की अपेक्षा करना तो व्यर्थ है, भेड़चाल की महाभीड़ में दर्शकों, आपकी मेहनत की कमाई के बदले जो ढंग का मिल जाये, वही बहुत मानिए।

सोमवार, 18 अक्तूबर 2010

किशोर-स्मृति : चिरस्थायित्व के प्रश्र

स्वर्गीय किशोर कुमार की पुण्यतिथि के मौके पर इस बार खण्डवा में वाकई कुछ महत्वपूर्ण एवं सराहनीय उपक्रम दिखायी दिए। बहुत सा ऐसा काम जिसे चींटी चाल से चलते एक दशक हो गया था, उसमें से बहुत सा परिणाम रूप में सामने आया दीखा। अब किशोर कुमार की समाधि और पूरा परिसर एक अच्छे, सुरम्य वातावरण में तब्दील हो गया है। उससे पहले किशोर स्मारक बन गया है जहाँ एक बड़ा आँगन है, पानी के झरने-फव्वारे हैं, केन्द्र में किशोर कुमार की बहुत परफेक्ट तो नहीं पर एक प्रतिमा स्थापित हो गयी है। ठीक इसके नीचे एक मिनी थिएटर बना दिया गया है जहाँ बैठने के लिए सीढिय़ाँ बनी हुई हैं। पच्चीस-तीस लोग एक साथ बैठ कर कोई फिल्म देख सकते हैं।

साल में दो बार 4 अगस्त और 13 अक्टूबर को यहाँ भावुक वातावरण रहता है। खण्डवा के किशोर प्रेमी यहाँ पूरे दिन आते-जाते-रहते हैं। गाने हुआ करते हैं और श्रद्धांजलि दी जाती है। यह खण्डवा शहर में प्रवेश करने से पहले दायीं ओर उस स्थान का परिचय है जहाँ अब से तेरह वर्ष पहले किशोर कुमार का अन्तिम संस्कार किया गया था। ठीक इसके विपरीत खण्डवा शहर के भीतर रेल्वे स्टेशन के पास उनका पैतृक मकान है, जहाँ उनका जन्म हुआ था। यह मकान तमाम दुकानों से ऐसा घिरा हुआ है कि सिवा दरवाजे के और कुछ नजर नहीं आता। पुराने लोहे के दरवाजे में गौरी कुंज लिखा हुआ है जो कि किशोर की माता गौरा देवी और पिता कुंजी लाल के नाम पर शीर्षित है। इसी नाम का एक सभागार नगर निगम ने अच्छा सा बनाकर पूरा कर दिया है, बस जरा काम बाकी है।

13 अक्टूबर को जब किशोर कुमार सम्मान अलंकरण समारोह में यश चोपड़ा को सम्मानित करने के बाद संस्कृति मंत्री इस बात पर दुख व्यक्त कर रहे थे, कि लाख प्रयास के बावजूद किशोर कुमार के परिवार का कोई सदस्य इस बात में रुचि नहीं लेता कि कैसे किशोर कुमार की स्मृतियों को अक्षुण्ण बनाया जाए तथा यह भी कि यदि पुश्तैनी मकान परिवार के जिस किसी भी व्यक्ति के मालिकाना हक में हो, वह सरकार को दे दे तो यह काम बड़ी आसानी से सरकार कर सकती है। संस्कृति मंत्री की इस लगन और सकारात्मक उत्साह का एक बड़ा लाभ खण्डवा को मिल सकता है।

कुछ लोगों की राय थी, कि यदि पुश्तैनी घर को लेकर भी परिवार यह उदारता नहीं दिखाता तो एक अलग ट्रस्ट बनाकर ऐसे लोगों को सरकार एक बड़ा संग्रहालय पृथक से बनाकर सौंप दे, जो गम्भीर, सार्थक और सुरुचिवान रचनात्मक अभिरुचि के बड़े, बुजुर्ग और शहर के सम्मानित हों, जिन्हें श्रेय लेने, नाम, चेहरे के साथ प्रचारित होने का शौक-शगल न हो, तो एक गम्भीर काम फलीभूत हो सकता है। मगर इस तरह की पहल हो तो बड़ी सावधानी और चिन्ता की भी जरूरत रहेगी। संग्रहालय में किशोर कुमार की अभिनीत ही नहीं वे भी फिल्में जिनके गाने उन्होंने गाये हों, आडियो-विजुअल संग्रह-सन्दर्भ आदि सब इक_ा करना अपरिहार्य लेकिन दुरूह काम होगा।

सच बताना

ख़ुशी तुम्हें पता तो होगा
दर्द का नेपथ्य
तुम जो लड़ा करती हो
बड़े भीतर उससे
पता है उस समय
हँस नहीं रही होती हो
बिल्कुल

स्याह परदे के परे
ठिठककर रह जाती हो कभी-कभी
लड़ते-लड़ते ठहर जाती हो
अपने आयुध भूलकर
पता है तुम्हें
तुम्हारी दिव्यता
दर्द को अपने नेपथ्य में
निढाल कर देती है

उस क्षण क्या तुम्हें
बाहर लाती है कविता कोई
बड़ी मनुहार से
सच बताना
तभी तब्दील होती हो खुशी
एक चेहरे में....

रविवार, 17 अक्तूबर 2010

एनीमेशन फिल्मों में सम्भावनाएँ

इन दिनों एक एनीमेशन फिल्म लव-कुश का प्रचार काफी आकृष्ट कर रहा है। बताया जा रहा है कि हिन्दुस्तान में बनने वाली एनीमेशन फिल्मों में यह अब तक की सबसे मँहगी फिल्म है। प्रोमो देखकर अन्दाजा लगाया जा सकता है कि इसका प्रस्तुतिकरण कितना भव्य और प्रभावशाली है। स्वाभाविक है, रामचरितमानस इस फिल्म का मुख्य आधार है। इस फिल्म को बड़ी मेहनत से बनाया गया है। एनीमेशन फिल्मों का एक-एक दृश्य बड़ी मुश्किल से तैयार होता है और उसमें बड़ी कल्पनाशीलता की जरूरत होती है। यही कारण है कि एक-एक एनीमेशन फिल्म बनने में वर्षों का वक्त लेती है।

चरित्रों को उतना सटीक बनाना, उनको यथार्थ के अनुकूल प्रस्तुत करना, उनके हावभाव, चेष्टाएँ और खासकर जिस पहचान और मन:स्थिति के चरित्र हैं, उसी के अनुकूल उनकी प्रस्तुति से प्रभाव रचना आसान काम नहीं होता। एनीमेशन फिल्मों में रंगों की भी एक बड़ी भूमिका होती है। एनीमेशन फिल्मों की दुनिया इतनी सुरुचिपूर्ण और दिलचस्प है कि इसके काम में डूब जाना होता है। हमारे देश के एक बड़े फिल्मकार गोविन्द निहलानी पिछले चार साल से एक एनीमेशन फिल्म कैमलू पर काम कर रहे हैं जो एक ऊँट की रोचक कथा है। वो कहते हैं इसे बनाते हुए एक अलग तरह का आनंद और एकाग्रता का अनुभव हो रहा है। लव-कुश फिल्म भी एक बड़ी मेहनत का परिणाम है। एनीमेशन फिल्मों को हमारे बड़े सितारे भी खुशी-खुशी अपनी आवाज देने का काम करते हैं और फिर इन फिल्मों के किरदार उन आवाजों से अलग पहचाने जाते हैं।

लव-कुश फिल्म में भी राम के लिए मनोज वाजपेयी ने अपनी आवाज दी है वहीं सीता के लिए जूही चावला ने। हनुमान के लिए राजेश विवेक ने स्वर दिया है। एनीमेशन फिल्म रुचि के साथ देखो तो जोडऩे में कामयाब होती है मगर दुर्भाग्य यह है कि बड़ी-से-बड़ी, मँहगी और महत्वपूर्ण आख्यानों पर बनी एनीमेशन फिल्में भी हमारे यहाँ सफल नहीं हो पातीं। एनीमेशन फिल्मों को जिस तरह का समर्थन अमेरिका और दूसरे देशों में है वैसा हमारे यहाँ नहीं है। ज्यादातर एनीमेशन फिल्में शिक्षाप्रद होती हैं, उन्हें सरकार करमुक्त क्यों नहीं करती?

सरकार चाहे तो एनीमेशन फिल्मों के निर्माण को प्रोत्साहित कर सकती है, सबल बना सकती है। इसे बाल पीढ़ी के पक्ष में एक आन्दोलन की तरह देखा जाना चाहिए। सरकार एनीमेशन फिल्में बच्चों को निशुल्क दिखवाए, ताकि इन फिल्मों के माध्यम से बच्चे अपनी संस्कृति, परम्परा, इतिहास और अस्मिता को जान सकें। यह अपसंस्कृति के सेटेलाइट से बच्चों में होने वाली गम्भीर विकृति और रोगों के विरुद्ध कारगर दवा का काम कर सकती है। साल में अधिकतम चार एनीमेशन फिल्में, स्कूली बच्चों को मिलने वाले दोपहर के मुफ्त खराब भोजन से ज्यादा फायदेमन्द हो सकती हैं।

शनिवार, 16 अक्तूबर 2010

सीधे रस्ते की एक टेढ़ी चाल

इससे पहले कि पिछले दो-तीन साल से फूहड़ टाइप की गोलमालनामा फिल्मों की श्रृंखला एक अच्छी गोलमाल को हमारी स्मृतियों से बाहर ही न कर दे, ऐसा महसूस हुआ कि इस रविवार प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी की यादगार फिल्म गोलमाल को याद कर ही लिया जाये। गोलमाल का निर्माण हृषिकेश मुखर्जी ने 1979 में किया था। उस समय वे दो स्तरों पर सफल, पसन्दीदा और प्रभावशाली फिल्में बना रहे थे जिनमें से एक में अमिताभ बच्चन, राखी, धर्मेन्द्र, शर्मिला टैगोर आदि हुआ करते थे और दूसरी तरफ अपेक्षाकृत आये-आये से अमोल पालेकर, बिन्दिया गोस्वामी, राकेश रोशन जैसे कलाकार। वे अपने साथ उत्पल दत्त जैसे विलक्षण हास्य अभिनेता को बड़ा अपरिहार्य मानते थे। उस समय को याद करके सचमुच गुदगुदी सी होने लगती है।

हृषिकेश मुखर्जी की गोलमाल, सचमुच एक दिलचस्प फिल्म है जिसे निर्देशन की फिल्म तो जरूर ही कहा जायेगा, साथ ही परिस्थितिजन्य हास्य की भी वो एक अलग तरह की मिसाल थी। यह फिल्म एक बेरोजगार चार्टर्ड एकाउन्टेन्ट के साथ एक प्रौढ़ उम्र भवानी शंकर के बीच रोचक घटनाक्रमों के साथ घटित होती है। रामप्रसाद बेरोजगार है और एक अच्छी नौकरी की तलाश में है। वह क्रिकेट और हॉकी मैच देखने का शौकीन है। एक पारिवारिक हितैषी डेविड उसकी मदद करना चाहते हैं। भवानी शंकर से उनकी मित्रता है। भवानी शंकर की अपनी शर्तें और सनकें हैं। मूँछकटे आदमियों से नफरत है। हिन्दी बेहतर न जानने और न बोल पाने वालों से चिढ़ है। ऐसे में किसी तरह रामप्रसाद, भवानी शंकर की रुचियाँ जानकर नौकरी पाने में सफल होता है।

रामप्रसाद की नौकरी और जिन्दगी में चैन की शुरूआत होती भर है, कि वह एक नयी मुसीबत में फँस जाता है। वह जिस बनावटी चेहरे, भाषा और कायिक उपस्थिति के साथ भवानी शंकर से परिचित होता है, उससे उलट उसको भवानी शंकर तुरन्त देख लेते हैं तब रामप्रसाद, अपने एक भाई लक्ष्मण प्रसाद का खुलासा करता है, जो वह खुद ही है। अब उसे दो किरदार जीने होते हैं। स्मार्ट लक्ष्मण प्रसाद को उर्मिला भी पसन्द करती है। लेकिन गलत काम, झूठ आदि को एक दिन पकड़ा ही जाना है, स्थितियाँ खुलकर हँसाने वाली हैं, आखिरकार सब भेद खुलता है। अन्त में हम भवानी शंकर को भी सफाचट मूँछों में देखकर अपने घर जाते हैं।

सहज मानवीय रुचियों-अरुचियों के धरातल पर यह फिल्म एक अलग ही मनोरंजन पेश करती है। उत्पल दत्त और अमोल पालेकर की दिलचस्प केमेस्ट्री गोलमाल की जान है। रोचक घटनाक्रम और दिलचस्प संवाद के साथ एक व्यक्ति के सामने जतनपूर्वक खड़े किए गये भ्रम बेहद हँसाते हैं। उत्पल दत्त, अमोल पालेकर द्वारा बोली जाने वाली शुद्ध हिन्दी के फेर में जिस तरह उलझकर अभिव्यक्त होते हैं अनूठा है। फिल्म की सशक्त पटकथा सचिन भौमिक ने लिखी थी और संवाद थे डॉ. राही मासूम रजा के।

राहुल देव बर्मन फिल्म के संगीतकार थे, जिन्होंने फिल्म का टाइटिल गीत, गोलमाल है, भई सब गोलमाल है, गाया था। एक और अच्छा गीत किशोर कुमार ने गाया था, आने वाला पल जाने वाला है।

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

अजय देवगन की अपरिहार्यता

साल के उत्तरार्ध में अजय देवगन को कुछ अच्छे अवसर मिल रहे हैं। वे एक तरह से कुछ फिल्मों की अपरिहार्यता में शामिल हुए हैं। वे ऐसे सितारे हैं जो घोषित रूप से कम से कम दो निर्देशकों के लिए स्थायी भाव का काम करते हैं। प्रकाश झा और राजकुमार सन्तोषी को अजय प्रिय हैं। अजय के साथ दोनों ही फिल्मकारों ने सफल-विफल दोनों तरह की फिल्में बनायी हैं मगर सान्निध्य बना रहा है। अभी सन्तोषी ने पावर घोषित की है तो उसमें अजय, अमिताभ, अनिल और संजय के बावजूद हैं। प्रकाश झा आरक्षण बनाने जा रहे हैं, आरम्भिक रूप से शायद अजय का नाम नहीं है, अमिताभ और मनोज वाजपेयी के लिए झा ने मीडिया को सूचित किया है, हो सकता है कि अजय की भूमिका भी उसमें हो।

अजय देवगन की आक्रोश इस शुक्रवार रिलीज हो ही गयी। प्रियदर्शन के साथ उनका काम करना महत्वपूर्ण है। प्रियदर्शन ने एक गम्भीर फिल्म बनायी है और उन्हें अपनी फिल्म के कथ्य-कल्पना की अराजक जमीन पर अजय देवगन के लिए एक सशक्त रोल नजर आया सो वे भी रोल देखकर सहमत हो गये। अजय गोलमाल के तीसरे भाग में भी हैं जिसमें रोहित शेट्टी ने दरजन भर सितारे ले लिए हैं। आजकल बहुत से फिल्मकार, खासकर युवा, बिना कहानी, जिसे बिना सिर-पैर भी कहा जाता है, फिल्में बनाने में लग जाते हैं। अतिरिक्त उत्साह वाले निर्देशक तो सेट पर ही सीन लिख-लिखकर कलाकार को मुहैया कराते हैं। लेखक की भूमिका अब कोई रह नहीं गयी है, ऐसे में एक सितारा, दो सितारा या बहुल सितारा फिल्म का कोई विशेष मतलब नहीं है। गोलमाल के तीसरे भाग में अजय ही पहले बड़े अभिनेता हैं, बाकी सब उनके सहारे या भरोसे निरीह से दिखायी देते हैं।

मिथुन चक्रवर्ती भी इस फिल्म में एक भूमिका निबाह रहे हैं मगर इस वापसी में मिथुन की स्थिति बड़ी कमजोर दिखायी देती है। वे किसी तरह इस समय में अपने पैर सुरक्षित स्थान पर रखकर कुछ समय व्यतीत करना चाहते हैं। होटल और ऊटी से फिलहाल ऊबे मिथुन की यह ऐसी आउटिंग हैं जिसको नोटिस न भी लिया जाए तो कोई फर्क नहीं पड़ेगा। इस फिल्म में अजय सच मायनों में ऐसे जहाज के खेवनहार हैं जिसमें बहुत सारे ऐसे लोग बैठे हैं जो तैरना नहीं जानते, अजय के सिवा। फिल्म का चलना यहाँ जहाज का पार होना है और देखिए अजय की पीठ पर बैठकर इतने सारे विभिन्न तरह के कुदरती और नैसर्गिक मानवीय कमजोरियों, जैसा गूँगापन, हकलाहट आदि को मखौल की तरह भुनाकर फिल्म को कितना लाभ दे पाने में कामयाब होते हैं?

गुरुवार, 14 अक्तूबर 2010

सार्थक बहस की सम्भावना और आक्रोश

प्रदर्शन के पहले प्रियदर्शन ने अपनी नवीनतम फिल्म आक्रोश का खासा माहौल बना दिया है। उसके प्रोमो ध्यान आकृष्ट करते हैं। प्रियदर्शन बड़े लम्बे समय से कॉमेडी मेें रम गये थे। अच्छी-बुरी, सफल-असफल कितनी ही कॉमेडी फिल्में बना डालीं उन्होंने। एक दशक पहले हेराफेरी बनाकर उनको एकाएक हास्य फिल्मों को बनाने में रस आने लगा था। इस अवधि में दस-बारह फिल्में उन्होंने इस तरह की बनाकर प्रस्तुत कीं। कुछेक इनमें से अच्छी रहीं और बहुतेरी विफल भी।

कुछ कलाकारों को लगातार रिपीट करने के मोह के कारण भी उनकी कई फिल्में सफल नहीं हो पायीं, हालाँकि उनकी फिल्मों में कई जगह क्राफ्ट और एक्स्ट्रा कलाकारों से बहुत सी संवेदनाएँ और जीवन-दर्शन के फलसफे निकलकर आते थे मगर हमारे दर्शक में अब इतनी एकाग्रता या हार्दिक उदारता नहीं बची कि वो ऐसे कुछेक हिस्सों या दृश्यों के लिए फिल्म देखे।

कुल मिलाकर यह भी कि कई तरह की खामियों के बावजूद प्रियदर्शन हमारे समय के एक उल्लेखनीय फिल्मकार हैं। कांचीवरम से राष्ट्रीय पुरस्कार लेकर जरूर उन्होंने आत्ममंथन किया, यद्यपि उसके बाद फिर दो-एक बुरी फिल्में बनायीं लेकिन मुस्कुराहट, विरासत और गर्दिश बनाने वाले इस निर्देशक ने आक्रोश एक अच्छी फिल्म बनायी होगी, ऐसा लगता है। इस फिल्म के माध्यम से उन्होंने परेश रावल की बुद्धू छबि को भी साफ करके पेश किया है गोया कि वे आक्रोश में खलनायक हैं। प्रोमो में उनका एक डायलॉग, हमारे देश की पुलिस तक तक एक्शन नहीं लेती जब तक कम्पलेन्ट न लिखायी जाये, दिन भर में बहुत बार रिपीट होता है। प्रोमो, जाहिर है बार-बार आता है, सो यह डायलॉग लगभग कौंधने सा लगा है।

पता किया जाना चाहिए कि इस डायलॉग को सुनकर पुलिस के बड़े अधिकारी क्या प्रतिक्रिया व्यक्त करते हैं? व्यक्तिश: वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के सान्निध्य बहुत आत्मीय रहे हैं और परिवार में भी गर्व प्रदान करने वाले पुलिस अधिकारी के बड़े भाई होने के आत्मिक और मानसिक सुख हैं, मन करता है, कि ऐसे डायलॉग के बहाने हिन्दी सिनेमा में पुलिस को केन्द्र में रखकर बनने वाली फिल्मों के बारे में कुछ बातचीत की जाए मगर कई बार सार्थक बहस की स्थितियाँ आसान नहीं होतीं। फिर भी भारतीय सिनेमा में गोविन्द निहलानी जैसे फिल्मकार की रेंज असाधारण है जिन्होंने आक्रोश, अर्धसत्य, द्रोहकाल और देव जैसी फिल्में पुलिस को केन्द्र में रखकर बनायीं। ये सभी अपने समय की सशक्त फिल्में हैं और आज भी इनका पुनरावलोकन ऊष्मा देने का काम करता है।

खुद प्रियदर्शन की फिल्म गर्दिश भी इसी तरह की है। आक्रोश में प्रियदर्शन के ट्रीटमेंट को देखना महत्वपूर्ण होगा, आखिर वे साधारणतया खारिज कर दिए जाने वाले निर्देशन नहीं हैं मगर यह फिल्म एक बहस शुरू करेगी, इसकी पूरी उम्मीद लगती है।

ग्राहक भी जागे और कलाकार भी

ग्राहकों को जागरुक बनाने वाले कुछ विज्ञापन हाल ही में विभिन्न चैनलों में दिखायी दिए। खासतौर पर इशारा कुछ ऐसे विज्ञापनों की तरफ था, जो काले से कोरा हो जाने वाली क्रीम या दवा के प्रचार में दिखाए जाते हैं। उन विज्ञापनों के लिए भी था जो कद बढ़ाने की बात कहते हैं, चरबी घटाने की बात कहते हैं, तमाम बीमारियों से बड़ी जल्दी निजात दिलाने की बात कहते हैं। जागो ग्राहक जागो, श्रृंखला के ये विज्ञापन दिलचस्प हैं। ऐसा नहीं है कि ग्राहक सो रहा है या नीम बेहोशी में है लेकिन इस तरह की जागरुकता वाले विज्ञापन उस भर्रेशाही की तरफ इशारा जरूर करते हैं जो चैनलों में विज्ञापन व्यावसाय के नाम पर जारी है और जिस रोकने वाला कोई नहीं है।

कुछ चैनल ऐसे हैं जिसमें ये विज्ञापन अन्तहीन अवधि में चलते ही रहते हैं। विदेशी विज्ञापनों को हिन्दी डब करने वाले विज्ञापन भी ऐसी ही श्रेणी का हिस्सा हैं। उनके पास जैसे हर मर्ज का रामबाण इलाज है। शिल्पा शेट्टी एक शेम्पू का विज्ञापन आजकल बड़ी चतुर किस्म की साफगोई से करने लगी हैं। एक समय था जब अमिताभ बच्चन ने विज्ञापन करना शुरू नहीं किए थे और एक प्रायवेट बैंक ने किसी तरफ उनको अपने लिए सहमत कर लिया था, तब उनकी शर्त यह थी कि वो कोई वैचारिक शाश्वत बात कहेंगे पर बैंक के पक्ष में एक शब्द भी नहीं कहेंगे। बैंक उस पर भी तैयार हो गया था और विज्ञापन उन्होंने किया था। बाद में अमिताभ बच्चन विज्ञापनों की दुनिया के भी महानायक बन गये। फिर तो उन्होंने एक तेल बनाने वाली कम्पनी के विज्ञापन में यह तक कह दिया कि पच्चीस-तीस सालों में इतनी मेहनत-मशक्कत करते हुए सिर दर्द होने पर उन्होंने उसी तेल से हर वक्त निजात पायी।

रुद्राक्ष, ताबीज, रक्षा यंत्र आदि तमाम स्वास्थ्य, सम्पत्ति, शान्ति और वैभव लाने वाले विज्ञापनों का भी खूब बाजार गर्म है। इन दिनों उन सहित दो-तीन बड़े सितारों को हम बड़े साधारण किस्म के मोबाइल फोन का विज्ञापन करते देख रहे हैं जो कि बहुत ही अजीब सा लगता है। इस समय बड़ी कम्पनियों के बरक्स ऐसी लोकल कम्पनियाँ खूब आ गयी हैं जिनके मोबाइल आज के कई लोकप्रिय सितारे अपने हाथ में पकड़े दिखायी देते हैं। सचमुच ऐसा लगता है कि अब जिस तरह की आम इन्सानी मूच्र्छा का लाभ लिए जाने की भारी कवायद चल रही है, उसमें ग्राहकों जगाने के लिए अलग से विज्ञापन अपरिहार्य हो गये हैं।

हाँ, पिछले कुछ समय से उस विज्ञापन को लेकर भी प्रबुद्धों में बड़ी आपत्ति व्यक्त की गयी है जिसमें पचास रुपए मात्र में गर्भ की जाँच हो जाने का प्रचार है और वह भी एक किशोरी के चेहरे के साथ। नासमझ उम्र में स्वच्छन्दता का अस्त्र देकर आखिर किस रास्ते पर बेपरवाह कदम बढ़ाने का दुस्साहस प्रदान कर रहा है ये विज्ञापन?

मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

दूर का राही किशोर कुमार

13 अक्टूबर स्वर्गीय किशोर कुमार की पुण्यतिथि है। आज के दिन उनका जन्म स्थान, मध्यप्रदेश का खण्डवा शहर बहुत भावुक होता है क्योंकि इसी शाम देश-दुनिया के साथ-साथ शहर को भी उनके नहीं रहने की सूचना तकरीबन चौबीस साल पहले मिली थी। देश-दुनिया के साथ-साथ शहर को भी तभी यह भी मालूम हुआ था कि अगले दिन पार्थिव शरीर खण्डवा लाया जा रहा है, किशोर कुमार की अन्तिम इच्छा को अपरिहार्य आदेश मानकर उनके परिजनों द्वारा। खण्डवा में ही अन्तिम संस्कार के लिए। यह उनकी वसीयत थी।

खण्डवा में ही जन्मे और खण्डवा की ही जमीन पर मिट्टी बनकर मिल गये। किशोर कुमार का निधन जिस दिन हुआ, वही दिन उनके बड़े भाई अशोक कुमार के जन्म का भी था। अपने छोटे भाई के छोडक़र चले जाने से व्यथित, बीमार और बुजुर्ग अशोक कुमार जार-जार रोए। जब तक अशोक कुमार जिए, उनके लिए 13 अक्टूबर जन्मदिन के बजाय अवसाद का दिन बना रहा।

यह कितना कठिन और विरोधाभासी एहसास है कि कुंजीलाल गांगुली के तीनों बेटों की सार्वजनिक छबि, जाहिर है, वे सिनेमा की दुनिया के चिर-परिचित चेहरे हो गये थे, बहुत ही हँसमुख, मस्त और जिन्दगी को आसमान तक विस्तीर्ण ऊँचाइयों तक ले जाकर जमकर बिखेर देने वाली ही बनी रही। परदे पर सभी प्राय-प्राय: कॉमेडी में खूब असरदार ढंग से हम सबके दिमाग में घुस-घुसू जाया करते थे, ऐसे में हमें कभी उनकी संवेदनशीलता की पहचान करने के अवसर नहीं मिले।

उनकी फिल्में देखने वाले तमाम दर्शक तीनों को ही ऊपरी तौर पर ही जानते रहे। अशोक कुमार बेहद सफल और प्रभावशाली थे, किशोर कुमार अपने भाई की छत्रछाया से जल्दी ही अलग होकर आत्मनिर्भर हो गये थे, एक सफल गायक के रूप में। अनूप कुमार कमतर और कमजोर थे मगर उनमें हीन भावना बिल्कुल नहीं थी। वे अपने किरदार के साथ, भले ही वो कितना छोटा ही क्यों न हो, बड़े आश्वस्त होकर सहभागी हुआ करते थे।

किशोर कुमार अपनी आत्मा और चपलता के साथ भीतर से लगभग स्पार्क हुआ करते थे, लिहाजा उन्होंने सिनेमा के गायन के अलावा अन्य माध्यमों में भी अपने हाथ-पाँव झटक कर फैलाये। उन्होंने स्वयं नौ फिल्में बनायीं। दसवीं ममता की छाँव में बनाना रह गया, जिसे वे आरम्भ करने चले थे लेकिन उन नौ फिल्मों झुमरू, दूर गगन की छाँव में, हम दो डाकू, दूर का राही, जमीन आसमान, बढ़ती का नाम दाढ़ी, शाबास डैडी, चलती का नाम जिन्दगी और दूर वादियों में कहीं के नामों पर नजर डालें तो कुछ शब्द साम्य दिखायी देते हैं। छाँव, दो बार है, बढ़ती और चलती है और सबसे विशेष तीन बार, दूर है, दूर गगन की छाँव में, दूर का राही और दूर वादियों में कहीं।

किशोर कुमार का कहीं बहुत दूर देखने और इस दूर से जीवन के पर्याय की तलाश के दार्शनिक पहलू शायद ही कोई समझ पाया हो। बहुत दूर चले गये किशोर कुमार शायद उसका पर्याय पा गये हों.....।

सोमवार, 11 अक्तूबर 2010

यश चोपड़ा को राष्ट्रीय किशोर कुमार सम्मान

प्रख्यात फिल्मकार यश चोपड़ा को खण्डवा, मध्यप्रदेश में 13 अक्टूबर को निर्देशन के क्षेत्र में जीवनपर्यन्त उत्कृष्ट सृजन और अर्जित प्रतिमानों के लिए राष्ट्रीय किशोर कुमार सम्मान से विभूषित किया जा रहा है। यह सम्मान ऐसे वक्त में दिया जा रहा है जब यश राज कैम्प से उनके फिर एक फिल्म निर्देशन करने की पुष्ट सूचनाएँ हैं। वीर जारा के बाद यह उनकी एक और प्रेम कहानी होगी। यश चोपड़ा को एक पारखी और पीढिय़ों की रूमानी नब्ज को बखूबी समझने वाला हार्ट स्पेशलिस्ट कहा जाए तो शायद कोई अतिशयोक्ति न होगी। वे चिकित्सा विज्ञान के हार्ट स्पेशलिस्ट से अलग दिल के एक ऐसे डॉक्टर हैं जो धमनियों से देह में आते-जाते रूमान को बखूबी महसूस करते हैं और वही उनकी फिल्मों में भी दिखायी देता है।

यश चोपड़ा पर उनके दो आयामों पर लेकर यहाँ बात की जा सकती है। उनका एक इरा त्रिशूल तक आया है और दूसरा कभी-कभी से सिलसिला, चांदनी, लम्हें, डर से होता हुआ दिल तो पागल है और वीर-जारा तक। यश चोपड़ा, अपने भाई के सहायक रहते हुए उन्हीं के बैनर बी.आर. फिल्म्स की धूल का फूल, धर्मपुत्र, वक्त और आदमी और इन्सान जैसी फिल्मों के निर्देशक हुए। राजेश खन्ना के साथ दाग बनाते हुए वे स्वायत्त हुए और दीवार ने कई मायनों में इतिहास रचा। दीवार उस तरह से बड़ी सशक्त और महत्वपूर्ण फिल्म है जिसमें हम जंजीर के अमिताभ को और सबल होते देखते हैं अन्यथा बावजूद जंजीर सफल होने के उनका नायक चेहरा छबि के अनुरूप आश्वस्त दिखायी नहीं देता है।

दीवार सही मायनों में अमिताभ को बनाती है। कायदे से हमें दीवार को अमिताभ के परिप्रेक्ष्य में देखने के पहले यश चोपड़ा के परिप्रेक्ष्य में देखनी चाहिए। फिल्म त्रिशूल उन्होंने, कभी-कभी के बाद बनायी मगर वह दीवार का ही अमिताभीय विस्तार है। कभी-कभी को प्रेम की संगतियों और विसंगतियों का अजीब सा रचाव हम मान सकते हैं मगर उसमें जिन्दगी एक अलग फिलॉसफी भी रचती है। साहिर, अपनी रचनाओं में खूब बोलते हैं, फिल्म के गीतों में, कल और आयेंगे, नगमों की खिलती कलियाँ चुनने वाले, मुझसे बेहतर कहने वाले, तुमसे बेहतर सुनने वाले। काला पत्थर, एक पराजित आदमी के अन्तद्र्वन्द्व को खखोलती है मगर कहीं-कहीं मीठा रूमान वहाँ बड़ी सावधानी से आता है। सिलसिला में फिर एक फिलॉसफी है। चांदनी से यश-दृष्टि यकायक उस समय की पीढ़ी के साथ हो लेती है वहीं दिल तो पागल है, में पूरी स्थापना ही किरदारों के विस्मयकारी और दिलचस्प हस्तक्षेप से एक अलग कहानी रचती है।

बहरहाल, हम यश चोपड़ा को वक्त के निर्देशक के रूप में तो और मजबूती से इसलिए जानेंगे क्योंकि यह पहली बहुत सितारा फिल्म थी, बलराज साहनी, राजकुमार, सुनील दत्त और शशि कपूर के साथ। ऐतिहासिक सफल भी। यशस्वी, यश जी का यश यहाँ पर उनको बड़े कैनवास पर देखे जाने की अपरिहार्यता पेश करता है। स्वर्गीय किशोर कुमार ने उनके लिए बहुत अनूठे गाने गाये थे। यश जी को यह सम्मान परस्पर एक-दूसरे की सार्थकता है।

रविवार, 10 अक्तूबर 2010

महानायक का जन्मदिन

आज सुबह से ही मुम्बई में अमिताभ बच्चन के दोनों बंगलों प्रतीक्षा और जलसा के बाहर उनके चाहने वालों का हुजूम रहेगा। टै्रफिक जाम हुआ करेगा। आवाजाही प्रभावित होगी। पुलिस को अतिरिक्त प्रयास करने होंगे। हो सकता है, लाठी भी चले हल्की-फुल्की। चाहने वालों में मुम्बई के लोग भी होंगे और बाहर के भी। कुछ ऐसे भी होंगे, जिनकी चाहत दीवानगी की हद से ज्यादा होगी, वो सुदूर स्थानों से अमिताभ बच्चन के लिए अपना दिल हाथ में रखे, मुम्बई चले आये होंगे और सब जतन करके बंगले के बाहर होंगे। जो प्रतीक्षा बंगले के बाहर होंगे वे उनकी एक झलक पाने का इन्तजार दिल थामे किया करेंगे।

अन्देशा यह भी रहेगा कि शायद बच्चन जलसा बंगले में हों। जो जलसा बंगले के सामने खड़े होंगे, उनको यह भ्रम सताता होगा कि कहीं प्रतीक्षा में न हों। महानायक कहाँ होंगे तब तक कोई न जानेगा जब तक वे प्रकट न होंगे। हुए तो सबका दिन अच्छा, नहीं तो मायूस। सितारों के प्रति दीवानगी का यही आलम होता है। दिल हाथ में लिए मुरीद के हाथ से कब छूटकर टूट जाये, टूटकर बिखर जाये कहा नहीं जा सकता। जहाँ तक अमिताभ बच्चन का सवाल है, उनका यह जन्मदिन तीन वजहों से कुछ ज्यादा विशेष बनता है।
एक अच्छी वजह उनका पा के लिए कुछ ही दिन पहले राष्ट्रीय पुरस्कार घोषित होना है, ऑरो की भूमिका के लिए।

दूसरी वजह, एक बार फिर कौन बनेगा करोड़पति का मेजबान होना है। यह इसलिए विशेष है कि उनके बाद बादशाह शाहरुख खान को आजमा लिया गया है और मौका उनको दोबारा नहीं दिया गया है। हाँ, बिग बॉस में उनको दोहराया नहीं गया है, सलमान खान नाम की जिन्दादिल और चुहलबाज रौनक आ गयी है वहाँ। बहरहाल कौन बनेगा करोड़पति के लिए अमिताभ बच्चन तैयार हैं। तीसरी वजह राजकुमार सन्तोषी की बहुल सितारा फिल्म पॉवर का मुख्य हिस्सा बनना है उनका जिसमें पहली बार कायदे से उनके साथ अनिल कपूर आ रहे हैं। संजय दत्त और अजय देवगन भी फिल्म में हैं मगर उनके साथ पहले वे काम कर चुके हैं। अनिल कपूर की यद्यपि पहली फिल्म शक्ति थी जिसमें दिलीप कुमार और अमिताभ बच्चन थे मगर अनिल कपूर मेहमान कलाकार की तरह आरम्भ और अन्त में अपने पिता की कहानी, अपने दादा से सुनते भर हैं।

अपने कैरियर के चरम में अनिल कपूर ने अमिताभ बच्चन के सिंहासन को झकझोरने के साहस-दुस्साहस भी किए थे लेकिन वे और आमिर खान दोनों ही बच्चन के साथ काम अब तक नहीं कर पाये थे। देखना है, पॉवर क्या प्रमाणित करती है? जहाँ तक जन्मदिन का सवाल है, महानायक का जन्मदिन क्या मीडिया, क्या अखबार और क्या समाज, सब गर्मजोशी से मनाते हैं। अमिताभ बच्चन को भी अब दक्षिण के कुछ बड़े सितारों की तरह इन सबसे अच्छा दोस्ताना निभाना आरम्भ कर देना चाहिए।

शनिवार, 9 अक्तूबर 2010

दूर गगन की छाँव में

तीन दिन बाद 13 अक्टूबर को विख्यात पाश्र्व गायक एवं हरफनमौला कलाकार स्वर्गीय किशोर कुमार की पुण्यतिथि है। ऐसे समय में उन्हीं की एक बड़ी दुर्लभ फिल्म दूर गगन की छाँव में की चर्चा करना ज्यादा प्रासंगिक लगता है। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1964 का है। स्वर्गीय किशोर कुमार खुद ही निर्माता थे और निर्देशक भी। संगीत वगैरह बहुत से जरूरी काम खुद ही उन्होंने किए थे। नायक भी वे खुद ही थे। इसके अलावा और सब कुछ वे नहीं हो सकते थे लिहाजा नायिका सुप्रिया चौधुरी थीं। अमित गांगुली, उनका बेटा बाल कलाकार के रूप में था। नाना पलसीकर, सज्जन, राज मेहरा और इफ्तेखार थे। लीला मिश्रा थीं।

यह बड़ी मर्मस्पर्शी फिल्म है। गाँव है। एक बच्चा रोज नदी के किनारे आकर खड़ा हो जाता है। उसकी आवाज चली गयी है। हर दिन नाव से इस किनारे आकर बहुत से लोग उतरते हैं। उसको अपने पिता का इन्तजार है जो किसी न किसी दिन आयेगा। एक सफेद रंग का कुत्ता उसके साथ हमेशा रहता है, उसका अनुसरण करता है और कमोवेश हिफाजत भी। कहानी एक फौजी की है जिसने दुश्मनों का सफाया भी किया है और गोली भी नहीं खायी है। अपने गाँव लौटता है तो मालूम होता है कि घर जल गया है। माँ से के साथ पत्नी भी उस घर के जल जाने से मर गयी है। बेटा बच गया है जिसकी आवाज भयानक हादसे में चली गयी है। इस बेटे को अपने पिता का इन्तजार है।

पिता अपने बेटे से मिलकर व्यथित होता है। उसका प्रण है कि बेटे की आवाज किसी तरह वापस आये। जीवट के धनी मगर अन्दर से टूटे हुए शंकर के जीवन में बेटे रामू के सिवा कोई नहीं है। वह जले हुए घर और खाली से नजर आने वाले गाँव को छोडक़र चल देता है। रास्ते में एक पिता और उसके दो दुष्ट बेटे उसका जीना मुहाल कर देना चाहते हैं मगर मीना, डॉक्टर साहब उसके काम आते हैं। फिल्म का अन्त ही सुखद है जब बेटे की आवाज लौटती है।

दूर गगन की छाँव में, एक बोझिल अवसाद की फिल्म है जिसके साथ रहने का बड़ा मन करता है। गाँव लौटने और हादसे से रूबरू होने के बाद रात के एकान्त का गाना, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, मन में गहरे बैठ जाता है वहीं टूटे हुए बेटे को हिम्मत बँधाता गाना, आ चल के तुझे मैं ले के चलूँ एक ऐसे गगन के तले, सुखद और आश्वस्त करने वाले भरोसे की तरह है। शैलेन्द्र के गीत यहाँ भी अविस्मरणीय हैं। किशोर कुमार तो अभिनय में अनूठे हैं ही, सुप्रिया बड़ी खूबसूरत और सहज अभिनय में प्रभावित करती हैं।

अमित, किशोर के बेटे का काम भी प्रभावित करता है मगर सबसे ज्यादा मोहित करता है कुत्ता, पता नहीं वह किस तरह इतना सिखा-पढ़ा और निर्दिष्ट दिखायी देता है, प्रत्येक शॉट में।

शुक्रवार, 8 अक्तूबर 2010

कहानी और तत्व रहित सिनेमा

सिनेमा की दुनिया के एक सबसे मशहूर और कमोवेश अपनी कलम से वजूद की अमिट लकीर खींचने वाले लेखक सलीम खान से एक अच्छी बातचीत दो दिन पहले मनोरंजन के एक चैनल ने दिखायी। सलीम वो शख्सियत हैं जिनकी पूरी पर्सनैलिटी में एक थमा हुआ ऐसा समुद्र नजर आता है जो भीतर ही भीतर बड़ी दूर तक गया है, जिसका अपनी व्यापकता और विस्तार है।

निश्चय ही यह विस्तार संघर्ष और अनुभवों से आया है। उनको देखते हुए व्यतीत समय में उन तमाम बड़ी सुपरहिट फिल्मों के सिनेमाघरों और चौराहों पर लगे बड़े-बड़े पोस्टर और होर्डिंग याद आते हैं जिनमें उनका नाम निर्माता और निर्देशक के नाम की मोटाई वाले अक्षरों की तरह ही लिखा होता था। जंजीर, दीवार, त्रिशूल, शोले, डॉन, ईमान-धरम, चाचा-भतीजा आदि बहुत सी ऐसी फिल्में हैं।

बहरहाल अनुभवों से बयाँ सच किसी जीवट इन्सान की जिन्दगी की किताबों के पन्ने इस तरह खोलता है कि बहुतेरे सीख कर सही रास्ते पर चल सकते हैं, अपना जीवन बना सकते हैं। प्रश्रकर्ता जब उनके बारे में यह कहता है कि इस समय उन्हें रुपए गिनने से फुर्सत नहीं है तो वे सहजता से हँस देते हैं। सलीम साहब तो कलाकार से अधिक अपने लिखे का पाने वाले सितारा लेखक रहे हैं। उनके लिए पैसे का बरसना या बरसना बन्द होना एक ही सा है। सभी दौर इस अनुभवी इन्सान को संयत और आदर्श रखते हैं।

आज की फिल्मों के प्रति एक लेखक के रूप में उनका यह आकलन बड़ा सटीक है कि कहानी में कन्टेन्ट की बेहद कमी हो गयी है। उन्होंने यह भी कहा कि अब फिल्में लेखकों से सीडी और कैसेट देकर लिखवायी जाती हैं। जाहिर है ये सीडी और कैसेट उन फिल्मों की होती हैं जिनसे आइडिया चुराना होता है। अब ज्ञान और कल्पनाशीलता की आवश्यकता नहीं रह गयी है। संवाद में भाषा और प्रभाव भी दिखायी नहीं देता। इसका कारण वे यही मानते हैं कि अब कोई पढऩा नहीं चाहता।

एक लेखक को पढऩा कितना जरूरी है, यह वे बेहतर बताते हैं। वे बेहिचक इस को स्वीकार करते हैं कि वे भी दीवार में सात सौ छियासी नम्बर के बिल्ले या शोले में सिक्के उछालने वाले आइडिए को कहीं से लेते हैं मगर उसकी जगह और सार्थकता का ख्याल करके। आज शायद इतना शऊर हमारे लेखकों के पास नहीं होगा जो कूड़ा फिल्में लिखकर खुदभ्रमित रहते हैं।

सलीम ने सिनेमा में लेखक की प्रतिष्ठा को शिखर पर ले जाने की चुनौती अपने उस्ताद अबरार अल्वी के सामने उठायी थी। बाद में वो उन्होंने कर भी दिखाया। आज इतनी जहमत कोई लेखक उठाना नहीं चाहता।

गुरुवार, 7 अक्तूबर 2010

आखिर नींद समुद्र हो गयी

अंदेशे में बड़े दिन
चुपचाप व्यतीत हो गए
एक दिन बड़ी हिम्मत की
कह गए

जाने कब से रखीं
बांधकर मुट्ठियाँ अपनी जेब में
भीतर ही भीतर कभी खोलकर
उँगलियों की आड़ लकीरों में
दिन गिनते रहे
तय करते रहे कहने का वक़्त
आसमान में बादल
मौसम का मिजाज़
लड़ते रहे "हाँ", "नहीं" और
"नहीं", "हाँ" से
सूखते गले के लिए
बहुत सा पानी पी गए

अब चाहे जो समझो
बिन कहे जागा करते थे
आखिर नींद समुद्र हो गयी
बह गए

सोना और उसमें सत्य का होना

जिस तरह के नाम वाली, कमोवेश अंग्रेजी नाम वाली फिल्मों या कि बिना समझे-बूझे रख लिए गये नाम वाली फिल्मों के समय में हमें एक ऐसी फिल्म का प्रोमो आकर्षित करता है, जिसका नाम सीधे-सादे ढंग से निर्माता-निर्देशक ने दस तोला रख दिया है। जाहिर है जिस तरह की तौल की ध्वनि सुनायी देती है सो बात भी सोने की ही है। कोच्चि के रहने वाले युवा निर्देशक अजॉय ने यह फिल्म बनायी है जिसकी स्क्रिप्ट वे छ: साल से अपने हाथ में लिए घूम रहे थे। अपनी फिल्म के नायक शंकर के लिए उनको मनोज वाजपेयी ही जमे जिनसे वे इन वर्षों में लगातार मिलते रहे।

मनोज वाजपेयी इस बीच और फिल्में भी कर रहे थे, उनको अजॉय का कभी-कभार आकर अपनी फिल्म की बात करना ऐसा लगता था जैसे निर्देशक बहुत ज्यादा गम्भीर नहीं है फिल्म बनाने को लेकर लेकिन बात तब और बढ़ी जब राजनीति की शूटिंग करते हुए मनोज ने अजॉय को कई बार भोपाल बुलाया और स्क्रिप्ट, अपने किरदार इत्यादि के बारे में बातचीत की।

दस तोला में एक सुनार की भूमिका करने के लिए मनोज फिर कुशल और अनुभवी सुनारों के पास भी कई-कई दिन जाकर बैठे और इस तरह एक वर्ष की निरन्तरता में यह फिल्म बनकर तैयार हुई और अब प्रदर्शित किए जाने की तैयारी है। बात नाम को लेकर थी, हमें हो सकता है, नाम थोड़ा बैकवर्ड लगे, सिनेमा के हिसाब से मगर वक्त-वक्त पर लीक से हटकर, भव्यता के दौरमदौर में भी सहज और सच्चा काम अलग ही तरह से आकृष्ट करता है।

दस तोला एक चंचल और निश्छल लडक़ी के लालची पिता को भी दिखाती है और लडक़ी के लिए पूरे दस तोला का हार बनाकर भेंट करने वाले प्रेमी की लगन और जतन को भी। अब हमारे यहाँ फिल्मों में कस्बे में घटित होने वाला कथानक कहीं दिखायी नहीं पड़ता।

हिन्दी सिनेमा का नायक फिल्म में सायकल भी चलाते हुए नहीं दीखता, आर्थिक और सामाजिक रूप से वह आम आदमी को भी नहीं जीता, इसीलिए फिल्में यथार्थ से दूर काल्पनिक जिसे भदेसपन में फर्जी भी कह सकते हैं, उस तरह की दुनिया का हिस्सा बनती दिखायी देती हैं। इस सिनेरियो में दस तोला का अपना महत्व बनता है जिसका नायक शंकर अपनी प्रेमिका स्वर्णलता को सायकल पर घुमाने ले जाता है।

बहुत सारी बेमतलब की फिल्मों को देखकर पैसे बरबाद करने और सिर धुनने वाले दर्शकों को कभी-कभार और बड़ी कठिनाई से बनकर किसी तरह सिनेमाघर पहुँचने वाले ऐसे सिनेमा की तरफ भी तवज्जो कर लेनी चाहिए। इस फिल्म का एक संवाद है, सोने में सत्य का एहसास होता है।

बुधवार, 6 अक्तूबर 2010

तुम अगर रूठ गए

कोई गुस्ताखी करेगा
कोई सज़ा पायेगा
सज़ा देने वाले का
भला क्या जायेगा

हिमाकत कर सके
ऐसा साहसी नहीं कोई
तुम अगर रूठ गए
देखना वो कैसे मनायेगा

क्या खता है भला
आबोहवा जीने में
वैसे भी दूर है चाँद
नज़दीक भला क्या आएगा

कहने के अन्देशे और
न कहने की घुटन देखो
इस पर भी तुम कि
दर्द रह-रह सताएगा

भव्यता और अचम्भे का दर्शक वर्ग

पिछले शुक्रवार को रिलीज हुई निर्देशक शंकर की रजनीकान्त अभिनीत फिल्म रोबोट को समीक्षकों ने दिल खोलकर सितारे बाँटे हैं। सिनेमाघरों में भी इस फिल्म को देखने के लिए सप्ताहान्त में भीड़ जमा रही। नया सप्ताह शुरू हुआ तब भी दर्शकों की लाइनें इस बात को साबित कर रही थीं कि रोबोट, उन्हें रास आ गया है। दरअसल हमारे यहाँ एक बार फिल्म देखने के शौकीन दर्शक से कभी फिल्में नहीं चला करतीं। फिल्मों को चलाते हैं वे दर्शक जो एक से अधिक बार फिल्में देखने का शौक फरमाते हैं। वे भी अपनी भूमिका सिद्ध करते हैं जो महफिल के साथ सिनेमा का आनंद उठाने में विश्वास करते हैं। वास्तव में सिनेमा को हिट बनाने में उनका ही योगदान होता है।

रोबोट की सफलता को लेकर पहले से किसी प्रकार की आश्वस्ति का भाव नहीं था। हिन्दी सिनेमा का दर्शक बेशक रजनीकान्त को बखूबी जानता है मगर रजनीकान्त का सिनेमा हमारे यहाँ नियमित देखने को नहीं मिलता है। उनकी चार साल पहले आयी फिल्म सिवाजी द बॉस का मूल तमिल संस्करण जब दक्षिण में रिलीज हुआ था तो धूम मच गयी थी। इस फिल्म ने सफलता का परचम फहराया था और बड़ा धन अर्जित किया था। उत्तर भारत, विशेषकर दिल्ली, मुम्बई और गुजरात के शौकीनों ने तो हवाई जहाज का टिकट कटाकर चेन्नई जाकर सिवाजी द बॉस फिल्म देखी और मजा लिया।

यह बड़ी सख्ती ही कही जाएगी कि इस फिल्म की नकली सीडी लम्बे समय तक बाजार में नहीं आ सकी। निर्माता ने भी इसका ओरीजनल संस्करण लम्बे समय तक जारी नहीं किया। हिन्दी में दर्शक इसे देखने से दो साल वंचित रहे। पिछले दिनों ही कुछ चैनलों ने इस फिल्म को प्रसारित किया।

इस बार शंकर ने रजनीकान्त को लेकर एदिरन बनायी तो यह तय किया कि उसी के साथ-साथ इसका हिन्दी संस्करण भी रिलीज कर देंगे। शायद उन्हें सिवाजी द बॉस के समय की दर्शकीय जिज्ञासाओं का अन्दाज था तभी एदिरन के साथ-साथ हिन्दी मेंं रोबोट का प्रचार-प्रसार भी जोर-शोर से किया गया। यों रोबोट तकनीक और ज्ञान के दुरुपयोग और उसकी हानियों को प्रमाणित करने वाली एक उल्लेखनीय फिल्म है मगर फार्मूला, जानकारियाँ, ज्ञान और दक्षता के बुरे इस्तेमाल को सिनेमा में वक्त-वक्त पर विषय बनाकर प्रस्तुत किया गया है।

रोबोट में शंकर ने निर्माता से खूब खर्च कराया है मगर उससे कई गुना ज्यादा लौटकर भी आयेगा, इस दावे के साथ। हिन्दी सिनेमा के समकालीन नायकों की राजनीति ने वक्त-वक्त पर रजनीकान्त और कमल हसन जैसे सितारों की छबि को सीमित रखने के विफल प्रयास किए हैं क्योंकि जिस तरह की रेंज इन सितारों की है, दूसरे इनके पासंग भी नहीं ठहरते। एक लम्बे अरसे बाद रजनीकान्त को रोबोट के माध्यम से देखना सुखद रहा है।

मंगलवार, 5 अक्तूबर 2010

बिग बॉस का मायालोक

बहुप्रतीक्षित बिग बॉस का चौथा सत्र शुरू हो गया है। सलमान खान, दबंग से एक बार फिर अपने आपको आज के सिनेमा की सुरक्षित और महत्वपूर्ण हॉट प्रॉपर्टी साबित करने में सफल हो गये हैं। दबंग, सलमान का पड़ाव नहीं है। अब सलमान के आसपास उनको आज के समय का सबसे अहम महानायक समझने वाले लेखकों, निर्देशकों और शुभचिन्तकों की एक पूरी टीम बहुत सजग होकर काम करती है। जाहिर है इसमें परिवार की एक बड़ी भूमिका है।

सलमान के पिता सलीम साहब इस पूरे परिदृश्य में एक बड़े संजीदा ऑब्जर्वर की तरह होते हैं। जाहिर है वे नियंत्रक भी होते हैं मगर वे कभी भी हस्तक्षेपी नहीं होते। अपने बेटों की प्रतिभा और क्षमताओं पर बड़ा भरोसा करने वाले सलीम साहब दबंग सलमान पर खासा फक्र करते हैं। अपने बेटे को बहुत मेहनती और क्षमतावान मानने वाले पिता को बिग बॉस के रूप में भी सलमान की तीन महीने की सक्रियता पर अच्छी आश्वस्ति है। इस बीच जब सलमान, बिग बॉस में अपने आपको एकाग्र कर चुके हैं, उनके लिए एक और फिल्म की पटकथा तैयार किए जाने की तैयारियाँ जोर-शोर से जारी हैं। एक सुपरहिट मलयालम फिल्म का रीमेक हिन्दी में बनेगा जिसके नायक सलमान खान होंगे। मलयालम में वह फिल्म जरा बड़ी है, सो उसकी पटकथा का पुनर्लेखन करके उसको कसा जा रहा है ताकि सवा दो घण्टे के आसपास एक अच्छी फिल्म बन सके।

सलमान खान की नजर से बिग बॉस का मायालोक देखना टीवी दर्शकों के लिए अनूठा अनुभव रहा है। रविवार की रात दर्शकों ने इस शो के लिए खास तौर पर खाली रखी। सलमान इस शो के होस्ट के रूप में एकदम तरोताजा, स्मार्ट और गुडलुकिंग लग रहे थे। उनकी एनर्जी भी इस शो का आगाज करते हुए अलग ही दिखायी दे रही थी। सलमान खान चूँकि जवानों के सितारे हैं, परदे पर मारधाड़ से लेकर हँसने-हँसाने और नाचने-नचाने का उनका अन्दाज बड़ा दिलचस्प और रोचक होता है लिहाजा यह शो लेक्चरबाजी की रूढ़ परिपाटी से थोड़ा अलग हटकर मजेदार ढंग से शुरू हुआ। बिग बॉस का मायालोक दर्शकों को वाकई सपनों के ऐसे संसार में ले जाता है जहाँ वो खुद अपने आपको उस जगह पर पाता है।

दर्शकों में से कुछ का कहना उस वक्त बड़ा हँसाता है जब वे कहते हैं, सोने का कमरा और बिस्तर बड़े अच्छे हैं, स्वीमिंग पूल बहुत अच्छा है, बनाने-खाने और आराम फरमाने के संसाधन तुरन्त वहाँ का हिस्सा होने का भ्रम देते हैं। सारा का सारा अनूठा सा मायालोक है, जादुई दुनिया है जो बाहर से कौतुहल पैदा करती है। बहरहाल तीन माह कई तरह के अनुभवों के साक्षी होंगे चौदह लोग और दर्शक भी।

सोमवार, 4 अक्तूबर 2010

स्वर-सम्प्रेषण का आध्यात्म और येसुदास

गांधी जयन्ती के दिन तिरुअनंतपुरम में प्रतिष्ठित पाश्र्व गायक के. जे. येसुदास, एक लाइफ टाइम अचीवमेंट पुरस्कार से सम्मानित हुए। यह खबर एक छोटी सी जगह में प्रकाशित की गयी थी मगर उस अखबार को धन्यवाद कि येसुदास का नाम पढक़र एक साथ उनके कई गीत स्मृतियों में एक-एक लाइनों के साथ कौंधना शुरू हुए। हिन्दी सिनेमा को बनाने वाले, हिन्दी सिनेमा के देखने वाले बहुतेरे येसुदास को भूल चुके होंगे। नयी पीढ़ी, जो शान, सोनू और सुखविन्दर के शोर में अपनी मस्ती का शोध करके मस्त होती है, उसे येसुदास से कुछ लेना-देना न होगा मगर आखिरकार येसुदास, येसुदास हैं।

सत्तर साल के येसुदास को शास्त्रीय संगीत में उनके विलक्षणपन के लिए तो हम जरा भी नहीं जानते। राजश्री प्रोडक्शन्स, दादू रवीन्द्र जैन को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने दक्षिण के इस महान गायक को हिन्दी फिल्मों के दर्शकों से परिचित कराया और सौ-पचास ऐसे गाने रचे जिनको कभी-कभार सुनते हुए अपने आपको उस समय के आसपास खड़ा हुआ महसूस कर सकते हैं हम।

कोचीन में जन्मे येसुदास मलयाली सिनेमा के प्रख्यात गायकों में शुमार होते रहे हैं। साठ के दशक में उनका सिनेमा में एक गायक के रूप में आना हुआ। छोटी उम्र से उन्होंने शास्त्रीय संगीत की गहन शिक्षा प्राप्त की थी। अपने पिता के साथ वे भजन संध्याओं, पारम्परिक आयोजनों में गाने जाया करते थे। उनकी आवाज में ऐसी रस-माधुरी घुली थी कि कम उम्र से ही उनको प्रशंसा और सराहना प्राप्त होने लगी थी। उनकी आवाज को श्रोता डूब कर सुनते थे। भक्ति संगीत में उनका अटूट समर्पण था। उनकी गायी रचनाएँ अपने आसपास बड़ी संख्या में संगीत रसिकों को प्रभावित करती थीं। स्वर-सम्प्रेषण के आध्यात्म का रहस्य कह लें या मार्ग, येसुदास ने गहन समर्पण से ही प्राप्त किया।

दक्षिण में अपनी गायन क्षमता और प्रतिभा से प्रतिमान रचने वाले येसुदास ने जब बासु चटर्जी निर्देशित फिल्म चितचोर के लिए गीत गाये तो हमने जाना कि मुम्बइया सिनेमा में तत्कालीन समय के प्रचलित स्वरों में एक विनम्र और सम्प्रेषणीय सुरीली प्रतिभागिता येसुदास के रूप में बढ़ी है। सत्तर के दशक में प्रदर्शित इस फिल्म में, जब दीप जले आना, गोरी तेरा गाँव बड़ा प्यारा, आज से पहले आज से ज्यादा खुशी आज तक नहीं मिली, तू जो मेरे सुर में सुर मिला ले, जैसे गानों ने अच्छे संगीत के मुरीदों को जो रसपान कराया, वह अच्छे समर्थन से खूब परवान चढ़ा।

यहीं से शुरू एक और आयाम-विस्तार में फिर सावन कुमार की साजन बिना सुहागन तक, मधुबन खुश्बू देता है जैसे गीतों ने येसुदास को हम सभी के मन में आदरसम्पन्न स्थान पर प्रतिष्ठापित किया है। बीच में बहुत सारी फिल्में और गाने हैं, किसे खबर कहाँ डगर जीवन की ले जाए, जानेमन-जानेमन तेरे दो नयन, सुनयना इन नजारों को तुम देखो, कहाँ से आये बदरा आदि, याद किए जाएँगे तो याद आता जाएगा।

रविवार, 3 अक्तूबर 2010

सिनेमा से अपराध सीखता मनुष्य

एक राष्ट्रीय दैनिक के आखिरी पृष्ठ पर प्रकाशित एक समाचार ने ध्यान आकृष्ट किया। लन्दन में एक अपराधी को सजा सुनायी जाने वाली है। उसका अपराध यह है कि उसने बाइस साल के आपराधिक जीवन में एक हजार से भी ज्यादा महिलाओं के साथ धोखे से दुष्कर्म किया। इतने वर्षों तक वह यह अपराध एक फिल्म को देखने के बाद ली प्रेरणा के वशीभूत करता रहा। फिल्म का नाम द सायलेंस ऑफ द लेम्प्स है।

1991 में प्रदर्शित मशहूर अमरीकी सितारे एंथनी हॉपकिन्स अभिनीत इस फिल्म का अपराधी स्त्रियों के सामने लाचार स्थिति में प्रस्तुत होता है, उनसे मदद की गुहार करता है और मौका पाते ही वार करके यह अपराध करने में सफल होता है। फिल्म का अपराधी टूटा हुआ नकली हाथ दिखाकर महिलाओं से फर्नीचर उठाने में मदद की गुजारिश करता था और झुककर सहयोग करने के लिए प्रेरित स्त्री पर हमला कर देता था। उल्लेखनीय है कि इस फिल्म को स्क्रीनप्ले, निर्देशन, अभिनय आदि के पाँच ऑस्कर मिले थे।

इस फिल्म से एक जर्मन मूल के अपराधी ने प्रेरणा ली और अपने जख्मी होने का बहाना बनाकर बाकायदा ऐसे घरों में घुसकर अपराध करना शुरू किया जहाँ स्त्रियाँ किन्हीं वक्तों में अकेली रहती थीं। उसने हॉलैण्ड, जर्मनी, बेल्जियम और लक्झमबर्ग में हजारों स्त्रियों को अपना शिकार बनाया। अदालत उसके बयान सुन रही है, आकलन है कि अधिकतम पन्द्रह वर्ष की सजा उसको इस अपराध के लिए दी जाए। विश्व में अमरीका सिनेमा का सिरमौर है। कथ्य, प्रभाव, तकनीक, श्रेष्ठता और कमोवेश उत्कृष्टता में भी वह काफी आगे है। हिन्दुस्तान में हम सिनेमा में बढ़ती जा रही हिंसा, अपराध और उसके तौर-तरीकों के साथ ही अनुशासन और न्याय के लिए उत्तरदायी संस्थाओं की भूमिकाओं को भी देखा करते हैं और जाहिर है हमारी राय बड़ी निराशाजनक होती है।

शारीरिक अशक्तता, असहायता से हमदर्दी हासिल करके धोखा देना और अपराध करना, यह मनोवृत्ति केवल द सायलेंस ऑफ द लेम्प्स फिल्म से ही प्रेरित नहीं है। ऐसे उदाहरण जीवन और इतिहास से ही मनोरंजन के इन संसाधनों में अलग-अलग ढंग से आये हैं। पाठ्य पुस्तक में डाकू खड्ग सिंह और बाबा भारती की कथा में भी इसी तरह का छल है। राम तेरी गंगा मैली की नायिका को भी रेल में एक अंधा ही बुरी जगह पहुँचा देता है जिस पर नायिका कहती है कि ऐसा और किसी के साथ न करना वरना लोग ऐसों पर विश्वास ही नहीं करेंगे। मोहरा फिल्म का खलनायक भी पूरी फिल्म में अपनी उपस्थिति काला चश्मा लगाकर ही लाचारी के साथ प्रदर्शित करता है।

हमारे धारावाहिकों में भी बहुत सारे प्रसंग और दृश्य कुत्सित और घटिया मनोवृत्ति के खलपात्रों के हवाले हैं। मन:स्थितियों का संयत रह पाना, मन:स्थितियों को संयत रख पाना बड़ा कठिन जान पड़ता है अब।

शनिवार, 2 अक्तूबर 2010

जि़न्दगी के सबक और तीन कसमें

एक साथ कई गुणी और परस्पर एक-दूसरे की क्षमता पर विश्वास करने वाले मिलकर जब एक साथ कोई काम करते हैं तो वह विलक्षण और अविस्मरणीय होता है, इस बात को कोई भी मानेगा। वह भी मानेगा जिसने अपने जीवन में तीसरी कसम फिल्म देखी होगी। स्वर्गीय बिमल राय स्कूल के एक कल्पनाशील और आगे चलकर प्रायोगिक सिनेमा की अपनी एक अलग लकीर खींचने वाले शिष्य फिल्मकार बासु भट्टाचार्य के निर्देशन की यह पहली फिल्म थी। फणिश्वरनाथ रेणु की कहानी पर, नबेन्दु घोष की पटकथा पर गीतकार शैलेन्द्र ने इस फिल्म का निर्माण अपने अनन्य सखा राजकपूर को नायक बनाकर किया था। वहीदा रहमान फिल्म की नायिका थीं।

1966 में बनी यह फिल्म व्यावसायिक रूप से एक विफल प्रयोग थी जिसके तनाव का मूल्य फिल्म के निर्माता और गीतकार शैलेन्द्र ने अपनी जान देकर चुकाया मगर उनके नहीं रहने के बाद से आज तक यह फिल्म यथार्थ के सबसे नजदीक, सार्थक और बड़ी गहरी मानी जाती है। शंकर-जयकिशन तीसरी कसम के संगीतकार थे।

फिल्म का नायक हीरामन एक सीधा-सादा जवान है जो अपनी भाभी के साथ रहता है और बैलगाड़ी से सामान-असबाब ढोकर जीवनयापन करता है। हीरामन देखने में बिल्कुल भोला है। अपने आपमें एक मुकम्मल बुद्धू इन्सान को जीते हुए वह एक बार सिपाहियों से मार खाता है और एक भाग किसी तरह बैल दौड़ाकर भागता हुआ अपनी जान बचाता है। वह दो बार कसमें खाता है। फिल्म के आरम्भ के दस मिनट में ही वह दोनों कसमें खा लेता है। तीसरी कसम वह फिल्म के अन्त में खाता है कि बैलगाड़ी में किसी नाचने वाली बाई को नहीं बिठाएगा।

हीरामन को दूसरे गाँव पहुँचाने की जवाबदारी पर एक सवारी मिलती है जिसके साथ सफर लम्बा है। नौटंकी में नाचने वाली हीराबाई को सफर तय करने के बाद भी कुछ देर वह देख-जान नहीं पाता। उसकी पायल की आवाज़, पैर पर चढ़ते हुए चींटे को देखते हुए जब वो अचानक उसका चेहरा देखता है तो उसे परी नजर आती है। इसके बाद एक सफर शुरू होता है।

सजन रे झूठ मत बोलो, पिया की पियारी भोली भाली रे दुल्हनियाँ, दुनिया बनाने वाले क्या तेरे मन में समायी, सजनवा बैरी हो गये हमार जैसे गाने सुनते-देखते खुद हमें अपनी जिन्दगी का सच शीशे में सामने दिखायी देता प्रतीत होता है। जीवन का दर्शन अद्भुत और मर्मस्पर्शी ढंग से प्रस्तुत करते हैं ये गीत। हीराबाई की नौटंकी में उसका गाया गीत, पान खाये सैंया हमारो, एक अलग दुनिया की बानगी पेश करता है जिसको हीरामन समझ ही नहीं पाता।

फिल्म का अन्त तकलीफदेह है। हीरामन के प्रति हीराबाई का आकर्षण, जमींदार की हीरामन को जान से मारने की धमकी से आक्रान्त हो एक अलग फैसला देता है और हीरामन बैलों को जोर से चाबुक मार दौड़ाता है और कसम खाता है कि अब किसी नौटंकी वाली बाई को बैलगाड़ी में नहीं बैठाएगा।

बंद पलकों के नयन

नयन बड़े अहिस्ता कहते हैं
मन तो नहीं भरता
तुम्हें देखते
फिर ओढ़ लेते हैं पलकें
बड़े धीरे से
कहते हैं
नींद आ रही है

झाँकते हैं बड़े चुपके
उन्हीं ओढ़ी पलकों के
भीतर से
निहारते हैं थिर समय में
एक मौन उदास सा फिर भी
कहते हैं
नींद आ रही है

अँधेरे के नयन
नज़र नहीं आते उजाले के
नयनों को
उजाले के नयन बंद पलकों में
हारे होते हैं अपने नयन
और बंद पलकों के नयन
कहते हैं
नींद आ रही है

खुशियाँ आने वाली हैं

उस अँधेरे बगीचे में
चुपचाप बैठा माली है
सुबह होगी तब होगी
अभी तो मन खाली है

जाने कैसे कहते हो
क्या मन भर गया है
जागती आँखों में भोर
कोई नींदें हर गया है

दर्पण सी हथेलियों में
बस चेहरा तुम्हारा है
अपलक निहारते नेह को
बस भरम का सहारा है

आहटों पर कान इस तरह
कुछ खुशियाँ आने वाली हैं
होकर यहीं से गुजरेंगी
पहले से उम्मीदें पाली हैं

शुक्रवार, 1 अक्तूबर 2010

सिनेमा में गांधीजी और गांधी-मूल्य

कवि प्रदीप का लिखा एक भावपूर्ण गीत फिल्म जाग्रति में है, दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना, ढाल, सावरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल, रघुपति राघव राजा राम। इसी में एक लाइन यह भी है, आंधी में भी जलती रही गांधी तेरी मशाल, सावरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल। अविष्कार के बाद कई वर्ष सिनेमा के माध्यम से हमारी परम्पराओं, संस्कृति और मूल्यों को लेकर बड़े सशक्त और प्रभावी ढंग से बातें कहने का यादगार काम हमारे फिल्मकारों ने किया है। आजाद मुल्क में विकास और प्रगति के रास्ते पर चलने की प्रेरणा देने वाले मंत्र, हमारी सदियों की प्रेरणाओं से आये। फिल्में भी इसी बात का उदाहरण हैं।

लम्बे समय तक ये काम उन लोगों ने किया है जिन्हें सिनेमा सबसे सशक्त और प्रभावी माध्यम अपनी बात को दूर-दूर तक बड़े असर, खासकर सार्थक असर के साथ कहने का जरिया लगा है। इस स्तम्भ में जाग्रति फिल्म पर एक रविवार को लिखते हुए उसकी विशिष्टताओं की चर्चा की है। महात्मा गांधी पर पहली बार एक फिल्म 1948 में पी. व्ही. पाथे ने बनायी थी। 1968 में गांधी जी के जीवन पर एक फिल्म, महात्मा - लाइफ ऑफ गांधी 1869-1948, में जैसा कि स्पष्ट है, गांधी जी के पूरे जीवन को रेखांकित किया गया था। अंग्रेजी में बनी इस श्वेत-श्याम फिल्म का निर्माण गांधी नेशनल मेमोरियल फण्ड ने वि_लभाई झवेरी के निर्देशन मे किया था। यह फिल्म गांधी जी पर केन्द्रित एक दुर्लभ मगर महत्वपूर्ण दस्तावेजीकरण की तरह थी। इस फिल्म के लिए शोध करने वाले डी. जी. तेन्दुलकर ने ही गांधी जी पर केन्द्रित आठ खण्डों में वृहद लेखन, महात्मा शीर्षक से किया था।

हालाँकि रिचर्ड एटनबरो की फिल्म गांधी का निर्माण बड़े अरसे बाद हुआ और उस फिल्म ने अपनी विशिष्टताओं से प्रभावित किया। एटनबरो की गांधी में बेन किंग्स्ले ने गांधी जी की भूमिका निभायी थी। एक अमरीकन निर्देशक, विश्व के महान कलाकारों और तकनीशियनों के साथ किस तरह यह फिल्म बनाकर हिन्दुस्तान के दर्शकों को देता है, वह एक बड़ा अचम्भा था। उसके बाद हमारे देश में और भी कई फिल्में गांधी जी को केन्द्र में रखते हुए बनीं मगर एटनबरो की गांधी सा प्रभाव पैदा करना किसी के भी बूते की बात न थी।

श्याम बेनेगल ने द मेकिंग ऑफ महात्मा बनायी। उसकी अपनी सीमाएँ थीं। श्याम बाबू की वह, उनकी दूसरी फिल्मों की तरह श्रेष्ठ फिल्म नहीं थी। मैंने गांधी को नहीं मारा, गांधी इज माय फादर आदि फिल्में भी अलग-अलग ढंग से गांधी जी के व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों को देखती हैं मगर वे भी महत्वपूर्ण नहीं हैं।