शम्मी कपूर एक असाधारण जीवट वाले इन्सान हैं। अपनी एक खास किस्म की अदा और अभिव्यक्ति रचने वाले और उसी से हिन्दी सिनेमा में लगातार चार दशकों तक लोकप्रियता के साथ बने रहने वाले इस कलाकार में आज भी गहरी जिजीविषा है। शायद उनका डायलिसिस हर दूसरे दिन होता है मगर कुछ दिन पहले उन्होंने अपने पोते रणबीर कपूर के साथ उसकी एक फिल्म में छोटा सा रोल भी किया, ऐसे शम्मी कपूर के प्रति आदर व्यक्त करते हुए इस रविवार उनकी एक दिलचस्प कॉमेडी फिल्म प्रोफेसर की चर्चा करना पहली ऐसी फिल्म को याद करना है जिसमें एक नायक दो चरित्र जीता है और दोनों में गजब विरोधाभास भी है।
प्रोफेसर का प्रदर्शन काल 1962 का है। वह दौर महानायकों के साथ-साथ रोमांटिक छबि के नायकों की भी खूब पूछ-परख का था। शम्मी इस काल में खूब पसन्द किए जाते थे। प्रोफेसर का नायक दोहरी जिन्दगी जीने के लिए मजबूर है। कहानी में भावुकता का मसाला शुरू में ही अपना काम करके कहानी को आगे बढ़ा देता है। पढ़ा-लिखा बेरोजगार नायक काम की तलाश में है। बूढ़ी माँ का इलाज कराना है, घर में खाने तक की कठिनाई है। ऐसे में एक प्रोफेसर की नौकरी सामने है जिसमें बूढ़ा होना जरूरी है। नायक बूढ़ा होकर उस परिवार की तानाशाह प्रौढ़ स्त्री के सामने खड़ा होता है और उसके सख्त निर्देशों का पालन करते हुए नौकरी शुरू करता है। काम दो लड़कियों को पढ़ाने का है।
जवान और खूबसूरत लड़कियों के लिए नायक भला सारे समय कैसे दाढ़ी लगाये, लाठी टेककर, खाँसते हुए अपना वक्त बरबाद कर सकता है, लिहाजा उनके लिए उसका जवाँ रूप। जवाँ होकर हीरो गाने गाकर, परेशान कर आखिरकार नायिका की मोहब्बत हासिल करता है मगर साथ ही उसकी बूढ़ी छबि से एक और मोहब्बत हासिल होती है और वह है उस प्रौढ़ा अविवाहित महिला की जिसकी भतीजियों को प्रोफेसर साहब पढ़ा रहे हैं। सारी फिल्म अब इस दो धरातल पर रोचक प्रसंग रचती है, हास्य के दृश्य उपस्थित करती है और दर्शकों का मनोरंजन करती है। अन्त में जाहिर है, खुलासा होता है कहें या भाण्डा फूटता है कहें, बहरहाल बहुत सहज और सुरुचिपूर्ण विषय निर्वाह के कारण फिल्म क्लायमेक्स में तनाव की स्थितियों को भी आसानी से सुलझाने में कामयाब होती है।
लेख टण्डन निर्देशित इस फिल्म में शम्मी कपूर ही केन्द्र में हैं, दूसरी मजेदार भूमिका ललिता पवार की है। नायिका कल्पना एक सहज सामान्य किरदार की तरह फिल्म में हैं। फिल्म में कोई खलनायक नहीं है, खुद की खड़ी की गयी समस्याएँ हैं और खुद के ही ढूँढे गये समाधान। फिल्म का गीत-संगीत अच्छा है, शंकर-जयकिशन की संगीत रचनाओं का अपना आकर्षण है और गाने हमारे गाँव कोई आयेगा, ऐ गुलबदन, खुली पलक में झूठा गुस्सा, आवाज दे के हमें तुम बुलाओ आदि यादगार हैं आज भी।