सिनेमा की शताब्दी की बेला हमसे विलक्षण कलाकारों को छुड़ाये लिए जा रही है। जिस तरह हमारे बीच से बड़े-बुजुर्ग कलाकार जा रहे हैं, वो दुखद है। शम्मी कपूर का निधन भी इसी तरह की एक बड़ी क्षति है। बीते रविवार बड़ी सुबह उनका देहान्त हुआ और भोर होते-होते देश को मालूम हो गया कि शम्मी कपूर नहीं रहे। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और बहुत सारे अखबारों में अगले दिन शम्मी कपूर के नाम पर एक सार्थक टिप्पणी नहीं थी।
गूगलप्रेरित फौरी जानकारियों के साथ यह घटना लगभग दिन भर में निबटा ली गयी। हम सब भी अगले दिन से उन्हें भूलने में शुमार हो गये। कपूर परिवार के जीवित मुखिया के रूप में उनकी जिस सम्मान और प्यार से चिन्ता की जाती थी, वह महत्वपूर्ण है। अपनी भाभी कृष्णा राजकपूर से शम्मी दो साल ही छोटे थे लेकिन पारिवारिक विषयों में दोनों की मिलकर होने वाली बातें और निर्णय खानदान को शिरोधार्य होते थे।
शम्मी कपूर का पूरा नाम शमशेर राजकपूर था। परिवार में मँझले पुत्र थे, माता-पिता को राज और शशि के रूप में दो बेटों के नाम जिस तरह उच्चारण करना सहज होता था, शमशेर भी वाचिक सहूलियत के लिए शम्मी पुकारे जाने लगे। फिल्मों में भी फिर शमशेर, शम्मी के नाम से ही आये। लेकिन उनको हिन्दी सिनेमा के एक ऐसे शमशेर के रूप में हमने जाना जिसने अपने आत्मविश्वास, अपनी प्रतिभा और खासतौर पर अपनी मौलिकता से अपनी जगह बनायी।
यह भी कि, उन्होंने यह जगह बड़े प्रतिष्ठित अपने भाई राज और उनके स्पर्धी बड़े प्रतिष्ठित देव आनंद और दिलीप कुमार के बीच बनायी। साठ के दशक में क्षमताओं के मायनों में ये सभी बलिष्ठ सितारे काम कर रहे थे। निर्देशकों का सिनेमा सफल हुआ करता था। निर्माण घरानों की अपनी बड़ी पहचान थी। उत्कृष्ट गीतकार गीत लिख रहे थे। गुणी संगीतकार इन गीतों को अपनी सर्जना से सदाबहार और यादगार बनाने का उपक्रम बड़ी गम्भीरतापूर्वक किया करते थे। गायक कलाकारों की अपनी पहचान थी जो उस समय के महानायकों की छबि में इस तरह समाहित हो जाया करती थी कि भरोसा करना मुश्किल होता था, परदे पर नायक खुद गा रहा है या यह हुनर पाश्र्व गायक का है।
स्वर्गीय मोहम्मद रफी ने शम्मी कपूर की लिए गाने का विशेष अन्दाज सृजित किया था। रफी साहब की आवाज उस समय जितनी मौजूँ दिलीप कुमार के लिए हुआ करती थी उतनी ही देव आनंद के लिए भी। राज साहब तो खैर मुकेश जी का पाश्र्व स्वर अपने लिए चुन चुके थे लेकिन और जॉय मुखर्जी, राजेन्द्र कुमार, विश्वजीत, धर्मेन्द्र के लिए भी रफी साहब अपने पूरे लोकतांत्रिक स्वभाव के साथ गाया करते थे। इन सब कलाकारों के लिए गाते हुए उन्होंने शम्मी कपूर के लिए एक प्रबल सम्भावना अपनी आवाज और अन्दाज से सिरजी। यह अन्दाज वाकई शम्मी कपूर के अन्दाज में शामिल होकर ऐसा एकरंग हो गया कि सुनते हुए फिर किसी को भी और कुछ ख्याल आया भी नहीं। बदन पे सितारे लपेटे हुए ओ जाने तमन्ना किधर जा रही हो, प्रिंस का यह गाना रिकॉर्ड होने के बाद जब शम्मी ने सुना तो उन्होंने भावविभोर होकर रफी साहब से पूछा था कि किस तरह आप मेरी काया में रूह बनकर उतर जाते हैं, सचमुच कितना आश्चर्य है।
चाहे कोई मुझे जंगली कहे, अई यई या करूँ मैं क्या सुकू सुकू, एहसान तेरा होगा मुझ पर, सर पर टोपी लाल, यूँ तो हमने लाख हँसीं देखे हैं तुमसा नहीं देखा, इस रंग बदलती दुनिया में इन्सान की नीयत ठीक नहीं, जवानियाँ ये मस्त-मस्त, ऐ गुलबदन, दीवाना हुआ बादल, ओ मेरे सोना रे, आजकल तेरे मेरे प्यार के चरचे, तुमसे अच्छा कौन है, है ना बोलोा-बोलो जैसे गानों की एक पूरी की पूरी श्रृंखला है जो बड़ी तेजी से याद आती चली जाती है, जब शम्मी कपूर की फिल्मों के बारे में सोचो।
शम्मी कपूर नायिकाओं के सितारे थे। यह जानना दिलचस्प है कि अपने समय की चार महत्वपूर्ण नायिकाओं का कैरियर शम्मी कपूर के साथ शुरू हुआ था। ये नायिकाएँ थीं, आशा पारेख, सायरा बानो, कल्पना और शर्मिला टैगोर। आशा पारेख के साथ दिल दे के देखो, नासिर हुसैन की फिल्म थी। सायरा बानो के साथ वे जंगली में आये। यह भी दिलचस्प है कि सायरा बानो के ही पिता की भूमिका उन्होंने बरसों बाद अमिताभ बच्चन अभिनीत फिल्म जमीर में की। कल्पना के साथ उन्होंने प्रोफेसर फिल्म में काम किया। प्रोफेसर की कॉमेडी का एक अलग रंग था जिसमें नायिका के साथ-साथ ललिता पवार भी उम्रदराज किरदार का मेकअप किए नायक पर मोहित हो जाती हैं। चौथी नायिका थीं, शर्मिला टैगोर जिनके साथ उन्होंने कश्मीर की कली फिल्म में काम किया। शम्मी कपूर की छबि एक अपनी तरह के लवर बॉय की थी।
अपने समय के समकालीन हीरो के बीच एक अलग अन्दाज का आदमी। बोलने का साफ-सपाट अन्दाज जिसमें शायद आपको भाव न दिखें, संवेदना न दिखे मगर बातचीत करने में एक तरह का आकर्षण जो उनकी देह में रची-बसी चपलता और ऊर्जा से परवान चढ़ता था। देह को अपनी ढंग से मरोडक़र नाचना-गाना उनका हुनर था। नाच-गाने के दृश्य में जैसे रग-रग में बिजली दौड़ती दिखायी देती थी। उनका अंग-अंग फडक़ता था, ऐसा तक दर्शक कहते थे। संगीत की मस्ती में सिर हिलाने का अन्दाज भी खूब था। शम्मी इन्हीं सब बड़े सहज और लोकप्रिय कारणों से ही अपने समय दर्शकों के पसन्दीदा नायक बने और बने रहे।
शम्मी कपूर को उस समय विद्रोही सितारा कहा जाता था, रेबल स्टार। तीसरी मंजिल उनकी वो फिल्म थी जिसके लिए नासिर हुसैन देव आनंद को लेना चाहते थे। विजय आनंद फिल्म के निर्देशक थे। आरम्भिक बातचीत में जब देव साहब को बताया कि फिल्म में खूब सारे डाँस हैं, नायक एक ड्रमर है, ड्रम खूब बजाना है, तो उनकी रुचि इस फिल्म को करने में कम हुई। उस समय हेलन की सिफारिश या कहें सुझाव पर शम्मी कपूर को इस भूमिका के लिए चुना गया। शम्मी कपूर को इस फिल्म के नायक के रूप में देखकर लगता भी है कि शम्मी के सिवा और कोई विकल्प नहीं था।
शम्मी कपूर की बहुत सी फिल्मों में प्राण साहब ने खलनायक की भूमिका निभायी है। निजी जिन्दगी में प्राण साहब से उनके बहुत अच्छे रिश्ते थे। अपने कैरियर में लगभग दो सौ फिल्मों में काम करने वाले शम्मी कपूर की कुछ उल्लेखनीय फिल्मों में हम तीसरी मंजिल, ब्लफ मास्टर, प्रिंस, राजकुमार, तुम सा नहीं देखा, जंगली, प्रोफेसर, चाइना टाउन, कश्मीर की कली को याद कर सकते हैं। एक ओर जंगली में अई यई या करूँ मैं क्या गाने में उनका हेलन के साथ डाँस दर्शकों को आज भी याद होगा वहीं चाइना टाउन में उनका डबल रोल, एक शकीला और एक हेलन के नायक।
शम्मी कपूर स्वयं अपनी क्षमताओं पर एक लम्बा कैरियर सफलतापूर्वक व्यतीत करने वाले कलाकार थे। वे अपने पिता, अपने बड़े भाई की छत्रछाया से पूरी तरह मुक्त रहने का कौशल रखते थे। एक बार राज साहब पर चार्ली चेपलिन की कॉपी करने की बात कही जा सकती है पर शम्मी कपूर पर मौलिकता की पूरी छाप थी। शम्मी कपूर और राजकपूर सिर्फ एक बार साथ आये, फिल्म प्रेम रोग में जिसमें परदे पर शम्मी थे और कैमरे के पीछे निर्देशक उनके भाई राजकपूर। प्रेम रोग में शम्मी कपूर की शख्सियत में उनके पिता का सा तेवर लिए ही वो किरदार गढ़ा गया था, जिसे उन्होंने बखूबी निभाया।
नायक के रूप में उनकी लगभग आखिरी फिल्म रमेश सिप्पी की अन्दाज थी जिसमें उन्होंने एक अधेड़ विधुर की भूमिका निभायी थी। इस फिल्म के बाद एक बड़े अन्तराल में वे सेहत में इतने समृद्ध हो गये कि नायक बनने के अनुकूल नहीं रह पाये। चरित्र अभिनेता के रूप में भी उनका काम काफी सराहा जाता था। सुभाष घई की विधाता, हीरो, राहुल रवैल की बेताब और और प्यार हो गया फिल्में यहाँ जिक्र करने को एकदम से याद आती हैं।
शम्मी कपूर का निधन हिन्दी सिनेमा से एक ऐसे कलाकार का जाना है जिसकी अपने मुकम्मल दौर में उपस्थिति बड़े जीवट और असाधारण ऊर्जा के साथ बनी हुई थी। कुछ दिनों पहले ही सुनने में आया था कि रणबीर कपूर को लेकर रॉक स्टार फिल्म बनाने वाले निर्देशक इम्तियाज अली की गुजारिश पर अपने पोते के साथ इस फिल्म में एक स्टेप करने को शम्मी कपूर राजी हुए और उन्होंने शूटिंग में भी हिस्सा लिया। शम्मी साहब के निधन के बाद आने वाली यह उनकी अन्तिम फिल्म होगी।
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