बुधवार, 26 अक्तूबर 2011

दीपावली जैसा जीवन

भारतीय परंपरा के सबसे बड़े त्यौहार "दीपावली" का दिन, हमारे लिए इस सोच का दिन भी होना चाहिए कि आनंद, उल्लास और घर-जीवन के कायाकल्प के प्रकल्प का यह पर्व अब एक साल बाद ही आएगा। क्या हम इस बात पर विचार कर सकते हैं कि इस एक विशिष्ट त्यौहार के लिए हम अपने आपको जितना तैयार करते हैं, जितनी हार्दिक उदारता के साथ सबके साथ होते हैं, रिश्ते-नातों से लगाकर घर के एक-एक सामान तक की फिक्र करते हैं, वैसा जीवन क्या जिया नहीं जा सकता.....!

बात साफ-सफाई, रंग-रोगन, साज-सज्जा से शुरू होती है और दूर तक जाती है। यही काम अगर रोज की आदत में शामिल हो जाएँ तो शायद चीज़ें उतनी पुरानी, खराब या मूल्यहीन नहीं हो जाएँगी कि उन्हें अनुपयोगी, व्यर्थ और बेकार मानकर बाहर रख देना पड़े, जिस पर हर आता-जाता कबाड़ी निगाह तके और हम उन्हें बेचने का सौदा करें। लंबे समय तक देखरेख और फिक्र के अभाव में बहुत कुछ अपनी पहचान खो बैठता है।

हम सभी दो दिन पहले से एक ही काम में लगे हैं, एस एम एस से शुभकामनाएं देने के। किसी पर अधिक मेहरबान हुए तो उसे फोन करके भी उपकृत कर रहे होंगे। यह सब अब इतना आम और औपचारिक हो गया है कि समाज भी इसके कृत्रिम भाव से वाकिफ हो गया है। बेहतर है कि अपनों की खैर-कुशल हम साल भर लेते रहें। जिन्हें हम मित्र कहते हैं, जिनके साथ किसी रिश्ते में अपने-आपको जोड़ते हैं, उनसे हमारा जीवंत संपर्क ही बना रहे, ताकि साल में एक बार एस एम एस की झड़ी न लगाना पड़े। निभाने और निबटाने के भावार्थ में बड़ा अन्तर है।

आतिशबाजी, दीपावली के त्यौहार का एक सबसे बड़ा आकर्षण है। पटाखों को लेकर समझ बड़े अंतराल में परिपक्व होती है। बचपन में जब माता-पिता पटाखों के नाम पर, इसे पैसों में आग लगाने का खेल या फितूर कहते थे तो बड़ी चिढ़ हुआ करती थी। आज वही बात खुद कहते हैं तो बच्चों को चिढ़ होती है। समझ और न-समझी का यह चक्र बड़ा दिलचस्प है। इसमें माता-पिता और बच्चों में उम्र के साथ धारणाएँ हस्तांतरित हुआ करती हैं, मगर मुद्दा हमेशा की तरह एक सा ही गरम रहा करता है।

बहरहाल, समय के साथ-साथ इन बातों को देखते रहने में शायद कोई हर्ज़ न होगा, यद्यपि इन सब बातों को जानने के बावजूद हम सभी वही सब करते हैं, जिन पर ठहरकर सोचने से, यथार्थ स्वयं अपने आपको बयाँ करता महसूस होता है। ठहरकर, आगे बढ़कर, एकबारगी हम फिर सबमें शामिल हो जाते हैं, खुश होते हैं, हिस्सा बनते हैं, लेकिन बोध बना रहता है तो उसका असर शीशे में अपने आपको देखने और पहचानने की तरह होता है.......

दीपावली की अनेकानेक मंगलकामनाएं.................

शनिवार, 22 अक्तूबर 2011

देव आनंद - नब्बे के नौजवाँ


खार में वो उनके अस्थायी ऑफिस का कमरा था, जहाँ अन्तत: हमें प्रवेश करके अपने सारे कौतुहल के चरम पर जाना था। मध्यप्रदेश सरकार का राष्ट्रीय किशोर कुमार सम्मान जीवनपर्यन्त उत्कृष्ट सृजन और निरन्तर सक्रियता के लिए देव आनंद को दिया जाना था। संस्कृति मंत्री लक्ष्मीकान्त शर्मा, किशोर कुमार की पुण्यतिथि के दिन उनको इस सम्मान से विभूषित करने खास तौर पर मुम्बई गये थे। आपाधापी और चार्जशीट के परिणामों से हुई टूट-फूट के बाद ही अपराजेय देव आनंद ने हरे राम हरे कृष्ण का दूसरा भाग बनाने का ऐलान कर ही दिया था, उनके निकटतम सहयोगी मोहन चूड़ीवाला ने किसी तरह यह समय मुकर्रर करा दिया जिसका साक्षी बनने का अवसर मुझे भी मिला।

समकालीन हिन्दी सिनेमा में विगत छ: दशक से भी अधिक समय की यशस्वी उपस्थिति और निरन्तर सक्रियता के पर्याय श्री देव आनंद की प्रतिष्ठा एक गहरे अभिनेता, प्रतिभासम्पन्न निर्देशक और निरन्तर काम करते रहने वाले निर्माता के रूप में सर्वख्यात और प्रतिष्ठित हैं। उनका जन्म 26 अक्टूबर 1923 को पंजाब के गुरदासपुर जिले में हुआ। पंजाबी यूनिवर्सिटी से कला में स्नातक उपाधि प्राप्त करने के पश्चात उन्होंने मुम्बई में एक कलाकार के रूप मे अपनी शुरूआत की। उनकी सबसे पहली फिल्म का नाम हम एक हैं था जिसका प्रदर्शन काल 1946 का है। इसका निर्माण प्रभात स्टूडियो ने किया था और फिल्म के निर्देशक पी.एल. सन्तोषी थे।

भारत की स्वतंत्रता के पहले का श्वेत-श्याम सिनेमा देश के युवा स्वप्र और कल्पनाशीलता का पर्याय बनकर उभरा था और उस समय श्री देव आनंद एक नायक के रूप में ऐसे युवा के प्रतिनिधि बनकर उभरे थे। दर्शकों ने हिन्दी सिनेमा में एक ऐसे नायक को हम एक हैं के माध्यम से देखा था, जिसमें एक ऊर्जस्व और नैतिक मूल्यों की अस्मिता को समझने वाला आदर्श युवा दिखायी देता था। श्री देव आनंद की शुरूआत सफल थी और इसी क्रम में उन्हें आने वाले दो वर्षों में आगे बढ़ो, मोहन, हम भी इन्सान हैं, विद्या जैसी लोकप्रिय फिल्मों में काम करने का अवसर मिला। दर्शकों ने पहली फिल्म से जो आशा उनके प्रति व्यक्त की थी, वह आगे चलकर सार्थक हुई। प्रख्यात फिल्मकार, अभिनेता गुरुदत्त से मिलने के बाद उनके निर्देशन में आयी सफल फिल्म जिद्दी ने उनकी सम्भावनाओं को विस्तार देने का काम किया।

1949 में श्री देव आनंद ने अपनी स्वयं की निर्माण संस्था नवकेतन की स्थापना की। श्री देव आनंद को लेकर उनके भाई चेतन आनंद और विजय आनंद सहित विख्यात फिल्मकारों गुरुदत्त, राज खोसला, सुबोध मुखर्जी, नासिर हुसैन, शक्ति सामन्त ने समय-समय पर अनेक उल्लेखनीय और सफल फिल्मों का निर्माण किया। अफसर, बाजी, जाल, बादबान, टैक्सी ड्रायवर, हाउस नम्बर 44, इन्सानियत, मुनीम जी, सी.आई.डी., नौ दो ग्यारह, हम दोनों, पेइंग गेस्ट, काला पानी, बम्बई का बाबू, जाली नोट, काला बाजार, हम दोनों, जब प्यार किसी से होता है, तेरे घर के सामने, गाइड, ज्वेलथीफ, जॉनी मेरा नाम, प्रेम पुजारी, हरे राम हरे कृष्ण, तेरे मेरे सपने, बनारसी बाबू, गैम्बलर, वारण्ट, देस परदेस, लूटमार, स्वामी दादा से लेकर हाल ही में प्रदर्शित फिल्म चार्जशीट तक श्री देव आनंद की सृजनशीलता की अनवरत् यात्रा हमारे सामने भारतीय सिनेमा के एक ऐसे महानायक की छबि को गरिमामयी रूप में प्रस्तुत करती है, जिनकी अभिव्यक्ति, क्षमता और इच्छा शक्ति अनूठी और विलक्षण है।

सम्मान अलंकरण का यों कुल वक्त अधिकतम पाँच-दस मिनट होता मगर आधा घण्टा कैसे बीता पता ही नहीं चला। संस्कृति मंत्री ने देव आनंद को चरण स्पर्श करके अलंकरण से विभूषित किया। देव आनंद ने भावविभोर होकर किशोर कुमार को याद किया और कहा कि वह मेरा बहुत अजीज दोस्त था। मेरा और उसका रिश्ता, मेरे और उसके पहले गाने से जुड़ता है। बातचीत में उन्हें नौ दो ग्यारह और टैक्सी ड्राइवर फिल्मों की याद दिलायी। पहली फिल्म का गाना, हम हैं राही प्यार के, हम से कुछ न बोलिए शुरू तो होता है, दिल्ली के इण्डिया गेट से लेकिन बाद में जुड़ता है इन्दौर-धामनोद मार्ग से। इसी तरह टैक्सी ड्राइवर में देव साहब इन्दौर स्टेशन के बाहर खड़े होकर सवारी के लिए आवाज लगाते हैं, महू चार आना। गाइड की अपार सफलता के बाद इन्दौर यात्रा भी जो भरी बरसात में लाखों लोगों के उनका इन्तजार करने और मिलकर खुश होने का स्मरण कराती है।

देव आनंद अस्थायी ऑफिस में मेज पर कागजों, लिफाफों, किताबों का अम्बार लगा था। उसी के पीछे जैसे खुद अपने जतन से सहेजे गये देव साहब का दीदार रोमांच से भरा था। बात करते हुए लगता था जैसे उनकी पूरी देह, उनकी चेतना के साथ दौड़ रही है। ठहरने का उनके पास वक्त नहीं है। चार दिन बाद उन्हें दिल्ली जाना था, एक लाइफ टाइम अवार्ड और लेने के लिए, फिर उसके बाद विदेश जाने की भी तैयारी है। मैं, हम सभी नवासी के इस नौजवाँ को देखकर विस्मित थे, अभी तक विस्मय महसूस करते हैं। सचमुच उनका दिल उसी मकाम पर है, जहाँ गम और खुशी में फर्क नहीं है, जरा भी।

रविवार, 9 अक्तूबर 2011

बेटियाँ और हमारी अस्मिता


मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री की गम्भीर पहल पर बेटियों के जीवन, दुनिया को देख पाने की स्थितियों और उनकी अस्मिता के प्रति अपना गहरा आदर प्रकट करने वाला एक अच्छा अनुष्ठान पिछले दिनों आरम्भ हुआ है। मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने कुछ वर्षों से इस प्रकल्प को प्रकट करते हुए, इस दिशा में उन सार्थक योजनाओं को बनाने और जनहित में लागू करने का काम प्रशासनिक व्यवस्था को सौंपा, जिनके माध्यम से ऐसी परिपाटी, अविभावकों और समाज के सामने आयी जिसको जानने और समझने से इस अवधारणा को सकारात्मक बल मिला कि बेटी बोझ नहीं है। बेटी के होने की खबर परिवार और बुजुर्गों में मुँह बनाने या बिसूरने का सबब नहीं है।

बेटी इस मध्यप्रदेश में जन्म लेती है तो उसकी फिक्र मध्यप्रदेश के मुखिया को है, जन्म से लेकर विवाह तक और उसके आत्मनिर्भर लक्ष्यों तक। यह अनुष्ठान एक बड़ा काम है जो समाज को मानसिक रूप से साक्षर और समझदार बनाने के काम आयेगा, उनकी धारणाओं को सुधारने का काम करेगा। मुख्यमंत्री की इस हार्दिक उदारता के साथ समाज और परिवार की अपनी भूमिका और महत्वपूर्ण हो जाती है। परिवार और समाज की अपनी दुधारी धारणाएँ जीवन-व्यवहार में खूब देखने में आती हैं। माँएँ, पिता, बेटी के भी माता-पिता होते हैं और बेटों के भी। परिवारों में बेटी और बेटे भी एक साथ हुआ करते हैं। दाल और रोटी में सबसे ज्यादा घी केवल बेटे के लिए ही जरूरी नहीं होता। तीज-त्यौहार पर अच्छे कपड़ों पर केवल बेटों का ही अधिकार नहीं होता। अपढ़ समाज में पुत्रों को ही पट्ठा बनाने का दकियानूसीपन ही कई बार उन माता-पिताओं को हताशता है जिन्हें बुढ़ापे में कोने-छाते में पड़ा छोड़ दिया जाता है।

बेटी का जन्म होते ही माता-पिता सबसे पहले इसी चिन्ता में डूब जाते हैं कि यह हमारे जोड़े हुए धन के पास से चले जाने का कारण बनेगी। उनकी खुशी व्यर्थ ही काफूर हो जाती है जबकि सोचने वाली बात यह है कि बेटी ही ताजिन्दगी माता-पिता की खैरियत लिया करती है और विदा होने के बाद भी अपनी आत्मा अपने माता-पिता के पास ही छोड़ जाती है। प्रशासनिक सेवा, पुलिस सेवा, खेल, साहित्य, संस्कृति, सिनेमा, विज्ञान, राजनीति, चिकित्सा, तकनीक और भी जाने कितने आयामों में बेटियाँ ही हमें गौरवान्वित करती हैं। भारतीय परम्परा में नदियाँ हमारी महान अस्मिता का परिचायक हैं। मध्यप्रदेश में नर्मदा, ताप्ती, बेतवा, शिप्रा नदियों से हम उसी तरह गौरवान्वित होते हैं। ऊँचे पहाड़ों पर अनादिकाल से अवस्थित देवी मन्दिरों पर हम श्रद्धा से मत्था टेकने जाते हैं और अपना जीवन सँवारते हैं।

एक फूल दो माली में एक गाना है, मेरा नाम करेगा रोशन, जग में मेरा राजदुलारा। नाम तो राजदुलारी भी रोशन करती है, साहब और वह भी कुछ अधिक सुखद अनुभूतियाँ प्रदान करने के साथ। कभी-कभी फिल्म का एक गाना याद आता है, मेरे घर आयी एक नन्हीं परी। ऐसा ही एक खूबसूरत गाना, फिल्म दिल एक मन्दिर में भी है, जूही सी कली मेरी लाडली नाजों की पली मेरी लाडली। हिन्दी फिल्मों में बेटियों की भूमिकाएँ अनूठी गढ़ी गयी हैं। हृषिकेश मुखर्जी की फिल्म आशीर्वाद में नायक अशोक कुमार का अपनी बेटी से अपार स्नेह देखते बनता है।

काबुलीवाला में एक पठान एक बच्ची को देखकर अपनी बेटी को याद करता है। ममता फिल्म में एक स्त्री अपनी बेटी के लिए जो संघर्ष करती है, वो मर्माहत करता है। गुलजार की फिल्म परिचय में धानी सी दीदी के जिम्मे सब भाई-बहन हैं। ब्रम्हचारी में सब अनाथ बच्चों की देखभाल उनमें सबसे बड़ी बच्ची किया करती है। दो कलियाँ में हमशक्ल बेटियाँ हैं जो अपने माता-पिता को मिलाती हैं। कमल हसन की फिल्म चाची चार सौ बीस में नायक अपनी बेटी को कितना चाहता है, वही बेटी अपने पिता को स्त्री वेश में भी पहचान जाती है। विशाल भारद्वाज की फिल्म ब्ल्यू अम्ब्रेला में भी एक चतुर बेटी ही लालची बनिए को उसके किए की सजा दिलवाती है।

उदाहरण बहुत से हैं, याद करें तो चर्चा विस्तार लेती ही रहेगी, मगर मध्यप्रदेश में बेटियों के लिए, बेटी है तो कल है, नाम का अनुष्ठान उन तमाम पिछड़ी और दकियानूसी मान्यताओं से हमें उबारने का गम्भीर और संजीदा जतन है, जिन्हें सदियों से हम अपने सिर पर किसी न किसी रूप में लादे हुए हैं, शिक्षा और आधुनिकता भी जिसकी सफाई पूरी तरह नहीं कर पायी है।

मंगलवार, 4 अक्तूबर 2011

और शरमन जोशी ने कहा, हैलो.. .. .. ..


काना सिमोदा के लिए वह पल अविस्मरणीय बन गया था, जब शरमन जोशी की आवाज, उसके कानों से लगे मोबाइल में गूँजी, हैलो.. .. ..

अपने अन्त: में खुशी से लगभग हतप्रभ सी काना को कुछ बोलते न बना। हम लोगों के प्रोत्साहित करने पर उसने बात की, कहा, मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूँ। आज मैं भोपाल से दिल्ली जा रही हूँ और चार दिन बाद दिल्ली से जापान। मेरी बड़ी इच्छा थी, कि आपसे एक बार मिलूँ। कई फिल्में आपकी मैंने देखीं, मिलना नहीं हो पाया, लेकिन इस समय बात करके बहुत खुशी हो रही है। अगर कभी दोबारा हिन्दुस्तान आना हुआ तो जरूर मिलने की इच्छा होगी।

शरमन जोशी ने जापान से दो साल पहले दमोह के जिला चिकित्सालय में मेरी बहन के सान्निध्य में अपना दो वर्षीय प्रशिक्षण आरम्भ किया था। बहन के ही साथ उसे कुछ बार इस अवधि में भोपाल भी, प्रशिक्षण के सिलसिले में आना पड़ा। वह हमारे परिवार से खूब घुलमिल गयी। जिस तरह हमारी दोनों बहनें हमें दादा कहती हैं, काना भी कहा करती। काना ने हिन्दी बोलना भी खूब सीख लिया था। बड़ा मजा आता काना से बात करके।

मेरी बहन ने ही मुझे बताया कि काना ने शरमन की रंग दे बसन्ती, गोलमाल, थ्री ईडियट्स आदि फिल्में देखीं हैं और गजब मुरीद है, साथ ही यह भी कहा कि यदि कभी इसकी भेंट दो मिनट ही सही शरमन से हो सके तो देखना। बात हाँ-हूँ में होकर रह गयी। समय व्यतीत हो गया, और चार दिन पहले वो दिन भी आ गया जब बहन ने बताया कि वो जा रही है। उसका यहाँ का प्रशिक्षण पूरा हो गया है।

बहन कुछ दिन पहले भोपाल आ गयी थी, काना दमोह में अपना काम पूरा करके, भोपाल में बहन और हमारे परिवार से मिलते हुए भोपाल से दिल्ली का जहाज लेकर दिल्ली और फिर जापान जाने का कार्यक्रम बनाकर आयी। घर में काना के साथ हम सब थे, लेकिन मेरा मन बेचैन। मुझे लगा, काना की एक आकाँक्षा पूरी न कर पाया। जाने अब वो जापान से आये भी कि नहीं।

मैंने अपने बड़े भाईतुल्य प्रतिष्ठित अभिनेता गोविन्द नामदेव से फोन करके अनुरोध किया कि वे कुछ मदद करें। उन्हें सब बताया। गोविन्द जी ने शरमन को फोन किया, सब बताया, फिर मुझे फोन करके कहा, सुनील, शरमन का नम्बर ये है, तुम फोन लगा लो, काना से उसकी बात करा देना.. .. .. ..

इस तरह शरमन को फोन लगाया, काना के बारे में दोहराया और काना की बात करायी। रात भोपाल एयरपोर्ट पर काना को हम विदा कर रहे थे। भावुक काना, अपनी जापानी सहयोगी और दिल्ली से उसे लेने आयीं समन्वयक प्रीति को खुशी-खुशी बता रही थी, शरमन जोशी से मैंने बात किया है.. .. ..

उनके चेहरे आश्चर्यमिश्रित भाव प्रकट कर रहे थे और मुझे भीतर सुकून सा महसूस हो रहा था.. .. ..
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