सोमवार, 21 नवंबर 2011

रविवार-सोमवार और जिन्दगी के विरोधाभास



रविवार और सोमवार के बीच अजब विरोधाभास हुआ करता है। खासकर अपने शहर भोपाल में देखा करता हूँ बरसों से। रविवार अवकाश का दिन होता है, चहल-पहल से भरा हुआ। किसी को भी काम पर जाना नहीं होता, कुछेक अपवादों को छोडक़र। अपनी तरह लोग उठते हैं, रोज की तरह दिन के साथ व्यतीत नहीं होते बल्कि दिन को अपनी तरह बरतते हैं। सबसे खास बात तो यह कि रोज की अपेक्षा बाजार ज्यादा रौनक के साथ सजता है। बहुत सारे छोटे और मझौले दुकानदारों को अवसर मिलता है, शहर में आकर अपना सामान बेचने का। सब्जी बाजार जाने कितनी लाइनों और सडक़ों में बँटा दिखायी देता है। वहीं अनाज और राशन की छोटी-छोटी दुकानें जिनमें रंग-बिरंगे मसालों का अपना विन्यास। ठेलों पर दिन भर बनते भजिए, समोसे और चटख रंग वाली जलेबियाँ। 

साप्ताहिक हाट का यह अलग आकर्षण है। सर्दी का मौसम है, बरसात के मौसम में बोयी और उगायी गयी सब्जियों की बहार हैं। भाजियों की आमद खासतौर पर भरपूर है। खासतौर पर देसी चीजें खूब आ और बिक रही हैं, देसी का अपना आकर्षण है, देसी मेथी, देसी मूली, देसी गाजर, देसी टमाटर, देसी गोभी की बहारें सुबह से ही सब्जी पसन्द और खासकर छाँटबीन कर खरीदारी करने वालों को रविवार के दिन खूब मौका देती हैं। घरों की कारें, मोटरसाइकिले, स्कूटर जो कि अब शहर में अपेक्षाकृत बहुत ही कम बचे हैं, सभी जैसे शाम होते-होते बाजार की सभी पार्किंग को लबालब भर दिया करते हैं। इसी खासी आपाधापी में व्यवस्था सुधारने निकलती ट्रैफिक पुलिस क्रेन पर सवार, माइक पर दाँए-बाँए, आमने-सामने गाडिय़ों के नाम और नम्बर लाउडस्पीकर में चिल्लाती और लगभग डाँट पिलाती हुई सडक़ों पर चारों तरफ परिक्रमा करती दिखायी देती है। लटकी-झूलती, नियम तोड़ती मोटरसाइकिलें और उनके पीछे भागते, घिघियाते या अन्त में जुर्माना भरते उनके मालिक और इन सबसे अलग, इन सबका मजा लेते तमाशबीन।

रात तक रविवार अपनी रौनक में होता है। मौसम सर्दी का है, बाजार में गजक आ गयी है। ग्वालियर से लेकर मुरैना तक की गजब का अपना आकर्षण और स्वाद है। पहले गजक के साथ रेवडिय़ों के भी चहेते हुआ करते थे, लेकिन अब रेवडिय़ाँ बिकने के बजाय, कहावतों और मुहावरों में ज्यादा इस्तेमाल होने लगी हैं। रात को आइसक्रीम की समृद्ध और भव्य दुकानों के सामने जैसे अलग ही तरह की रोशनाई दिखायी देती है। पहनावा, फैशन और जीवनशैली के विविध रूप यहाँ आते-जाते लोग निहारते नहीं अघाते। महानगरों की तरह शहरों में अब रविवार को घर पर खाना बनाने से निजात दिलाने की आपसी समझ बहुत जगह बन जाती है तो फिर ऐसे परिवार रात्रि भोजन या डिनर फिर बाहर ही करते हैं। रविवार के दिन सिनेमाघर में भी परिवार ज्यादा आजादी और आराम के साथ आया-जाया करते हैं। 

सोमवार की शाम जैसे रविवार के बिल्कुल उलट स्वरूप में होती है। एक दिन पहले की भरपूर सक्रियता और देर रात तक लगे रहने के बाद सोमवार को दुकानदार आराम करते हैं। इसी कारण एक दिन पहले जो सडक़, जो फुटपाथ और जो दुकानें जनता-जनार्दन से पल भर को फुरसत नहीं पा रही थीं, वे एक दूसरी ही स्थिति में नजर आती हैं। दुकानें बन्द होती हैं। इस यथार्थ को जानने वाला भी बाजार नहीं आता लिहाजा एक अजीब सा सूनापन या कह लीजिए सन्नाटा व्याप्त रहता है सब तरफ। कई बार ऐसे माहौल में घूमते हुए एक अजीब सा एकाकीपन महसूस होता है। हमारे आसपास से होकर कोई निकल नहीं रहा होता है। वाहनों का शोर अपेक्षा कम हो रहा होता है। फेरीवालों की आवाजें सुनायी नहीं पड़तीं। एक दिन पहले का कोलाहल और एक दिन बाद की शान्ति सचमुच परस्पर प्रतिरोधी लगती हैं। 

जिन्दगी अपनी सहजताओं, मन-बहलाव और इस दुनिया का हिस्सा बने रहने के लिए ही तो कितने सारे रंग रचती है। हम मनुष्यों के ही सृजित किए हुए ये सारे किस्से और हिस्से हैं। कभी चहल-पहल, शोर और जीवन की अपनी मनभावन विविधताओं से जैसे हमको साँस लेने की गुंजाइशें मिलती हैं। उस समय भीड़ ही हमको ऊर्जा देती है। कभी आसपास का अकेलापन, भरपूर सन्नाटा और खुद अपने को सुनायी देती पदचाप में भी घुटन और साँस लेने में तकलीफ महसूस होती है। जीवन का यह भी एक रंग है.........................

शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

"बिग बॉस"

आपने बिना वजूद के किसी मुखिया की कल्पना की है? शायद न की हो। लेकिन दृश्य में ऐसे ही मुखिया का वजूद स्थापित किया जा रहा है।

पचास साल पहले की देखी कुछेक फिल्मों को याद कीजिये, शायद आपको एक जाने-माने खलनायक के. एन. सिंह याद आ जाएँ। पूरी फिल्म में उनका चेहरा दिखाई नहीं देता था। उनकी छाया अंधेरे की सरताज हुआ करती थी। उनकी आवाज़ का मतलब हुआ करता था। सब उनके आज्ञापालक हुआ करते थे। पर्दे के पीछे उनका दम देखने काबिल होता था। प्रकट वो अंत में ही होते थे जब "एक्सपोज" हो जाते थे या कहें कि परदाफाश हो जाया करता था तब ही हम उनका चेहरा देख पाते थे।

"बिग बॉस" में इस बार कलह बड़े घृणित रूप में हम देख रहे हैं। यदि यह सुनियोजित या पूर्वनियोजित है तो भी और यदि यह स्थितियों से प्रेरित है तब भी। इस कार्यक्रम को देखना इस बार शायद उतनी संख्या में लोग पसंद नहीं कर रहे हैं, जैसे पहले देखते रहे होंगे। ऐसा लगता है कि इसमें शामिल बहुतों के चयन का मापदंड अतिशय निर्लज्जता ही रहा होगा। 

परस्पर पुरुषों के व्यवहार, परस्पर स्त्रियों के व्यवहार और फिर पुरुषों और स्त्रियों के परस्पर व्यवहार, सबमें शिष्टाचार ताक पर है। नब्बे दिनों का वक्त बहुत होता है। एक ग़ज़ब खेल की परिकल्पना है यह जिसमें आपस में दस-बारह लोग इस तरह व्यवहार करते हैं कि दिलों से उतरते जाते हैं और दरकिनार होकर अंततः बाहर हो जाते हैं। अंतिम रूप से बच गए लोग सजग और सावधान किस्म के कुटैव में अपनी दक्षता को सिद्ध करते हैं, जो आखिर में विजयी होता है, वह हीरो होता है। उसका "हीरोइज़्म" दर्शक को कभी समझ में नहीं आता।

तीन महीने वाकई बहुत बड़ा समय होता है। इतना समय इस त्रासद मनोरंजन के नाम करने के बजाय अच्छे लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों, समाजचेताओं, कलाकारों को एकत्र करके उनके साथ संजीदा संवाद करके कुछ सार्थक और रचनात्मक काम किया जा सकता है। अच्छी किताबें, शोध, संगीत, सृजन, विश्लेषण सामने लाया जा सकता है।

सोमवार, 14 नवंबर 2011

रॉकस्टार : गहरे सम्बोधन और संकेतों के वर्चस्व की फिल्म


ग्यारह ग्यारह ग्यारह को और भी बहुत सारे अजब-गजब कामों-कारनामों के साथ ही शुक्रवार होने की वजह से फिल्में भी रिलीज हुईं। पिछली कुछेक बड़ी और सफल फिल्मों के बाद सभी की निगाहें रॉकस्टार पर टिकी थीं। एक अन्तराल हो गया था, रणबीर कपूर की फिल्म आये हुए और इम्तियाज अली की अपनी पटकथा पर उन्हीं के द्वारा निर्देशित इस फिल्म को लेकर भी एक किस्म की जिज्ञासा बनी हुई थी। यह दिलचस्प है कि उनकी पहली फिल्म जब वी मेट सिनेमाघरों से जल्दी उतर जाने और उतनी ही जल्दी उसकी सीडी और डीवीडी व्यावसायिक रूप से जारी हो जाने के बाद भी हिट मानी जाती है। वह एक रोचक फिल्म तो खैर थी ही। बहरहाल रॉकस्टार को देखते हुए यही लगता है कि यह प्रेम के धरातल पर बहुत गहरे सम्बोधन और उसी संकेतों के वर्चस्व की कहानी है। तत्काल जाँचकर इसका कोई भी परिणाम दे देना उतना तर्कसंगत नहीं लगता, ऐसा कुछ समीक्षाएँ और विचारों को देख-पढक़र लगता है।

रॉकस्टार के मूल विषय में प्रेम और महात्वाकाँक्षा दोनों के प्रतिशत कम-ज्यादा नहीं हैं। महात्वाकाँक्षा एक स्वप्रद्रष्टा और जरूरतमन्द इन्सान का स्थायी भाव होती है, उसकी अपनी नैतिकताएँ भी हुआ करती हैं, यों महात्वाकाँक्षा शब्द ऐसा है जो जमाने के चलन और अवलोकन के साथ ही हरेक में लगभग प्रतिरोपित सा हुआ करता है। बहरहाल फिल्म का नायक यदि संयुक्त परिवार में और वह भी अपने परिवार के लगभग उपेक्षित से दिखायी देने वाले रहमोकरम में अपने दिन व्यतीत कर रहा है, वह निश्चित ही घुटन से भरे उस अन्त:पुर से बाहर साँस लेने के लिए अपना आसमान तलाशेगा ही। रॉकस्टार का जॉर्डन भी ऐसा ही है। वह अपनी उंगलियों और गले के हुनर को लगातार माँझता है, दिखायी देती दुनिया को पकडऩा चाहता है, उसका हिस्सा बनना चाहता है। यहाँ पर मित्रों की अपनी भूमिका है, जो दो-तीन निहायत मूर्ख किस्म के हैं, एक होटल का मालिक खटाना है, जिसकी हमदर्दी उसके साथ लगातार चलती है। 

यह फिलॉसफी जबरन ही नायक के मन में धकेल दी जाती है कि हर उत्कर्ष, यश और उससे समृद्ध व्यक्ति के पीछे प्रेरणा तकलीफें, खण्डित प्रेम, संघर्ष, हुज्जत और अपमान की बड़ी भूमिका होती है। नायक का ऐसे अवसरों की तलाश करना वृथा ही है। हाँ वह हीर से प्रेम का आग्रह करता है, अपनी बात कहता है मगर उसके पीछे दिमाग एक रॉकस्टार के रूप में सारी दुनिया पर छा जाने के लिए ही काम कर रहा है। वह इस मसले पर कमजोर पड़ता है लेकिन हीर की तरफ से जब प्रेम उत्तर के रूप में उसकी तरफ लौटता है, तब ही दरअसल कमाल होता है। अब उसके पास इस विचार का स्मरण शायद नहीं है कि यह प्रेम कभी विरह या वेदना होगा तक उसकी उन्नति होगी, बल्कि उत्कर्ष से कहीं ज्यादा अनमोल प्रेम हो जाता है।


 जॉर्डन और हीर का साथ में एक वयस्क फिल्म देखना, देसी शराब पीकर मजे करना और आगे के दृश्यों में हीर का अपनी शादी के साथ प्राग चले जाना फिल्म के आगे के वे हिस्से हैं जिससे प्रेम की अपनी शिद्दत स्थापित होती है। यहाँ हम देख यह रहे हैं कि उत्कर्ष को प्रेम इस तरह प्रभावित करता है कि जॉर्डन लगातार विचलन की स्थितियों में है। प्राग में उसका हीर के साथ मिलना और हीर का एक तरह से अपने परिवार के बीच शर्मसार होना प्रेम के ही धरातल पर ज्यादा गहरे होता जुनून है। रॉकस्टार इसमें मिट सा रहा है तमाम लोकप्रियताओं के बावजूद। यहाँ पर म्युजिक कम्पनी के मालिक का अपना शोषक हथियार है, वो कलाकार को बांधकर रख देना चाहता है अपनी व्यावसायिक लोलुपतातों में। 

फिल्म जिस तरह आगे बढ़ते हुए त्रासद अन्त की राह पकड़ती है, वहाँ जरा सा यह एहसास होता है कि पटकथाकार इम्तियाज अली भ्रम का शिकार हो गये हैं। हीर की बीमारी में जो कि जाहिर है जानलेवा है, छोटे-मोटे चमत्कार या उसका लगभग निर्जीव होकर जरा-जरा चेतना जॉर्डन की उंगलियों और ओठों के स्पर्श का परिणाम हो सकता है, फिल्म देखते हुए दर्शक को स्फुरित करता हो, मगर यहाँ पर आगे चलकर बेहतर होता कि नायिका कोमा में न जाती, वह भी डॉक्टर द्वारा यह जाने, जाने के बाद कि हीर गर्भवती है। नायिका का कोमा में जाना उसकी दशा और जीवन का अन्तिम दूश्य सा गढ़ा जाना, नायक में एक अपराधबोध को स्थायी रूप से सम्प्रेषित करके रख देता है। वह बहुत बड़ा स्टार बनकर स्थापित तो हो गया है, जैसा कि फिल्म का क्लायमेक्स असंख्यों की भीड़ के साथ जाहिर करता है मगर वह फिल्म को सही जगह पर ले जाने में विफल हो जाता है। दर्शक लगभग अपनी असहमतियों के साथ इस फिल्म को देखते हुए सिनेमाघर से बाहर आता है।

फिल्म में सहायक कलाकारों की भूमिकाएँ कमाल की हैं। खासतौर पर पीयूष मिश्रा, कुमुद मिश्रा और शरनाज पटेल का जिक्र यहाँ खासतौर पर किया जाना बेहद जरूरी लगता है। पीयूष मिश्रा ने म्युजिक कम्पनी के मालिक और कुमुद मिश्रा ने नायक के हमदर्द खटाना की भूमिकाएँ निभायी हैं। ये दोनों ही किरदार नायक के साथ-साथ चलते हैं और उसके हर मोड़, हर अन्तद्र्वन्द्व के संगी से होते हैं। ग्वालियर के पीयूष और रीवा-भोपाल के कुमुद दोनों अत्यन्त रंग-प्रतिबद्ध और प्रतिभाशाली कलाकार हैं, दोनों ही रॉकस्टार का अहम हिस्सा हैं। शरनाज पटेल ने नायिका की माँ की भूमिका निभायी है, उनके लिए निर्देशक ने समझदार दृश्य और संवाद गढ़े हैं। उत्तरार्ध में उनका रोल बड़ा महत्वपूर्ण हो जाता है। नायक की छोटी बहन, नायिका की छोटी बहन के किरदारों से भी इस फिल्म को बड़ा अच्छा समर्थन मिलता है।

रणबीर कपूर इस फिल्म के मुख्य श्रेयक हैं। इसे कमाल ही कहा जाना चाहिए कि इस युवा ने जॉर्डन के किरदार को ऐसे अनोखे शेड्स में इतने प्रभावी ढंग से निभाया है। वह जब पीथमपुरा के अपने घर में अपने भाइयों से पिटता है, तब, जब वह केन्टीन में अपने दोस्तों की झूठी और आँख मारू हौसलाआफजाई में ख्वाब देखता है, तब, जब वह नायिका के सामने आता है और सपाट ढंग से अपना प्रेमाग्रह करता है, तब और फिर प्रेम होने के बाद, बिछोह होने के बाद, विद्रोही मन:स्थितियों में, आक्रामक परिस्थितियों में कितने सारे आयामों में दिखायी देता है, वह गजब ही है। कहना चाहिए कि रॉकस्टार, रणबीर कपूर की परिपक्वता को प्रमाणित करने वाली पहली फिल्म है। हीर बनी नरगिस फखरी अपनी नर्म आवाज और छोटी-छोटी आँखों से परदे पर जब-जब होती हैं, मूड बना देती हैं। वे दृश्य बड़े महत्व के हैं, जब वे नायक के सामने उसे नसीहत देने से लेकर याचना और लानत तक ही मुद्राओं में आती हैं। बीमारी के आखिरी दृश्यों में वे दर्शकों की सहानुभूति बड़ी तेजी से ले जाती हैं।
एक तरफ इस फिल्म में दिवंगत शम्मी कपूर को कुछ दृश्यों में देखना बड़ा महत्वपूर्ण लगता है। विकट बीमारी के बावजूद अपने पोते के लिए वे इस फिल्म में आये। वे सारे दृश्य स्मरणीय हैं जिनमें शम्मी कपूर होते हैं। इरशाद कामिल के गीत रॉकस्टार की जान हैं, उसी तरह मोहित चौहान की आवाज़ भी। 


 ए.आर. रहमान का बैकग्राउण्ड स्कोर और संगीत दोनों ही फिल्म के संगीतपक्ष को अविस्मरणीय बनाने में अहम भूमिका निभाते हैं। सिनेमेटोग्राफर अनिल मेहता ने दिल्ली से लेकर प्राग तक उन खास जगहों को यादगार बना दिया है, जहाँ ये फिल्म पूरी हुई। खासतौर पर ऊँचाई से प्राग के दृश्य इमारतें, रात की रोशनियाँ, खासकर निजामुद्दीन औलिया साहब की दरगाह का परिवेश मुग्धकारी लगता है, इसमें सिनेमेटाग्राफी का बड़ा कमाल है। कुल मिलाकर रॉकस्टार को हम नये जमाने की, आज की फिल्म मानकर उसका स्वागत करें। यह आज की पीढ़ी की फिल्म है। जिन्दगी की अपनी तरह की जरूरी सी नसीहतें भी रॉकस्टार में हैं और तार्किक आधार भी।

रविवार, 13 नवंबर 2011

भूपेन हजारिका : थम गया, स्वर का अपार विस्तार


भूपेन हजारिका के निधन से फिर एक खालीपन का एहसास होता है। सीधे तौर पर तो नहीं मगर उनकी आवाज़ को सुनते हुए यह महसूस होता था कि सचिन देव बर्मन और हेमन्त कुमार की स्वर-सलिला का ही एक तरह से अनुसरण करता हुआ महसूस होता था उनका स्वर। सचिन देव बर्मन पहले संगीतकार थे, उसके बाद पाश्र्व गायक। पाश्र्व गायक के रूप में खासतौर पर माझी गीतों और जीवन के यथार्थ पर उनका स्वर हमें गहरे बेधता था। हेमन्त कुमार की आवाज़ भी अपने समकाल में क्षणभंगुर जीवन की बहुत सी सचाइयों को उन गीतों में अधिक प्रभाव के साथ व्यक्त करती थी, जो वे गाते थे। 

शब्दों को आवाज़ और संगीत कितना अमरत्व प्रदान करते हैं, यह बात हम यहीं पर शायद ज्य़ादा बोध के साथ स्वीकार करते हैं। भूपेन हजारिका का सृजन हालाँकि पचास के दशक से आरम्भ हो गया था मगर ऐसे अनुसरण में वे बड़े बाद में शामिल हुए। देश की आज़ादी के बाद उनकी सक्रियता शुरू हुई। वैसे उन्होंने तेरह वर्ष की उम्र में 1939 में इन्द्रमालती फिल्म में बाल कलाकार के रूप में काम किया था। भूपेन हजारिका युवा उम्र में पढ़ाई-लिखाई के लिहाज से भी बेहद प्रतिभाशाली थे। आज़ादी के पहले ही बनारस विश्वविद्यालय से उन्होंने डिग्री हासिल कर ली थी। उन्होंने कोलम्बिया यूनिवर्सिटी से, द रोल ऑफ मास कम्युनिकेशन इन इण्डियाज़ एडल्ट एजुकेशन में डॉक्टरेट उपाधि भी प्राप्त की। यह सब करने के बाद उन्होंने अपनी पहचान फिल्म संगीत के क्षेत्र में कायम की। 

असम में उनका लम्बा समय व्यतीत हुआ था। वहीं उनका भाषा-संस्कार और सांस्कृतिक सरोकार समृद्ध हुए। महान सन्त शंकर देब और माधब देब की रचनाओं को उन्होंने अनूठी कल्पनाशीलता से संगीतबद्ध करते हुए अपनी पहचान बनायी। भूपेन हजारिका की स्वर-संगीत सर्जना पर असम के बिहू नृत्य, बान गीत और बार गीत जो खासतौर से इन्हीं सन्तों की वाणी रही, इसके अलावा ब्रम्हपुत्र नदी का महात्म्य भी उनके अपने परिवेश के लिए अत्यन्त महत्वपूर्ण सिद्ध हुआ। भूपेन हजारिका के संगीत निर्देशन में लता मंगेशकर, तलत महमूद, आशा भोसले, किशोर कुमार और मुकेश जैसे महान गायकों ने भी पाश्र्व गायन किया। भूपेन हजारिका हिन्दी सिनेमा के बड़े कैनवास पर कल्पना लाजमी के ज़रिए आये। 

कल्पना लाजमी भी असम मूल की हैं और उन्होंने अपनी सभी फिल्मों के लिए भूपेन हजारिका की आवाज़ और संगीत को एक तरह से अपरिहार्यता की तरह लिया। कल्पना उनसे 1977 में जुड़ी थीं, उनकी सहायक बनकर। कल्पना लाजमी ने शुरू में धीरेन गांगुली पर एक वृत्त चित्र बनाया, बाद में ब्रम्हपुत्र पर एक लघु फिल्म बनायी। एक पल, रुदाली और दरमियाँ कल्पना की बड़ी और चर्चित फिल्में थीं, लोहित किनारे टीवी सीरियल भी। बाद में उन्होंने दमन भी बनायी और चिंगारी भी। 

भूपेन हजारिका, कल्पना के इन्हीं कामों के साथ भारतीय दर्शक समाज में जिनमें ज्य़ादातर संगीतप्रेमी, हिन्दी भाषी क्षेत्रों के दर्शक-श्रोता शामिल थे, उन सभी के अपने हो गये, उनसे जुड़ गये। उन्होंने सई परांजपे की फिल्म साज और मकबूल फिदा हुसैन की चर्चित फिल्म गजगामिनी का संगीत निर्देशन भी किया और गजगामिनी में गाया भी। गांधी टू हिटलर पाश्र्व गायक के रूप में उनकी आखिरी फिल्म रही। इस फिल्म के लिए उन्होंने गांधीजी का प्रिय भजन वैष्णव जन गाया था। 

यहीं पर उनकी कुछ प्रमुख असमी फिल्मों का जिक़्र करते हुए 1975 की फिल्म चमेली मेमसाब फिल्म का उल्लेख भी आवश्यक है, जिसमें उनका सृजन बहुत महत्वपूर्ण था। इसी फिल्म का एक गाना भूपेन हजारिका ने कमल गांगुली और कोरस के साथ गाया था, बड़ा दुर्लभ, बड़ा यादगार - इंसाँ इंसाँ के लिए, जीवन, जीवन के लिए, ज़रा सी हमदर्दी का वो, क्यों हकदार नहीं, ओ बंधु.....। प्रमुख असमी फिल्मों में सिराज, पियोली फूकन, एरा बातोर सुर, शकुन्तला सुर, प्रतिध्वनि, का सावित्री, चिक मिक बिजुली, अपरूपा, स्वीकारोक्ति में शामिल हैं। तितास एकटि नदीर नाम, हित्विक घटक की 1973 की एक प्रमुख उल्लेखनीय बंगला फिल्म थी, जिसमें भूपेन हजारिका ने गाया था। 

भूपेन हजारिका का सचमुच विस्तार अपार था। 1992 में कल्पना लाजमी की फिल्म रुदाली को अन्तर्राष्ट्रीय-राष्ट्रीय स्तर के फिल्म समारोहों में बेहद सराहा गया था। यह फिल्म एक स्त्री के विचलन, द्वन्द्वभरी जि़न्दगी और निरन्तर पस्त पड़ते अन्त:सम्बल को बड़े सशक्त प्रभाव के साथ व्यक्त करती थी। डिम्पल ने यह भूमिका निभायी थी जिसके लिए उनको राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला था। उन पर, एक बार लता मंगेशकर और एक बाद भूपेन हजारिका के स्वर में फिल्माया गाना, मन हूम हूम करे, घबराये ही इस वक्त ज़हन में जैसे बैठा हुआ है, अपनी ध्वनियों के साथ। एक मर्मस्पर्शी आवाज़ के ठहर जाने का हाहाकार मन में है। 

भूपेन हजारिका के नहीं रहने की सचाई के बीच यही मन:स्थिति है। अपने चहेतों में वे भूपेन दा के नाम से जाने और सम्बोधित किए जाते थे। वे प्रतिभासम्पन्न थे और उन्होंने अपना व्यक्तित्व स्वयं गढ़ा था। उनका स्मरण मात्र ही उनकी छबि को हमारे सामने जिस तरह लाता है, वह पहचान आगे भी हमेशा रहेगी। जो अमर सृजन उनका है, दरअसल उसी से उनकी स्मृतियाँ हम सबके बीच सदैव ताज़ा रहेंगी। भूपेन दा दुख देकर भी हममें जिए रहेंगे..............।

सोमवार, 7 नवंबर 2011

तीन देवियाँ और एक देव


भारतीय सिनेमा के बड़े कलाकारों-फिल्मकारों का यादगार काम देखने का मन सिनेमा की शताब्दी की बेला में निरन्तर हुआ करता है। ऐसे ही अब से लगभग पैंतालीस साल पहले की एक फिल्म तीन देवियाँ देखने का मन हुआ। महानायकों में हम अपने बीच दिलीप कुमार और देव आनंद की यशस्वी उपस्थिति को लगातार पाते हैं। देव आनंद की उल्लेखनीय फिल्मों में कुछ फिल्में ऐसी भी हैं, जो उनके छोटे भाई विजय आनंद के अलावा दूसरे निर्देशकों गुरुदत्त, अमरजीत, राज खोसला, नासिर हुसैन आदि ने भी बनायी हैं। तीन देवियाँ के निर्माता-निर्देशक अमरजीत हैं। एक दिलचस्प मगर एकाग्र रखने वाली फिल्म है तीन देवियाँ जिसमें नायक की कठिन परीक्षा है। सच्चे प्रेम को पहचानना और अपनी जिन्दगी के फैसले सोच-समझकर ले पाना दोनों ही कठिन काम हैं। तीन देवियाँ फिल्म का अन्त इसी पर केन्द्रित है।

तीन देवियाँ का नायक देव कोलकाता के म्युजिक शॉप में काम करता है जहाँ साज बेचे जाते हैं। उसका मालिक आई.एस. जौहर बड़ा सहृदय है। जब उसे पता चलता है कि देव शायर है, गाता है, संगीत जानता है तो वह उसे प्रोत्साहित करता है और दोस्त की तरह बर्ताव करता है। जौहर की मदद से ही देव की रचनाओं की किताब छपकर आ जाती है और वह लोकप्रिय हो जाता है। उसके जीवन में तीन स्त्रियाँ हैं, एक है नंदा जो उसके पड़ोस में रहती है, जिससे उसे पहले प्यार हो जाता है। नंदा की सादगी और देव के साथ उसका निश्छल प्रेम उसे आकृष्ट करता है। एक शाम वह दूसरी नायिका कल्पना से मिलता है जो अभिनेत्री है। उससे पहले उसकी नोकझोंक होती है, फिर आकर्षण। तीसरी नायिका सिमी है जिसे राधा भी कहा जाता है। सिमी, देव के म्युजिक शॉप से पियानो खरीदती है और देव उस पियानो को सिमी के घर लाकर बजाकर बताता है।

देव, एक मध्यमवर्गीय महात्वाकाँक्षी युवा है, जिसके अपने सपने हैं, उन्नति और अवसरों की दुनिया के ख्वाब हैं, पैसा और रसूख की चाह भी। एक तरफ नंदा उसी की तरह सहज-सामान्य है, दूसरी तरफ कल्पना रसूखवाली और सिमी बौद्धिक माहौल में देव की प्रतिष्ठा जमाने वाली। जाहिर है, दोनों भी देव की मोहब्बत की आकाँक्षी हैं और देव सब जानबूझकर भी उनके जीवन, तन्हाइयों, सपनों का हिस्सा बना हुआ है। उसके अपने असमंजस हैं मगर तीनों देवियों की मोहब्बत में अलग-अलग दुनिया बसती है। देव आखिर सब जगहों से होता हुआ अन्त में नंदा के पास लौटता है, चेतकर, सबक लेकर, थोड़ा-बहुत भटककर।

तीन देवियाँ फिल्म देखते हुए हमें एक तरह की रूमानी खुश्बू महसूस होती है। इसका कारण यह है कि नायक रोमांटिक छबि वाला है, खूबसूरत नंदा हैं, शोख कल्पना और मोहक सिमी। इस फिल्म की एक खासियत यह भी है कि ज्यादातर कलाकार अपने मूल नाम के साथ ही हैं। आय.एस. जौहर का किरदार भी फिल्म में नायक की जिन्दगी के उत्कर्ष में अपनी अहम भूमिका अदा करता है। इस फिल्म को देखते हुए हालाँकि इस बात पर दर्शक की धारणा पक्की हो जाती है कि देव का सच्चा प्यार नंदा ही है मगर वह देव को कल्पना और सिमी के साथ रोमांटिक होते हुए देख भी मुग्ध होता है। फिल्म की खूबी यही है कि फिल्म कठिन नहीं है। नंदा का किरदार अपनी गरिमा का है, कल्पना और सिमी में देव के प्रति आकर्षण है मगर वे उसके जीवन में व्यवधान की तरह उपस्थित नहीं हैं। देव का अन्त में नंदा के पास लौटना सुखद है।

फिल्म के गाने खूबसूरत हैं, जिसका श्रेय गीतकार मजरूह सुल्तानपुरी और संगीतकार सचिनदेव बर्मन के साथ ही गायक किशोर कुमार, मोहम्मद रफी, लता मंगेशकर और आशा भोसले को जाता है। लिखा है तेरी आँखों में किसका अफसाना, ऐसे तो न देखो के हमको नशा हो जाये, ख्वाब हो तुम या कोई हकीकत कौन हो तुम बतलाओ, अरे यार मेरी तुम भी हो गजब, गाने इतने बरसों में हम लगातार सुनते रहे हैं, फिल्म के साथ उनको देखना-सुनना बड़ा मनभावन लगता है। लिखा है तेरी आँखों में गाना एक खेत में भुट्टे खाते हुए देव आनंद और नंदा पर फिल्माया गया है, इसमें लता और किशोर की आवाज जिस तरह गूँजकर हमारे मन में विन्यस्त होती है, गहरा असर छोड़ जाती है। तीन देवियाँ देखना, वाकई पुरानी अनुभूतियों को दोहराने के साथ ही एक बार फिर उस रस-रूमान को अपनी नब्ज में महसूस करने की तरह है।