रविवार, 17 जून 2012

चिडिय़ाघर के बाबू जी राजेन्द्र गुप्ता



सब चैनल पर सप्ताह के पहले पाँच दिन प्रसारित होने वाले दो-तीन दिलचस्प धारावाहिकों में से एक चिडिय़ाघर को इन दिनों अनिल दुबे निर्देशित कर रहे हैं। अनिल एक तजुर्बेकार निर्देशक और पटकथाकार हैं, जिन्हें धारावाहिकों और सिनेमा का लम्बा अनुभव रहा है। चिडिय़ाघर की संरचना बड़ी रोचक है। परिवार के मुखिया बाबूजी हैं, उनके तीन बेटे हैं, दो बहुए हैं, एक पोता है और एक सेवक है जिसका नाम है गधा प्रसाद। घर का नाम चिडिय़ाघर इसलिए है क्योंकि बाबूजी की पत्नी का नाम चिडिय़ा था। गधा प्रसाद छोटी सी उम्र में उनके साथ मायके से आ गया था तब से यहीं का होकर रह गया। वह भी परिवार का हिस्सा है। बुद्धि और प्रखरता में उसका हाथ तंग है मगर वह अद्भुत रूप से संवेदना और आत्मीयता का ऐसा धनी है जो अपनी क्षमताओं, स्वभाव और सीमाओं में भी सभी को स्वीकार्य ही नहीं है बल्कि इस तरह जुड़ा हुआ है कि उसको अलग करके देखा ही नहीं जा सकता।

राजेन्द्र गुप्ता, वरिष्ठ रंगकर्मी और सिनेमा तथा टेलीविजन के अत्यन्त दक्ष कलाकार हैं, वे चिडिय़ाघर के मुखिया बाबूजी के रूप में पूरे घर को एकसूत्रता में बांधकर रखते हैं। वो पूरे परिवार को आज भी नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाते हैं। दिलचस्प यह है कि परिवार के पूरे सदस्य उनकी कक्षा में उपस्थित होकर उनसे सरोकारों को समझते हैं, अपने समझ-नासमझी के प्रश्र भी करते हैं, जिनके समाधान बाबूजी सहजता से और कई बार किं कर्तव्य विमूढ़ होकर करते हैं। बहरहाल इस धारावाहिक को देखना रोचक अनुभव है। 

चिडिय़ाघर में गधा प्रसाद एक अलग तरह का आकर्षण है। ढीला-ढाला पायजामा और बुशर्ट पहले, हाथ से हाथ बांधे, पेट पर चढ़ाये गधा प्रसाद बाबूजी की एक तरह से ऊर्जा ही है। बाबू जी कभी गधा प्रसाद के बगैर दिखायी नहीं देते। अभी पिछले भागों में जब एक छुटभैया नेता ने बाबूजी को थाने में बन्द करवा दिया था, तब अपना झोला उठाकर गधा प्रसाद थाने पहुँच गया था उनको छुड़ाने लेकिन हुआ यह कि पुलिस ने उसे भी बाबूजी के साथ बन्द कर दिया। बाबूजी और गधा प्रसाद के आपसी संवाद ध्यान से सुनने वाले होते हैं। कई बार अपनी सीमाओं में भी गधा प्रसाद ऐसी बात कह जाता है जो बाबूजी को हैरान कर देती है, उसी सिधाई में भी जीवन में उसके पिछड़े होने की कसक और दर्द कई बार इस तरह नजर आता है कि वो मन को छू जाता है। वह अपनी सीमाओं में भी परिवार के प्रति अपने समर्पण और निश्छल प्रेम के ऐसे प्रमाण अपनी बातों से देता है जो किसी समझदार की भी क्षमताओं के नहीं होते। जीतू शिवहरे गधा प्रसाद के किरदार को बखूबी निबाह रहे हैं।

चिडिय़ाघर के सदस्यों के विभिन्न स्वभाव हैं। बड़ा बेटा घोटक है जो रेल्वे की नौकरी करता है, उसके दिमाग में रेल और स्टेशन की दुनिया एक सुरूर सी रहती-बहती है। उसकी पत्नी खूबसूरत है, परिवार को जोडक़र रखने में अपनी भूमिका बखूबी निबाहती है मगर वो भी आखिर चिडिय़ाघर रूपी एक घर का हिस्सा है जहाँ सभी अपनी-अपनी झक को बेपरवाही के साथ जिया करते हैं। एक बेटा गोमुख है जो पढ़ाता है, उसकी पत्नी मयूरी को नाचने का शौक है, कान में खूबसूरत झुमके पहनती है और प्राय: खुद को नृत्य मुद्रा में होने के एहसासों मे बड़ी मोहक अदा से अपने सिर को इस तरह झकझोरती है कि झुमके बज उठते हैं। सबसे छोटा बेटा और पोता भी इसी जीवन का अनूठा हिस्सा हैं।

इस धारावाहिक की खूबी इसके प्रति सुरुचि के साथ आकर्षित होना है। चिडिय़ाघर को देखते हुए न तो किसी तरह की उत्तेजना मन में होती है और न ही किसी तरह का रोमांच। घटनाएँ इस तरह घटित होती हैं कि हम सहज ही उसका हिस्सा हो जाते हैं, उसके साथ बहते चले जाते हैं। 

अनिल दुबे काम में असाधारण क्षमताओं वाले निर्देशक हैं। इस टिप्पणीकार ने स्वयं उन्हें लगातार तीसरे दिन तक जागकर बिना जम्हाई लिए काम करते देखा है। चिडिय़ाघर में भी वे हर वक्त सेट पर होते हैं, सुबह से लेकर रात और पता नहीं अगली सुबह तक और सब तरह की छुट्टियों में भी। राजेन्द्र गुप्त एक मिलनसार कलाकार हैं जो मुम्बई मे एक बड़े कलाकार समूह के एक तरह से अविभावक, बड़े भाई की तरह हैं। जाने कितने बरस से उनके घर चौपाल लगती है और बड़ी तादात में कलाकार वहाँ अपने अवकाश में खूब बातचीत करते हैं, अभिव्यक्ति देते हैं और गाते-बजाते हैं। यह मेजबानी अनवरत जारी है। उनसे मिलकर हमेशा ऐसी खुशी मिलती है जैसे बीस-पच्चीस साल की पहचान हो। चिडिय़ाघर उनकी भी अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण धारावाहिक है, जिसे जिन्दगी को समझने के लिहाज से, यदि फुर्सत हो तो देखा जरूर जाना चाहिए।

स्त्री हिंसा और सत्यमेव जयते



सत्यमेव जयते के 17 जून के एपिसोड में स्त्री हिंसा पर आमिर खान ने अलग-अलग घटनाओं, त्रासदी झेलने वाली स्त्रियों और उनमें से कुछेक के आत्मविश्वास पर बात की है। हमारे देश में बहुत सारे लाइलाज मर्ज हैं जिनका समाधान आज तक नहीं हुआ। व्ही. शान्ताराम ने पिछली शताब्दी के चौथे दशक में दुनिया न माने फिल्म का निर्माण किया था जिसमें एक अनाथ लडक़ी निर्मला का ब्याह उसके रिश्तेदार पैसे की लालच में धोखे से एक बूढ़े से कर देते हैं। अनाथ निर्मला यह त्रासदी भोगती है कि पिता की उम्र के व्यक्ति के सामने उसे अर्धांगिनी के रूप में खड़ा होना पड़ता है। इस फिल्म में एक दृश्य है जिसमें उम्रदराज पति अपनी मूछें काली कर रहा है, निर्देशक इसे सीधे एक लोहार द्वारा पुराने बरतन चमकाने से जोड़ता है। प्रताडऩा ने अपने रूप बदले हैं, इस समय स्त्री अपनी घुटन में जीने और बाहर आने, दो तरह की परिस्थितियों से जूझ रही है। आँसू हर हाल में है, घुटते हुए भी और लड़ते हुए भी।


 17 जून के ही एपिसोड को देखते हुए प्रकाश झा की एक सशक्त फिल्म मृत्युदण्ड की याद आ गयी जिसमें स्त्रियाँ घर में अलग ही तरह की प्रताडऩा का शिकार हैं। परिवार में नपुंसक मठाधीश पति है जिसने समाज में पत्नी को बाँझ आरोपित कर रखा है। उसी परिवार की छोटी बहू पर जब उसका पति हाथ उठाता है तो वह हाथ रोककर कहती है, पति हो, परमेश्वर बनने की कोशिश मत करना। देव आनंद की कॉमर्शियल फिल्म हरे राम हरे कृष्ण का जिक्र भी करने की इच्छा हुई है जिसमें आपस में लड़ते-झगड़ते माता-पिता के साथ सहमे भाई-बहन एक कमरे में भय और अन्देशे को जिया करते हैं। 


 गोविन्द निहलानी की फिल्म अर्धसत्य याद आयी। इस फिल्म के नायक ओम पुरी थे जो अनंत वेलणकर का किरदार निबाहते हैं। सत्ता और व्यवस्था की विद्रूपताओं और अराजकता से लड़ता एक पुलिस इन्स्पेक्टर। इस फिल्म में बेशक द्वन्द्व राजनेता रामा शेट्टी से चलता है मगर अनंत के अवचेतन में अपने बर्बर पिता की खराब छबि है जो बात-बात पर उसकी माँ को पीटने लगता है। बचपन से ही वो इस घटना से घुटता है, एक बार पिता के साथ तू-तड़ाक में बात होती है तो वह झुंझला कर बोल देता है, तू हमेशा मेरी माँ को मारा करता था। इस किरदार की पूरी काया को हम विद्रोही देखते हैं, बोलते हुए, चुप रहते हुए। अन्त में उसकी लड़ाई का अन्त एक हिंसक परिणति से होता है जब वो रामा शेट्टी को मार देता है।

इस सदी और खासकर आज की स्थितियाँ और संघर्ष अब अपनी अस्मिता की रक्षा करने और समाज में अपनी स्पेस बनाने की चुनौती के ज्यादा हैं। मैं आज की सम्मानित कलाकार तीजन बाई को देखता हूँ तो उनकी शक्ति और आत्मविश्वास पर गर्व हो उठता है। वे पद्मभूषण हैं। छत्तीसगढ़ी लोकशैली में महाभारत की लोकगाथा पण्डवानी गाने वाली तीजन बाई ने भी यह प्रताडऩा सही थी कभी। आज वे बहुओं वाली हैं मगर जब वे शादी होकर अपने ससुराल गयीं तब पति के हिंसक व्यवहार ने उनका जीना मुहाल कर दिया था। कला और गायन में भी बाधक बना आदमी जब एक दिन उनको एक कार्यक्रम में ही मारने पहुँच गया तब तीजन बाई ने भी जवाब में उसे मारने के लिए तम्बूरा उठा लिया। तीजन बहादुरी और आत्मबल की अनोखी मिसाल हैं, हम सब उनका बहुत आदर करते हैं।


 सत्यमेव जयते में करुण सच्ची घटनाएँ, आजाद मुल्क और तमाम विरोधाभासी घटनाओं को रोकने और प्रतिरोध करने की वैधानिक संस्थाओं की सक्रियता और उपस्थिति के बावजूद हम जब सुनते हैं तो आहत होते हैं। कुछ उदाहरण हैं जहाँ बहादुरी है, जूझा गया है, लड़ा गया है और खड़ा भी हुआ गया है मगर यह सब आसान प्रक्रिया नहीं है। यह कठिन प्रक्रिया है। जूझती हुई स्त्री मानसिक रूप से अपने आपको खण्डित और पराजित इस तरह मान लेती है कि वो इस त्रासद अवसाद से बाहर ही नहीं आ पाती। सु-समाज का सपना हम देखते हैं, इतने विरोधाभासों के बावजूद उस पर विश्वास करते हैं, यह हमारा आशावादी दृष्टिकोण है मगर जिन्होंने दर्द सहे हैं, कसक जिनके मन से कभी जा न पायी है, उन्हें तैयार होने में, तैयार करने में बड़ी मेहनत करनी होती है। 

पीढिय़ों को मजबूत और सक्षम आत्मबल का संस्कार देने में हमें और ज्यादा समझ और मेहनत की जरूरत लगती है। अक्सर परिजन अपनी पढ़ती-लिखती बेटियों को स्कूटी खरीदकर देते हैं, इससे इतन जब मुझे अपने शहर में कोई लडक़ी या युवती मोटर साइकिल और कई बार बुलेट चलाती दीख जाती है तो मुझे उसके निडर और निर्भीक होने का एहसास होता है। हमें स्त्रियों को, बेटियों को निडर और निर्भीक बनाना चाहिए। खुद की कुण्ठाओं, अपने आसपास की विफलता, षडयन्त्र, धोखे या पराजय से उपजी निराशा का पत्नी, बच्चों के ऊपर शारीरिक अत्याचार की विकृति के रूप में प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। वैचारिक असहमतियों के भी सार्थक समाधान कर पाने की क्षमता होनी चाहिए। जिन्दगी के रिश्ते बिगाडक़र उसके दोषारोपण दूसरों पर करने के बजाय गर्त में गिरने के पहले ही सम्हल जाना चाहिए।


शनिवार, 16 जून 2012

लाख की नाक

रचनात्मक उपक्रमों से समाज का जुडऩा बड़ा जरूरी होता है। हालाँकि यह बहुत कठिन भी है। लेकिन इसके बावजूद इस काम में लगे लोग बिना इसकी फिक्र या इसके लिए चितिन्त हुए, अपना काम किया करते हैं। बड़े शहरों का परिप्रेक्ष्य तो ऊपरवाला जाने, लेकिन अपेक्षाकृत छोटे शहरों में यह जुनून प्रबल ढंग से देखने मिलता है।

रंगकर्मी मित्र प्रेम गुप्ता के आग्रह पर कल दोपहर भोपाल से चार घण्टे दूर दो साल पहले जिले में तब्दील हो गये शहर हरदा मेरा जाना हुआ। प्रेम ने ही भोपाल के ही एक और महत्वपूर्ण रंग-निर्देशक के. जी. त्रिवेदी से भी इस मित्रवत संगत के लिए अनुरोध किया था, वे भी साथ चले। प्रेम भोपाल में पच्चीस-तीस सालों से बच्चों का रंगकर्म कर रहे हैं, भाभी वैशाली गुप्ता कोरियोग्राफर और रंग-निर्देशक हैं, वे भी उनके साथ कद से कद मिलाकर उनके जुनून में सहभागी हैं। प्रेम ने हरदा में अपनी संस्था चिल्ड्रन्स थिएटर अकादमी की ओर से वहाँ के रंगकर्मी संजय तेनगुरिया को एक कार्यशाला का रचनात्मक भार सौंपा था। संजय ने इस काम को बखूबी निभाया। पिछले माह लम्बा बीमार पड़ जाने के बावजूद उन्होंने बच्चों के साथ आखिरकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नाटक लाख की नाक को तैयार किया, जिसका लगभग पच्चीस मिनट का मंचन देखकर बहुत आनंद आया।

जिस उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के हॉल में प्रस्तुति थी, वहाँ आयोजन शुरू होने के एक-डेढ़ घण्टे तक परीक्षा चली थी और आज सुबह से फिर परीक्षा थी। संजय ने अपने सहयोगियों के साथ शाम की परीक्षा सम्पन्न होने के बाद हॉल खाली किया और आयोजन सम्पन्न होने के बाद अगली सुबह के लिए फिर परीक्षा कक्ष को तैयार किया। कुर्सी-मेज हटाना-जमाना जैसा काम।

बहरहाल सुखद प्रस्तुति के क्षण थे। बच्चों का रंगमंच और आज का समय पर हम सबके वक्तव्य भी हुए। हरदा शहर की विनम्र और व्यवहारकुशल नगरपालिका अध्यक्ष जी गरिमापूर्ण उपस्थिति इस अवसर पर थी। बच्चों के साथ रंग-संसार गढऩा बलुआ मिट्टी से खिलौने बनाने जैसा आनंद देता है मगर वह उतना ही चुनौतीपूर्ण भी है। माता-पिता की निगाह में बच्चे का मतलब जब बहुत ज्यादा रूप से मेरिट और प्रतिशत का अर्थात या पर्याय हो जाये तो चित्रकला, संगीत, नृत्य या नाटक के लिए बच्चों को कौन खुशी-खुशी अनुमति देगा? अतिउत्साही और अपसंस्कृति में संस्कृति की परिभाषा से सहमत कतिपय अविभावक चैनलों के प्रतिस्पर्धी शो तक ही अपनी दृष्टि की इति-श्री मान लेते हैं। ऐसे वक्त में हरदा में बच्चे खेलते हैं, लाख की नाक नाटक।

गुरुवार, 14 जून 2012

सीरज की दुनिया से ..............


सिरेमिक शिल्पकार, चित्रकार और यायावर लेखक मित्र सीरज सक्सेना (नई दिल्ली) ने दो दिन पहले मुझे आकाशवाणी से प्रसारित अपने इंटरव्यू की लिंक भेजी थी। स्तंभ “दुनिया मेरे आगे” (जनसत्ता) में उनकी टिप्पणियों से मैं प्रभावित रहा हूँ, तथापि आज तक मुलाक़ात से वंचित हूँ लेकिन आत्मीयता इतनी गहरा रही है कि जल्द मिलने का योग है। 

फेसबुक में सीरज जी का स्टूडियो जैसे बुला रहा है। काम करते हुए वे और व्यवस्थित रखे हुए उनके शिल्प दोनों में खूब आकर्षण है। उनका इंटरव्यू दो बार सुना। एक बात जो बहुत अच्छी उन्होने बताई, कि बचपन से अपनी माँ को कम करते हुए देखते-देखते उनको प्रेरणा मिली। उन्होने बताया कि वे खूबसूरत आकृति के पकवान बनाया करती थीं, जिसे वे भी सीख गए थे। सचमुच हमारे तीज-त्यौहारों में बनने वाले पकवान में चिड़िया, खिलौने क्या कुछ नहीं होते...! लेखन के बारे उन्होने कहा कि माँ, हमारे मामा, नाना-नानी को चिट्ठी लिखवाया करती थीं उनसे। दृश्य बंध लिखने की प्रेरणा उनको वहाँ से हुई। यह सब सुनते हुए कई बार बचपन में आवाजाही हुई। वृत्तांत की परंपरा में हमारे ही घर से क्या कुछ नहीं आया...!!

एक बड़ी मौजूँ बात उन्होने प्रश्नकर्ता के उत्तर में कही कि अपनी साधना में उन्होने धनोपार्जन की जगह कलाउपार्जन को मूल ध्येय बनाया। सीरज, दुनिया के कई देशों में अपने काम और पुरुषार्थ के ज़रिए हो आए हैं। एक बड़ी संवेदनशील मगर यथार्थपरक बात वे कहते हैं कि समाज में कला के लिए अनुकूल जगह या प्रोत्साहन नहीं है। उसे अपने जीवन का हिस्सा बनाने में लोगों की रुचियाँ नहीं हैं। नाटक, संगीत, कला या नृत्य के बगैर सब कुछ चल रहा है। कलाकार अपनी ज़िद से, अपने आत्मसंतोष के लिए, आत्मसुख के लिए स्पेस क्रिएट करता है। 

सच है, समाज और सरोकारों में कला फैशन की तरह स्वीकारी जा रही है। भद्रावरण वाले लोग कई बार अपनी झेंप मिटाने के लिए इसका हिस्सा होते हैं। उनकी उपस्थिति ऐसे वातावरण में उनको कितनी सार्थकता प्रदान करती है, इसका पता शायद उन्हीं को होगा। यहाँ भी सहभागिता ऐसे वातावरण में अपने होने को, अपनी ही ओर से बे-वजह प्रमाणित करने की है...........

बातचीत में सीरज अपनी साधना को संक्षेप में एक यात्रा की तरह रेखांकित करते हैं, आखिर यायावर जो ठहरे। शुरू में उन्होने बताया है कि वे महू (मध्यप्रदेश) में जन्में और इंदौर में उनकी पढ़ाई हुई, वही कला भी परवान चढ़ी। उनके पिता सेना की नौकरी में रहे हैं, सीरज खुद भी एक ऊर्जस्व फौजी से दीखते हैं। जड़-चेतन से गहरा लगाव उनके ज़मीनी होने की पहचान है। उनकी साधना बहुत सारी जिज्ञासा और सरोकारों का सुरुचिपूर्ण आख्यान प्रतीत होती है, उन और उनके काम, प्रत्यक्षदर्शी होने के बाद बहुत कुछ कह सकूँगा, फिलहाल इतना ही...................

सोमवार, 4 जून 2012

पटना के देवगढ़ का राउड़ी (राथौड़) राठौड़

हिन्दी में प्रभुदेवा निर्देशित दूसरी फिल्म राउड़ी राठौड़ भी बाजार के आँकड़ों के हिसाब से सुपरहिट है। पहले दिन इसने पन्द्रह करोड़ का व्यापार किया था। लगभग पचास करोड़ लागत की राउड़ी राठौड़ ज्यादा कमाई कर लेगी। ऐसे मसाले फिल्म में भरपूर इस्तेमाल किए गये हैं। दिलचस्प यह है कि तार्किकता के धरातल पर यह एक निरर्थक फिल्म है मगर सिनेमाहाल में बैठकर सारी निरर्थकता भी इस तरह दर्शक के द्वारा पचायी जाती है जैसे भीतर ही भीतर वह सोच रहा हो कि यदि इसे व्यर्थ साबित कर दिया तो फिल्म देखने का उसका निर्णय उसकी समझदारी कैसे माना जायेगा।

बहरहाल अब तक कई आलोचकों समीक्षकों ने यह ठहरा ही दिया है कि यह फिल्म कालीचरण से प्रेरित है जिसे सुभाष घई ने तीन दशक पहले बनाकर तब के खलनायक शत्रुघ्न सिन्हा के हीरो बनने का रास्ता बुलन्द किया था। इस फिल्म में नायिका उनकी बेटी सोनाक्षी सिन्हा हैं। अक्षय कुमार फिल्म के हीरो हैं। आमतौर पर राउड़ी नाम से जुड़कर फिल्में दक्षिण में खूब बनी हैं राउड़ी इन्स्पेक्टर, असेम्बली राउड़ी आदि। संजय लीला भंसाली की पिछली दो-तीन अच्छी फिल्में भी व्यावसायिक रूप से विफल रही हैं। प्रभु देवा ने वाण्टेड निर्देशित की थी तब उनको लगा था कि अपने लिए एक फिल्म प्रभु देवा को बनाने दी जाये हो सकता है उनके पास भी पैसे की बरसात हो जाये और वे आर्थिक रूप से सुरक्षा महसूस कर सकें। कुछ चतुर निर्देशक आजकल यही कर रहे हैं। खुद काम करना बन्द कर दिया है क्योंकि सफलता को लेकर आश्वस्त नहीं हैं। ऐसे निर्देशकों में आदित्य चोपड़ा और करण जौहर तो शामिल थे ही राजकुमार हीरानी मिल जाने के बाद विधु विनोद चोपड़ा और प्रभु देवा मिल जाने के बाद संजय लीला भंसाली भी उनमें शामिल हो गये हैं।

राउड़ी राठौड़ की पहली विसंगति यह है कि यह बिहार के एक काल्पनिक शहर देवगढ़ की घटना के रूप में बनायी गयी है। उत्तर भारत में राउड़ी शब्द प्रचलित नहीं है। दक्षिण में बदमाश या लफंगे को राउड़ी बुलाया जाता है। पर निरर्थकता का तकाजा यही है कि हम इस उलझन में न पड़ें और फिल्म देखते हुए उसमें मसखरी, एक्शन, हिंसा और बहुत ही न के बराबर दिखायी देने वाली संवेदना पर मुग्ध बने रहें। अक्षय कुमार राठौड़ भी हैं, एक एसीपी और दूसरी ओर मुम्बई में एक चोर शिवा भी। चोर चोरी जल्दी छोड़कर रोमांस करने लगता है और नायिका के पीछे शादी के उस घर में पहुँच जाता है जहाँ नायिका पटना से आयी है। रोमांस और उसके नसीब में आने वाला समय तभी से गड्डमड्ड हुआ करते हैं। आप देखते रहिए, किस तरह देवगढ़ का खलनायक बाप जी और उसके गुण्डे राठौड़ के पीछे लगे हैं। राठौड़ और शिवा पन्द्रह मिनट अपनी-अपनी भूमिकाएँ साथ अदा करते हैं फिर राठौड़ की मौत और उसके बाद आगे शिवा, राठौड़ की भूमिका में।

फिल्म में दक्षिण की फिल्मों की तरह ही हिंसक मारधाड़ है। एक्शन दृश्य इतने जबरदस्त हैं कि लोग देख-देखकर राउड़ी की जय बोलते हैं। फिल्म के गाने सुपरहिट हैं। मीका सिंह का गाया गाना चिन्ता ता ता सुपरहिट है। और भी गाने अभी प्रोमो और फिल्म चलने तक सबके दिमाग में चढ़े रहेंगे। कलाकारों में अक्षय कुमार ने अपनी दोहरी क्षमताओं का प्रयोग किया है, एक्शन और कॉमेडी दोनों जगहों पर। सोनाक्षी, आजकल की दूसरी हीरोइनों की तरह जीरो फिजिक नहीं हैं और उनका चेहरा ज्यादा देशी है सो अच्छी लगती हैं। कैमरा उनकी कमर और नाभि को फिल्म के हीरो और दर्शकों दोनों के लिए कुछ ज्यादा ही उदारता से देखता है। दक्षिण के प्रसिद्ध कलाकार नस्सर फिल्म के खलनायक हैं, उनका अपना एक अलग अन्दाज है। मणि रत्नम और कमल हसन की कई फिल्में उन्होंने की हैं। यहाँ उनके संवाद डब किए गये हैं मगर अपने हावभाव और एक्शन से वे प्रभावित करते हैं। 

यशपाल शर्मा ने फिल्म में पुलिस इन्स्पेक्टर का किरदार अदा किया है। वे एक बहुत क्षमतावान और किरदारजीवी कलाकार हैं। वे अपनी जगह बहुत असर छोड़ते हैं। इस फिल्म में सीरियलों के लोकप्रिय कलाकार परेश गणात्रा को भी अक्षय कुमार के साथी की लम्बी भूमिका मिली है। इसके अलावा इन्सपेक्टर रजिया के रूप में गुरदीप कोहली का काम भी आकृष्ट करता है। इन सबके बीच भोपाल के कलाकार राज अर्जुन ध्यान खींचते हैं। वे भी फिल्म में आरम्भ से अन्त तक एक सकारात्मक भूमिका में हैं जो गन्ने की चरखी चलाता है, एक पैर से लंगड़ाकर चलता है लेकिन गजब हौसले वाला बहादुर जो एसीपी राठौड़ की जान की रक्षा के लिए अपनी जान की परवाह नहीं करता। लम्बे समय से संघर्षरत इस युवा को यह एक अच्छी भूमिका मिली है जिसकी सराहना की जानी चाहिए।

हिन्दी सिनेमा में फिलहाल आज वो समय है जब इण्टरटेनमेंट को किस्म-किस्म की पक्षधरता के साथ परिभाषित किया जाता है। तार्किकता से अलग उसके सारे तर्क हैं और हम अन्त में यहाँ पर तमाम निरर्थकता के आगे हार भी मानते हैं क्योंकि ऐसी फिल्मों से खूब कमाई हो जाती है, सितारों को और अवसर मिल जाते हैं और जमाने की भाषा में फिल्म हिट हो जाती है। राउड़ी राठौड़ से बहुत ज्यादा निराश होने की जरूरत नहीं है। अपनी बर्दाश्त और नजरअन्दाज करने वाली क्षमता के पार जाकर भी ऐसे मनोरंजन से सहमत होने के इम्तिहान में बैठना चाहिए..........................

शुक्रवार, 1 जून 2012

कोसते रहने का जरिया

क्या इस बात पर आपका अथाह विश्वास है कि कोसते रहने से उम्र बढ़ती है? पुराने जमाने में बद्दुआओं का बुरा नहीं मानने के लिए बड़े-बुजुर्ग इस बात को कह दिया करते थे, कि कोसने से कुछ नहीं होता बल्कि उम्र बढ़ती है। सरकार की शायद यही अवधारणा होगी तभी खुद को कुसवाने के लिए बारहमासी एजेण्डा योजनाबद्ध ढंग से एक के बाद एक सरकाया जाता है। पुलिस शातिर अपराधी को अक्सर रात-बिरात ही धर-दबोचती है। सोया आदमी मरे बराबर, ऐसी पूरब में कहावत प्रचलित है। अच्छे-अच्छे ऐसे ही धरे गये जब वे सो रहे थे। मुँह धुलाकर चाय पिलाने का काम फिर हिरासत में ही। 

पेट्रोल के दाम भी रात बारह बजे से बढ़ाये जाते हैं। पेट्रोल के दामों का रात बारह बजे से क्या रिश्ता है यह आज तक समझ में नहीं आया। हाँ, डंके की चोट पर दोपहर को ऐलान कर दिया जाता है कि दरे रात बारह बजे से लागू हो जायेंगी। पपड़ी छिला, छटपटाया आदमी सीधे गाड़ी पेट्रोल पंप पर लगा देता है। पूछो कि आज कितना भरा लोगे तो चिढक़र जवाब देता है जितना भरा लेंगे उतना ही फायदा सही, कल से तो ऐसी तैसी होनी ही है। सब लोग हतप्रभ हैं कि यह केन्द्र सरकार के तीन साल पूरे होने का कांग्रेचुलेशन है, वह भी इतना लाजवाब। ऐसी बिलबिलाहट भरी वृद्धि पहले कभी नहीं की। अच्छी प्रगति है जो साढ़े सात पर जाकर प्रमाणित हुई है। तजुर्बेकार दाढ़ी खुजाकर कहते हैं कि इसका मतलब आगे दस रुपये तक भी बढ़ा करेगा। 

अपने प्रमोशन को लेकर मैं अपने एक आत्मीय से दुखड़ा रो रहा था तो उन्होंने चिढक़र कह दिया कि यार तुम्हारा प्रमोशन गरीबी हटाओ नारे की तरह है। आज तक चर्चा में बना हुआ है मगर गरीबी दूर नहीं हुई। बात मौजूँ थी। अपन जबरन रो रहे थे कि इक्कीस साल से एक ही जगह पड़े हैं। वाकई बड़े दुख से छोटे दुख को बड़ा सम्बल मिलता है। खाँसी का मरीज, कुकुर खाँसी के मरीज को देखकर अपनी छाती सहलाता है कि गनीमत है, ये नहीं हुआ। हमको मनोज कुमार की फिल्म रोटी कपड़ा और मकान की याद आ रही है। मँहगाई मार गयी गाने की एक-एक लाइन दोहराने का मन किया है। प्रेमनाथ पर कुछ लाइनें थीं, पहले मुट्ठी विच पैसे लेकर, थैला भर शक्कर लाते थे, अब थैले में पैसे जाते हैं, मुट्ठी में शक्कर आती है। वही वेदना आज फिर हरी हो गयी है। सुधीर मिश्रा की फिल्म इस रात की भले सुबह न हुई हो मगर पेट्रोल के दाम बढऩे वाली रात की सुबह तो होनी थी, हाहाकार से भरी। 

हर अखबार का मत्था जनता के साथ है। चैनल भी इस चाबुक के प्रति खासे आलोचनात्मक हैं। लेकिन जिस तरह प्रलय, भूकम्प, सुनामी, ज्वालामुखी और इसी तरह की कई मानवहन्ता विपदाओं के साथ आते और अपना काम करके चला जाते हैं, उसी तरह दाम बढ़ाकर सरकार बिलबिलाहट का तमाशा देखने में लग गयी है। कई बार मनुष्यों को हानि पहुँचाने वाले जघन्य लोग और प्राणी भी उतना करके अजीब से सन्नाटे में चुपचाप ऐसे बैठे दिखायी देते हैं जैसे गहरे चिन्तन में हों। लोग अपना जहाँ लुटाये बैठे हैं और ये मौन-मुद्रा में आ गये हैं। कितनी ही हिन्दी फिल्में पहले मँहगाई को अपना अहम विषय माना करती थीं। मँहगाई की निंदा करना, जनता के साथ होना होता था। यह फौरी तौर का ऐसा दर्द निवारक फार्मूला है कि रोता हुआ आदमी भी जख्म सहलाता हुआ, आँखों में आँसू भरकर मुस्कराने का जतन करता है। लेकिन यह सब अब ऐसा एनेलजेसिक हो गया है जिसका असर खत्म होते ही फिर जख्म हरा हो जाता है, दुखने लगता है और विलाप करने का जी करता है।

मँहगाई का ऐसा ही हाल है। विरोध में होना, निंदा करना, पुतले जलाना, फेसबुक में बन पड़े उससे भी ज्यादा दम दिखाना, ट्विटर में प्रतिक्रिया देना यह सब दर्द निवारक गोली का सेवन करने जैसा है। हर चपत में हम यह किया करते हैं। दो-तीन दिन में झाड़-पोंछकर खड़े हो जाते हैं, बिल्कुल यूज-टू टाइप। इस बार भी ऐसा ही है। एक कुटुम्ब में, अलग-अलग उम्र में, अलग-अलग ढंग से पेट्रोल के दाम बढऩे की दुर्घटना का आकलन हो रहा है। अपनी-अपनी समझ और दुनिया देखने की वरीयता के अनुकूल बातें की जा रही हैं। सरकार, सरकार की नीति, उसके नायक-खलनायकों की खूबी-खामी पर घर में ही कई बार साढ़े सात रुपए की पीछे ताल ठुँकने लगता है। नतीजा कुछ नहीं निकलता। पेट्रोल तो डेढ़ कम अस्सी का हो गया। 

सबने बस में, कार में, दफ्तर में, विपक्ष में, रेस्टोरेंट में, खोमचे में, सुबह से दोपहर तक चाय पीते हुए, फिर उसके बाद रात में गन्ने का रस, जूस पीते हुए, आइसक्रीम खाते हुए यही बात की। लोग हमेशा कहते हैं कि खुशी बाँटने से बढ़ती है और दुख बाँटने से कम होता है। पेट्रोल के दाम बढऩे के बाद से पूरा देख एक-दूसरे के दुख को तेजी से बाँटने में लगा हुआ है मगर दुख कम होने का नाम ही नहीं ले रहा। दाम को बढऩा था, सो बढ़ गया। रेल ने प्लेटफॉर्म छोड़ दिया जैसे अनारकली डिस्को चली गाना। अब हम सब भी अपने आपको इस भाव के अनुकूल कंधे से कंधा मिलाकर चलने के लिए तैयार कर लेते हैं। बहुत देर बिलबिला लिए, अब सब भूलकर मुस्कराते हैं।