सोमवार, 29 अप्रैल 2013

घरौंदे के शिल्पी

जोखिम के विरुद्ध जिन्दगी का विस्मयकारी फलसफा कभी-कभी देखने को मिलता है। कुछेक दिन से यही कुछ देख रहा हूँ। देश-दुनिया में बड़ी-बड़ी अट्टालिकाएँ, बहुमंजिला इमारतें, बंगले और फ्लैट बन रहे हैं। मेरे घर के सिरहाने पर भी गैमन इण्डिया का निर्माण कार्य द्रुत गति से चल रहा है, रात में तमाम आवाजें और उनसे उपजे व्यवधानों से जाग जाया करता हूँ।

बहरहाल इतने बड़े-बड़े कामों के परस्पर ही एक अनुपम घटना को अपने सामने घटित होते हुए देख रहा हूँ। वास्तव में आकर्षण ऐसा है कि मेज और रखे कम्प्यूटर पर काम रोककर उसे देखकर बड़ा सुख महसूस होता है। देखते हुए समय इतना अच्छा बीत जाता है कि पता ही नहीं चलता। यह घटना है एक चिडि़या जोड़े का कुछ दिनों से पास ही बाहर के दरवाजे से लगे बिजली के मीटर के ऊपर घोसला बनाने के काम का। इनकी चहचहाहट ने कुछ दिन से करते हुए काम से ध्यान हटाने का पुनीत उपक्रम किया है।

सुबह से लगभग दस-ग्यारह बजे तक मैं यह सब देखता हुआ आनंदित होता हूँ। चिडि़या अक्सर अपना घोसला बिजली के जानलेवा मीटर के सिर पर ही बनाती है, पता नहीं यह किस तरह का आकर्षण है, यहाँ भी देख रहा हूँ। घास के एक-एक तिनके लाने का काम सुबह से शुरू होता है। पहले दोनों साथ जाया करते थे, थोड़ी देर में चोंच में घास का तिनका दबाये आते और बैठकर पीछे की तरफ खोंसते, फिर चले जाते, फिर जरा देर में उसी तरह आते। यह क्रम कुछ दिनों चलता रहा। अपने काम में वे बड़े एकाग्र और जीवट के साथ जुटे हैं, इतने कोमल और छोटे पंछी बड़े नाजुक भी होते हैं, उन्हें देखकर वैसा ही अनुराग मन में हुआ करता है।

चार-पाँच दिन पहले देखने में आया कि चिडि़या अकेली उड़कर जाती है और तिनका उठाकर, ले आकर घोसले को पूरा करती है, उसका जोड़ीदार मीटर के ऊपर निगरानी की मुद्रा में है। एक-दो बार में यह भी हुआ कि आते-जाते चिडि़या ने अपना काम हल्काकर उससे चहचहाकर कुछ बात भी की, उत्तर भी पाया, फिर उड़ गयी। एक-दो बार यह भी हुआ कि वो अपने साथ अपने संगी को भी लेकर तिनके खोजकर लाने के लिए गयी।

आज सुबह मुझे मीटर के पीछे दूर से घास का जो ढेर जमा-जमाया नजर आया उससे लगा कि उनका घर अब करीब-करीब पूरा हो गया है। हालाँकि अभी भी अकेली चिडि़या पुरुषार्थ में लगी है, उसका संगी उसके काम का अवलोकन कर रहा है, कुछ जरूरी हस्तक्षेप भी जो उसे जरूरी लगते हैं। मन में कल्पना होती है कि कुछ दिन बाद चिडि़या अपना आना-जाना बन्द करेगी तब बाहर की दौड़-भाग, सुरक्षा, भोजन आदि की जवाबदारी उसके संगी सम्हालेंगे। एक दिन चिडि़या प्यारे-प्यारे अण्डे देगी और कुछ दिन बाद उनके भीतर से जीवन का संगीत गूँजेगा। नन्हें बच्चे चहचहायेंगे और मद्धिम, न थमने वाला एक मनभावन कोरस सुनायी देगा।

घर आते-जाते वह घोसला आकर्षण बन गया है, चिडि़या और उसके संगी हम सबसे जरा भी बाधित नहीं होते। शायद वे समझते होंगे या कहीं न कहीं संवेदना के धरातल पर उनकी चिन्ताएँ या आग्रह उन्हें हम तक स्वतः सम्प्रेषित महसूस होते होंगे। मैं थोड़ा अतिरिक्त सजग होता हूँ करुणा के स्तर पर और बिल्ली आदि से बचाव के लिए खुद को तैयार भी करता हूँ।

ऐसी दुनिया जिसमें हम रहते हैं, पता नहीं क्या कुछ चल रहा है, मित्र पूछते हैं, क्या चल रहा है, पता करते हैं, और क्या खबर, चल रहा है जो और खबर है जो वो अब सब चैनलों के हवाले है। इधर अपनी दिनचर्या में नितान्त औपचारिकताओं से सुबह जागना और औपचारिकताओं के ही आदान-प्रदान में शाम का हो जाना बहुत सारी निराशाएँ देता है। ऐसे में ये नन्हें, नव-दम्पत्ति प्यारे पक्षियों की दुनिया में रोज कुछ समय काटना वास्तव में जिन्दगी से बड़े अनुराग के साथ रूबरू होने की तरह महसूस होता है.............प्रकृति की यह अनुपमा सचमुच विलक्षण है......................

दुनिया की तस्वीर : कल कुछ और थी, आज कुछ और है................

ऐसे ही याद आया, बचपन में माता-पिता का कपड़े दिलवाना और दरजी के पास ले जाकर नाप दिलवाकर सिलवाने देना, बड़ी खुशी का अनुभव दिया करता था। दरजी कितनी जल्दी कपड़े सिलकर देगा, उसकी जिज्ञासाएँ लगातार बलवती रहतीं। एक-एक दिन गिना जाता, जिस दिन कपड़े मिलने को होते, उस दिन शाम होना दूभर लगती। पिता से पूछते, कपड़े उठाने कब चलेंगे? पिता का सहज जवाब होता, शाम को। अब लगता कि शाम भी जल्दी नहीं हो रही है, जैसे-तैसे शाम एक युग की आवृत्ति लेकर सामने आती।

दरजी की दुकान में जाकर सिले हुए रखे अपने कपड़े देखकर बाँछें खिल जाया करतीं। मुस्कान चेहरे पर कलाकन्द की तरह हो आती, पिता की तरफ खुश होकर देखते। दरजी भी तब कपड़े अच्छे से तहाकर, अखबार में लपेटकर, चारों तरफ धागा बांधकर दिया करते। अब जल्दी इस बात की रहती कि घर कैसे पहुँचें और पैकेट फाड़कर कपड़े निकालें, पहने। उस समय अक्सर यह भी होता था कि इतवार और बुधवार नये कपड़े पहने जाते हैं...............खैर जिद के आगे सब चलता, अनुमति मिल जाती और पल भर में अपन नया कपड़ा पहने खिले-खिले से....................

बचपन में पिता के पैंट और बुशर्ट को भी, जो पुरानी हो गयी, आल्टर करके अपने नाप की सिलवाकर पहनने में बड़ा मजा आता था। ऐसे काम पास का ही दरजी कर दिया करता। बड़े शान से उसके पास ले जाते। नाप-जोख होता। फिर वहाँ भी वही, कब मिलेगी................कई बार मजा यह आता कि दुकान पास में होने से सुबह दुकान खुलने के पहले ही चक्कर लगाने लगते। वे दरजी नजदीक के होते, चेहरा जाने-पहचाने, कहते बेटा, दिन तो होने दो, कभी बताते, तुरपायी बाकी है, कभी कहते कि काज-बटन होना है...............अपन मुँह बनाया करते लेकिन शाम होते-होते वे भी जब अखबार में लपेटकर अपने नाप की पेंट-बुशर्ट देते तो चेहरा खुशी से फूला न समाता...............

बचपन, बचपन की दुनिया, सपने, व्याकुलता, अधीर होना अब कभी-कभी याद आता है, आज सामने दुनिया की तस्वीर कुछ और है, कल कुछ और थी...................

नरसिंहगढ़ की आंचलिकता

नरसिंहगढ़ भोपाल से अस्सी किलोमीटर दूरी पर है। ऐतिहासिक जगह, किला, विरासत, मन्दिर, सरोवर बहुत कुछ। दो दिन वहाँ जाने के योग बने, कल रात वहीं थे देर तक, नरसिंहगढ़ महोत्सव के माहौल में। आयोजन स्थल मेले के रूप में था, स्कूल ग्राउण्ड था, बरसों बाद वे सब दुकानें दिखीं जो बचपन में स्कूल के आसपास लगा करती थीं, जैसे उबले मसालेदार बेर और इमली का ठेला, धोयी-तौली-काटी और खिलायी जाती ककडि़याँ, उबले बेर और ककडि़यों में बड़े मटमैले प्लास्टिक के डिब्बे से जब नमक-मिर्च गिरायी जाती, इधर अपनी भी लार बहने लगी, सब खाया, सोचा तबियत खराब होगी तो देखा जायेगा पर अभी तो खाओ बाबू.................उबले बेर बड़े चटाखेदार, पाँच रुपए में बहुत सारे मिल गये, मैदान घूम-घूमकर खाये....................

दस-बारह चाट, पानी पूरी के ठेले भी थे, पापड़ भी एक तल कर बेच रहा था, किसी एक ने भेल का भी ठेला लगाये था, सभी की अपनी आंचलिकता, यहाँ भी मन किया कि चाट के हर ठेले का पानी टेस्ट करेंगे, दो-दो फुल्की खायीं सब जगह, कुल शायद पन्द्रह-बीस..............ज्यादातर दुकानों में पानी अपनी कानखोलू खटास के साथ था, मजा आया, हमारे एक मित्र अमूमन चाट के ठेले-ठिलियाओं को देखकर हैजे वाली चाट का नाम देते हैं, हमने सोचा होता हो तो हो जाये, अपन अभी तो खाओ.................

ये जिन्दगी के दुर्लभ आनंद हैं, जमीन पर बने रहकर इनका मजा लेना, लुत्फ उठाना अच्छा लगता है, ऐसे अवसर अपन कभी नहीं छोड़ते................और हाँ महाराजी(मिठाई खाने को हमारे एक अग्रज ने महाराजी का विशेषण दिया था, बरसों पहले तभी से) का तो बताया नहीं, मिष्ठान की दुकान भी ढूँढ़ निकाली, मावे की मिठाइयों की सजी ट्रे ने उकसाना शुरू किया, दुकानदार ने कहा, बंगाली मिठाई ले लीजिए, दूध की है, एकदम ताजी, मैंने कहा पहले सौ ग्राम बरफी दो ये बादामी सी................शायद कुछ दिन की बनी हुई, वो खायी उसके बाद वो बंगाली मिठाई भी......................

रविवार, 28 अप्रैल 2013

वे दृश्य चलते रहें

जिन्दगी में अक्सर कई बार कुछ दृश्य बेहद कश्कमश से भरे दिखायी देते हैं, स्थितियाँ ऐसी हो जाती हैं कि आपका अपना अनुभव, जिया हुआ जीवन और उससे संचित थोड़ा-बहुत ज्ञान भी उस समय विशेष के लिए अकारथ सा लगता है।

हम सभी किसी न किसी उपन्यास की सी जिन्दगी जीते हैं, पहले से आखिरी पन्ने तक जीवन को हम बहुत सारे दृश्यों में बाँटकर अपने भीतर रख लिया करते हैं। स्मृतियों के ध्वज कुछेक दृश्यों को बार-बार याद दिलाया करते हैं, मन करता है थोड़ी देर थमे रहकर वे दृश्य हम खुद देखें और उस समय में अपने को देखकर अपनी स्थितियों का आकलन करें। बड़ा कठिन होता है लेकिन सब।

जीवन में घटने वाली विभिन्न परिस्थितियों के दृश्य-बन्ध उस पूरी आवृत्ति में हमारे बहुत से खोये-पाये के साक्षी होते हैं। अपने अस्तित्व और चेतना के साथ मिले रिश्तों के साथ-साथ हमारे अपने गढ़े हुए रिश्ते या वे रिश्ते जिनमें दूसरों के द्वारा हमें कहीं न कहीं गढ़ा गया हो, सभी का अपना सच और निष्ठा तथा भेदभाव का अन्तःकरण है जो हम सभी बराबर मात्रा में जानते हैं।

कई बार न जाने क्यों लगता है कि सब कुछ तेजी से छूट रहा है, बहुत से लोग बड़ी दूर दिखायी देने लगे हैं, कभी उनके साथ होने के भी दृश्य स्मृतियों में पुनरावलोकन के लिए उपस्थित होते हैं, कई बार देखने का जी होता है, कई बार नहीं और कई बार मन करता है कि वे दृश्य चलते रहें और हम उस जगह से कहीं बाहर चले जायें.......................

शनिवार, 20 अप्रैल 2013

एक बार फिर माँ की सीख याद आयी है......................

 
एक बार फिर माँ की सीख याद आयी है......................
 
बचपन में अक्सर वो कुछ बातों के लिए सचेत किया करती थीं। पिता सरकारी नौकरी में थे और माँ स्कूल में पढ़ाती थीं। अक्सर वो मुझे घर में अकेले छोड़कर स्कूल चली जाती थीं। तब समझाकर जाती थीं कि बेटा, कोई भी आये तो दरवाजा मत खोलना। हो सकता है वो कहे, चिट्ठी है, टेलीग्राम है, दरवाजा खोलो। या फिर कहे कि हम तुम्हारे पापा के दोस्त हैं। हो सकता है वो कहे कि तुम्हारे पापा ने भेजा है या कहे मम्मी ने बुलाया है। तो तुम उसकी बात पर विश्वास मत करना। दरवाजा मत खोलना।
 
वो जब स्कूल भेजती थीं तब भी सचेत करती थीं। कहती थीं कि हो सकता है कोई तुम्हारे स्कूल में आकर तुमसे कहे, जल्दी चलो, तुम्हारे पापा ने या तुम्हारी मम्मी ने घर बुलाया है, या यह कहे कि तुम्हारे पापा का, तुम्हारी मम्मी का एक्सीडेंट हो गया है, या कहे कि उनकी तबीयत खराब है। तो ऐसे में बिल्कुल मत जाना उसके साथ। बचपन में ये नसीहतें प्रायः रोज ही मिला करती थीं। रोज ही इन नसीहतों का ध्यान कर-करके बड़ा हुआ। माँ की ये नसीहतें बचपन के लिए थीं। बड़े हुए तो सक्षम हो गये। फिर ये नसीहतें याद रखने का ध्यान ही नहीं रहा।
 
अपने बच्चों को भी इसी तरह की नसीहतें दी जानी चाहिए, इसका भी ध्यान नहीं आया। लगने लगा था कि तब का जमाना और था और अब का जमाना और है। पहले यद्यपि उतना खतरा नहीं था मगर तब बचपन भी बेहद संकुचित और कमोवेश सीमित दायरे में परिष्कृत हुआ करता था। आज दुनिया बदली हुई है और खतरों की जहाँ तक बात है, वो ज्यादा समृद्ध और अराजक हैं। मगर आज का बचपन चालीस साल पहले के बचपन से कहीं ज्यादा आधुनिक और चपल है। बावजूद इसके ऐसा लगता है कि तब के जमाने से कहीं ज्यादा, कहीं ज्यादा आज खतरों के साये में है और बेहद असुरक्षित है।
 
ऐसे संगीन, सन्देह से भरे और अविश्वसनीय समय में बचपन का पुरसाने हाल हम देख ही रहे हैं। कुछ वर्ष पहले निठारी की घटना ने सामाजिक सुचारूपन को बड़ी भयावहता के साथ हिला देने का काम किया था। पाशविकता का ऐसा भयानक नंगा नाच इससे पहले कभी देखा नहीं गया। इससे पहले तक हम सिर्फ दिल्ली, पूर्वी उत्तरप्रदेश और बिहार में बच्चों के अपहरण को लेकर और बाद में निर्ममतापूर्वक कर दी जाने वाली उनकी हत्याओें से आक्रान्त रहे हैं। आपराधिक प्रवृत्तियों में रुपए-पैसे कमाने के लिए बच्चों का अपहरण सबसे ज्यादा आसान और शत प्रतिशत सफलता का सौदा रहा है। भयभीत अविभावक अपने घर के चिराग की लौ को बचाये रखने के लिए कानून का भी विश्वास नहीं करता और अपनी पूरी क्षमता के साथ अपराधियों के सामने घुटने टेक दिया करता है जो कि उस कमजोर की मजबूरी है। 
 
ऐसे में फिर भला अपराधियों के हौंसले क्यों न बुलन्द हों? मासूमों के अपहरण और उनकी जान की कीमत के नाम पर मोटी फिरौती वसूलने वाले अपराधियों से चार कदम आगे निकल गये निठारी काण्ड के अभियुक्तों ने जो कुछ भी भयावह किया वो इसी प्रजातंत्र में, इसी देश में किया जहाँ आसपास सब मौजूद हैं। हर चार कदम पर पुलिस वाले, चौक-चौराहों पर, सड़क के किनारे, रेल में, तीज-त्यौहारों में, रेड एलर्ट में, गणतंत्र दिवस और स्वतंत्राता दिवस पर बड़ी छोटी बन्दूकों के साथ कानून के पहरुए मौजूद होते हैं। ऐसी कठिन सुरक्षा कि आम आदमी सहूलियत से आ-जा भी न पाये। लेकिन उसके बाद भी निठारी जैसी घटना इसी समाज का सच है।
 
दिल्ली से लेकर देश में इस समय जो स्त्रियों के साथ, युवतियों के साथ, बच्चियों के साथ घट रहा है, तमाम प्रदर्शनों, प्रदर्शनों की परवाह न किया जाना, प्रदर्शनों में जूझते लोगों की पिटायी और घटना दर घटना अपराध का अराजक और घृणित स्वरूप बेहद तनाव में लाता है हमें। यह हमें एक बार फिर से नये सिरे से हमारे सामने दिखायी दे रहे असुरक्षित बचपन के प्रति सचेत करती है। लोकल ट्रेनों में, स्कूल बसों और सामान्य बसों में, पैदल जाते हुए बच्चों को देखकर सचमुच लगता है कि इनके अविभावकों द्वारा इन्हें स्वयं की सुरक्षा के लिए सामान्य समझदारी की शिक्षा देनी चाहिए। बल्कि होना यह चाहिए कि शिक्षक भी अपने सभी उत्तरदायित्वों के साथ बच्चों में उनकी सजगता, आत्मनिर्भरता, समझदारी और कठिन परिस्थितियों से निबट पाने के लिए लिए आवश्यक सूझ का पाठ पृथक से पढ़ाएँ।
 
आज किसी के भी चेहरे से यह अन्दाज नहीं लगाया जा सकता कि वो शाकाहारी है या मांसाहारी या फिर नरभक्षी। ऐसे में बच्चे भला क्यो न धोखा खाएँ? आधुनिक जीवनशैली और माता-पिता के कामकाज ने वैसे भी बचपन को ज्यादा अकेला और आत्मनिर्भर बना दिया है। ऐसे में लगता है कि एक बार सीख और सबक का वह समय फिर लौट रहा है जब बच्चों को बताया जाना चाहिए कि किस तरह सड़क और समाज के पशुओं से वे सतर्क रहें। उन्हें बताया जाना चाहिए कि किसी भी मुसीबत के समय वे किस तरह की सावधानी अख्तियार करें और अपनी रक्षा करें।
 
अपराधियों का बेहद निर्मम होना, रुपए-पैसों के लिए किसी भी दुस्साहस को पार कर लेना और पुलिस, कानून, सजा से जरा सा भी भय न खाने का आपराधिक मनोबल जिस तरह सड़क पर हर पल अनिष्ट की आशंका को बरपाये है वो बेहद भयानक है। शारीरिक व्याधियों में आज भी दादी माँ के नुस्खों तक कई बार जाया जाता है। आज के अविभावकों को अपने बच्चों की सुरक्षा के लिए अपने माता-पिता के नुस्खों को याद करना चाहिए और अपने बच्चों को बताना चाहिए। असुरक्षित बचपन के इस कठिन समय से जूझने और जीतने के लिए यह बेहद आवश्यक है।
 
अपने बच्चों को जिन्दगी में बड़ा करने के लिए प्रेरित और प्रोत्साहित करने के साथ-साथ उन पर सजग निगाह रखे जाने की जरूरत अब ज्यादा बढ़ गयी है। आँख मनुष्य की दृष्टि से ज्यादा अब नीयत बयाँ करने का माध्यम हो गयी है। हमारे बीच, हमारे नाते-रिश्तेदार, मोहल्लेदार, मित्र, परिचित और नजदीकी लोगों में भी किसके मन में क्या चल रहा है, उसका अन्दाजा नहीं होता। अपनी बेटियों को, छोटी बच्चियों को समझाना चाहिए कि ऐसे अंकलों से दूर रहना चाहिए जो स्नेह-प्रदर्शन की आड़ में लिपटाने-चिपटाने का स्वांग करके अपनी कुण्ठाओं के पक्ष में व्यवहार करते हैं। स्कूल, कॉलेजों में पढ़ाने वालों, नौकरी में अतिशय आत्मीयता और हमदर्दी का प्रदर्शन करने वालों से अपनी हिफाजत कैसे की जाये, इस पर अविभावक बच्चों से खुलकर संवाद करें। सरे राह पैदल चलना, बाइक या वाहनों पर आना-जाना कितना त्रासद है, उससे समझदारीपूर्वक अपनी रक्षा कैसे की जाये, यह बतायें। 
 
बाजार और सार्वजनिक स्थानों में, उत्सवों, मेलों और भीड़-भाड़ में अपने आसपास कैसे निगाह रखी जाये, कितनी सतर्कता बरती जाये, इसका सबक एक बार फिर से दिया जाना जरूरी है। खुद माता-पिता को भी, भले वे अपनी सन्तानों से बेपनाह मोहब्बत करते हों, उनकी चिन्ता, फिक्र या निगरानी रखते हों, अपनी जान न्यौछावर करते हों उसके बावजूद ऐसे पशुओं, जीव-जन्तुओं और प्राणियों से सीखना होगा जो अपने बच्चों पर बुरी छाया बर्दाश्त नहीं करते और आक्रामक हो जाया करते हैं। आज के बचपन को, युवा पीढ़ी को ज्यादा अधिक सावधानी की जरूरत है, रोज-रोज अखबारों के पहले पेज पर निर्मम घटनाओं को पढ़ना बेहद झकझोरता है लेकिन हम भी मुँह बाये उनकी ओर ताकने-निहारने लगते हैं जो हर ज्वलन्त घटना इतनी बहसें आयोजित करते हैं कि अन्तिम निर्णय तक ही नहीं पहुँच पाते।



सोमवार, 8 अप्रैल 2013

अपने साज को वाणी प्रदान करने वालीं कमला शंकर


गिटार वादन के क्षेत्र में शास्त्रीय संगीत के सरोकारों और अनुशासन की परिधि में नवोन्मेष तथा आश्वस्त प्रयोगधर्मिता से अपनी महती पहचान स्थापित करने वाली कलाकार डॉ. कमला शंकर की प्रतिष्ठा समकालीन परिदृश्य में एक ऐसी साधिका के रूप में है जो कला और जीवन के बीच एक अनूठी गम्भीरता का निर्वाह प्रशान्त भाव से करती आ रही हैं। उन्होंने गिटार जैसे पश्चिमी साज को भारतीय शास्त्रीय पारम्परिकता में जिस खूबसूरती के साथ स्वभाव-सम्मत बनाया है, उसने उनको एक अलग ही पहचान दी है। यही कारण है कि युवा कलाकारों, विशेषकर वादकों के बीच क्षमता के मान से अत्यन्त गुणी और स्वभाव के मान से अत्यन्त विनम्र उपस्थिति के कारण वे जानी जाती हैं। 

डॉ. कमला शंकर को मध्यप्रदेश सरकार ने हाल ही अपने प्रतिष्ठा अलंकरण राष्ट्रीय कुमार गंधर्व सम्मान से विभूषित किया है। यह सम्मान उन्हें देवास में कुमार गंधर्व संगीत समारोह के अवसर पर प्रदान किया गया। इस सम्मान के अंतर्गत उन्हें एक लाख पच्चीस हज़ार रुपये की राशि, सम्मान पट्टिका, शाल और श्रीफल प्रदान किया गया।

डॉ. कमला शंकर का जन्म 5 दिसम्बर 1966 को वाराणसी में संगीत को समर्पित घराने में हुआ। उनके पिता डॉ. आर. शंकर और माँ विजया शंकर ने उनको आरम्भ से ही संगीत की अभिरुचियों से जोड़ने का काम किया। उन्होंने चार वर्ष की उम्र से अपनी माँ से गायन सीखा। सात वर्ष की उम्र में उनको गायन की शिक्षा प्राप्त करने का सौभाग्य पण्डित अमरनाथ मिश्रा से प्राप्त हुआ। आठ वर्ष तक उन्होंने उनका सान्निध्य ग्रहण किया और संगीत प्रभाकर करने के पश्चात कर्नाटक संगीत की विलक्षण गायिका भारत रत्न एम.एस. सुब्बलक्ष्मी से प्रभावित होकर अपनी साधना का परिष्कृत करने का काम किया।

गिटार से उनका सरोकार, अपनी पहचान स्थापित करने की गहरी लगन और परिवेश की प्रेरणाओं से हुआ। डॉ. कमला शंकर की माँ पश्चिम बंगाल के निकट आसनसोल की हैं और गिटार का सम्बन्ध रवीन्द्र संगीत से बड़ा गहरा है, लिहाजा गायन में महान गुरुजनों के ज्ञान और प्रेरणाओं से आश्वस्त होकर उन्होंने गिटार को अपने हाथ में थामा और साधना और परिमार्जन से धीरे-धीरे अपनी अलग पहचान बनानी शुरू की। गिटार वादन में डॉ. कमला शंकर ने अपने गायन-अनुभवों को भी सम्प्रेषित किया और एक तरह से अपने वादन को श्रोताओं के सम्मोहन से इस प्रकार जोड़ा कि उनका वादन सुनने वालों को लगता था, जैसे उनके साज को वाणी प्राप्त हो गयी हो। निश्चय ही इस सृजन में उनके गुरुजनों का बड़ा योगदान रहा जिनमें वाराणसी के डॉ. शिवनाथ भट्टाचार्या और किराना घराने के विख्यात गायक पण्डित छन्नूलाल मिश्र शामिल हैं। 

यह डॉ. कमला शंकर की ही विशेषता है कि जिस साज को उन्होंने साधा उसे अपने स्वभाव और अनुशासन में समरस कर उसे शंकर गिटार के रूप में पहचान और प्रतिष्ठा दी और उसके प्रति अपना गहरा अनुराग प्रमाणित किया। उनके सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है कि उन्होंने वादन के साथ-साथ शास्त्रीय और उप-शास्त्रीय संगीत भी सीखा और ठुमरी, भजन, कजरी, चैती और रवीन्द्र संगीत में भी प्रभावी अभिव्यक्ति के गुण प्राप्त किए।

डॉ. कमला शंकर ने प्रयांग संगीत समिति से बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के डॉ. गोपाल शंकर मिश्र के मार्गदर्शन में डॉक्टरेट की उपाधि भी प्राप्त की। आकाशवाणी एवं दूरदर्शन के राष्ट्रीय प्रसारण में वे लगभग दो दशकों से प्रस्तुति देने वाली एक महत्वपूर्ण कलाकार हैं। देश-दुनिया के प्रतिष्ठित संगीत आयोजनों में आपने माधुर्य प्रदान करने वाले अपने गरिमापूर्ण वादन से सुधि श्रोताओं और रसिकों को अत्यन्त प्रभावित किया है। डॉ. कमला शंकर को अब तक अनेक मान-सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया है जिनमें सुर सिंगार संसद, मुम्बई से सुरमणि की उपाधि, कलाश्री सम्मान, सारस्वत सम्मान आदि शामिल हैं। आडियो संगीत की प्रतिष्ठित कम्पनियों ने आपके गिटार वादन के अनेक अलबम भी जारी किये हैं।