बुधवार, 30 अप्रैल 2014

मोहन गोखले की याद

29 अप्रैल को एक ऐसे कलाकार की पुण्यतिथि थी जिन्हें इस दुनिया से गये पन्द्रह वर्ष हो गये लेकिन अपने काम से उन्होंने दर्शकों के बीच जो पहचान स्थापित की थी उसी का प्रभाव है कि लोग मिस्टर योगी को भूल नहीं पाते हैं। जिक्र मोहन गोखले का है, एक अत्यन्त प्रतिभाशाली कलाकार जिनका निधन पैंतालीस वर्ष की आयु में 1999 में हो गया था, उस वक्त जब वे कमल हसन की फिल्म हे राम की शूटिंग के लिए चेन्नई गये थे। उनका अकस्मात इस तरह जाना हतप्रभ करने जैसा था। मोहन गोखले हिन्दी और मराठी सिनेमा में अपनी उत्कृष्ट अभिव्यक्ति और मिलनसार स्वभाव के कारण जाने जाते थे।

मोहन गोखले की उल्लेखनीय फिल्मों में स्पर्श, भवनी भवई, मोहन जोशी हाजिर हो, होली, माफीचा साक्षीदार, आज झाले मुक्त मी, मिर्च मसाला, हीरो हीरालाल, कर्मयोद्धा, हूँ हुँशी हुँशीलाल, युगंधर, अरण्यका, कैरी, डाॅ. बाबा साहेब अम्बेडकर, ध्यासपर्व, मोक्ष आदि शामिल हैं। कैरी, अमोल पालेकर निर्देशित उनकी अन्तिम फिल्म थी। अभिनेत्री शुभांगी गोखले उनकी पत्नी हैं जो स्वयं भी हिन्दी और मराठी सिनेमा की अत्यन्त अनुभवी और दीक्षित अभिनेत्री हैं। अभी हम उनकी नियमित उपस्थिति मिसरी मौसी के किरदार में लापतागंज सीरियल में देख रहे हैं। जिस समय मोहन गोखले का निधन हुआ था तब शुभांगी पाँच साल की बेटी साखी की माँ थीं।

पति मोहन गोखले का उनके जीवन में होना परस्पर रचनात्मक आयामों में एक-दूसरे साथ, सलाह-मशविरा और सुझाव से भरा एक ऐसा जीवन था, जो एक खूबसूरत सामंजस्य का भी पर्याय था। शुभांगी याद करते हुए कहती हैं कि मेरे लिए मोहन का मतलब था एक चकित कर देने वाला कलाकार और एक दिलचस्प इन्सान। अभिरुचिसम्पन्न और सुसंस्कृत व्यक्तित्व था उनका। उनकी यादों के बगैर एक दिन भी आज तक मैंने गुजारा हो, ऐसा हुआ नहीं। उन्होंने कभी अपनी कला से समझौता नहीं किया। वे उस समय भी तटस्थ रहे जब उनके सिखाये लोग अपना पाण्डित्यप्रदर्शन किया करते थे। मोहन के लिए उनका स्वाभाविमान ही सर्वोपरि रहा। सहजता और गहराई उनकी विशेषता रही। शुभांगी कहती हैं कि मेरा काम उनकी दक्षता से प्रेरित है पर उनकी श्रेष्ठता को पाना आसान नहीं है।

अपने जीवन में एक उत्साही और ऊर्जा से भरे कलाकार पति से जो अन्तःसमर्थन शुभांगी ने महसूस किया था, उनके नहीं रहने के बाद वे उस क्षण के सदमे, उनकी यादों और उनके बिना आगे जीवनपथ पर एक छोटी सी बच्ची के साथ सुरक्षित और आत्मनिर्भर बने रहना उनके लिए बड़ी चुनौती थी। शुभांगी ने अपने जीवट को बरकरार रखा और अपनी जिम्मेदारी से मुँह नहीं मोड़ा। स्वयं शुभांगी हजार चैरासी की माँ, हे राम, मोक्ष, सूर राहू दे, डिटेक्टिव नानी, क्षणभर विश्रान्ति आदि फिल्मों में काम कर चुकी हैं। एक मराठी धारावाहिक एका लग्नाची तीसरी गोष्ठ में भी उन्होंने काम किया। 
 
लापतागंज की मिसरी मौसी, शुभांगी तो अभिव्यक्ति में बहुत ही विलक्षण दिखायी देती हैं। शुभांगी, बेटी साखी के अनुसरण से खुश हैं, वो भी हिन्दी-मराठी रंगमंच और फिल्मों में सक्रिय है और अपनी माँ को इस वक्त भावनात्मक रूप से सबल बनाने का काम कर रही है। शुभांगी, मोहन की स्मृति में भावुक होती हैं और बेटी में उनका अक्स देखती हैं........जीवन जूझने और जीतने का पर्याय है, यह उनके व्यक्तित्व और पुरुषार्थ से प्रमाणित होता है।
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शुक्रवार, 25 अप्रैल 2014

काँची : शो मैन का नया शो......

सुभाष घई की नयी फिल्म पर मिश्रित प्रतिक्रियाएँ हैं। व्यक्तिश: मुझे उनसे कुछ अधिक ही आशा बनी रहती है जो लगभग ताल तक पूरी होती रही, पता नहीं बाद में यादें, किसना, युवराज से क्या हो रहा है? काँची की कहानी, पटकथा, संवाद और निर्देशन सभी कुछ उनके हैं। मध्यान्तर के पहले जब तक यह कहानी नैनीताल के नैसर्गिक सौन्दर्य में एक नोकझोंकभरी प्रेमकथा की तरह परवान चढ़ती है, सुहाती है लेकिन जैसे ही मध्यान्तर से दस मिनट पहले नायक को मारने के बाद फिल्म मुम्बई में आगे बढ़ती है, पटकथा शिथिल होती प्रतीत होती है। दो तरह के स्थानापन्न-विभाजन, नैनीताल और मुम्बई और शायद रस्मपूर्ति के लिहाज से अन्तिम दृश्य में वापस मूल स्थान पर फिल्म को इति प्रदान करना, फिल्म को लेकर कोई धारणा स्थापित कर पाने में असहज ही रहा। नायक की मृत्यु का दृश्य जितने प्रभाव से फिल्माया गया है, उतने ही वजन के साथ यह दर्शकों को आगे के लिए व्यावधानित कर देता है। फिर वे बेमन से नायिका के साथ कहानी को बदले के साधारण रोमांच के साथ देखते हैं।

फिल्म में मिथुन का चरित्र उनके द्वारा संवाद में प्राय: बोले शब्द "पद्धति" के साथ ही उनको प्रभावी नहीं होने देता, उनके दोनों तरफ गाल किस लिए फुला दिये गये, समझ में नहीं आया, संवाद बोलने का लहजा भी जबकि ऋषि कपूर अपने नकारात्मक किरदार में प्रभावित करते हैं। नायक कार्तिक की सराहना के साथ हमदर्दी भी व्यक्त करनी पड़ेगी क्योंकि निर्देशक को अपनी कहानी में शायद उसकी जरूरत उतनी ही थी। नायिका मिष्टी को क्षमता से अधिक वजन या दायित्व मिला है, परिपक्व उम्र के अभाव में चेहरे पर भाव नहीं आ पाते, उग्रता के स्वभाव को ही प्राय: अभिव्यक्ति का आधार बनाया गया है। नताशा रस्तोगी, चंदन राय सान्याल, मीता वशिष्ठ जैसे परिपक्व कलाकार अपने काम बेहतर कर जाते हैं लेकिन मुख्य धारा में भटकाव उत्तरार्ध में फिल्म को कमजोर करता है।

इरशाद कामिल के गाने, दो संगीतकारों इस्माइल दरबार और सलीम-सुलेमान का संगीत कुछ गानों में सुरुचिपूर्ण लगता है, टाइटिल ट्रेक भी अच्छा है। "कम्बल के नीचे" गाना एक बुरा प्रयोग है जिसको सुनकर पंक्तियों में सुभाष घई की पिछली फिल्मों के नाम-गाने याद आते हैं पर उसका प्रस्तुतिकरण नहीं सुहाता। सुधीर के चौधरी, सिनेमेटोग्राफर की दृष्टि भी मध्यान्तर तक सुहावनी है, बाद में घटनाक्रम के लिहाज से बहुत चमत्कार की गुंजाइश भी नहीं रहती, फिर भी मुम्बई में ट्रेन के आसपास नायिका और खलनायक के बॉडीगार्ड से संघर्ष अच्छा फिल्माया गया है, रोमांचक खासकर।

अलका सिंह अर्थात रिवाल्वर रानी अर्थात कंगना

रिवाल्वर रानी को देखना एक दिलचस्प अनुभव है। यह कंगना के लिए क्वीन के बाद वाकई एक और महत्वपूर्ण फिल्म है जो उनकी पहचान को इस वक्त में और समृद्ध करने काम करेगी। इस फिल्म का एक महत्वपूर्ण पक्ष यह है कि यह सचमुच हिन्दी सिनेमा के विभिन्न श्रेष्ठ मानकों से अलग एक अपना मध्यमार्ग लेकर चलती है और दर्शकों के मन को छू जाने वाले और कई बार तनाव में भी बनाये रखने वाली खासियतों के साथ अंजाम तक पहुँचती है।

साई कबीर फिल्म के निर्देशक हैं जिन्होंने इसे भोपाल से लेकर ग्वालियर और वहीं आसपास के अंचलों में फिल्माया है। फिल्म की भाषा-बोली बुन्देलखण्ड से प्रेरित है, हालाँकि बहुत से कलाकार, जिनमें नायिका भी शामिल है, पूरी तरह उस भाषा को निबाह नहीं पाते फिर भी उनके प्रयत्न अच्छे हैं और वे दस्यु जीवन, राजनैतिक यथार्थ और अपराध के गठजोड़ के बीच शह और मात के खेल को सशक्त पटकथा और संरचना के साथ साकार करने में काफी हद तक कामयाब होते हैं।

रिवाल्वर रानी की केन्द्रीयता में भटकाव नहीं है। शत्रुता प्रत्यक्ष है और निभाने का ढंग भी जबरदस्त लेकिन उसी संघर्ष में हीरो बनने के एक महात्वकांक्षी युवक और रिवाल्वर रानी के बीच प्रेम की फिलॉसफी दीवानगी के साथ रची गयी है। रिवाल्वर रानी यानी अलका सिंह के अपने वजूद और भय के बावजूद उसके भीतर का अकेलापन, उसकी ख्वाहिशें और उसका प्रेम उस चरित्र को संवेदना प्रदान करता है। कंगना ने सचमुच अन्देशे से भरी, जोखिमपूर्ण जिन्दगी से जूझती मगर भीतर से एक कोमल सी औरत को बखूबी जिया है।

इस फिल्म को पीयूष मिश्रा, कुमुद मिश्रा, जाकिर हुसैन, वीर दास आदि कलाकार अपने-अपने किरदारों से यादगार बनाते हैं। किस तरह आस्थाएँ बदलती हैं, धारणाएँ बदलती हैं, कैसे छल अपने इर्द-गिर्द साथ-साथ चलता है, कैसे क्रोध का अतिरेक, संवेदनशीलता में तब्दील हो जाता है, ऐसी बहुत सारी स्थितियाँ फिल्म के साथ हैं। फिल्म का अन्त बहुत मार्मिक है जब जली-झुलसी अलका सिंह बिस्तर पर पड़े-पड़े ट्रांजिस्टर में अपनी मौत का समाचार सुन रही होती है, उसकी आँख से बहकर निकला आँसू उसके व्यतीत को करुणा के साथ व्यक्त करता है...........

फिल्म के गाने माहौल के अनुकूल हैं, मगर दृश्यों के साथ केन्द्रित करते हैं, ऊषा उत्थुप, आशा भोसले, पीयूष मिश्रा के स्वरों में वे गाथा की तरह घटित होती हैं, प्रसंगों के अनुकूल...........

मंगलवार, 22 अप्रैल 2014

और शरमन जोशी ने कहा, हैलो............

काना सिमोदा के लिए वह पल अविस्मरणीय बन गया था, जब शरमन जोशी की आवाज, उसके कानों से लगे मोबाइल में गूँजी, हैलो.. .. ..

अपने अन्त: में खुशी से लगभग हतप्रभ सी काना को कुछ बोलते न बना। हम लोगों के प्रोत्साहित करने पर उसने बात की, कहा, मैं आपकी बहुत बड़ी फैन हूँ। आज मैं भोपाल से दिल्ली जा रही हूँ और चार दिन बाद दिल्ली से जापान। मेरी बड़ी इच्छा थी, कि आपसे एक बार मिलूँ। कई फिल्में आपकी मैंने देखीं, मिलना नहीं हो पाया, लेकिन इस समय बात करके बहुत खुशी हो रही है। अगर कभी दोबारा हिन्दुस्तान आना हुआ तो जरूर मिलने की इच्छा होगी।

काना सिमोदा ने जापान से दो साल पहले दमोह के जिला चिकित्सालय में मेरी बहन के सान्निध्य में अपना दो वर्षीय प्रशिक्षण आरम्भ किया था। बहन के ही साथ उसे कुछ बार इस अवधि में भोपाल भी, प्रशिक्षण के सिलसिले में आना पड़ा। वह हमारे परिवार से खूब घुलमिल गयी। जिस तरह हमारी दोनों बहनें हमें दादा कहती हैं, काना भी कहा करती। काना ने हिन्दी बोलना भी खूब सीख लिया था। बड़ा मजा आता काना से बात करके।

मेरी बहन ने ही मुझे बताया कि काना ने शरमन की रंग दे बसन्ती, गोलमाल, थ्री ईडियट्स आदि फिल्में देखीं हैं और गजब मुरीद है, साथ ही यह भी कहा कि यदि कभी इसकी भेंट दो मिनट ही सही शरमन से हो सके तो देखना। बात हाँ-हँू में होकर रह गयी। समय व्यतीत हो गया, और चार दिन पहले वो दिन भी आ गया जब बहन ने बताया कि वो जा रही है। उसका यहाँ का प्रशिक्षण पूरा हो गया है।

बहन कुछ दिन पहले भोपाल आ गयी थी, काना दमोह में अपना काम पूरा करके, भोपाल में बहन और हमारे परिवार से मिलते हुए भोपाल से दिल्ली का जहाज लेकर दिल्ली और फिर जापान जाने का कार्यक्रम बनाकर आयी। घर में काना के साथ हम सब थे, लेकिन मेरा मन बेचैन। मुझे लगा, काना की एक आकाँक्षा पूरी न कर पाया। जाने अब वो जापान से आये भी कि नहीं।

मैंने अपने बड़े भाईतुल्य प्रतिष्ठित अभिनेता गोविन्द नामदेव से फोन करके अनुरोध किया कि वे कुछ मदद करें। उन्हें सब बताया। गोविन्द जी ने शरमन को फोन किया, सब बताया, फिर मुझे फोन करके कहा, सुनील, शरमन का नम्बर ये है, तुम फोन लगा लो, काना से उसकी बात करा देना.. .. .. ..

इस तरह शरमन को फोन लगाया, काना के बारे में दोहराया और काना की बात करायी। रात भोपाल एयरपोर्ट पर काना को हम विदा कर रहे थे। भावुक काना, अपनी जापानी सहयोगी और दिल्ली से उसे लेने आयीं समन्वयक प्रीति को खुशी-खुशी बता रही थी, शरमन जोशी से मैंने बात किया है.. .. ..

उनके चेहरे आश्चर्यमिश्रित भाव प्रकट कर रहे थे और मुझे भीतर सुकून सा महसूस हो रहा था.. .. ..

गुरुवार, 17 अप्रैल 2014

बम्बई टू गोवा के बहाने मेहमूद की याद




इस टिप्पणी के साथ आप जो छायाचित्र देख रहे हैं वो अमिताभ बच्चन और उनके साथ अनवर अली का है। अनवर अली, एक बड़े प्रसिद्ध हास्य अभिनेता मेहमूद के छोटे भाई हैं। दोनों के इस गर्मजोशी से मिलने की वजह अनवर अली, उनकी पत्नी मोना और बेटे आकार की ओर से किया जाने वाला यादगार उपक्रम था, मेहमूद साहब की दसवीं बरसी पर "बम्बई टू गोवा" फिल्म के पुनरावलोकन का आयोजन। महत्व की बात है कि अमिताभ बच्चन वक्त निकालकर इस फिल्म के पुनरावलोकन में शामिल हुए।

सुयोग है कि अनवर अली ने फिल्म में ड्रायवर की भूमिका की थी और मेहमूद कण्डक्टर बने थे। दोनों के नाम दिलचस्प थे, अनवर भाई का राजेश और मेहमूद साहब का खन्ना। अमिताभ बच्चन फिल्म के नायक थे, रवि कुमार नाम था, अरुणा ईरानी नायिका। इस फिल्म को देखते हुए यह सफर दिलचस्प लगता है, किस्म-किस्म के किरदारों के साथ जिनमें मनोरमा, ललिता पवार, राजकिशोर, बब्बन, मुकरी, सुन्दर, केश्टो मुखर्जी, युसुफ खान, बीरबल नजर आते हैं। बस से बाहर कलाकारों में शत्रुघ्न सिन्हा, मनमोहन, नजीर हुसैन, दुलारी, आगा, असित सेन, जूनियर मेहमूद आदि भी फिल्म का हिस्सा होते हैं।

फिल्म में किशोर कुमार मेहमान कलाकार की तरह अपने ही किरदार में हैं और शूटिंग स्थल पर जाने के लिए बस में बैठते हैं, एक गाना गाते हैं। मेहमूद और किशोर कुमार में बड़ी मित्रता थी, मेहमूद अपने लिए उनको हमेशा भाग्यशाली मानते थे, साधू और शैतान और पड़ोसन फिल्में इस बात का प्रमाण हैं। किशोर कुमार साथ हों, इसके लिए उनका हर मूड, हर बात उन्हें मंजूर थी, सुनते हैं कि पड़ोसन में काम करने का मेहनताना किशोर कुमार ने उतने से एक रुपया ज्यादा लिया था, जितना उस समय मेहमूद अपने लिए निर्माताओं से लिया करते थे।

एस रामनाथन ने इस फिल्म का निर्देशन किया था। कहा जाता है कि निर्देशक ने मेहमूद और अनवर अली से इस फिल्म के बारे में बात करते हुए, अनवर अली के घर से अमिताभ बच्चन को निकलते देख, परिचय प्राप्त किया था और तय किया था कि हमें जो हीरो की जरूरत है, वो ये ही होंगे।

मेहमूद साहब की दसवीं बरसी पर उनके भाई की ओर से यह विचार बहुत मायने रखता है। वे स्वयं बड़े अस्वस्थ रहते हैं मगर उनकी इस ख्वाहिश को अंजाम देने का काम उनकी पत्नी मोना जी और बेटे ने किया। यह सम्भावना है कि दसवीं बरसी के इस साल में यह परिवार मुम्बई में मेहमूद साहब की कुछ और महत्वपूर्ण फिल्मों के प्रदर्शन आयोजित करे।


मेहमूद के बारे में यह सच ही कहा जाता है कि वे अपनी क्षमताओं में बहुआयामी कलाकार थे। आमतौर पर कहा यही जाता था कि उनकी उपस्थिति फिल्म के नायक को भी मुश्किल में डाल दिया करती थी। वे हीरो के बराबर पारिश्रमिक प्राप्त करने वाले कलाकार थे। वे बहुत बड़े उपकारी भी थे। अपने समय में राहुल देव बर्मन से लेकर अमिताभ बच्चन, विनोद मेहरा, अरुणा ईरानी और कितने ही कलाकारों के लिए उनका सहयोग और प्रोत्साहन का भाव रहा है। एक बार मन्ना डे साहब ने बताया था कि मेहमूद, राजकपूर, मेरे और हृषिकेश मुखर्जी के पक्के दोस्त थे।

मेहमूद का स्मरण्‍ा सचमुच भावुक करता है, मित्रों को वक्त मिले तो कभी उनकी फिल्में मस्ताना, नौकर, भूत बंगला, कुँवारा बाप, पारस, छोटे नवाब, जौहर मेहमूद इन गोवा, हमजोली, पड़ोसन आदि में से एकाध फिल्में जरूर देखें। वे हास्य अभिनेता थे मगर करुणा की अभिव्यक्ति में उनका कोई सानी नहीं। कुँआरा बाप के गाने में जब हिजड़े पूछते हैं कि ये बगर माँ का बच्चा कहाँ से लाये, बोलो न, बोलो न तब वे जिस तरह बच्चे के मिलने की दास्तान बतलाते हैं और उस लाइन को रोते गाते हैं, मैं वापस लौटा, फिर बच्चे को उठाया, गले से यूँ लगाया...........अपना कलेजा भी हिल जाता है.....

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2014

भूतनाथ और अखरोट का जागरुकता अभियान



जागरुकता से आशय जगाना भी होता है। जाग्रत करना। हम सोये हुए नहीं हैं मगर उदासीन हो सकते हैं। बहुत सी आवश्यक और अपरिहार्य चीजों के लिए उदासीन हो सकते हैं। सचेत करने और चेताने वाले उपक्रम ही हमें जाग्रत करते हैं। जाग्रत करना और जागरुकता की बात करना एक बड़ी सामाजिकता की पहल होती है। ऐसी पहल कभी-कभार सिनेमा के माध्यम से अब भी होती है। नितेश तिवारी की फिल्म भूतनाथ रिटर्न में यह दिखायी दी है। इस नाते इस फिल्म को ही साधुवाद देने का मन होता है। हालाँकि इस फिल्म में और सभी को निष्प्रभावी करती अपनी महिमा के साथ अमिताभ बच्चन मुख्य भूमिका में उपस्थित हैं लेकिन पार्थ भालेराव कमाल का लड़का है जो उनके साथ प्राय: हर दृश्य में रहते हुए भी उनकी महिमा से निष्प्रभावी रहा है।

बड़े सितारे के सामने अक्सर उनके जूनियर आमने-सामने के दृश्यों में मर्यादा और आत्मविश्वास के मामले में स्वयं ही जरा शिथिल हो जाया करते हैं लेकिन एक उदाहरण यश चोपड़ा की फिल्म मशाल का है जिसमें दिलीप कुमार के सामने अनिल कपूर ने यथासम्भव अपने आत्मविश्वास को बनाये रखा था, यदृपि शक्ति फिल्म में अमिताभ बच्चन जब-जब दिलीप कुमार के सामने आये, खुद को जरा कम होकर ही व्यक्त किया। खैर ये अपने-अपने शिष्टाचार हैं, होना भी चाहिए।

अमिताभ बच्चन, पार्थ भालेराव की खुद भी तारीफ करते हैं। महानायक भूत बने हैं फिल्म में और पार्थ, अखरोट नाम का किरदार जो उनसे नहीं डरता और उनको जमीन पर देख भी लेता है, शेष कोई उनकी आकृति को चीन्ह नहीं पाता। पार्थ की परवरिश अंग्रेजी में कहें तो स्लम बस्ती में हुई है लेकिन नितेश तिवारी को उसमें अपनी फिल्म का ये किरदार अखरोट नजर आया। उसका परिष्कार करके उन्होंने अमिताभ के साथ फिल्म में इस तरह किया है कि दोनों के साथ फिल्म सहज गति से चलती है। पार्थ ने उन सारे दृश्यों में अपने को बिना झिझक व्यक्त किया है जो अमिताभ बच्चन के साथ फिल्म में हैं। निश्चित रूप से अमिताभ बच्चन ने भी उसको इसके लिए सहज किया होगा। उसका अपनी माँ, जिसका किरदार ऊषा जाधव ने निभाया है, के साथ रात को सोते हुए लम्बे संवाद में माँ के संघर्ष पर कही गयी बातें मन को छू जाती हैं। सच है, हर माँ घर के डिब्बे में नीचे बासी रोटी अपने खाने के लिए रखती है और उसके ऊपर ताजी रोटी बच्चों के लिए। 

भूतनाथ रिटर्न में मुख्य किरदार भूतनाथ और अखरोट आम जनता से वोट करने की बात करते हैं, उन्हें वोट देने के लिए जागरुक करते हैं। भूतनाथ, अखरोट और अपने वकील (संजय मिश्रा) के सामने दस मूँगफलियों में से पाँच-पाँच अलग करके पाँच में से दो और तीन मूँगफलियों के माध्यम से उदासीन मतदाता, वोट करने जाने और नहीं जाने वालों की व्याख्या करते हैं, वो दिलचस्प है। अदृश्य सम्भाषण में वोटर आईडी बनवाने के लिए हर आदमी को जागरुक करने वाली बात भी फिल्म में है। 

प्रदर्शन से अब तक भूतनाथ रिटर्न को प्रेक्षकों, आलोचकों ने देखकर अपनी दृष्टि और आकलन के अनुरूप सितारे प्रदान किए हैं। व्यक्तिश: मुझे यह सहजतापूर्वक तीन सितारों वाली फिल्म लगती है। पन्द्रह मिनट इसे और सम्पादित कर दिया जाता तो फिल्म और चुस्त हो सकती थी। अब के समय में मुझे लगता है, सिनेमा देखने के लिए भी दो घण्टे से अधिक सिनेमाहॉल में बैठने का धीरज मुश्किल से दिखायी देता है..........

रविवार, 6 अप्रैल 2014

नानी का घर

बड़े लम्बे अरसे बाद कानपुर की यात्रा ने बड़ा सुकून दिया, भले दिन भर की यात्रा रही पर गंगा घाट के निकट बिठूर में एक भावनात्मक और मन को छू लेने वाले कार्यक्रम में "ज्ञानवती अवस्थी स्मृति सम्मान" ग्रहण करना अविस्मरणीय अनुभव। मानस मंच के इस कार्यक्रम में बड़ी संख्या में सब उपस्थित जैसे परिजन ही हों, डॉ. सुरेश अवस्थी, उनके सबसे बड़े भैया का प्रेम अपनापन और उनकी माँ जी की स्मृति का सम्मान।

मेरे लिए कानपुर उम्र के बराबर ही अपना है, कानपुर नानी का, आज भी उनकी स्मृतियों को ताजा कर देने वाला जबकि वे तो पच्चीस बरस पहले चली गयीं। उनकी उंगली पकड़कर उनके स्कूल जाया करता था, जब भी वहाँ जाता। भगवत और सरसैया घाट की गंगा जी। अप्सरा सिनेमा में राम और श्याम, सुन्दर टॉकीज में शोले-धरमवीर, हीर पैलेस में सन्यासी और दस नम्बरी, रॉक्सी में दो अनजाने और रीगल में जैसी करनी वैसी भरनी फिल्में। बिरहाना रोड के बनारसी स्वीट की मिठाई और दालमोठ। पैदल और सायकिल से दूर तक जाने के चुपचाप दुस्साहस फिर वो चौक हो या परेड या फिर बड़ा चौराहा। तब किराये की सायकिल चालीस पैसे प्रति घण्टा वहाँ मिल जाया करती थी।

पानी के बताशे, आलू की टिकिया और मटर की चाट लक्ष्मी के ठेले की खूब याद है, घर के सामने से निकला करते थे। नानी का हुक्म था, पूरा मोहल्ला मामा और मौसी, नाना और नानी। सड़क के बीच लगे नल पर लाइफबॉय से नहाने का आनंद। बाल्टी में पानी का नम्बर लगाना और घर लाकर इकट्ठा करना। नानी की बनायी कल्हारी घुइयाँ (अरबी) की सब्जी और पराठे। नगर महापालिका के रेल फाटक के पास बने नानी के बेसिक प्रायमरी स्कूल में साथ जाना फिर उनसे पूछकर सामने ही रेल के पुल पर जाकर आती-जाती रेलगाड़ियों को देखना। जाने कितना समय बीत जाता। सम्मान के बाद बोलने की बात आयी तो मुँह में शब्द से पहले आँखों में आँसू। नानी याद आ गयीं। कभी कल्पना नहीं की थी कि जो कानपुर बचपन से स्मृतियों में रहा है, वहीं से इस सुखद अवसर, घटना का साक्षी होऊँगा।

भैया के घर गया, वे कहीं होली मिलन में गये थे जिनसे बाद में उसी स्थान पर जाकर मिला और देर तक बात की। उसके पहले घर में निर्मल भाभी, जिनसे बचपन का नाता, उनकी उम्र माँ के बराबर है और अपना आदर भी उनको माँ के जैसा ही। आज भी उनकी आँखों के सामने अपना आत्मविश्वास हिल जाता है, पर वे बड़ी स्नेहिल, देखकर खुश हो गयीं, आँखों को भिगोकर। पेट भरा था पर भाभी ने जो-जो जिद से खिलाया, खाता चला गया, चाय भी दो बार, दूसरी बार तो खुद ही बना लायीं। निर्मल भाभी के साथ ही अपने जीवन की पहली रोमांटिक फिल्म "कभी-कभी" निशात टॉकीज में देखी थी। भाभी का हमेशा ऐसा आदर बना रहा है, जिसमें डर के प्रतिशत भी शामिल हैं, कल्पना भी नहीं कि उनसे मिले बगैर आ सकता था, यही उनको बताया भी कि कैसे यह सम्भव था.......

छुटपन में मम्मी के साथ कानपुर आते हुए आखिरी के दो-तीन स्टेशन पुखरायाँ, भीमसेन और गोविन्दपुरी आने लगते तो मम्मी का चेहरा चमक उठता, वे बतातीं कि अब कानपुर आ रहा है। इसी तरह जब भोपाल वापसी होती तो इन्हीं स्टेशनों को देखते हुए मम्मी रोते हुए जातीं, मैं उनका चेहरा देखा करता। कल मम्मी को जब सम्मान की सब चीजें दिखायीं तो उनको फिर रोना आ गया, कहने लगीं, आज नानी होतीं तो कितना खुश होतीं.............उनको देखते हुए मुझे याद आ गया जैसे उनके साथ ही कानपुर से लौट रहा हूँ, गोविन्दपुरी, भीमसेन का पुखरायाँ होते हुए............

काजू वाली दालमोठ

इस बार कानपुर गया तो एक बड़ा काम यह भी ले कर गया कि जो दालमोठ नानी लाया करती थीं भोपाल लाने पर, काजू पड़ी हुई, वह ढूँढ़ना है, मम्मी के लिए। चालीस साल से भी ज्यादा की स्मृतियों में बिरहाना रोड की दुकान थी। रात को वहीं चला गया, पैदल उतरकर दोनों तरफ की मिष्ठान्न और नमकीन की दुकानों में गया, कुछ दुकानों में दालमोठ रखी थी लेकिन वो स्वाद और खुश्बू नहीं मिल पा रही थी। खास बात यह थी कि काजू वाली दालमोठ चाहिए थी।

काजू से याद आया, बचपन में दालमोठ से काजू और चिवड़े से मूँगफली बीन-बीनकर खा लेना मेरे साथ छोटी बहन ने भी सीख लिया था, उस पर मम्मी आड़े हाथों लिया करती थीं, तत्काल ही, अरे मूर्खों ऐसे खा रहे हो जैसे जिन्दगी में कभी देखा नहीं काजू। उस समय तो हम ठिठक जाया करते थे, हाथ का हाथ में, मुँह का मुँह में, लेकिन वो तुच्छ आदत आज भी नहीं छूटी।

दालमोठ में खरबूजे के बीज भी छीलकर डाले जाते हैं, बड़े स्वादिष्ट लगते हैं। याद आता है, नानी के गड़रिया मोहाल वाले घर के पास ही एक शिवरानी चाची रहा करती थीं, अकेली बूढ़ी सी, उनका जीवनयापन खरबूजे के बीज छील-छीलकर ही चलता था। उनके पास दो-तीन चिमटियाँ थीं, जिनसे वे खूब फुर्ती से बीज छीला करती थीं, फिर स्थान विशेष पर दे आती थीं और पैसे ले आती थीं। याद पड़ता है कि खरबूजे के बीज मिठाइयों में भी प्रयोग होते थे, आज भी होते हैं।

बहरहाल, एक दुकान में उसी खुश्बू, उसी स्वाद और खास काजू पड़ी दालमोठ मिली, जाहिर है खा कर ही चालीस साल पहले की स्वाद-अनुभूतियों से मिलान किया। भोपाल लाकर जब मम्मी को दिया तो उनको नानी की ही याद आ गयी और सुबकने भी लगीं, संवेदनात्मक स्थितियों में अपनी भी आँख सक्रिय हो जाती है जुगलबन्दी के लिए, वैसा ही हुआ।  अभी वे व्रत में हैं पर दो दिन बाद खायेंगी, सम्हालकर रखवा दी है......