शनिवार, 10 सितंबर 2011

बाजी : दाँव पर जिन्दगी




गुरुदत्त के उत्कृष्ट फिल्मकार और अभिनेता होने के साथ-साथ उदय शंकर के ग्रुप से जुडक़र कोरियोग्राफी में अनूठी विशेषज्ञता हासिल किए जाने वाली बात बहुत से दर्शकों को शायद न मालूम हो। गुरुदत्त का जीवन एक सीमित आवृत्ति में असाधारण काम करके चले जाने वाला विलक्षण प्रमाण है। सदाबहार अभिनेता देवआनंद के लिए उन्होंने अपने समय में श्रेष्ठ फिल्में बनायीं। बाजी उनमें से एक थी। इसका प्रदर्शन काल सन इक्यावन का है।

एक तरह से देखें तो उस वक्त की फिल्म है जब हिन्दुस्तान को आजाद हुए चार साल हुए हैं। यह एक आश्वस्त जुआरी की कहानी है, जिसको अपनी इस कला या कह लें, हुनर पर काफी अहँकार है। लगातार बुरे आदमियों के बीच रहते हुए दर्शक उसके परिवार को भी देखता है जिसमें उसकी बीमार बहन है, जिसका वो इलाज नहीं करा पा रहा है, एक छोटा भाई भी है। फिल्म में दो नायिकाएँ हैं, एक कल्पना कार्तिक, डॉक्टर जो उससे आत्मीयता रखती है और उसकी बहन का इलाज भी करती है और दूसरी है, क्लब डाँसर जिसकी भूमिका गीता बाली ने निभायी है। नायक और डॉक्टर का प्रेम, डॉक्टर के पिता को पसन्द नहीं है, वह उसी होटल का मालिक है जहाँ नायक जुआ खेलने आता है। इन्हीं स्थितियों के बीच क्लब डाँसर का कत्ल हो जाता है और इल्जाम नायक मदन पर आता है।

उत्तरार्ध में पूरी फिल्म एक घटना के रहस्य को दिलचस्प ढंग से साथ लिए चलती है। हम यहीं पर हमेशा अंधेरे में बने रहने वाले, स्याह शेडो में उभरी काया, सिगार और बुलन्द आवाज वाले बॉस को देखते हैं जिस तक पहुँचना मुमकिन नहीं है। नायक निर्दोष है, यह अन्त में जाहिर हो ही जाता है। बाजी की स्क्रिप्ट और संवाद लेखन का काम बलराज साहनी ने किया था, यह उल्लेखनीय है। साहिर के गीतों को सचिन देव बर्मन ने संगीतबद्ध किया था। गाने यादगार हैं, तदबीर से बिगड़ी हुई तकदीर बना ले, आज की रात पिया दिल न तोड़ो आदि।

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