शुक्रवार, 18 नवंबर 2011

"बिग बॉस"

आपने बिना वजूद के किसी मुखिया की कल्पना की है? शायद न की हो। लेकिन दृश्य में ऐसे ही मुखिया का वजूद स्थापित किया जा रहा है।

पचास साल पहले की देखी कुछेक फिल्मों को याद कीजिये, शायद आपको एक जाने-माने खलनायक के. एन. सिंह याद आ जाएँ। पूरी फिल्म में उनका चेहरा दिखाई नहीं देता था। उनकी छाया अंधेरे की सरताज हुआ करती थी। उनकी आवाज़ का मतलब हुआ करता था। सब उनके आज्ञापालक हुआ करते थे। पर्दे के पीछे उनका दम देखने काबिल होता था। प्रकट वो अंत में ही होते थे जब "एक्सपोज" हो जाते थे या कहें कि परदाफाश हो जाया करता था तब ही हम उनका चेहरा देख पाते थे।

"बिग बॉस" में इस बार कलह बड़े घृणित रूप में हम देख रहे हैं। यदि यह सुनियोजित या पूर्वनियोजित है तो भी और यदि यह स्थितियों से प्रेरित है तब भी। इस कार्यक्रम को देखना इस बार शायद उतनी संख्या में लोग पसंद नहीं कर रहे हैं, जैसे पहले देखते रहे होंगे। ऐसा लगता है कि इसमें शामिल बहुतों के चयन का मापदंड अतिशय निर्लज्जता ही रहा होगा। 

परस्पर पुरुषों के व्यवहार, परस्पर स्त्रियों के व्यवहार और फिर पुरुषों और स्त्रियों के परस्पर व्यवहार, सबमें शिष्टाचार ताक पर है। नब्बे दिनों का वक्त बहुत होता है। एक ग़ज़ब खेल की परिकल्पना है यह जिसमें आपस में दस-बारह लोग इस तरह व्यवहार करते हैं कि दिलों से उतरते जाते हैं और दरकिनार होकर अंततः बाहर हो जाते हैं। अंतिम रूप से बच गए लोग सजग और सावधान किस्म के कुटैव में अपनी दक्षता को सिद्ध करते हैं, जो आखिर में विजयी होता है, वह हीरो होता है। उसका "हीरोइज़्म" दर्शक को कभी समझ में नहीं आता।

तीन महीने वाकई बहुत बड़ा समय होता है। इतना समय इस त्रासद मनोरंजन के नाम करने के बजाय अच्छे लेखकों, संस्कृतिकर्मियों, इतिहासकारों, वैज्ञानिकों, समाजचेताओं, कलाकारों को एकत्र करके उनके साथ संजीदा संवाद करके कुछ सार्थक और रचनात्मक काम किया जा सकता है। अच्छी किताबें, शोध, संगीत, सृजन, विश्लेषण सामने लाया जा सकता है।

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