सब चैनल पर सप्ताह के पहले पाँच दिन प्रसारित होने वाले दो-तीन दिलचस्प धारावाहिकों में से एक चिडिय़ाघर को इन दिनों अनिल दुबे निर्देशित कर रहे हैं। अनिल एक तजुर्बेकार निर्देशक और पटकथाकार हैं, जिन्हें धारावाहिकों और सिनेमा का लम्बा अनुभव रहा है। चिडिय़ाघर की संरचना बड़ी रोचक है। परिवार के मुखिया बाबूजी हैं, उनके तीन बेटे हैं, दो बहुए हैं, एक पोता है और एक सेवक है जिसका नाम है गधा प्रसाद। घर का नाम चिडिय़ाघर इसलिए है क्योंकि बाबूजी की पत्नी का नाम चिडिय़ा था। गधा प्रसाद छोटी सी उम्र में उनके साथ मायके से आ गया था तब से यहीं का होकर रह गया। वह भी परिवार का हिस्सा है। बुद्धि और प्रखरता में उसका हाथ तंग है मगर वह अद्भुत रूप से संवेदना और आत्मीयता का ऐसा धनी है जो अपनी क्षमताओं, स्वभाव और सीमाओं में भी सभी को स्वीकार्य ही नहीं है बल्कि इस तरह जुड़ा हुआ है कि उसको अलग करके देखा ही नहीं जा सकता।
राजेन्द्र गुप्ता, वरिष्ठ रंगकर्मी और सिनेमा तथा टेलीविजन के अत्यन्त दक्ष कलाकार हैं, वे चिडिय़ाघर के मुखिया बाबूजी के रूप में पूरे घर को एकसूत्रता में बांधकर रखते हैं। वो पूरे परिवार को आज भी नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाते हैं। दिलचस्प यह है कि परिवार के पूरे सदस्य उनकी कक्षा में उपस्थित होकर उनसे सरोकारों को समझते हैं, अपने समझ-नासमझी के प्रश्र भी करते हैं, जिनके समाधान बाबूजी सहजता से और कई बार किं कर्तव्य विमूढ़ होकर करते हैं। बहरहाल इस धारावाहिक को देखना रोचक अनुभव है।
चिडिय़ाघर में गधा प्रसाद एक अलग तरह का आकर्षण है। ढीला-ढाला पायजामा और बुशर्ट पहले, हाथ से हाथ बांधे, पेट पर चढ़ाये गधा प्रसाद बाबूजी की एक तरह से ऊर्जा ही है। बाबू जी कभी गधा प्रसाद के बगैर दिखायी नहीं देते। अभी पिछले भागों में जब एक छुटभैया नेता ने बाबूजी को थाने में बन्द करवा दिया था, तब अपना झोला उठाकर गधा प्रसाद थाने पहुँच गया था उनको छुड़ाने लेकिन हुआ यह कि पुलिस ने उसे भी बाबूजी के साथ बन्द कर दिया। बाबूजी और गधा प्रसाद के आपसी संवाद ध्यान से सुनने वाले होते हैं। कई बार अपनी सीमाओं में भी गधा प्रसाद ऐसी बात कह जाता है जो बाबूजी को हैरान कर देती है, उसी सिधाई में भी जीवन में उसके पिछड़े होने की कसक और दर्द कई बार इस तरह नजर आता है कि वो मन को छू जाता है। वह अपनी सीमाओं में भी परिवार के प्रति अपने समर्पण और निश्छल प्रेम के ऐसे प्रमाण अपनी बातों से देता है जो किसी समझदार की भी क्षमताओं के नहीं होते। जीतू शिवहरे गधा प्रसाद के किरदार को बखूबी निबाह रहे हैं।
चिडिय़ाघर के सदस्यों के विभिन्न स्वभाव हैं। बड़ा बेटा घोटक है जो रेल्वे की नौकरी करता है, उसके दिमाग में रेल और स्टेशन की दुनिया एक सुरूर सी रहती-बहती है। उसकी पत्नी खूबसूरत है, परिवार को जोडक़र रखने में अपनी भूमिका बखूबी निबाहती है मगर वो भी आखिर चिडिय़ाघर रूपी एक घर का हिस्सा है जहाँ सभी अपनी-अपनी झक को बेपरवाही के साथ जिया करते हैं। एक बेटा गोमुख है जो पढ़ाता है, उसकी पत्नी मयूरी को नाचने का शौक है, कान में खूबसूरत झुमके पहनती है और प्राय: खुद को नृत्य मुद्रा में होने के एहसासों मे बड़ी मोहक अदा से अपने सिर को इस तरह झकझोरती है कि झुमके बज उठते हैं। सबसे छोटा बेटा और पोता भी इसी जीवन का अनूठा हिस्सा हैं।
इस धारावाहिक की खूबी इसके प्रति सुरुचि के साथ आकर्षित होना है। चिडिय़ाघर को देखते हुए न तो किसी तरह की उत्तेजना मन में होती है और न ही किसी तरह का रोमांच। घटनाएँ इस तरह घटित होती हैं कि हम सहज ही उसका हिस्सा हो जाते हैं, उसके साथ बहते चले जाते हैं।
अनिल दुबे काम में असाधारण क्षमताओं वाले निर्देशक हैं। इस टिप्पणीकार ने स्वयं उन्हें लगातार तीसरे दिन तक जागकर बिना जम्हाई लिए काम करते देखा है। चिडिय़ाघर में भी वे हर वक्त सेट पर होते हैं, सुबह से लेकर रात और पता नहीं अगली सुबह तक और सब तरह की छुट्टियों में भी। राजेन्द्र गुप्त एक मिलनसार कलाकार हैं जो मुम्बई मे एक बड़े कलाकार समूह के एक तरह से अविभावक, बड़े भाई की तरह हैं। जाने कितने बरस से उनके घर चौपाल लगती है और बड़ी तादात में कलाकार वहाँ अपने अवकाश में खूब बातचीत करते हैं, अभिव्यक्ति देते हैं और गाते-बजाते हैं। यह मेजबानी अनवरत जारी है। उनसे मिलकर हमेशा ऐसी खुशी मिलती है जैसे बीस-पच्चीस साल की पहचान हो। चिडिय़ाघर उनकी भी अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण धारावाहिक है, जिसे जिन्दगी को समझने के लिहाज से, यदि फुर्सत हो तो देखा जरूर जाना चाहिए।