गुरुवार, 7 फ़रवरी 2013

पण्डित दुर्गालाल: उम्र से बड़ा यश


स्वर्गीय पण्डित दुर्गालाल भारतीय शास्त्रीय नृत्य परम्परा में कथक के जयपुर घराने के ऐसे प्रतिभासम्पन्न कलाकार थे जिन्होंने अत्यन्त कम समय में कला की ऊँचाइयों का स्पर्श किया। वे एक ऐसे कलाकार थे जो अपने घराने के प्रति गहरे अनुशासित और प्रतिबद्ध थे। उनकी कला यात्रा उम्र की सीमित और अल्पावधि के पड़ाव पर आकर ठहर भले ही गयी हो लेकिन हम सबके बीच उनके असमय चले जाने के बावजूद उनकी शिष्य परम्परा और जयपुर घराने की नृत्य शैली को उनके प्रति आत्मीय एवं संवेदनात्मक सरोकारों के साथ न केवल अपनाया गया बल्कि उसकी उत्तरोत्तर समृद्धि के लिए भी निरन्तर प्रयास जारी रखे गये। पण्डित दुर्गालाल के बारे में निष्पक्ष होकर यह कहा जा सकता है कि उनका यश उनकी उम्र से कहीं ज्यादा बड़ा और विस्तार लिए हुए है। उनकी प्रतिबद्ध और निष्ठासम्मत शिष्य परम्परा उनके कला-कौशल और अवदान का लगातार स्मरण किया करती है और यह क्रम निरन्तर चला आ रहा है।

पण्डित दुर्गालाल का जन्म 9 सितम्बर 1948 को महेन्द्रगढ़ (राजस्थान) में हुआ। वे कला को समर्पित परिवार में जन्मे थे इसलिए उनको आरम्भ से गायन, वादन और नृत्य की शिक्षा और वातावरण प्राप्त हुआ। पण्डित दुर्गालाल कथक के साथ-साथ पखावज वादन एवं गायन में भी उतने ही निपुण थे। पखावज वादन की शिक्षा उनको पिता पण्डित ओंकारलाल जी के द्वारा प्रदान की गयी थी। तबला वादन की शिक्षा उन्होंने नाथद्वारा के गुणी तबला वादक पण्डित पुरुषोत्तम जी से प्राप्त की। युवावस्था में उन्होंने नृत्य का प्रशिक्षण अपने बड़े भाई पण्डित देवीलाल जी से प्राप्त की। पण्डित देवीलाल जी अपने छोटे भाई की क्षमताओं और लगन से बड़े चकित थे। उनकी अभिरुचियों को देखते हुए उन्होंने पण्डित दुर्गालाल को अत्यन्त अनुशासित ढंग से घराने की विशिष्टताओं और बारीकियों का ज्ञान कराया। बाद में पण्डित दुर्गालाल नृत्य के परिष्कार के लिए अपने भाई के निर्देशों पर कथक केन्द्र नई दिल्ली आ गये और उन्होंने आगे की शिक्षा पण्डित सुदर्शन प्रसाद जी से प्राप्त की।

यहाँ से पण्डित दुर्गालाल की सृजन यात्रा अनेक आयामों और अनुभवों से होकर गुजरी जिसमें कठिन परिश्रम, अनुशासन और गहन एकाग्रता की बड़ी भूमिका रही है। उन्होंने एक बड़े और अपेक्षाकृत अपरिचित से शहर में अपना सारा ध्यान अपनी साधना पर केन्द्रित किया और अनेक तरह की व्यवहारिक कठिनाइयों के बावजूद अपने लक्ष्य को प्रभावित नहीं होने दिया। यह विलक्षण बात थी कि पण्डित दुर्गालाल ने अपनी साधना और सरोकारों के बीच आने वाली अनेक विषमताओं को अपने स्वप्न और लक्ष्य पर जरा भी प्रभावी नहीं होने दिया। वास्तव में अपने जीवट और प्रबल आत्मविश्वास से उन्होंने अपनी नृत्य प्रतिभा को कला मर्मज्ञों के बीच प्रशंसा और सराहना के साथ चर्चा के न केवल योग्य बनाया बल्कि मान्यता और प्रशंसा भी प्राप्त की। पण्डित दुर्गालाल की खूबी उनकी विनम्रता और अथक परिश्रम से अर्जित कला वैभव रहा है जो उनकी अभिव्यक्ति में प्रभावित करने के बावजूद इतना संयत और शालीन रहा है कि उनको उनकी कलागत उपस्थिति से सदैव सराहनाएँ ही प्राप्त हुईं। पण्डित दुर्गालाल जी के बड़े भाई पण्डित देवीलाल जी ने जिस ताप के साथ अपने छोटे भाई की प्रतिभा को गढ़ने का काम किया था, उसका सच्चा प्रतिसाद वास्तव में पण्डित दुर्गालाल जी ने अपने कला-कौशल से दिया जिसके लिए वे सदैव उन पर गर्व करते रहे। पण्डित दुर्गालाल जी ने भी अपने बड़े भाई को बहुत आदर और सम्मान दिया।


पण्डित दुर्गालाल ने देश के अनेक प्रतिष्ठित कला मंचों पर अपनी प्रतिभा का प्रदर्शन किया और रसिकों तथा जिज्ञासुओं को अपने नृत्य से सुखद विस्मय प्रदान किया। उनकी कीर्ति केवल हिन्दुस्तान तक ही सीमित नहीं रही बल्कि दुनिया के अनेक देशों की सांस्कृतिक यात्राएँ उन्होंने कीं। पण्डित दुर्गालाल एक पुरुष नर्तक के रूप में सुघढ़ देहयष्टि और स्फूर्त अभिव्यक्ति के धनी थे। नृत्य करते हुए उनके चेहरे पर जरा सा भी तनाव देखने में नहीं आता था वरन लगता यह था जैसे इस गुणी कलाकार से जयपुर घराने का गरिमापूर्ण स्वरूप सर्वाधिक सुरक्षित और संरक्षित रूप में चिरस्थायी है।

पण्डित दुर्गालाल को अनेक प्रतिष्ठित मान-सम्मान एवं पुरस्कार उनकी जीवनपर्यन्त साधना के लिए प्राप्त हुए थे। 1984 में उन्हें संगीत नाटक अकादमी अवार्ड प्राप्त हुआ था। पण्डित दुर्गालाल का निधन 1990 में 42 वर्ष की अल्पायु में वसन्त पंचमी के दिन हुआ जिसने कला जगत को स्तब्ध करके रख दिया था। इसके पहले वे लगातार नृत्य प्रस्तुतियों में एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा कर रहे थे एवं उत्तरप्रदेश संगीत नाटक अकादमी, लखनऊ के कथक महोत्सव में सहभागी थे। उनके निधन से जयपुर घराने की कथक परम्परा के तत्समय सघन विस्तार और प्रभाव को जैसे अकस्मात दुखद प्रतिरोध का सामना करना पड़ा। उनके कृतित्व, उनकी शिक्षा और उनके अवदान के प्रति समर्पित उनकी निष्ठित शिष्य परम्परा ने इस घटना के बाद निरन्तर उनकी स्मृति को अक्षुण्ण रखने का काम किया है और उसी परम्परा को लगातार प्राणवान बनाये रखने का प्रयत्न किया है जिसके साथ पण्डित दुर्गालाल का व्यक्तित्व-वैभव सर्व-प्रशंसित था.............................

कोई टिप्पणी नहीं: