बुधवार, 9 जुलाई 2014

मिष्ठान्न चेतना


पता नहीं क्या रहा, मिठाई का मोह तमाम चेतावनियों और समझाइशों के बावजूद नहीं गया। आज मिठाई का भाव प्राण सुखा देता है मगर आत्मा को तर रखने का लोभ संवरण छूटता नहीं। कल की याद है कि बारह रुपए किलो बरफी मिला करती थी, न्यूमार्केट के देहली स्वीट हाउस में जो कभी का बन्द हो गया, ज्वेलरी की दुकान खुल गयी और फिर किसी और की भी।

घर का सामान सौदा लेने बाजार जाते थे तो , साठ पैसे बचाकर पचास ग्राम लेकर वहीं खा-मुँह पोंछकर ही घर वापस आते थे। अब याद आती है तो हँसी आती है, तीज-त्यौहार में मम्मी पाव-आध किलो मावा मंगवाया करती थीं, उसे भी खरीदने के पहले चखकर देखने का ड्रामा जरूरी होता था, स्वाद चेतना जाग्रत करने के लिए। खरीद कर चले तो रास्ते में दो बार सायकिल रोक कर बंधा मावा खोलकर थोड़ा सा खा लिया करते थे। 

न्यूमार्केट की अन्नपूर्णा मिष्ठान भण्डार की लाल चॉकलेट परत वाली मिठाई बेहद पसन्द थी, वह आज तक दिमाग में फिट है, वो भी बाजार जाने पर पचास पैसे-एक रुपये काट लेने पर ले लिया करता। वह मिठाई डॉक्टरनी (बहन) को भी मजेदार लगती। मम्मी की नजरों से छुपा कर खाते क्योंकि वे उस मिठाई को रिजेक्ट करती थीं, कहती थीं, अच्छी नहीं होती पर आज भी दो-चार महीने में सौ ग्राम खा कर अपने छुटपन में कुछ देर को जाता हूँ। अक्सर मम्मी-पापा के साथ उनके परिचितों के घर जाते तो उन्हीं के कथनानुसार नाक कटाने का काम जरूर करते, मिठाई देखते ही दोनों हाथों में उठा लेते। जल्दी-जल्दी खाने लगते। मम्मी चुपके से चिकोटी काटतीं तो रोने लगते, सामने वाले को बता भी देते कि डाँट रही हैं तिस पर उनको परिचित कहते, बच्चा है, खाने दो...........अपन खुश। रोना छोड़कर खाने लगते।

मिठाई के प्रति अनुरक्ति आज भी कम नहीं है। संकल्पते कई बार हैं कि कम खायेंगे या दूर रहेंगे पर ऐसा हो नहीं पाता। कुछ दिन दूर रहे भी ताे जब पास आये तब सारा हिसाब बराबर कर लिया। शहर और कस्बों की मिठाइयों को भी खाने का बड़ा शगल है। बेहट से लगाकर हरदा, टिमरनी, दमोह, छतरपुर, सागर, टीकमगढ़ आदि सभी जगह का देशज स्वाद दोहराया-तिहराया ही नहीं बल्कि कितने ही बार मन को कृतार्थ किया है। अपने सब मित्र, आदरणीय जो प्रेम देते हैं, वह अविस्मरणीय है, साथ खाना, नाश्ता करो तो बहुत अपनेपन के साथ अपनी बरफी, कलाकन्द प्लेट में सरका देते हैं, इससे बड़ा उपकार, प्रेम और भाईचारा क्या होगा............!!

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