रविवार, 28 दिसंबर 2014

चोट कुछ अलग सी होती है......

चोट दुखती है बहुत अगर अपनी असावधानी से लग जाती है। चोट दुखती है अगर दूसरे की असावधानी से लग जाती है। अक्सर यह समझ पाना कठिन होता है कि चोट सबसे ज्यादा कब दुखती है? अपनी असावधानी से लग जाने के कारण या दूसरे की असावधानी से लग जाने के कारण। बहरहाल दर्द तो होता है, दुखता तो है ही। दुखना, दुख से उपजा शब्द है शायद। दुख देह में नहीं होता, मन में होता है। जब दुख मन में होता है ताे मन देह घर में ही चुपचाप एक कोने में अकेले बैठे रह जाना चाहता है। पता नहीं मन किस जगह से उठ या हटकर अपना एकान्त चुनता है, एक अंधरी कोठरी चुनता है जहाँ वह हमारी ही तरह घुटने मोड़कर उनमें मुँह छिपाकर बैठ जाया करता है। ऐसा सोचते हुए लगता है कि मन अपनी देह अलग गढ़ लिया करता है या हम अपने मन की देह अलग गढ़ दिया कर देते हैं। मन का इस तरह बैठ जाना और गहरी चुप्पी धारण करना देह से नहीं छूट सकने वाले हाथ को छुड़ाने की कोशिश सा जान पड़ता है। इसकी सफलता या विफलता, जीत या हार हमारे बाहर को प्रभावित करती है। 

चोट का पूरा का पूरा मिजाज अलग तरह का होता है, अक्सर लोग उसे पास-पड़ोस के शब्दों जैसे जख्म या घाव से भी जोड़ते हैं पर सचाई यह है कि चोट इन सबके पहले की अवस्था होती है। जख्म या घाव की तरह चोट प्रकट अवस्था में नहीं होती। उसका अप्रकट होना ही दरअसल हमारी संवेदना को उसकी तरफ एकाग्र करता है। शेष दो अवस्थाओं में हम सब कुछ के एक तरह से भिज्ञ ही होते हैं और उसके निदान को लेकर भी अनावश्यक संशय में नहीं रहते लेकिन चोट के साथ ऐसा नहीं है। चोट हमारे कदमों को पीछे, बहुत पीछे लौटा कर ले आने को होती है। वह दबाव शायद इस तरह का होता है कि हम उसका प्रतिरोध भी नहीं कर पाते। दी हुई चोट किसी भी संवेदनशील मनुष्य को ज्यादा तंग करती है। चोट कई बार छुए से मालूम नहीं देती, कई बार चोट छुए भर से मालूम हो जाती है। चोट के साथ स्पर्श का रिश्ता बहुत नम्र और कई मायनों में असरकारी भी होता है।

मन की चोट बरसों बनी रहती है। ऐसी चोट बढ़ती या घटती नहीं है पर बनी सदैव रहती है। देह से लेकर मन तक दरअसल महीन धागों की बुनी हुई ऐसी चादर भीतर ही भीतर कोई ढाँप कर छोड़ देता है, इस तरह की छुपी पीड़ा अपनी तपन को एक जैसा बनाये रखती है। नम्र स्पर्श, भूल को महसूस करने वाली नन्हीं-नन्हीं ग्लानियाँ चोट का धीमे-धीमे निवारण करने का अगर सच सरीखा प्रयत्न करते हैं तो सम्भवत:  वह चोट भी ठीक होती है जो ऋतुओं और त्यौहारों पर थोड़ी-थोड़ी हरियाई सी रहती है। सहलाहट केवल अँगुलियों या हथेलियों भर का हुनर नहीं है, सहलाहट सच कहा जाये तो सच्चे मन से स्वीकारी गयी भूल और उसी मन से किए जाने वाले प्रायश्चित या पछतावे की फिलॉसफी है। चोट को सहलाकर हम अपने मन तक उसके दर्द या पीड़ा के एहसासी होते हैं, यह एहसास हमें आत्मबोध कराता है और मान लीजिए चोट पहुँचाने की वृत्ति के प्रति थोड़ा-बहुत भी सचेत करता है, तो इससे बड़ी बात क्या हो सकती है! कुछ हो सकती है भला!!

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