तीन दिन की यात्रा थी। जिस दिन पहुँचे उसके अगले दिन मंचन होना था, मंचन के अगले दिन राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में प्रेक्षकों के सामने निर्देशक की वार्ता का नियमित कार्यक्रम होता है, उसी शाम फिर वापसी थी। इस तरह इस ग्रुप का मैं भी हिस्सा बना जो सैद्धान्तिक रूप से कुछ नहीं था लेकिन आत्मिक रूप से सबसे जुड़ा था। रेल में बैठकर सोचने लगा कि यह नाटक जो दो दिन बाद मंचित होगा, वास्तव में कितनी तरह के संवेदनशील सरोकारों को जीता आया है। नाटक के साथ जो बात, जो घटना जुड़ी है, उसका स्मरण मात्र ही आँखों की कोर गीली कर देता है।
प्लीज़ मत जाओ, मराठी के प्रख्यात नाट्य लेखक स्वर्गीय विजय तेन्दुलकर का की दो एकांकियों रात्रा और कालोख से एक पटकथा तैयार कर मंचित किया गया है। अनूप जोशी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों के सम-सामयिक परिप्रेक्ष्य, संवेदनाओं, दोहरेपन और छल के मनोविज्ञान को अपने मंचन का आधार बनाते आये हैं। अर्थदोष, सवाल और स्वप्न, मोनालिज़ा की मुस्कान आदि उनके ऐसे ही नाटक हैं। प्लीज़ मत जाओ में तीन कलाकार हैं, एक पुरुष चरित्र और दो स्त्रियाँ। एक, अपने प्रेमी द्वारा धन के लालच में ठुकरायी, अंधेरे एकान्त में जीवन के अवसाद को तिल-तिल जीती हुई और दूसरी उसी व्यक्ति को निहायत ही कमज़ोर भावनात्मक क्षण में याचनाभरी स्थिति में उपेक्षा के साथ ठुकराकर चली जाने वाली। लगभग एक घण्टे दस मिनट के इस नाटक में तीन लम्बे मुकम्मल दृश्यों में जिस तरह के आवेगों के साथ घटनाक्रम हमारे सामने घटित होता है, एकाग्रता ज़रा सी देर को भी इधर-उधर नहीं होती। अन्तिम दृश्य लगभग बिलखते हुए तीनों कलाकारों का है जो सचमुच रो रहे होते हैं क्योंकि इस नाटक से उनकी अत्यन्त मर्मस्पर्शी स्मृतियाँ जुड़ी हैं। इस नाटक में वो नायक चन्द्रहास तिवारी अब इस दुनिया में नहीं हैं जिनका किरदार स्वयं अनूप जोशी करने का भारी तनाव लेते हैं। यह नाटक, एक नायिका सविता के भीतर के भी सच्चे आँसुओं को बाहर ले आता है, चन्द्रहास तिवारी उनके पति जो थे।
मंचन के दिन एक मंचाभ्यास भी पहले से तय था। उस तैयारी से हम सब सभागार में सुबह से ही आ गये थे। प्रीति, इस नाटक में सविता की भूमिका निबाहने वाली कलाकार की गोद में सवा साल का बेटा है, जब यह तीन माह का था, तभी चन्द्रहास का निधन हो गया था। पाँच साल की एक बेटी भी। भोपाल में वे बड़े विनम्र, प्रशिक्षित, काबिल और क्षमतावान कलाकार माने जाते थे। उनके अकस्मात चले जाने से हतप्रभ, उनका रंगमित्र समाज आज भी उस व्यथा से उबर नहीं पाया है। प्रीति के लिए सबसे कठिन क्षण अपने आपको संयत बनाये रखने का, वे सचमुच बहुत बहादुर हिम्मती हैं, सलाम करना चाहिए उन्हें। जितनी देर वे मंच पर या पूर्वाभ्यास पर हैं, उनका बेटा सहयोगियों की गोद में। मैंने देखा, पूर्वाभ्यास में अन्तिम दृश्य जिसमें वे बिलखती हैं, बच्चा सामने से उनको देखकर रोने लगता है, उसको मम्मी का रोना सहन नहीं हुआ है। उसे जल्दी से बाहर ले जाते हैं, चुप कराते हुए। दोपहर में जितनी देर नाटक का मंचन हुआ, वो बच्चा बाहर अपनी मौसी की गोद में रहा।
इधर जब नाटक खत्म होता है, भरे सभागार के सारे दर्शक खड़े होकर ताली बजाने लगते हैं। अनूप जोशी, इस नाटक के साथ चन्द्रहास तिवारी के बारे में भी बतलाते हैं, दर्शकों की आँखें भी नम हो जाती हैं। मंच पर अनूप, भावना और प्रीति का चेहरा तो आँसुओं से पूरा ही भीगा हुआ था, हम भी अपने आपको रोक नहीं पाते। इस नाटक का संगीत तैयार करने वाले माॅरिस लाजरस और प्रकाश संचालन करने वाले तानाजी राव जीवन के साथ घटित होते उस असर को सीधे हमारे दिलो-दिमाग तक पहुँचा देते हैं जो धीरे-धीरे हमको घेरता है और बांध देता है। इस सारे असर से सराबोर हम महसूस कर पाते हैं कि जीवन और रंगमंच यथार्थ में एक-दूसरे के किस हद तक पर्याय हैं, कैसे एक धरातल पर आ कर जिया हुआ, भोगा हुआ सच हमें निरुत्तर करता है तो कभी हमारी दबी-छुपी नज़रों को अपने ही गिरेबाँ तक ले जाता है..........!!!