किसी का दर्द मिल सके तो ले उधार
हृषिकेश मुखर्जी और राज कपूर की बड़ी गहरी दोस्ती थी। राज, उन्हें बाबू मोशाय कहा करते थे। 1957 में अपनी पहली फिल्म मुसाफिर बनाने के दो साल बाद उन्होंने अनाड़ी बनायी। इस फिल्म में राज कपूर, नूतन, मोतीलाल और ललिता पवार प्रमुख कलाकार थे। सहायक कलाकारों में शुभा खोटे, मुकरी, नाना पलसीकर आदि की अहम भूमिकाएँ थीं। इस फिल्म का नायक राजकुमार, राजू शीर्षक के अनुरूप अनाड़ी है। वह पढ़ा-लिखा है, चित्रकार, कलाकार है पर उसे नौकरी नहीं मिलती। वह एक दयालु ईसाई बुजुर्ग महिला मिसेज डीसा के यहाँ एक कमरे में किराये पर रहता है पर महीनों से उसने किराया नहीं चुकाया है। ऊपर से सख्त हृदय मिसेज डीसा उसकी कामनाओं और विवशताओं को संवेदनापूर्वक समझती है। वही बहाने से उसकी बनायी तस्वीरें खरीदकर अपने दराज में रख लेती है और उसे पैसे देती है। मिसेज डीसा उसके लिए चाय और खाना भी बनाती है, उसके देर से आने पर फिक्र भी करती है, बात-बात पर उसको डाँटकर अपना असीम प्यार भी लुटाती है क्योंकि वह राजू में अपना दिवंगत बेटा देखती है। राजू भी मिसेज डीसा के मन और ऊपरी आवरण को बखूबी समझता है और उसको माँ की तरह प्यार करता है। वह मिसेज डीसा से अपना सारा दुखड़ा रोता है, देश और समाज के साथ दुनियादारी की बात करता है, अपनी विफलतओं की बात करता है और उनके ढांढस से अपना मन हल्का करता है। कहने का अर्थ यह कि दो गरीब और अभाव से भरे टूटे हुए दुखी मनुष्य आपस में एक-दूसरे से संवेदनाओं को बाँटकर मुश्किल में भी जीते हैं मगर बुरे रास्ते पर चलने, बेईमानी करने या किसी को चोट पहुँचाने की कल्पना भी नहीं करते।
एक दिन अपनी परेशानियों में बदहाल राजू एक रईस बिजनेसमैन रामनाथ सोहनलाल की आलीशान गाड़ी से टकराते हुए बचता है। पहले रामनाथ को लगता है कि यह आदमी पैसे झटकने के लिए गाड़ी के सामने आ गया है लेकिन जल्द ही राजू की असलियत जानने के बाद उसको कुछ रुपए देना चाहता है जिसे वो लेने से इन्कार कर देता है। गाड़ी में बैठकर जाते हुए रामनाथ का बटुवा नीचे गिर जाता है जिसे उठाकर राजू गाड़ी की तरफ दौड़ता है लेकिन गाड़ी चली जाती है। बड़ी मुश्किल से गुण्डों-उठायीगीरों से बचते, मिसेज डीसा को अपनी ईमानदारी का यकीन दिलाते राजू उस होटल में पहुँचता है जहाँ सेठ रामनाथ खा-पी रहे होते हैं। राजू उनको बटुवा लौटाता है। वह उसकी ईमानदारी की कद्र करते हुए कुछ ईनाम देना चाहते हैं जिसे राजू विनम्रतापूर्वक इन्कार कर देता है। रामनाथ, राजू से सामने बैठे और नाच रहे लोगों के बारे में यह कहकर समाज की स्थिति और यथार्थ पर गहरी चोट करते हैं कि ये वे लोग हैं जिन्होंने सड़क पर पड़ा बटुवा पाने के बाद लौटाया नहीं। यह जानने पर कि उसको नौकरी की तलाश है, वे अपने यहाँ उसे काम दे देते हैं।
जीवन की जद्दोजहद के समानान्तर राजू की जिन्दगी में एक रूमानी संसार का प्रवेश होता है जब उसका प्रेम रामनाथ की भतीजी आरती से हो जाता है। आरती शुरूआती मुलाकातों में यह जान जाने के बाद कि राजू को रईसों से नफरत है, अपने आपको उस घर की नौकरानी बताकर उसका प्रेम पाने में सफल होती है। राजू भी उसके साथ अपने सपने बुनने लगता है। एक बड़ी घटना से राजू की जिन्दगी में भूचाल आ जाता है जब सेठ रामनाथ की कम्पनी की जहरीली दवा से बीमार मिसेज डीसा की मौत हो जाती है। जब वो जानता है कि कम्पनी ने दवाओं की पेटियों के साथ जहर की की पेटी भी वैसी ही शीशियों में बाजार में रखवायी जिसके कारण मिसेज डीसा की जान गयी तो वह रामनाथ के खिलाफ हो जाता है। इस बीच राजू, आरती का सच भी जान जाता है। रामनाथ भी आरती और राजू के रिश्ते के खिलाफ हैं। स्थितियाँ ऐसी बनती हैं कि रामनाथ के षडयंत्र से राजू ही मिसेज डीसा को घर के लालच में मार डालने वाला गुनहगार बनकर अदालत के कटघरे में खड़ा कर दिया गया है और उस पर मुकदमा चल रहा है। आखिर में राजू की नैतिकता, आरती का प्रेम, सेठ रामनाथ को ग्लानिबोध कराता है और वे सारा सच अदालत को बताते हैं। राजू को इन्साफ मिलता है।
अनाड़ी को बनाते हुए निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी के साथ बड़े गुणी और लोकप्रिय सितारे थे जिनसे वे बहुत अच्छा काम ले सके, इतना अच्छा कि एक-एक कलाकार आपको चरित्र में गुँथा हुआ नजर आता है। फिल्म एक नायक को रूप में आपको एक ऐसे आदमी से परिचित कराती है जो अपने सिद्धान्तों और धारणाओं में नैतिकता को प्रबल जगह देने वाला है मगर दुनिया की दौड़ में विफल है। वह हर जगह से टूट कर जब अपने किराये के घर में लौटता है तो एक बूढ़ी औरत अपनी अच्छी-खासी स्नेहिल लानत-मलामत से उसकी सारी टूट-फूट पर भावनाओं का अनूठा मलहम लगाती है। वह उसके लिए भूखी बैठी रहती है। राजकपूर और ललिता पवार ने परदे पर इस रिश्ते को जिस उच्चतर संवेदनाओं के साथ जिया है वह अनेक संवादों में सजल कर देता है। खास बात यह है कि इस फिल्म का रूमानी कोण अपनी जगह है जिसमें राजू का एक खूबसूरत लड़की आरती से प्रेम हो गया है, दोनों मिल रहे हैं, प्यार की बातें कर रहे हैं, गाना गा रहे हैं, सपने बुन रहे हैं लेकिन माँ-बेटे का एक निस्वार्थ रिश्ता जो एक हिन्दू युवक और एक ईसाई वृद्धा जीते हैं, वह बड़ा उदाहरण है। मिसेज डीसा, राजू को जब कहती हैं कि ये हिन्दू, मुसलमान और ईसाई तो हमने बनाये हैं, सच तो यह है कि सभी भगवान के बेटे हैं तो बात कहीं गहरे मन को छू जाती है। एक प्रसंग में राजू का यह कहना कि हम भगवान को एक बार झूठ बोल सकता है मिसेज डीसा मगर तुमको नहीं तो पता चलता है कि मूल्य और मर्यादाओं का मतलब क्या होता है। नौकरी के लिए इण्टरव्यू देने जाते वक्त प्रेस करते समय राजू के कोट का जल जाना और फिर मिसेज डीसा का दराज से अपने बेटे का कोट निकालकर राजू को पहनाना संवेदनाओं का चरम है। राजू की पहली तनख्वाह पर उसका खुशी-खुशी मिसेज डीसा के पास आना और फिर दोनों का होटल में खाना खाने जाना बहुत सुखद और आनंद प्रदान करने वाला प्रसंग बनता है। मिसेज डीसा आखिरी वक्त में अपना मकान भी राजू के नाम कर देती है।
फिल्म पर हृषिकेश मुखर्जी की पकड़ ऐसी है कि वे हर किरदार को कलाकार की सारी क्षमताओं के साथ खोलते हैं। आरती का अपनी नौकरानी सहेली आशा के साथ नाम और रुतबा बदलकर राजू को लम्बे समय भ्रम में रखना अनेक हास्यपरक परिस्थितियों से होकर आगे बढ़ता है। निर्देशक की खूबी है कि वे इसे धोखे की तरह दर्शक के सामने आने देने के बजाय प्रेम के लिए किया जाने वाला सहज सा छल ही प्रतीत होने देते हैं। कुछ अच्छे दृश्य हैं जो नूतन, शुभा खोटे, राजकपूर और मोतीलाल के बीच घटित होते हैं, खासकर आशा और आरती की बेहोशी का दृश्य या राजू और सेठ रामनाथ सोहनलाल के बीच का संवाद जब राजू उनके घर के सामने खड़ा होकर उनकी बुराई करता है बिना यह जाने कि इस घर के मुखिया वही हैं। फिल्म के समापन अवसर पर जब सेठ रामनाथ बने मोतीलाल सारे गुनाह अपने ऊपर ले रहे होते हैं तो अपनी प्रभावी संवाद क्षमता, शख्सियत और हावभाव से वे पूरे माहौल को अपने पक्ष में करते हैं, जब उनका कहना होता है कि मुझे कोई हरा नहीं सकता और खासकर एक अनाड़ी। अनाड़ी सोयी-जागी और उनींदी आत्माओं और उनकी नैतिकताओं की फिल्म है। हम अनाड़ी देखते हुए दरअसल अपने ही आसपास का संसार देखते हैं जिसमें भाँति-भाँति के लोग हैं।
इस फिल्म का सम्पादन भी निर्देशक हृषिकेश मुखर्जी ने किया है। वे दोनों ही स्तरों पर कसावट का ध्यान रखते हैं। एक भी दृश्य या संवाद व्यर्थ नहीं लगता। फिल्म की कहानी, पटकथा और संवाद इन्दर राज आनंद ने लिखे हैं। एक गाना, बन के पंछी गाये प्यार का तराना हसरत जयपुरी का लिखा हुआ है और शेष गाने दिल की नजर से, सब कुछ सीखा हमने, वो चांद खिला, किसी की मुस्कुराहटों पे हो निसार, तेरा जाना दिल के अरमानों का मिट जाना, नाइण्टीन फिफ्टी सिक्स शैलेन्द्र ने। शंकर-जयकिशन ने इन सभी गानों को मीठा संगीत दिया है तभी ये आज तक मन में ताजा बने हुए हैं। मुकेश, लता मंगेशकर, मन्नाडे के स्वर में ये गीत कालजयी हैं। जयवन्त पाठारे इस फिल्म के सिने-छायाकार हैं जिन्होंने सचमुच अनेक खूबसूरत दृश्य और दृश्यबन्द गढ़े हैं। भावनात्मक दृश्य हों या रूमानी, नूतन के बिखरे-उड़ते बालों के साथ उनकी छबि खासी मोहक लगती है। आरती की सहेलियों के सामने सायकिल चलाते हुए राजू के टकराने का दृश्य याद रह जाता है जब अगले पहिए के उस पार नूतन की छबि दिखायी देती है। एक नकारात्मक किरदार जीते हुए नाना पलसीकर भी प्रभावित करते हैं जो देश में बीमारियों के फैलने की कामना करता है तभी दवाओं की खपत ज्यादा होगी। पचपन-छप्पन साल पहले का देशकाल जिसमें बुराई इस मनौती के साथ अपने डैने फैला रही है, देखना आज के समय की कल्पना के साथ हैरतअंगेज लगता है। अनाड़ी अपनी सम्रगता में महत्व के सन्देश देने वाली फिल्म है जिन्हें तब भी नजरअन्दाज नहीं किया जा सकता था और अब भी नहीं। इस फिल्म को अपने प्रदर्शन काल में श्रेष्ठ फिल्म का रजत पदक, राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ था।
6 टिप्पणियां:
आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन दर्द पर जीत की मुस्कान और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
राजकपूर के साथ-साथ ललिता पँवार की भी यह एक अविस्मरणीय फिल्म है .
Meri pasandeeda filmon mein se ek hai. Aajkal itne strong mudde ko itni saadgi se kain pesh kar sakta hai bhala?
आपका शुक्रिया हर्षवर्धन जी
निश्चित रूप से गिरिजा जी, यह मुख्य रूप से राजकपूर और ललिता पवार की क्षमताओं को बड़े अच्छे से रेखांकित करती है।
आपका कहना सही है गिरिजा गोपालकृष्णन जी। ऐसा याद रहने लायक काम करने वाले फिल्मकार अब नहीं हैं। हृषिकेश मुखर्जी बहुत मानवीय सरोकारों वाले फिल्मकार थे।
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