शुक्रवार, 10 दिसंबर 2010

फूहड़ता विद्वतजनों को भी हँसाती है

भद्रता संस्कारों से आती है, ऐसा कहा जाता है। यह पीढ़ी दर पीढ़ी हस्तांतरित होती है, इसके भी उदाहरण होते हैं। कई बार भद्रता परिवेश और संगत से भी आती है। घर, परिवार और कुटुम्ब में कई बार आश्चर्यजनक ढंग से इसके विरोधाभास भी नजर आते हैं। लेकिन बहुत बार इस तरह के उदाहरण हतप्रभ करते हैं जब अपने व्यक्तित्व और व्यवहार में असाधारण गरिमा को जीने वाले लोग भी फूहड़ता के आगे हथियार डाल देते हैं और अपनी सहमत हँसी से उसका एक तरह से समर्थन कर दिया करते हैं।

एक म्युजिक अवार्ड का शो, टेलीविजन के एक लोकप्रिय चैनल पर एक शाम अभी कुछ दिन पहले ही देखने का मौका कुछ देर को आया। बहुत सारे जाने-पहचाने चेहरे बैठे हुए थे। लता मंगेशकर थीं, आशा भोसले, ऊषा मंगेशकर थीं, अदनान सामी थे, रहमान थे, जावेद अख्तर थे, कैलाश खेर थे, सलमान थे, सैफ थे, करीना थीं, सोनू निगम थे, कैलाश खेर थे, शान थे, रमेश सिप्पी थे, जगजीत सिंह थे, राजकुमार हीरानी थे और भी बहुत सारे शख्स मौजूद थे। इन सबके बीच गरिमा की वृद्धि करते हुए विख्यात सन्तूर वादक पण्डित शिव कुमार शर्मा बैठे दिखे और मोहनवीणा वादक पण्डित विश्वमोहन भट्ट भी।

मंच पर एंकरिंग करते हुए बेसाख्ता अर्थहीन और कुतर्कभरी बतकही के सिरमौर साजिद खान सक्रिय थे। अब ऐसे में जो मजमा जमा, वह बड़ा ही सतही और कई-कई बार पटरी से उतरती शालीनता का था। साजिद चुटकुले पेश करते हुए, बनावटी किरदारों को मंच पर बुलाकर उनसे निरर्थक संवाद करते हुए सभी बैठे हुओं को खूब हँसा रहे थे। संगीत से जुड़े अवार्डों की शाम थी। गीतकारों, संगीतकारों और गायकों को सम्मानित किया जा रहा था। तानाबाना इस तरह का बुना हुआ था कि सीधे-सीधे सम्मानित करने की प्रथा यहाँ नहीं दिखायी दी। बीच-बीच का स्पेस भरना था।

जाहिर है कार्यक्रम बनाने वालों को कार्यक्रम मनोरंजन से भरपूर बनाने की जवाबदारी सौंपी गयी होगी। यह भी जाहिर है कि उन सबमें बहुमत इस बात का रहा होगा कि मामला मसालेदार न बनाया गया तो देखने में दर्शकों को भला क्या मजा आयेगा? सो इस तरह मजा क्रिएट किया गया। फूहड़ता मंच पर बड़े पाखण्ड के साथ आती है, यह तो हम सब ही जानते हैं, धीरे-धीरे कैबरे डांसर की तरह वह अपना शर्मनाक जलवा दिखाती है। सारा कुछ इस तरह का होता है कि सभी को रस आने लगता है।

ऐसा लगता है कि कुछ लोगों की यह परम मान्यता हो गयी है कि सारा जगत तमाम दुखों से दुखी है और उसे येन केन प्रकारेण हँसाना है। कलाकार भी दुखी हैं, मेहनत, परिश्रम और तनाव से आये दिन तंग रहते हैं, उनको भी हँसाना है। तो इस भावना, सारा पुनीत कार्य ऐसे स्तर पर जाकर हो रहा है। विस्मय इस बात का है कि हँसी की स्तरहीन परिपाटी में हँसते हुए सभी की सहमति होने लगी है। सभी की, जिनके नाम इस टिप्पणी में आये हैं।

धर्मेन्द्र की गोल्डन और प्लेटिनम जुबलियाँ

8 दिसम्बर भारतीय सिनेमा के सदाबहार सितारे धर्मेन्द्र का जन्मदिन है। यह साल उनकी गोल्डन और प्लेटिनम जुबलियों का है। गोल्डन जुबली इसलिए कि फिल्मों में काम करते हुए उनको पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं और प्लेटिनम जुबली इसलिए कि वे पचहत्तर वर्ष के हो गये हैं। 8 दिसम्बर इस दरियादिल सितारे के जीवन का खास दिन होता है, वे भावुक हैं, कहते हैं कि माता-पिता

नहीं हैं तो जन्मदिन कैसा, मगर उनके चाहने वाले आज के दिन उनको एक ऐसा आत्मीय और प्यारा माहौल देते हैं कि वे भीतर के इस अवसाद से बाहर आकर सबसे खूब मिलते-जुलते हैं और सबके साथ अपना जन्मदिन मनाते हैं। जुहू में उनके बंगले पर सुबह से उनके चाहने वालों का तांता लग जाता है। धर्मेन्द्र सम्बन्धों को निबाहने वाले शख्स हैं लिहाजा बरसों के रिश्ते बनाने वाली हस्तियाँ उनका घर फूलों से भर देती हैं। बंगले के बाहर चाहने वालों से वे दिन भर मिलते हैं, प्यार कुबूल करते हैं, फोटो खिंचवाते हैं।

धर्मेन्द्र की विशेषता यह है कि वे अपने चाहने वालों को बड़ी तवज्जो देते हैं। वे कहते हैं कि इस मायावी दुनिया में बहुतेरे लोग अवसरों पर, जरूरतों पर, मतलब पर आकर जुड़ते और चले जाते हैं मगर उनकी फिल्मों के माध्यम से उनको पसन्द करने वाले देश भर में फैले, बल्कि विदेशों में भी रहने वाले लोग आज तक उनको वही प्यार देते हैं। धर्मेन्द्र कहते हैं कि सबका प्यार मेरे सिर-माथे है। वे इस बात को बड़े भावुक होकर स्वीकार करते हैं कि उनके सभी चाहने वालों ने उन्हें ही नहीं वरन उनके परिवार, बेटों सभी को वही आत्मीयता दी है। बीकानेर में उनको चाहने वाले तथा उन्हीं नाम से धर्मेन्द्र कलर लैब स्थापित करने वाले प्रीतम सुथार, इस बार के विशेष अवसर को सेलीबे्रट करने पच्चीस दिन पहले साइकिल से मुम्बई की यात्रा पर निकल पड़े और आज वो साइकिल से ही धर्मेन्द्र के घर पहुँचकर उनको शुभकामनाएँ देंगे।

दर्शकों के बीच अपनी ऐसी खास जगह बनाना बड़ा कठिन होता है। गुड्डी फिल्म के एक दृश्य में खलनायक शिरोमणि प्राण, धर्मेन्द्र की प्रशंसा में कहते हैं कि हीरो तो यही एक है जिससे मार खाने में मजा आता है। यह फिल्म खास धर्मेन्द्र के मैनरिज्म पर बनी दिलचस्प कहानी थी जिसमें जया भादुड़ी के सपनों में नायक के रूप में यह शख्स बसा हुआ है और वह सोते-जागते उनके ख्यालों में खोयी रहती है। धर्मेन्द्र एक ऐसे महानायक हैं जो अपनी अनेक फिल्मों में शेर से सीधे लडऩे के दृश्य बहादुरीपूर्वक करते रहे हैं।

धर्मेन्द्र इस बात को गर्व-बोध के साथ कहते हैं कि मेरे चाहने वालों का यह जज्बा रहा है कि माँओं ने मुझमें अपना बेटा देखा है और बहन ने भाई। इस बात में यह बात जोडऩे पर वे शरमा जाते हैं, कि.. और युवतियों ने अपना हीरो..। 1961 में एक यात्रा दिल भी तेरा हम भी तेरे से शुरू हुई थी जो यमला पगला दीवाना तक अनवरत् जारी है। गुलामी, बँटवारा, क्षत्रिय आदि अनेक फिल्मों की शूटिंग के जरिए राजस्थान से गहरे जुड़े धर्मेन्द्र इस अवसर पर पत्रिका के पाठकों को अपना स्नेह-प्यार देते हैं।

धर्मेन्द्र की गोल्डन और प्लेटिनम जुबलियाँ

8 दिसम्बर भारतीय सिनेमा के सदाबहार सितारे धर्मेन्द्र का जन्मदिन है। यह साल उनकी गोल्डन और प्लेटिनम जुबलियों का है। गोल्डन जुबली इसलिए कि फिल्मों में काम करते हुए उनको पचास वर्ष पूरे हो रहे हैं और प्लेटिनम जुबली इसलिए कि वे पचहत्तर वर्ष के हो गये हैं। 8 दिसम्बर इस दरियादिल सितारे के जीवन का खास दिन होता है, वे भावुक हैं, कहते हैं कि माता-पिता

नहीं हैं तो जन्मदिन कैसा, मगर उनके चाहने वाले आज के दिन उनको एक ऐसा आत्मीय और प्यारा माहौल देते हैं कि वे भीतर के इस अवसाद से बाहर आकर सबसे खूब मिलते-जुलते हैं और सबके साथ अपना जन्मदिन मनाते हैं। जुहू में उनके बंगले पर सुबह से उनके चाहने वालों का तांता लग जाता है। धर्मेन्द्र सम्बन्धों को निबाहने वाले शख्स हैं लिहाजा बरसों के रिश्ते बनाने वाली हस्तियाँ उनका घर फूलों से भर देती हैं। बंगले के बाहर चाहने वालों से वे दिन भर मिलते हैं, प्यार कुबूल करते हैं, फोटो खिंचवाते हैं।

धर्मेन्द्र की विशेषता यह है कि वे अपने चाहने वालों को बड़ी तवज्जो देते हैं। वे कहते हैं कि इस मायावी दुनिया में बहुतेरे लोग अवसरों पर, जरूरतों पर, मतलब पर आकर जुड़ते और चले जाते हैं मगर उनकी फिल्मों के माध्यम से उनको पसन्द करने वाले देश भर में फैले, बल्कि विदेशों में भी रहने वाले लोग आज तक उनको वही प्यार देते हैं। धर्मेन्द्र कहते हैं कि सबका प्यार मेरे सिर-माथे है। वे इस बात को बड़े भावुक होकर स्वीकार करते हैं कि उनके सभी चाहने वालों ने उन्हें ही नहीं वरन उनके परिवार, बेटों सभी को वही आत्मीयता दी है। बीकानेर में उनको चाहने वाले तथा उन्हीं नाम से धर्मेन्द्र कलर लैब स्थापित करने वाले प्रीतम सुथार, इस बार के विशेष अवसर को सेलीबे्रट करने पच्चीस दिन पहले साइकिल से मुम्बई की यात्रा पर निकल पड़े और आज वो साइकिल से ही धर्मेन्द्र के घर पहुँचकर उनको शुभकामनाएँ देंगे।

दर्शकों के बीच अपनी ऐसी खास जगह बनाना बड़ा कठिन होता है। गुड्डी फिल्म के एक दृश्य में खलनायक शिरोमणि प्राण, धर्मेन्द्र की प्रशंसा में कहते हैं कि हीरो तो यही एक है जिससे मार खाने में मजा आता है। यह फिल्म खास धर्मेन्द्र के मैनरिज्म पर बनी दिलचस्प कहानी थी जिसमें जया भादुड़ी के सपनों में नायक के रूप में यह शख्स बसा हुआ है और वह सोते-जागते उनके ख्यालों में खोयी रहती है। धर्मेन्द्र एक ऐसे महानायक हैं जो अपनी अनेक फिल्मों में शेर से सीधे लडऩे के दृश्य बहादुरीपूर्वक करते रहे हैं।

धर्मेन्द्र इस बात को गर्व-बोध के साथ कहते हैं कि मेरे चाहने वालों का यह जज्बा रहा है कि माँओं ने मुझमें अपना बेटा देखा है और बहन ने भाई। इस बात में यह बात जोडऩे पर वे शरमा जाते हैं, कि.. और युवतियों ने अपना हीरो..। 1961 में एक यात्रा दिल भी तेरा हम भी तेरे से शुरू हुई थी जो यमला पगला दीवाना तक अनवरत् जारी है। गुलामी, बँटवारा, क्षत्रिय आदि अनेक फिल्मों की शूटिंग के जरिए राजस्थान से गहरे जुड़े धर्मेन्द्र इस अवसर पर पत्रिका के पाठकों को अपना स्नेह-प्यार देते हैं।

रविवार, 5 दिसंबर 2010

शादियों के जश्र और सिनेमा-गीत

शादी-विवाह के जश्र का फिल्मों से कैसा गहरा रिश्ता है, इसका उल्लेख पिछले दिनों कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन ने किया और खासतौर पर बी.आर. चोपड़ा की फिल्म नया दौर के, ये देश है वीर-जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का, इस देश का यारों क्या कहना, को याद किया। चोपड़ा की यह फिल्म अपने समय की ही नहीं वरन हर समय की एक बड़ी प्रेरक और अहम फिल्म है। इसके मूल्याँकन मेें सभी पक्षों को सौ में से सौ नम्बर ही मिलते हैं। जिस गीत की बात अमिताभ बच्चन कर रहे थे वह परदे पर दिलीप कुमार और अजीत के साथ खूब सारे जूनियर कलाकारों के ऊपर फिल्माया गया था। इस गाने की मस्ती आज भी देखते बनती है। मोहम्मद रफी ने अकेले ये गीत बराबर के दो किरदारों के लिए गाया था। हिन्दुस्तान के युवा को जोश और गर्मी से भर देने वाला यह गीत, कैसे बहुत ही मस्ती भरे नाच और खासकर चलती-चढ़ती बारात का गीत बन गया, कुछ पता नहीं। साहिर लुधियानवी और ओ.पी. नैयर के गीत-संगीत की यह कालजयी खूबी बारातों की जैसे अपरिहार्यता ही बन गयी। शायद ही कोई बारात हो जो इस गीत के बगैर निकले।

हिन्दी फिल्मों में वक्त-वक्त पर ऐसे बहुत से गीत बने जो शादी-ब्याह के विभिन्न अवसरों के लिए बड़े मुफीद साबित हुए। संगीतकार रवि को इस बात का श्रेय जाता है कि उन्होंने दो फिल्मों नीलकमल और आदमी सडक़ का के लिए ऐसे गीत कम्पोज किए जो शादियों से सम्बन्धित ही थे। एक था नीलकमल का, बाबुल की दुआएँ लेती जा, जा तुझको सुखी संसार मिले। इस गीत में भावुकता और संवेदना गजब की है। मोहम्मद रफी इस गीत को गाते हुए कैसे डूब जाते हैं, गीत को सुनकर अन्दाजा लगाया जा सकता है। कहा जाता है कि इस गीत की रेकॉर्डिंग उन्होंने भरे गले से ही करायी थी। आज के समय में हम इतने गहरे गायकों की कल्पना ही नहीं कर सकते। एक दूसरा गीत, आज मेरे याद की शादी है भी मोहम्मद रफी ने ही गाया था। यह फिल्म आदमी सडक़ का, का गीत था जो शत्रुघ्र सिन्हा पर फिल्माया गया था जो अपने मित्र विक्रम की बारात में नाचते हुए गाते हैं।

एक गीत, बहारों फूल बरसाओ, मेरा मेहबूब आया है, भी ब्याह-बारात में बड़ा लोकप्रिय है मगर इसका महत्व नाच में देखने में नहीं आता। यह लगभग द्वारचार के बाद भीतर जाती बारात और समेटे जाते बैण्ड बाजे का उपसंहार गीत होता है। शादी-ब्याह के और गीतों में पी के घर आज प्यारी दुल्हनियाँ चली, डोली चढ़ के दुल्हन ससुराल चली, जब तक पूरे न हों फेर सात, मेरे हाथों में नौ-नौ चूूडिय़ाँ हैं, डोली सजा के रखना, मेंहदी लगा के रखना जैसे गीतों की एक लम्बी सूची है जो शादी-ब्याह के घरों में सब याद कर-करके नाचते-गाते हैं। सिनेमा हमारे जीवन के सबसे बड़े उल्लास और परम्परा में कितना गहरा रचा-बसा है यह इन बातों से प्रमाणित होता है।

मेरी सूरत तेरी आँखें

श्रेष्ठता और चुनौतियों का कोई मापदण्ड नहीं होता। बेहतर और उत्कृष्ट काम सर्वव्यापी हो, सबके मन का हो और सभी की सुरुचि का विषय बने यह भी जरूरी नहीं होता। इसके बावजूद ऐसे काम हुआ करते हैं। सृजनात्मक क्षेत्रों में भी अच्छे कामों की अपनी सामयिकता और कालजयता है। रविवार एक अच्छी फिल्म को चुनने के सोच-विचार में आर.के. राखन निर्देशित फिल्म मेरी सूरत तेरी आँखें अचानक स्मृतियों में ताजी हो गयी। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1963 का है।

लगभग पाँच दशक पहले की यह फिल्म कई कारणों से प्रभावित करती है। अपनी अनेकानेक खूबियों के साथ-साथ यह हमारे सामने एक बड़ा और गहरा प्रश्र यह भी उपस्थित करती है कि किसी इन्सान को पहचानने के हमारे प्रचलित मानदण्ड कितने सार्थक हैं?
मेरी सूरत तेरी आँखें, का मुख्य कलाकार एक बड़ा गायक है। उसके गाने से पंछियों के स्वर थम जाते हैं, हवाएँ ठहर जाती हैं, पूरा वातावरण उसकी स्वर-सलिला पर मंत्र-मुग्ध हो उठता है।

मोहम्मद रफी का गाया गाना, तेरे बिन सूने नैन हमारे, बाट तकत गये, साँझ-सकारे, मन में गहरे उतर जाता है। राग पीलू का यह दादरा नायक गा रहा है। खूबसूरत नायिका उस आवाज का पीछा करती है। गाना पूरा होता है, तो अपने सामने एक कुरूप काले इन्सान को देखकर डर जाती है। फिल्म यहाँ से शुरू नहीं होती पर शायद शुरू होती तो और भी बेहतर होता मगर निर्देशक ने कहानी सीधी-सादी रखी। एक डॉक्टर के यहाँ बच्चे का जन्म होता है। डॉक्टर और उसकी पत्नी बड़े सुन्दर हैं मगर यह बच्चा काला और कुरूप। स्थितियाँ यह हैं कि माता-पिता बच्चे को अपने पास रखना नहीं चाहते। नफरत है। ऐसे में एक गरीब, निसंतान आदमी इस बच्चे के चेहरे में खूबसूरती देखता है और उसे डॉक्टर से लेकर अपने घर ले जाता है और उसकी परवरिश करता है।

अपने जमाने में मुनीम, जमींदार के आज्ञापालक की नकारात्मक भूमिकाओं में आम हो चुके चरित्र अभिनेता कन्हैयालाल ने गरीब अविभावक की यह भूमिका निभायी थी। अशोक कुमार ने भी भरपूर सफल समय में अपना चेहरा काला और कुरूप बनाने का फैसला किया था। मेरी सूरत तेरी आँखें, एक मर्मस्पर्शी फिल्म थी। गरीब पिता, जो कि एक गायक है, इस बेटे को स्वर-साधना में खूब पारंगत करता है। पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी, गाना राग अहीर भैरव में क्या खूब जुगलबन्दी है, बाप-बेटे की, फिल्म देखकर ही इसका आनंद लिया जा सकता है। फिल्म का एक मोड़ यह है कि उसी डॉक्टर का दूसरा बेटा बड़ा खूबसूरत है पर बिगड़ैल और चरित्रहीन।

मेरी सूरत तेरी आँखें, हमारे समय की त्रासदी और विडम्बनाओं को उन अर्थों में भी व्यक्त करती है, जहाँ हमारे सामने अन्तर्दृष्टि को नेह-दृष्टि दफनाए रखती है और हमारे मापदण्ड बेहद अलग हो जाते हैं। यह फिल्म अशोक कुमार और कन्हैयालाल के अविस्मरणीय अभिनय यादगार है। शैलेन्द्र के लिखे गीत सचिन देव बर्मन के संगीत निर्देशन में कहानी और मर्म के अनुकूल साबित होते हैं। राग भैरवी में तीन ताल का कहरवा, नाचे मन मोरा, तुझसे नजर मिलाने में, ये किसने गीत छेड़ा आदि सभी फिल्म के बहाने क्रम से याद आते हैं।

गुरुवार, 2 दिसंबर 2010

एक विरासत का नाम संगीतकार रवि

4 दिसम्बर को इन्दौर में मध्यप्रदेश सरकार प्रख्यात संगीतकार रवि को पच्चीसवाँ राष्ट्रीय लता मंगेशकर सम्मान प्रदान करने जा रही है। रवि इस सम्मान को ग्रहण करने इन्दौर आ रहे हैं। सम्मान प्राप्त करने के बाद वे अपने संगीत कलाकारों के साथ कार्यक्रम भी प्रस्तुत करेंगे जिसके बहाने सुनने वालों के सामने भारतीय सिनेमा के अतीत-व्यतीत युग का स्वर्णिम संगीत पुनस्र्मृतियों में ले जायेगा।

फिल्म संगीत जगत में पितामहों की पीढ़ी में अब बड़े कम लोग रह गये हैं। संगीत के क्षेत्र में खैयाम हैं, रवि हैं। गायन के क्षेत्र में मन्नाडे और मुबारक बेगम हमारे बीच हैं। स्वर्णयुग आज की पीढ़ी को पता भी न होगा क्योंकि उनके अविभावकों को भी पिछले दो दशकों में भोथरे होते संगीत के बीच सब विस्मृत हो गया होगा। बहरहाल रवि का सम्मान किया जाना एक बड़ी घटना है। पिछले काफी समय से यथासामथ्र्य सक्रियता के बावजूद रवि भुला से दिए गये थे।

रवि ने अपना कैरियर स्वर्गीय हेमन्त कुमार के सहायक के रूप में आरम्भ किया था। यह वो दौर था जब उस्ताद अपने शार्गिद से आत्मीय स्नेह रखता था, उसकी प्रतिभा की कद्र करता था और उसको प्रोत्साहित करने में पीछे नहीं हटता था। यही वजह थी कि बहुत कम समय रवि सहायक के रूप में काम कर पाये और जल्दी ही स्वतंत्र रूप से निर्देशक बन गये। रवि को उनके वरिष्ठ संगीतकारों ने भी बहुत प्रोत्साहित किया था। जिस समय रवि अपने आपको माँझ रहे थे उस समय अच्छे गीत की अपने लिए अपरिहार्यता की स्थितियों में उन्होंने शकील बदायूँनी से गीत लिखवाने की तमन्ना की थी, उस समय नौशाद साहब ने शकील बदायूँनी से रवि को मिलवाया था और उनके लिए भी गीत लिखने के लिए प्रेरित किया था।

रवि ने जिन फिल्मों का संगीत दिया, वे बहुत सफल और श्रेष्ठ फिल्में थीं। उनमें उत्कृष्ट कलाकारों ने काम किया था। आज भी उन फिल्मों का अपना महत्व है। हम वचन, दिल्ली का ठग, घर-संसार, चौदहवीं का चांद, वक्त, हमराज, भरोसा, घूंघट, घराना, गृहस्थी, फूल और पत्थर, चिराग कहाँ रोशनी कहाँ, ये रास्ते हैं प्यार के, दो कलियाँ, खानदान, काजल, नीलकमल, आँखें आदि प्रमुख हैं। रवि ने हिन्दी से इतर भाषाओं की फिल्मों विशेषकर दक्षिण की फिल्मों में संगीत दिया। पाठकों को जानकर आश्चर्य होगा कि रवि ने पन्द्रह मलयालम फिल्मों में संगीत दिया।

चौदहवीं का चांद हो या आफताब हो, ऐ मेरी जोहरा जबीं, मिलती है जिन्दगी में मोहब्बत कभी-कभी, तुम अगर साथ देने का वादा करो, संसार की हर शै का इतना ही फसाना है, ये झुके-झुके नैना ये लट बलखाती, लायी है हजारों रंग होली, तुम जिस पे नजर डालो उस दिल का खुदा हाफिज, मेरे भैया मेरे चंदा मेरे अनमोल रतन, तुझे सूरज कहूँ या चन्दा, तुझको रक्खे राम तुझको अल्ला रक्खे आदि बहुत से गीत हैं जो रवि को रवि के रूप में पुख्तगी के साथ स्थापित करते हैं। आज के समय में रवि सचमुच सिनेमा की अनमोल सांगीतिक विरासत हैं।

बुधवार, 1 दिसंबर 2010

सपने, भविष्य और खिलवाड़ का खेल

टेलीविजन में गाने-बजाने की स्पर्धाओं के खेल का एक मुकम्मल और संजीदा आकलन यही हो सकता है। ऐसे अखाड़े कुछ वर्षों से खुद गये हैं जिनमें अज्ञानी को भी कुश्ती लडऩे का सबक दे दिया जाता है। ऐसा मैदान हो गया है जहाँ रैफरी भी तमाम कुटैव के लिए तैयार किया जाता है, या वह तैयार होना पसन्द करता है। जाहिर है पसन्द करता होगा तभी तो वह अपने चेहरे, अपनी प्रतिभा और अपनी पहचान के व्यतीत दौर के अरसे बाद बची-खुची कीमत वसूलने का यह मौका भी गँवाना नहीं चाहता। बड़े अजीब से धरातल पर कई बार कुछ चीजें दिखायी देती हैं।

एक बार एयरपोर्ट पर एक बहुत वरिष्ठ और नामचीन पाश्र्व गायक के आतिथ्य के लिए जाना पड़ा। उन्हीं के जहाज से एक किशोर उम्र का विजेता बच्चा गायक भी उतरकर आ रहा था। वह वरिष्ठ पाश्र्व गायक के सामने से उनको देखता हुआ निकला मगर बिना किसी प्रतिक्रिया, अभिवादन, मुस्कान या चीन्हने वाली समझ के, यद्यपि वह उनको देख इसी तरह से रहा था। निश्चित ही वह उनको पहचान रहा था मगर किसी भी शिष्टाचार के लिए उसे उसके संस्कारों ने भी प्रेरित नहीं किया जबकि वरिष्ठ गायक उसे देखकर मुस्कराए और उसका नाम लेकर भी बुलाया, तब वह झेंपता हुआ पास आया। यह दृश्य बाल उम्र की अव्यवहारिक और असमय वयस्कता को प्रमाणित करने में बड़ा सच्चा साबित हुआ।

प्रतिभाएँ दाँव पर हैं, मैदान में हैं, पसीने-पसीने होकर जूझ रही हैं और उन से लेकर उनके परिवार और माहौल तक में सुबकने, रुंधने, रोने के दृश्य आम हो रहे हैं। पता नहीं किस तरह की भावुकता में सबका गला भर आता है। आँसू, उसके और उसके उपस्थित अपनों के भी बह रहे हैं जो जीत रहा है, उसके भी बह रहे हैं जो हार रहा है। सब जान गये हैं कि इस सबके लिए समझा दिया जाता है। ऐसे मोड़ कई बार ठीक ब्रेक के पहले आते हैं और ऐसे मोड़ आपकी-हमारी धारणाओं पर भी अनायास ब्रेक लगाते हैं।

ग्लैमर दुनिया का बड़ा सोचा-विचारा कारोबार है। हर चैनल इस काम में लगा है। यह नकल क्षेत्रीय चैनलों पर भी खूब दिखायी देती है। हिन्दी से लेकर भोजपुरी संगीत की स्पर्धाओं, मारधाड़, महामुकाबले, वार आदि में सब एक जैसा ही नजर आ रहा है। आकलन करने वाले चेहरों पर से विश्वास उठ गया है देखने वालों का।

जो प्रतिभाएँ इस तथाकथित युद्ध और महासंग्राम में फतेह कर रही हैं, वे भी अन्त में अपने शहर, अपने घर को जा रही हैं। सिनेमा में उनका स्वागत दिखायी नहीं देता। ऐसे में याद आते हैं वे जज जो अपरिपक्व कलाकारों को भरोसा और विश्वास दिलाते हैं, खुद ब्रेक देने का दावा करते हुए मूँछ उमेठने लगते हैं मगर सच यह है कि वे खुद ब्रेक की तलाश में हैं।