बुधवार, 11 अगस्त 2010

बोझिल जीवन का प्रतिबिम्ब

हिन्दी सिनेमा के क्लैसिक पर यथासम्भव हर रविवार को चर्चा करने की शुरूआत दो सप्ताह पहले की थी। इसमें एक विचार यह बना कि एक बार सिनेमा की शुरूआत की उल्लेखनीय फिल्म का चयन किया जाये और एक बार साठ के दशक और उसके बाद की फिल्म का पुनरावलोकन करें। पहली बार किस्मत, दूसरी बार वक्त फिल्म पर पिछले हफ्तों में बात हुई है। इस बार महान फिल्मकार शान्ताराम वनकुद्रे की फिल्म दुनिया न माने पर लिखना उचित लगा। व्ही. शान्ताराम सिनेमा के आरम्भ को सक्षम बनाने वाले फिल्मकार थे। दुनिया न माने फिल्म उन्होंने 1937 में बनायी। यह फिल्म नारायण हरि आपटे के उपन्यास न पटणारी गोष्ठ पर बनी थी।

मराठी में कंकु और हिन्दी में दुनिया न माने बनाकर शान्तराम ने एक प्रबुद्ध और सजग समाजचेता होने का परिचय भी दिया था। तीस के दशक के देशकाल और वातावरण की कल्पना की जा सकती है। परतन्त्र हिन्दुस्तान में सामाजिक पिछड़ापन, दकियानूसी मानसिकता और शक्तिशाली तथा रसूखदारों के कमजोरों, दुर्बलों, गरीबों और स्त्रियों पर थोपे जाने वाले शोषण की कहानी ही यह फिल्म थी। फिल्म एक गरीब परिवार की कम उम्र युवती की कहानी है जिसके परिजन रुपयों के लालच में उसका ब्याह एक वृद्ध आदमी से कर देते हैं। युवती को अंधेरे में रखा गया है मगर जब वह ब्याह कर आती है तो कल्पना के विपरीत एक वृद्ध और अशक्त पति को देखकर विद्रोह कर उठती है। वह अपने इस पति से साफ-साफ कह देती है कि उसकी निगाह में वह एक पिता की ही तरह है, इसके सिवा कुछ नहीं।

यह निर्मला अपना समय कठिनाई के साथ व्यतीत कर रही है। उसका वृद्ध पति अपनी हठधर्मिता और सम्पन्नता का एक अजीब सा अहँकारयुक्त व्यवहार लिए पेश आता है। उसका विवाहित पुत्र एक दिन उससे अमर्यादित प्रस्ताव करता है जिसका वह करारा जवाब भी देती है। एक दिन निर्मला का वृद्ध पति मर जाता है। यहाँ आसपास का वातावरण और लोकलाज की दुहाई देने वाली स्त्रियाँ और तथाकथित समझदार व अनुभवी लोग उसे विधवा जीवन की कठिनाइयों और आगे पहाड़ सी जिन्दगी के भय बतलाते हैं। केशवराव दाते वृद्ध पति और शान्ता आप्टे निर्मला की भूमिका में अपने किरदार को बखूबी निबाहते हैं।

दुनिया न माने एक समय की त्रासदी को प्रस्तुत करने वाली फिल्म है जिसको देखते हुए फिल्म के पाश्र्व में हमें निरन्तर अवसाद और भारीपन महसूस होता है। काका साहेब के पात्र को जीते हुए केशवराव दाते आइने में अपने दरके हुए प्रतिबिम्ब को देखकर कुण्ठित होते हैं। घड़ी समय और समक्ष के विदू्रप को इस किरदार के सामने अपनी ध्वनि से प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। दुनिया न माने, एक यादगार और कालजयी फिल्म है।

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