मंगलवार, 12 जुलाई 2011

सफलता कलाकार-किरदार मिलकर गढ़ते हैं



 
हिन्दी फिल्मों का असफल होना धीरे-धीरे आम बात हो जायेगी। कारण कोई जानने का प्रयास नहीं करेगा। सप्ताह का शुक्रवार निर्माताओं के सिर पर सवार रहता है। साल में सात-आठ सौ फिल्में बनती हैं। सत्तर से अस्सी प्रतिशत तक प्रदर्शित होने की बाट जोहती हैं, शेष जो प्रदर्शित होती हैं उनमें से बा-किस्मत एकाध प्रतिशत को छोडक़र सब फ्लॉप हो जाती हैं। फौरी तौर पर विफलता का असगुन मनाया जाता है, जल्दी ही सब भूलकर फिर लोग काम में लग जाते हैं। दर्शकों के दिमाग से भी सब निकल जाता है, कहाँ तक स्मरण रखा जाये।

अब यह भी होने लगा है कि फिल्म देखने जो फँसता है वो अपने बुरे अनुभवों से अनेकों को आगाह कर दिया करता है। बुरी फिल्म की खबर दुर्गन्ध की तरह फैसती है। सभी सावधान हो जाते हैं। धीरे-धीरे फिल्म बनाने को निठाठ व्यावसाय की तरह लेने वाले, दर्शकों की जेब छुड़ाने वाले बुरी फिल्म बनाने वाले लोगों को भी इस बात का एहसास हो जायेगा। दरअसल सफलता अच्छा कलाकार और अच्छा किरदार मिलकर अर्जित करते हैं। यह काम आसान नहीं होता। दर्शकों को भेड़ समझने की भूल नहीं करना चाहिए। यही दर्शक जनता भी है जो वोट देती है, यही खराब फिल्म को भी कहीं का नहीं छोड़ती।

कवि अष्टभुजा शुक्ल ने अपने ब्लॉग में आमिर खान और किरण राव की परस्पर काल्पनिक बातचीत के जरिए एक तीखी टिप्पणी की है। आमिर खान ने पिछले दस सालों में, खास लगान के बाद जो अपनी छबि बनायी थी, वो देल्ही-बेल्ली के माध्यम से सफा हो गयी है। वे लगातार आलोचना के शिकार बन रहे हैं। मध्यप्रदेश हाईकोर्ट का नोटिस भी उनको मिला है। आमिर खान और देल्ही-बेल्ली की पूरी टीम, हमारा सेंसर बोर्ड समाज के सामने एक बेहद बुरी फिल्म, एक निम्रस्तरीय सिने-भाषा को पेश करने के लिए हमेशा जाने जायेंगे। प्रतिभाहीनता के खतरे और आक्रान्तता के विरुद्ध सिनेमा बनाने वाले इस स्तर तक जायेंगे, यह कल्पनातीत रहा है।

देल्ही-बेल्ली ने आमिर खान की इमेज को ही नहीं बल्कि उनके परिवार की उस सारी परम्परा को भी शर्मसार किया है, जो उनके चाचा नासिर हुसैन ने तुमसा नहीं देखा, दिल देके देखो, जब प्यार किसी से होता है, फिर वही दिल लाया हूँ, बहारों के सपने, कारवाँ, प्यार का मौसम, यादों की बारात, हम किसी से कम नहीं आदि अविस्मरणीय और यादगार फिल्मों के माध्यम से स्थापित की थी।

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