गुरुवार, 15 दिसंबर 2011

फिल्मकार जिन्होंने देव आनंद में एक महानायक को गढ़ा



देव आनंद साहब के बारे में एकदम से यह कहना अपराध सा लगता है कि अब उनकी स्मृतियाँ ही शेष हैं। जाने क्यों यह बात कहने के पहले बहुत देर तक आश्वस्त होने की बेचैनी बनी रहती है। सचाई ऊपरवाले के कठोर फैसले की तरह ही है, उसने कट् बोल दिया और जैसे पल भर में दृश्य बदल गया। चैनलों में बार-बार हर फिक्र को धुँए में उड़ाता चला गया गाने के मुखड़े और अन्तरे दोहराये-चोहराये जा रहे हैं। पुराने रेकॉर्डेड इन्टरव्यू अंशों में चलाये जा रहे हैं। अन्तिम दिनों के राज-रहस्य की बातें हो रही हैं, अखबारों ने भी अगले दिन ही एक-एक पन्ना उनकी स्मृति को समर्पित कर दिया। इस पूरी तत्परता में वो बहुत सारी महत्व की बातें गौण हो गयीं, जो देव आनंद की जड़ों को सँवारने और उनको भरपूर शक्ति देने के लिए उत्तरदायी हैं। उनकी सक्रियता काल से लेकर पूरे लगभग तीन दशक ऐसे हैं जिनके सहारे देव आनंद अकेले अपनी राह बनाते चले गये और वह भी आसपास की चकाचौंध और रोशनी से निष्प्रभावी रहे बगैर।

यह तो खैर सभी जान गये कि हम एक हैं से उनका कैरियर 1946 में शुरू हुआ। चालीस के दशक में वे मुम्बई आये थे। एक नौकरी मिली थी पर बड़े भाई फिल्में बना रहे थे। रहन-सहन और अन्दाज-ओ-अदा में अपने समय के खूबसूरत और हँसी में मोहित कर देने वाले देव साहब को अपनी संस्था नवकेतन स्थापित करने में चार साल का समय ही लगा लेकिन इसी बीच गुरुदत्त और राज खोसला से उनकी दोस्ती ने उनका बड़ा काम किया। चेतन आनंद उस समय सफल फिल्म के लिए प्रयासरत थे। उन्होंने अपने भाई के आत्मविश्वास को देखा, उसे परखा तो उनको लगा कि एक अच्छा रास्ता मिल सकता है। चेतन आनंद को अपने मँझले भाई देव में पचास के दशक का नौजवाँ उसी तरह दिखा, आसपास के पढ़े-लिखे युवा, स्वप्रद्रष्टा की तरह सोचने वाला, रास्ता चलने वाला। उन्होंने अपनी दृष्टि देव आनंद पर केन्द्रित की और छ: साल की अवधि में 1950 से 56 के बीच चार फिल्में बनायीं। ये थीं, अफसर, आंधियाँ, टैक्सी ड्रायवर और फंटूश। इन फिल्मों की कहानियाँ सीधी-सादी थीं मगर नायक अपने किरदारों के साथ प्रतिबद्ध भाव से जुड़ा दिखायी देता था। फिल्मों के गाने और संगीत फिल्मों की एक खास विशेषता हुआ करते थे। फिल्म आंधियाँ में तो चेतन आनंद ने उस्ताद अली अकबर खाँ को संगीत निर्देशक का भार सौंपा था। फंटूश के बाद चेतन आनंद ने फिर अपने भाई के लिए दो फिल्में बीस साल के अन्तराल बाद बनायीं। ये फिल्में थीं, जानेमन और साहब बहादुर। इन फिल्मों को हालाँकि वो सफलता नहीं मिली फिर भी शुरू की चार फिल्मों के माध्यम से जो नायक हमारे सामने आया, वह दरअसल इसी अवधि में देव आनंद की दूसरे खास निर्देशकों के साथ बनकर आने वाली दूसरी फिल्मों के साथ समृद्ध और परिपक्व हुआ।

देव आनंद की विख्यात फिल्मकार और विलक्षण अभिनेता गुरुदत्त से मित्रता भी कैरियर से शुरूआत की ही है। गुरुदत्त ने देव साहब के लिए दूसरे बैनर की फिल्म भी निर्देशित की और अपने बैनर पर एक निर्माता के रूप में फिल्म बनायी और निर्देशन का दायित्व दूसरे निर्देशकों को दिया। देव साहब के लिए उन्होंने दो फिल्में निर्देशित कीं। ये फिल्में थीं, बाजी और जाल। दोनों का निर्माण क्रमश: हुआ, 1951 और 52 में। तब गुरुदत्त को मुम्बई आये चार-पाँच साल ही हुए थे। बतौर सहायक निर्देशक उन्होंने अमिय चक्रवर्ती की फिल्म गल्र्स स्कूल और ज्ञान मुखर्जी निर्देशित बॉम्बे टॉकीज की फिल्म संग्राम में अपनी शुरूआत की थी। देव साहब की पहली फिल्म हम एक हैं के निर्देशक पी.एल. सन्तोषी थे और फिल्म के कोरियोग्राफर गुरुदत्त थे। यहीं पर दोनों की मित्रता हुई जो आगे चलकर खासी परवान चढ़ी, जिसका परिणाम, जैसे कि जिक्र हुआ पहले बाजी और फिर जाल के रूप में सामने आया। विख्यात फिल्म समालोचक मनमोहन चड्ढा ने हिन्दी सिनेमा का इतिहास नामक अपनी पुस्तक के एक खण्ड में लिखा है कि बाजी की कहानी गुरुदत्त और बलराज साहनी ने मिलकर लिखी थी और पटकथा तथा संवाद पूरी तरह बलराज साहनी के ही थे। बाजी एक भटके हुए युवा की कहानी थी जो जुआरी है और अपने दाँव पर अहँकार करता है मगर महात्वाकाँक्षा और मोहब्बत के बीच वो ऐसी आपाधापी में फँस जाता है कि गुनहगार आरोपित हो जाता है। उसके षडयंत्र के निकलने की जद्दोजहद को दर्शाती थी यह फिल्म वहीं जाल में देव आनंद की भूमिका पूरी तरह ग्रे-शेड लिए हुए है जिसका हृदय परिवर्तन ही आखिरी में जाकर होता है। यहीं से हम यह भी देख पाते हैं कि उनकी फिल्मों के साथ सचिन देव बर्मन जैसे माधुर्य रचने वाले संगीतकार भी कैसे साथ हो गये थे। 


 देव साहब के कैरियर में निर्देशक राज खोसला का रोल भी बड़े महत्व का है। यदि हम सोलवाँ साल को छोड़ भी दें तो मिलाप, सी.आई.डी., काला पानी और बम्बई का बाबू को भुला नहीं सकते। ये सारी की सारी फिल्में 54 से 60 के दौर में आयी थीं। राज खोसला उस समय के दौर में अपेक्षाकृत युवा थे। मिलाप एक सीधी-सादी प्रेम कहानी थी जिसका नायक अपनी प्रेमिका के साथ बेहतर जीवन के सपने देखता है मगर जमाने की रफ्तार के साथ कदम मिलाना कठिन है, भटकाव के लिए रास्ते तैयार हैं। हाँ इसी समय में हम यह भी जोड़ते चलें कि देव साहब की नायिकाओं में गीता बाली, कल्पना कार्तिक, निम्मी, सुरैया के नाम जुड़ते जा रहे थे। खलनायक के रूप में कृष्ण निरन्जन सिंह लगभग मुख्य होने लगे थे। अच्छा ड्रामा खड़ा होता था क्लायमेक्स में। सी.आई.डी. तो खैर अलग तरह की फिल्म थी। देव आनंद का कैरेक्टर सकारात्मक था, दृश्य में सारा जोर चातुर्य और तार्किकता पर था। राज खोसला हिचकॉक को अपना प्रेरणास्रोत मानते थे, उनकी तरह रहस्य रचते थे। अपराधी पकड़ा कैसे जायेगा, सारा जोर, सारा दिमाग इसी पर लगाया जाता था। काला पानी और बम्बई का बाबू में भी हम एक नायक का संघर्ष, उसके अन्तद्र्वन्द्व बड़ी ही कुशलता से गढ़े हुए देखते हैं। देव आनंद एक कलाकार के रूप में पूरे अंजाम तक बखूबी पहुँचते हैं, इन फिल्मों में भी। 

यहाँ पर नासिर हुसैन और सुबोध मुखर्जी का जिक्र एक साथ आता है। इसलिए कि चर्चा करने को तीन फिल्में हैं और तीनों से नासिर हुसैन जुड़े हैं, दो से सुबोध मुखर्जी क्योंकि सुबोध मुखर्जी बतौर निर्देशक दो फिल्में करते हैं और नासिर हुसैन बतौर लेखक तीनों और निर्देशक के रूप में एक फिल्म देव आनंद के लिए निर्देशित करते हैं। ये फिल्में हैं मुनीम जी, पेइंग गेस्ट और जब प्यार किसी से होता है। इनमें से जब प्यार किसी से होता है ही नासिर हुसैन की फिल्म थी। मुनीम जी और पेइंग गेस्ट में किरदार अपनी भूमिका के साथ तय है जबकि जब प्यार किसी से होता है में देव आनंद का बड़ा खूबसूरत और निस्सीम रूमानी विस्तार है। तीनों ही फिल्मों में खूबसूरत गाने हैं, मधुर संगीत है क्योंकि देव आनंद के अन्दाज को किशोर कुमार और मोहम्मद रफी अपने-अपने अन्दाज से जोडऩे में सफल हो रहे हैं। इन फिल्मों के गीत शैलेन्द्र, साहिर, मजरूह सुल्तानपुरी, हसरत जयपुरी लिख रहे हैं और संगीत में बर्मन दा के साथ-साथ अब शंकर-जयकिशन का नाम भी जुड़ रहा है। नायिकाओं में नूतन हैं, नलिनी जयवन्त हैं, आशा पारेख हैं। यहाँ तक आते-आते सचमुच देव आनंद अपनी छबि, अपनी पहचान और अपने प्रभाव के एकदम अलग आदमी बनकर उभरे थे। उस समय का उनका प्रशंसक वर्ग उनकी चाल-ढाल, उनके बाल, हँसी और अन्दाज का जैसे दीवाना हो गया था। ढीली पतलून और उसके भीतर कमीज करने वाला युवा तब देव साहब से ही प्रेरित और प्रभावित हुआ करता था। देव आनंद की एक विशेषता यह भी मानी जाती थी कि वे अपनी फिल्मों में नायिका को उसके सौन्दर्य, सम्मोहन और भरपूर क्षमताओं में विन्यस्त होने का पूरा अवसर देते थे। वे दूसरे नायकों की तरह कभी भी अपनी फिल्म को केवल नायकप्रधान पहचान के साथ पहचाने जाने में भरोसा नहीं करते थे। नूतन जैसी शालीन और मर्यादित अभिनेत्री भी देव आनंद के साथ बहुत सहज और बराबर का सहभागी होने की आजादी का प्रमाण देती थीं।

देव आनंद के कैरियर में उनके छोटे भाई निर्देशक विजय आनंद का जो योगदान रहा है, उसे बहुत सारे जानकार और आलोचक बिना किसी लाग-लपेट के स्वीकार करते हैं। वास्तव में विजय आनंद ने दूसरे निर्देशकों से अलग देव आनंद को पहचाना और परिभाषित किया। देव आनंद के लिए उनकी लिखी पटकथा का सिर्फ एक ही गुण था और वह था उसका हमेशा सशक्त होना। बाकी सारी विशेषताएँ इस गुण के साथ ही संवेदना, प्रेम, जज्बात, अभिव्यक्ति और अन्य अनेकानेक आयामों के साथ प्रकट होते हमने देखीं। जाहिर है, प्रमाण हैं बहुत सारी उल्लेखनीय, सफल और लैण्डमार्क फिल्में। विजय आनंद ने देव साहब को लेकर 1957 से 70 तक सात फिल्में निर्देशित कीं। ये फिल्में हैं, नौ दो ग्यारह, काला बाजार, तेरे घर के सामने, गाइड, ज्वेलथीफ, जॉनी मेरा नाम और तेरे मेरे सपने। विजय आनंद की निर्देशकीय दृष्टि की परख बहुत आलोचकों को थी। वो मानते थे कि देव साहब के कैरियर में ये फिल्में एक अलग प्रवाह देने का काम कर रही हैं। यहीं पर हम शीला रमानी, वहीदा रहमान, नंदा, वैजयन्ती माला, मुमताज और हेमा मालिनी को उनकी नायिकाओं के रूप में देखते हैं। नौ दो ग्यारह का पूरा अन्दाज अलग है जबकि काला बाजार में फिर एक भटका हुआ युवा है जिसकी बीमार माँ और सीधी-सच्ची बहन भगवान के सामने धन और रतन के बजाय प्रभु के चरणों की धूल से ही तर जाने वाला गीत गा रहे हैं, ठीक उसी वक्त वह बुरे कामों से कमाया हुआ धन लेकर चोरी से घर में दाखिल हो रहा है और उसके कानों में वो गीत गूँजता है, वह सीढिय़ों से फिसलकर घिर जाता है। फिसलकर भटके हुए नायक को वापस लेकर आता है प्रेम। गाइड तो जैसे लैण्डमार्क है ही। ऐसा लगता है कि गाइड अकेली ऐसी फिल्म है जिस पर गम्भीरता के कई हजार शब्द लिखे जा सकते हैं। वहीदा रहमान काला बाजार से गाइड तक क्या खूब लगती हैं, खासकर जब वे लच्छू महाराज के सिखायी कथक की भाव मुद्राओं का प्रयोग अपने नृत्य में करती हैं। ज्वेलथीफ में देव आनंद हैं मगर श्रेय सारा अशोक कुमार के नामे है, एक अलग अन्दाज का सस्पेंस जो दिलचस्प भी है। जॉनी मेरा नाम दो भाइयों की गजब केमेस्ट्री है। हम देव साहब के साथ उनकी फिल्मों में प्राण साहब को जुड़ते देखते हैं जिन्हें देव साहब ने हमेशा बड़े भाई का मान दिया। तेरे मेरे सपने में तो खैर विजय आनंद खुद एक डॉक्टर की भूमिका में कमाल करते हैं। 


 देव आनंद का पूरा मैनरिज्म इन फिल्मों का गढ़ा हुआ है। निश्चित रूप से और भी बहुत सी फिल्में हैं जो यहाँ चर्चा के दायरे विशेष के कारण उल्लेख में नहीं आ सकी हैं अन्यथा हम बात करते हुए अमरजीत निर्देशित हम दोनों, हृषिकेश मुखर्जी निर्देशित असली नकली सहित कुछ और फिल्मों की बात भी करते। सत्तर के दशक के बाद एक आयाम वह भी शुरू होता है जब चेतन और विजय आनंद ने देव साहब को लेकर फिल्में नहीं बनायीं। तब देव साहब ने नवकेतन संस्था के बैनर पर स्वयं फिल्में निर्देशित कीं और दूसरे निर्देशकों की फिल्मों में भी काम किया। वे ही गीतकार नीरज से ऐसे प्रभावित हुए कि अपनी अनेक फिल्मों के लिए तमाम यादगार गीत लिखवाये, शोखियों में घोला जाये फूलों का शबाब गीत इस टिप्पणी लेखक से भी कभी भुलाया नहीं जाता। कुल मिलाकर दिलचस्प यह भी है कि इस पूरे दौर में कई महानायकों का उद्भव और पराभव होता रहा। राजेश खन्ना भी आये और गये, अमिताभ बच्चन भी आ गये मगर सदाबहार और बेफिक्र देव आनंद ने हरे राम हरे कृष्ण, प्रेम पुजारी, गेम्बलर, छुपा रुस्तम, बनारसी बाबू, हीरा पन्ना, अमीर-गरीब, वारण्ट, देस परदेस, लूटमार, मनपसन्द आदि फिल्मों में काम करते हुए इसी साल आयी फिल्म चार्जशीट तक अपना दखल एक लीजेण्ड की तरह बनाये रखा। देव आनंद दरअसल एक मजबूत बुनियाद से खड़े इन्सान और कलाकार थे इसीलिए वे कभी थके नहीं और न ही निराश हुए। काम और सक्रियता आदमी को किस तरह जिलाये रखती है, उसका देव आनंद से बड़ा सुदाहरण शायद ही कोई हो।
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