आजकल कुनकुनी दोपहर बड़ी सुहाती है। हर दफ्तर में दोपहर का आधा घण्टा भोजनावकाश का रहा करता है। लोग उसका मौसम जरा पहले से काफी बाद तक मनाया करते हैं। बीच-बीच में भी जितने बार किसी न किसी बहाने से कुर्सी से उठने का मौका मिल गया तो बोनस ही हुआ। बहरहाल ऐसी ही एक दोपहर अपने ऑफिस के पीछे जाकर कुछ देर को खड़ा हुआ। सौ कदम की दूरी पर ही वहाँ एक नाला बरसों से बहा करता है। काला गन्दा पानी ठहर-ठहरकर बहता है। कचरा, पन्नी, कभी-कभार मरे प्राणी भी पड़े-बहा करते हैं उसमें। उसी नाले के ऊपर लोहे का अर्धचन्द्राकार सेतु सरीखा बना हुआ है। वहीं काफी बगुले इकट्ठा होते हैं। कुछ-कुछ खाते-पाते रहते हैं मगर दस-पन्द्रह की संख्या में उनका उड़-उडक़र आता जमावड़ा देखकर अच्छा लगता है। उस दिन भी ऐसा ही था। मैंने देखा जरा दूरी पर सात-आठ साल के दो बच्चे खड़े हैं, उनमें से एक गुलेल ताने एक आँख बन्द किए किसी बगुले पर निशाना साध रहा था। मुझे लगा कि कुछ ही पल में आश्वस्त होते ही वो गुलेल में फँसाया कंकड़ किसी न किसी बगुले की तरफ मार ही देगा। अपनी ही जगह से मैंने जोर से डपटा तो दोनों निशाना छोडक़र भाग गये।
उनको भागते देख मुझे हँसी आ गयी और याद आ गया अपना बचपन। ऐसा ही कुछ करते हुए अपना बचपन भी बीता है। उस समय पास-पड़ोस और मुहल्ले के चाचा, बाबा इस कृत्य को शैतानी का खेल मानते थे। तब उनके इस फतवे पर बड़ी झुंझलाहट हुआ करती थी। गुलेल कोई बना-बनाया नहीं मिलता था। उसके लिए काफी जतन करना होता था। अँगूठे और उसके पड़ोस की उंगली की तरह लकड़ी को हम केटी कहा करते थे। उसकी तलाश बड़ी मुश्किल से पूरी होती थी। किसी न किसी पेड़ की डाल में ढूँढकर निकालनी होती थी, बड़ी मुश्किल से काटते थे, फिर पास से किसी साइकिल की दुकान से दस-पन्द्रह पैसे में ट्यूब को फीतेनुमा कटवाकर लाते थे। कंकड़ फँसाने के लिए मोची से चमड़े का चोकोर टुकड़ा कटवाते थे। इन सबको लेकर भी फीतेनुमा ट्यूब के बीचोंबीच चमड़े का टुकड़ा फँसाकर दोनों छोरों को केटी के सिरों पर अलग-अलग बांधकर फिर चिडिय़ा, तोता, गिरगिट पर निशाना साधकर बड़ा मजा आता था। इसको बनाते में कई बार हाथ में चोट भी लग जाती थी पर हम सभी दोस्तों के पास गुलेल का जुगाड़ होता था। मस्ती-मजे में अपने किसी दोस्त के पुट्ठे पर छोटा-मोटा कंकड़ मारकर हँसा करते थे। जाहिर है यह खेल शैतानी का खेल कहा जाता था। वक्त रहते यह सब छूट गया। बगुला मारने वाले छोकरों के हाथ गुलेल देखकर बचपन में जैसे जाकर लौट आये।
वैसे बचपन में जितने खेलों में अपनी महारथ याद आती है, उन सभी को करीब-करीब शैतानी का खेल करार ही दे दिया गया था। चालीस साल पहले पास-पड़ोस के रिश्ते बड़े मायने रखते थे। कोई न कोई चाचा या भैया डाँट-फटकार और मारपीट के लिए पूरे मुहल्ले की ओर से अधिकृत होते थे। हममें से कोई भी इसका शिकार हो जाया करता था। उस समय हम कंचे खेलते थे जो खालिस जीत-हार का खेल हुआ करता था। डालडे के खाली डिब्बों में कंचों का संग्रह किया करते थे। यह खेल भी शैतानी का खेल माना जाता था। गिल्ली-डण्डा अपना खुद बनाते थे और खेलते थे, उसे भी शैतानी का खेल कहा जाता था क्योंकि उससे किसी की भी आँख फूट जाने का खतरा होता था। गर्मियों के मौसम में बाँस की लग्गी बनाकर घरों के पीछे से कैरी चुराने और नमक के साथ खाने की मस्ती भी शैतानी कहलाती थी। घर के पास बिजली घर से चुपचाप अल्यूमीनियम का तार चुराते थे। रोज दोपहर को सोन पपड़ी-गजक करारी वाला सिर पर थाली लेकर निकलता था, उससे आधी तौल सोन पपड़ी लेकर मिल-बाँटकर खाते थे। वह भी मुहल्ले के मारते खाँओं की निगरानी में आ गया था। याद है एक बार पच्चीस-पचास ग्राम के तार के चक्कर में आधा किलो वजन का बड़ा तार खींच लाये थे जिस पर सोनपपड़ी वाले ने धमकाया था, तो बहुत डर गये थे और कई दिन उसके आने के समय पर घर के भीतर चले जाते थे।
आज उस तरह का बचपन भी नहीं है और न ही उस तरह की शैतानी के खेल और न ही वैसा हौसला। आपस की दोस्ती जिस तरह बचपन में तब निभायी जाती थी, आज उसका एक उदाहरण भी देखने को नहीं मिलता। अब तो भलाई के लिए डाँटने या मारने का अधिकार घरवालों को ही नहीं है, बच्चों से डर लगता है। मुहल्ले में भी ऐसा कोई हित-चिन्तक शायद ही मिले। गुलेल, गिल्ली-डण्डा, कंचे, पतंग, गुलाम डण्डी जैसे खेल भी समयातीत हो गये। अब खेल से खिलवाड़ जैसा डर बन गया है इसीलिए खेल की अवधारणा बचपन और किशोरावस्था से एक तरह से गायब ही हो गयी है।
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