गुरुवार, 24 अक्तूबर 2013

मन्ना डे अपना हाथ न किसी को पकड़वाया, न पकड़ने दिया.......


मन्ना डे का यश ऐसा ही था कि उनको महान गायन कहने में संकोच नहीं होता है। उनके गाये गीतों ने कर्इ पीढि़यों की चेतना को सचेत रखा है। साठ-सत्तर साल लगातार गाते रहना आसान नहीं है। आज के कठिन समय में मन्ना डे की हर जगह अकेली और आत्मविश्वास से भरी उपसिथति पर कम ताज्जुब नहीं हुआ करता था। मन्ना डे को भोपाल में सुनना सभी के लिए अविस्मरणीय था, वो साल 2006 का था और अक्टूबर का महीना। तारीख 17 थी। सचमुच वे दो दिन ऐसी अनूठी और अविस्मरणीय अनुभूतियों से भरे थे जिनसे हाथ छुड़ाने का मन ही नहीं हो रहा था। हालांकि जैसे जैसे समय बीत रहा था, ऐसा लग रहा था कि सानिनध्य का दायरा कम होता जा रहा था मगर इसके बावजूद हर उस अनुभव को सहेजकर रखने का मन होता था जो प्रतिपल नये अनुभवों के कारण पुराने होते जा रहे थे।

सन्दर्भ महान पाश्र्व गायक मन्ना डे से जुड़ता है। बीसवीं शताब्दी के ये महान गायक जब दो दिन के लिए भोपाल आये तो उनकी देखरेख की जवाबदारी किसी अनजाने पुण्य के फल की तरह लगी। संस्कृति विभाग की बहुलोकप्रिय एवं प्रतिषिठत मासिक श्रृंखला अनुश्रुति में गाने आये थे मन्ना डे। भोपाल बुलाने के लिए उनकी बड़ी मनुहार करनी पड़ी थी। हमारा लगभग छ: माह का परिश्रम सार्थक किया था उन्होंने भोपाल आकर। तब मन्ना डे छियासी साल के जवान। उनके लिए यही कहना ज्यादा उपयुक्त प्रतीत होता है। वरना इस उम्र में बैंगलोर से मुम्बर्इ होते हुए जहाज बदलते हुए भोपाल आना आसान कहाँ होता है! इतना ही नहीं वापसी में वे भोपाल से दिल्ली गये और दिल्ली से कोलकाता। कुछ दिन वहाँ रुककर फिर वापस बैंगलोर जाने का उनका कार्यक्रम था। कोलकाता में उनका घर है, परिवार है, भतीजे, पोते-पोतियाँ हैं। बैंगलोर में मन्ना डे अपनी पत्नी और बेटी के साथ रहते थे। एक बेटी उनकी विदेश में है।

कार्यक्रम के एक दिन पहले मन्ना डे रात के विमान से भोपाल आ रहे थे। फूलों का एक गुलदस्ता लेकर समय से जरा पहले ही पहुँच गया था। उस रात उनके इन्तजार में बैठना कुछ ज्यादा ही आनंदित करने वाला, व्याकुलता से भरा प्रतीत हो रहा था। मन्ना डे मूडी हैं यह तो फोन पर कर्इ बार बातचीत से पता चला था मगर अपने मन के अलग ही राजा हैं, यह दो दिन उनके साथ रहकर जाना। जहाज कुछ देर से आया मगर मन्ना डे की की छबि की कल्पनाएँ कर उनके बहुत सारे गीतों का स्मरण करना उस समय न जाने कितना अच्छा लग रहा था। सबसे ज्यादा रिपीट हो रहा था, हिन्दुस्तान की कसम फिल्म का गाना। 'हर तरफ अब यही अफसाने हैं। यारी है र्इमान मेरा, कस्मे वादे प्यार वफा सब, ऐ मेरी जोहरा जबीं, लागा चुनरी में दाग, चलत मुसाफिर मोह लिया रे, सुर न सजे क्या गाऊँ मैं, गाने भी जेहन में आ-जा रहे थे। मन्ना डे की आवाज के बारे में मेरी व्यकितगत स्थापना यह है कि उनकी आवाज शहद और आँसुओं की बड़ी परफेक्ट मात्रा से मिलकर बनी है। जितने मीठे उनके गीत लगते हैं, भावुक और जज्बाती गीत कर्इ बार रुआँसा हो जाने को विवश कर देते हैं।

आखिरकार जहाज आकर रुका। जहाज के रुकते ही दूर से उसका दरवाजा खुलने की व्याकुलता बलवती हुर्इ। दरवाजा खुला, यात्री उतरे तो देखा कि चौथे नम्बर पर मन्ना दा खरामा-खरामा उतर रहे हैं। नीचे उतरकर बिना थके बाहर तक चले आये। मैंने उनके चरण स्पर्श किए। मन्ना दा तो पिता के भी पिता की उम्र के हैं। वैसी ही आत्मीयता उन्होंने दी। सामान लेकर बाहर निकले। चारों तरफ कौतुहल था। मन्ना दा उसी कौतुहल के बीच से होते हुए कार में बैठे। होटल पहुँचने पर कुछ प्रेस छायाकार उनकी प्रतीक्षा में थे। कार से उतरते ही फ्लैश चमकना शुरू हुए। दादा इन सबकी परवाह किए बगैर होटल की सीढि़याँ चढ़ने लगे। एक फोटोग्राफर ने कहा, वहीं रुक जाइए तो उसको तुरन्त कहा, क्यों रुकूँ? नहीं रुकता। सब ओर हँसी हो गयी। उनका आतिथ्य करने वाले होटल का स्टाफ खुश था। दो दिन सभी ने उनका बहुत ख्याल रखा।

हालांकि भोपाल का मौसम उनको बड़ा खुशगवार लगा मगर फिर भी गुलाबी ठंड और एयर कण्डीशण्ड कमरे में उनका कुछ गला खराब सा हुआ जिसका इलाज उन्होंने अपनी पसन्द का एक सीरप मुझसे बुलवाकर किया। दादा को मिठार्इ बहुत पसन्द थी। भोपाल की एक खास दुकान की रबड़ी खाकर वे बहुत खुश हुए थे। मन्ना दा सचमुच मूडी आदमी थे। नाहक व्यवधान को वे पसन्द नहीं करते। हल्की डपट में दादा देर नहीं करते थे मगर वह बड़ी दिलचस्प होती थी। आप थोड़ी देर को सहम जरूर जाते हैं मगर उनके प्रति प्यार और बढ़ जाता है, ऐसी डपट के कर्इ अवसर देखने को मिले। 

रवीन्द्र भवन में वो शाम ऐतिहासिक थी जिस शाम मन्ना दा का गाना था। मन्ना दा भोपाल तकरीबन चालीस साल पहले आये थे जब चाइना वार हुआ था। उस समय के बाद अब उनका आना हुआ। दादा को सुनने ऐतिहासिक भीड़ उमड़ पड़ी थी। नीचे का हाल, बालकनी भरी हुर्इ थीं। परिसर में तीन जगह स्क्रीन लगाये गये थे और सामने सैकड़ों चाहने वाले उनके गाये गीतों का आनंद ले रहे थे। दादा ने तीन घण्टे गीत सुनाये। सब मंत्र मुग्ध होकर उनको सुनते रहे। वन्दना सुन हमारी, दिल का हाल सुने दिलवाला, तू प्यार का सागर है, चुनरिया कटती जाये रे, ऐ भार्इ जरा देख के चलो, आयो कहाँ से घनश्याम, पूछो न कैसे मैंने रैन बितायी, छम छम बाजे रे पायलिया, झनक झनक तोरी बाजे पायलिया, तेरे नैना तलाश कर, गोरी तोरी पैंजनियाँ, सुर न सजे क्या गाऊँ मैं, चली राधे रानी, जिन्दगी कैसी है पहेली, कस्मे वादे प्यार वफा, कस्मे वादे प्यार वफा सब, ऐ मेरी जोहरा जबीं, यारी है र्इमान मेरा, ऐ मेरे प्यारे वतन, तुझे सूरज कहूँ या चंदा, दूर है किनारा, तुम बेसहारा हो तो, फुल गेंदवा न मारो, कौन आया मेरे मन के द्वारे जैसे गीतों ने जैसे अनुभूतियों में जन्नत की सैर करा दी। भोपाल उस शाम को कभी नहीं भूलेगा।

रात्रि विश्राम के बाद अगले दिन सुबह मन्ना दा कोलकाता की तरफ जाने के लिए दिल्ली वाले विमान से में बैठे। जब तक जहाज हवार्इ अडडे पर नहीं आया तब तक उनसे विमानतल पर ही खूब बातें हुर्इं। अपने अनुभवों को जिस तरह से उन्होंने बाँटा वो अलग चर्चा का विषय है मगर यह बात सच है कि उनका समूचा व्यकितत्व एक पूरी शताब्दी के जीवन, अनुभवों, संघर्षों और उपलबिधयों का ऐसा आदर्श और मर्यादित गवाह दिखायी दिया जिसमें अनुकरण के लिए इतना कुछ नजर आया जो आज बाहर और कहीं सर्वथा दुर्लभ है। मन्ना दा ने अपनी समूची साधना और उपलबिध के परिप्रेक्ष्य में अपने चाचा विलक्षण गायक स्व. के. सी. डे को याद किया, उनको श्रेय दिया और कहा कि मेरे लिए उनका भतीजा होना गर्व की बात है।

मन्ना डे से बाद में भी बात हुआ करती रहती थी। अक्सर उनको जन्मदिन पर और वैसे भी फोन कर लिया करता था। लैण्डलाइन फोन वे खुद ही उठाते थे, मोबाइल वगैरह नहीं रखते थे। जब उन्हें दादा साहब फाल्के सम्मान घोषित हुआ था तब भी बधार्इ देते समय उन्होंने हालचाल लिया था, दुआएँ दी थीं। कुछ महीने से उनकी सेहत अचानक गिरती गयी और फेफड़ों के संक्रमण ने उनको कमजोर कर दिया था। इसके बावजूद वे बीमारी से लड़ते रहे। उनके एक संगतकार मुम्बर्इ के इन्द्रनाथ मुखर्जी से भी उनके हालचाल ले लिया करता था जो उनसे प्राय: बात करते रहते थे। 

एक फूल दो माली फिल्म में उनके गाने, तुझे सूरज कहूँ या चन्दा में बीच की पंक्तियाँ हैं, आज उंगली थाम के तेरी तुझे मैं चलना सिखलाऊँ, कल हाथ पकड़ना मेरा, जब मैं बूढ़ा हो जाऊँ.............लेकिन आश्चर्य यह है कि अन्तिम समय तक चलते-फिरते रहने वाले मन्ना डे ने अपना हाथ न किसी को पकड़ाया और न ही किसी को पकड़ने दिया। 

उनका चले जाना बहुत ज्यादा दुखदायी इसलिए लग रहा है क्योंकि वे हमारे बीच सक्रियतापूर्वक, ऊर्जापूर्वक और बलिक कण्ठपूर्वक बने हुए थे। उनके निधन से हमारे बीच से भारतीय सिनेमा के गोल्डन इरा की एक बहुत बड़ी शखिसयत चली गयी है, इस क्षति की भरपायी कभी न हो सकेगी।




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