शनिवार, 26 अक्तूबर 2013

आधी-अधूरी जिन्दगियों का एक घर

 
भारतीय रंग जगत में एक लगभग पचास से भी ज्यादा साल पुरानी महत्वपूर्ण कृति पर किसी सशक्त नाटक को देखना अपने आपमें एक बड़ा अनुभव है। मोहन राकेश की कृति पर आधारित लिलेट दुबे निर्देशित नाटक आधे-अधूरे देखकर लगता है कि ये लगभग आधी सदी बराबर का व्यतीत समय भी स्थितियों को बदल नहीं पाया है। आधुनिकता और आविष्कार ने दुनिया के विकास और परिष्कार की बहुत सी बातें स्थापित की हैं लेकिन मनुष्य की स्थितियों, पूर्णता की उसकी विफल सी तलाश और अपने अधूरेपन को लेकर बनी रहने वाली झुँझलाहट वैसी की वैसी ही है। उसमें कोई फर्क या बदलाव नहीं आया है।

इस नाटक में मुख्य रूप से पाँच पात्र हैं लेकिन भारतीय रंगमंच के विलक्षण कलाकार डॉ. मोहन आगाशे द्वारा निभाये पाँच पृथक किरदारों को समाहित कर दिया जाये तो कुल मिलाकर नौ हो जाते हैं। यहाँ आगाशे द्वारा निभाये गये पाँच किरदारों की बात हम आगे करेंगे, पहले आधे-अधूरे नाटक की पृष्ठभूमि में जाने की कोशिश करते हैं।

आधे-अधूरे एक परिवार के माध्यम से जीवन के असन्तोष और शिकायतों की बात करता है जहाँ मुखिया महेन्द्र नाथ, अपनी पत्नी सावित्री, दो बेटियों बिन्नी और किन्नी तथा बेटे अशोक के साथ रहता है। मुखिया अपने व्यावसाय में सब कुछ खो चुका है, घर पर रहता है। पत्नी कामकाजी है, घर उसकी तनख्वाह से चलता है। बड़ी बेटी ने परिवार की इच्छा के विरुद्ध भागकर विवाह कर लिया है लेकिन एक दिन वह अपने पति को छोड़कर वापस आ जाती है। बेटा बेरोजगार और कुण्ठित है, छोटी बेटी बड़ी हो रही है, उसकी अपनी उद्विग्नताएँ हैं।

मुख्य रूप से घर में अपनी थकी और खिसियायी जिन्दगी काटता महेन्द्र नाथ, पत्नी सावित्री से अक्सर जीवन की विफलताओं के दोषारोपण में पराजित हो जाया करता है। एक दिन वो घर छोड़कर अपने दोस्त जुनेजा के घर चला जाता है। सावित्री की जिन्दगी में दो और पुरुष हैं जो अलग-अलग स्थितियों में घर में आते-जाते हैं, एक सिंघानिया उसका बॉस, दूसरा जगमोहन पहले का प्रेमी। सिंघानिया की खुशामद की जरूरत उसे इसलिए है कि वो शायद उसके बेटे को कोई नौकरी दे देगा। जगमोहन से उसके रिश्ते बीच में खत्म हो गये थे लेकिन जगमोहन फिर आता है, तब जब महेन्द्र नाथ घर छोड़कर चला गया है और सावित्री भी घर और अपनी हताशा से ऊब गयी है।

महेन्द्र नाथ और सावित्री के घर में हम बौखलाए लोगों को देखते हैं। अलग-अलग उम्र के लोग एक ही धरातल पर अपनी असन्तुष्टि, अनुशासन की कमी और नियंत्रण की घोर अनुपस्थिति के बीच अपनी अकेली दिशाहीनता से घबराये हुए हैं। कोई पूरा नहीं है, सब आधे-अधूरे हैं। हम देखते हैं कि समय की बड़ी आवृत्ति में जिन्दगी ही कट रही है लेकिन सब के सब घर में रखे फटे-पुराने और निष्प्राण सामानों की तरह हैं। पुराना रेडियो, पंखा, सोफा, मेज, फटा टाट, किन्नी के सामने से फटे मोजे विफलता और भटकाव की गहरी बातें बीच बहस में व्यक्त करते हैं। अपरिचितों और असहमतियों का घर कितनी बड़ी-बड़ी कीमतें चुकाता है, यह आधे-अधूरे नाटक में नजर आता है।
 
 
डॉ. मोहन आगाशे की क्षमताओं को देखकर हतप्रभ हो जाने के सिवा कोई प्रतिक्रिया नहीं होती, वे सूत्रधार समेत पाँच किरदारों में आते हैं। वे महेन्द्र नाथ हैं, वे ही जुनेजा हैं, वे ही जगमोहन हैं, वे ही सिंघानिया हैं। कितनी विविधताओं को नितान्त विभेदों के साथ वे इन किरदारों को मंच पर सार्थक करते हैं, देखकर ताज्जुब होता है। लिलेट दुबे नाटक की निर्देशक हैं, वे सावित्री के रूप में एक निरन्तर खोती और हारती रहने वाली स्त्री की भूमिका को अपनी वेदना के साथ साकार करती हैं। नाटक में अशोक का किरदार जिसे राजीव सिद्धार्थ ने निभाया है और किन्नी का किरदार जिसे अनुष्का साहनी ने निभाया है, विशेष रूप से अपने स्वाभाविक और सधे अभिनय के साथ याद रह जाते हैं। बिन्नी के रूप में इरा दुबे की उपस्थिति इन किरदारों से आगे बढ़कर नहीं जा पाती।

आधे-अधूरे नाटक को सार्थकता प्रदान करने में कलाकारों के श्रेष्ठ अभिनय के साथ मंच-परिकल्पना और सामग्री का बड़ा योगदान है। अभाव और अधूरेपन को स्टेज-प्रॉपर्टी सार्थक प्रभावों के साथ व्यक्त करती है। वेशभूषा को लेकर राय जरा अलग सी है क्योंकि एक अभावग्रस्त परिवार की एकमात्र कमा कर लाने वाली स्त्री सावित्री के कपड़े बड़े महँगे, भव्य और वैभव का प्रदर्शन करते दीखते हैं। ऐसे कपड़ों का सीधा विरोधाभास किन्नी के फटे मोजों से है। ब्याहता बेटी के अच्छे कपड़ों को नजरअन्दाज किया जा सकता है लेकिन सावित्री की कीमती साड़ियाँ वातावरण को कहीं न कहीं बाधित करती हैं। हो सकता है निर्देशक ने सावित्री को उसकी अधूरी ख्वाहिशों के बीच उसके थोड़े-बहुत सपनों के लिए कुछ गुंजाइश रखी हो, बहरहाल.......।

आधे-अधूरे नाटक देश के मूर्धन्य रंगकर्मियों ने समय-समय पर किया है। लिलेट दुबे की यह प्रस्तुति एक अभिनेत्री के साथ निर्देशक के रूप में निश्चित रूप से उल्लेखनीय है। एक ऐसी मंच-कृति जो आपको प्रभावित करके छोड़े वो निश्चित रूप से श्रेष्ठ मानी जाती है, यह नाटक भी उतना ही सशक्त और सार्थक प्रतीत होता है। 

कोई टिप्पणी नहीं: