गुरुवार, 29 मई 2014

एक बारीक सा धागा, जीवन के इस पार-उस पार................

जीवन और उसके यथार्थ के बीच हर मनुष्य की अपनी अवधारणाएँ हुआ करती हैं। कई तरह की। उम्र, अनुभव, हृदयता (सहृदयता या हृदयहीनता), आवेग और प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष देखे-सुने से उपजी। पता नहीं सीखने की उम्र कब तक चलती है, शायद जीते-जी सीखना होता ही रहता है। व्यापकता में देखें तो दुनिया, थोड़ा कम करें तो देश, और कम करें तो प्रदेश, फिर शहर, मुहल्ला और घर और उसके बाद हम। कितने वलय उतने बाहर जाने के फिर लौटकर आने के, अपनी जगह पर।

जीवन में जो घटित होता है, देखा हुआ, कहानियाँ नहीं होता, बड़े बाद कहानी की तरह याद आता है। परिवार के अपने स्वरूप में रिश्तों की स्थितियाँ ही अनगिनत कहानियाँ हैं। परिवार की आदर्शमयता पर बात करते हुए हावभाव में हथेली एक आकार बनाती है, गुलदस्ते की तरह जिसकी पाँचों उंगलियाँ ऊपर की तरफ उठी होती हैं। एक उदार घेरा बनता है जिसके भीतर सब खुला हुआ है। यह स्वरूप उदाहरण देने के लिए पर्याप्त है लेकिन हम देखते हैं कि वह खुला हुआ, खोखला सा हो गया है। बड़ा बदलाव है।

वो मेरा छोटा भाई है जिसकी विनम्रता को शायद मैंने बीस से अधिक सालों से देखा है, छोटा भाई इस तरह है कि उसके पिता का इतने ही बरसों से बड़ा सान्निध्य मैंने पाया है, वो मुझे पुत्र की तरह स्नेह देते हैं। अपनी जो कुछ भी रचनात्मक पहचान देखता हूँ वह शत-प्रतिशत उनकी वजह से ही है। वो भाई मुझे सदैव ही मर्यादापुत्र दीखा जो भीतर ही भीतर मुझे सदैव चकित करता रहा है लेकिन उतना ही सन्तोष भी मुझे हमेशा महसूस हुआ है। स्वाभाविक रूप से मैं इस भाई के पिता का पुत्र नहीं हूँ, पुत्रतुल्य हूँ और भौतिक दूरियों के साथ तमाम सीमा-दायित्वों में जिनमें बहुतेरे व्यर्थ से हैं, बँधा हुआ।

कुछ समय पहले एक महानगर में पितृतुल्य मेरे इन अविभावक के हृदय की शल्य-क्रिया हुई। शहर में जाने से लेकर सकुशल अपने घर वापस आने तक बीस-पच्चीस दिन, हमारा वो भाई चैबीस घण्टे अपने पिता के साथ रहा, अकेला। परिवार की अवधारणा ऐसी है कि दो पुरुष हैं शेष माँ, बहू और बच्चियाँ जो घर में हर वक्त व्याकुल-व्यग्र ईश्वर से प्रार्थनाएँ करती हुईं। भाई अपने पिता के साथ उनके जीवन की कामना और रक्षा के लिए निपट खुद। जिस दयालु से सब कामनाओं के लिए हम आसमान की तरह बड़े भरोसे के साथ निहारते हैं, कृपा उनकी ही रही।

परिवार के किसी सदस्य का जब बायपास हो रहा होता है तब सच मानिए एक साथ पूरे परिवार का बायपास हो रहा होता है, उस एक भर का नहीं। भेद भी बड़ा है, जो शल्यक्रिया की टेबिल पर है वह मूर्छित है लेकिन परिवार के लोग जाग्रत अवस्था में अपने बायपास से गुजर रहे होते हैं। दो जोखिम एक साथ चलते हैं। एक बायपास सफल होता है तब ही शेष बायपास भी सफल होते हैं। बहुत बड़ी बात है।

मैं अपने उस भाई को देखता रह जाता हूँ। कुछ कहा नहीं जाता। महानगर में किस तरह इस पूरी प्रक्रिया वह अकेला, बिना किसी दुसरिए के सब करता रहा होगा! हर दिन चैबीस घण्टे खास कठिन समय में सालों की तरह बीतते हैं। कितना साहस, कितना भय, कितने अन्देशे, महानगर से दूर अपने शहर, अपने घर और घर में सब के बीच एक बारीक सा धागा, कितनी बातें कही जाती होंगी, एक-दूसरे को हौसला देने से लेकर कामनाओं तक, कितना कुछ व्यक्त और अव्यक्त......खैर एक अच्छा परिणाम लेकर, अपने पिता को साथ लेकर उसका आना, बहुत बड़ा काम कर आना है। छोटा है फिर भी उसे सलाम करता हूँ.....................

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