बुधवार, 11 मार्च 2015

कहने को अवकाश हैं....

अक्सर मुझे वो बस दीख जाया करती है, उसी को लेकर मैं सोचा करता हूँ कि किसी दिन पहले बस स्टॉप से एक टिकिट खरीदकर बैठ जाऊँगा और कण्डक्टर से कहूँगा कि मुझे आखिरी स्टॉप से लौटकर यहीं ले आकर उतार दे। इतना पैसा मैं उसको दे दूँगा और फिर चैन से खिड़की के पास बैठकर बाहर देखा करूँगा, आते-जाते लोग, छोटे-बड़े वाहन, नियम से चलते और नियम तोड़ते लोग, साथ जाते, पीछे पड़ते लोग, माँगने वाले, देने वाले, दुत्कारने वाले सब कुछ।
लम्बे समय में बस इसी का समय नहीं मिला। मुझसे घर के लोग कहते हैं कि रात में सोते समय मैं कुछ बका करता हूँ। मैं सोच में पड़ जाता हूँ, बोलता हूँ कि बका करता हूँ कि बड़बड़ाया करता हूँ। फिर यह सोचकर भी डर जाता हूँ कि उस बकने को घर के लोग कहीं ध्यान से तो नहीं सुनते होंगे ! हो सकता हो गाली-गलौच या फिर वे बातें जो इनको पता न होंगी, डर जाना स्वाभाविक है।
एक बार बड़े सबेरे रेल्वे स्टेशन जाना हुआ था, बहन आने को थी, उसके आने की सूचना पर सुबह जल्दी जागना अच्छा लगता है। उस दिन रेल देर से आ रही थी, मैं खाली सूनसान प्लेटफॉर्म में दूर एक बैंच पर जाकर बैठ गया, अकेले। एक पैसेंजर रेल एक पटरी पार कब से खड़ी थी। फिर मेरे मन में आया कि किसी एक दिन ऐसे ही इस तरह की रेल में बैठकर चल दूँ। इसी रेल में पेट में टोकरी फँसाये उबले हुए चने बेचने खोमचे वाले आते हैं जो कागज के चोंगे में नीबूँ को भी नाच नचाकर निचोड़ते हैं, मगर क्या गजब स्वाद। कभी चवन्नी अठन्नी में खाये थे, अब पाँच रुपए से कहो कम में न दे। यहाँ भी बस सोचा हुआ, सोचा हुआ ही रह जाता है।
समय के साथ जीवन में ऐसी बहुत सी चीजें खारिज हुआ करती हैं। दोस्त इसी बात पर दुखी रहते हैं कि बड़े दिनों से बैठे नहीं। क्या बताओ कि बड़े दिनों से चैन से भी नहीं बैठे। दरअसल हम सबको, मुझको, मित्रों को भी ऐसे समय की खामोख्याली बनी ही रहती है और ऐसा दिन बड़े दिनों में ही आता है। बहुत सारा कूड़ा करकट इकट्ठा किए सभी जिए चले जा रहे हैं, ऐसा मैं सोचता हूँ। प्राय: सभी को शायद बैठने का वक्त नहीं मिलता होगा, जब तक नहीं बैठते होंगे, बात-बेबात गरियाते हुए उसका कर्टन रेजर पेश करते होंगे।
अपने शहर में जमीन से गड़ी हुई खाली बैंचे देखकर भी मन करता है कि यहाँ बैठ जाओ। पहले देर तक पैर फैलाकर बैठे रहो, फिर उसके बाद पालथी मारकर भी बैठे रहो। अपन बस बैठे रहो क्योंकि यह बैठने के लिए ही जमीन में गाड़ कर लगायी गयी है। हँसी आ जाती है, यदि रख भर दी जाती तो अब तक उठाकर भी ले जायी जाती। इसी हँसी में रेल के शौचालय का ध्यान आ जाता है जहाँ स्टील का मग चैन से बांधकर रखा जाता है। पहले मुझे लगा कि यह भी इसीलिए बांधा जाता होगा कि रख भर देने से चला जाता फिर यह सोचा भी बांधेंगे नहीं तो गिरता-पड़ता रहेगा। हँसी हालाँकि दोनों ख्यालों में आती रही।
एक दिन ऐसे ही आकाश देखते रहने का मन भी है। जमीन पर पाँव नहीं पड़ते। ठोकरें लगा करती हैं, उसी में कराहते वक्त बीता जाता है। कभी-कभार आकाश देखते हैं तो मन करता है देखते रहो। आकाश का अवकाश से सम्बन्ध है, शायद विरोधाभासी। अवकाश होगा तभी आकाश देखेंगे। अवकाश होगा तो बैंच भी काम की है, बस और पैसेंजर भी और बैठक भी। कहने को तमाम अवकाश हैं, जोड़ते मिलाते जाओ तो दिन ही दिन पर मिलते नहीं। जीवन से बहुत कुछ छूटता चला जाता है। हम सभी कुछ भूलते-बिसराते चले जाते हैं। हथेलियों को साफ करते रहते हैं, मलते रहते हैं। वक्त को अपने सामने खड़े-खड़े जाते हुए देखते हैं। यह देखते रह जाना ही परिणाम है शायद।

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