बुधवार, 1 जून 2011

सिनेमा, सपने और राजकपूर


2 जून राजकपूर की पुण्यतिथि है। अब से तेईस वर्ष पहले उनका निधन हुआ। जीवन के यथार्थ को लेकर उनके विचार उनका अपना दर्शन था। बहुत सारे उनके फलसफे आरम्भ से लेकर आखिरी तक हमने उनके सिनेमा में गढ़ते और परिष्कृत होते देखे। वे अपने दो और समकालीनों देव आनंद और दिलीप कुमार के साथ गाढ़ी मैत्री रखते हुए उनके साथ स्वस्थ और स्वच्छ स्पर्धा में अपनी सक्रियता प्रमाणित करते थे। दिलीप कुमार निर्देशक नहीं थे, केवल अभिनेता। देव आनंद अभिनेता और निर्देशक भी थे मगर आरम्भ से काफी समय तक उनके लिए सिनेमा विजय आनंद और गुरुदत्त निर्देशित करते रहे।

राजकपूर अभिनेता भी थे और निर्देशक भी। तीनों ही कलाकार अपनी-अपनी जगह विलक्षण और हिन्दी सिनेमा में लगातार अपनी सक्रियता के बीच श्रेष्ठ प्रतिमान के पर्याय बने। हम इन सारी बातों को करते हुए जब राजकपूर पर एकाग्र होते हैं तो फिर उनकी अभिनीत, निर्देशित और पाश्र्व में उनके प्रभावी और रचनात्मक हस्तक्षेप के प्रभाव से सामने आयीं अनेक फिल्मों के नाम जहन में उभरते हैं, नाम उभरते हैं तो कथ्य सामने आता है, कलाकार दृश्यबद्ध होते हैं, गीत-संगीत चलने लगता है जो अपने समय का इतना असरदार और माधुर्य चेतना से भरा हुआ कि आज भी रोम-रोम उसकी अनुभूतियों में डूबने लगता है।

बहुत सारी फिल्मों में काम करते हुए राजकपूर ने एक फिल्म सपनों का सौदागर में भी काम किया था। इस फिल्म का यहाँ जिक्र बस इसलिए कि यही राजकपूर जिन्दगी में प्रेम और संवेदना को एक खूबसूरत सपने की तरह अपने सिनेमा में सृजित करते थे। राजकपूर का सिनेमा चाहत की अतल गहराइयों में मर्म को छू लेने वाली कविता और गीत गढ़ता था। नैतिक मूल्यों के आसपास उनके सिनेमा का पथविस्मृत नायक जब आत्मावलोकन करता है तब उस दृश्य की मजबूती देखते ही बनती थी। आवारा, आह, आग, अनाड़ी, श्री चार सौ बीस, जागते रहो जैसी फिल्मों में ऐसे बहुत से सशक्त दृश्य हैं। उनकी फिल्मों के खलनायक खूँखार नहीं होते थे मगर उन किरदारों के सामने नायक की अग्रिपरीक्षा के दृश्य विस्मित करने वाले होते थे।

राजकपूर का नायक जमाने की आबोहवा, लोभ-लालच में अक्सर राह भटका करता था मगर किस तरह कोमल और विनम्र प्रेम उसे पतन के अन्तिम छोर से लौटा लाता है, यह फिलॉसफी रोमांचित कर दिया करती है। राजकपूर की फिल्मों के क्लायमेक्स और अन्त की अपनी अनुभूतियाँ हैं जिनमें जीवन को जीने, अपने हित और नैतिकता में बरतने की गहरी सीख है। हमने ऐसे निर्देशक को राजकपूर के सिवा कहीं और नहीं जाना जो अपने गीतकार, अपने संगीतकार, अपने गायकों के साथ दिनों-महीनों बैठक करके अपने सिनेमा के लिए गाना बनाकर रचनात्मक सन्तुष्टि पाता हो। राजकपूर, मुकेश को अपनी आवाज मानते थे मगर उनके ही सिनेमा में मन्नाडे और मोहम्मद रफी के यादगार गाने भुलाये नहीं जा सकते।

राजकपूर के नहीं रहने के बाद वह सारी की सारी क्लैसिकी वहीं ठहरकर रह गयी है। गनीमत है कि इस खराब दौर में भी कुछ संजीदा और बेचैन दर्शक अपनी तृप्ति के लिए स्वयं को उतने पीछे ले जाकर उस आनंद का पुनरावलोकन करते हैं।

कोई टिप्पणी नहीं: