गुरुवार, 30 जून 2011

एक ठो चांस सईद अख्तर मिर्जा


समय की अपनी गति द्रुत है। सईद अख्तर मिर्जा को आज हम लगभग सत्तर में देख रहे हैं क्योंकि आज उनका जन्मदिन है। दो साल पहले उन्होंने अपनी एक फिल्म पूरी की, एक ठो चांस जो पता नहीं कहाँ है? रिलीज तो हुई नहीं, बनी रखी है कहीं। दस-बारह साल सईद पता नहीं कहाँ-कहाँ यायावरी करते रहे। अलमस्त मूड का यह फिल्मकार तसल्ली की जिन्दगी जीना पसन्द करता है मगर उसके सिनेमा में गजब की ऊष्मा दिखायी देती है। अपने बहुत से अगुआ और पिछुआ के बीच सईद ने अपने ढंग का सिनेमा बनाया और प्रतिष्ठा कायम की।

सईद की फिल्में क्रान्ति की संयत अवस्था को पेश करती हैं, ऐसा लगता है कि इस संयत अवस्था को नजरअन्दाज नहीं किया जाना चाहिए। लहीम-शहीम कद-काठी वाले सईद तार्किक ढंग से अपनी स्थापनाएँ रखते हैं, उनको संजीदगी से सुनना ही होता है। पन्द्रह-बीस सालों की सघन सक्रियता जो कि लगभग चालीस की उम्र के बाद ही शुरू हुई, अनेक महत्वपूर्ण फिल्मों के साथ रेखांकित होती है, मोहन जोशी हाजिर हो, अलबर्ट पिण्टो को गुस्सा क्यों आता है, सलीम लँगड़े पे मत रो, नसीम आदि। वे उपेक्षा और अव्हेलना करने पर भयावह हो जाने वाली अराजकता को अपने सिनेमा में बड़ी फिक्र के साथ पेश करते हैं वहीं उनके सिनेमा में आदमी के रूप में उस बहुत से हिस्से को दिखाये जाने की चाह होती है, जो उम्र, हैसियत और तमाम सदाचारों के बावजूद किसी गिनती में नहीं हैं।

अपनी फिल्मों की लोकेशन के लिए उनको बरसों भटकते देखा है। नसीम में कैफी आजमी से गहरा अभिनय करा ले जाना उन्हीं से जैसे सम्भव था। सईद पिछली और उसके पहले की अन्तिम फिल्म के बीच खूब घूमते फिरे, माँ के साथ। एक किताब भी लिखी। फिल्म बनाना भूल नहीं पाये थे तो एक ठो चांस बनायी। अब इस बीच उनको फिल्म एवं टेलीविजन प्रशिक्षण संस्थान पुणे में अध्यक्ष बना दिया गया है, सो वे एक नयी भूमिका में हैं, शायद सेंसर बोर्ड का अध्यक्ष उन्हें पहले बनाया जा रहा था, जिसके लिए उन्होंने इन्कार कर दिया था।

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