गुरुवार, 5 अप्रैल 2012

गुणी, धुनी और कुछ औघड़ से अलखनंदन


विख्यात रंगकर्मी अलखनन्दन का अकस्मात निधन पिछले दिनों भोपाल में हो गया। स्वास्थ्य की दृष्टि से पिछले दो साल उनके लिए बड़े कठिन और पीड़ादायी रहे। इसी अवधि में उनको पहली बार फेफड़ों की बीमारी की शिकायत हुई। रंगसमाज में उनके अस्वस्थ होने की खबर एक अचम्भे से कम न थी क्योंकि पिछले चार-पाँच साल से अलखनन्दन अपनी सेहत और फिटनेस को लेकर बड़े सजग रहने लगे थे। घर के पास ही रवीन्द्र भवन था जहाँ वे रोज शाम को छ: बजे आ जाया करते थे। वहाँ वे लगातार तेज चाल गोलाई में कई चक्कर लगाया करते। मेल-मुलाकात-बातचीत-बहस भी इसी बीच हो जाया करती थी। न केवल भोपाल बल्कि वरीयता और गुणों के कारण मध्यप्रदेश के रंगजगत के वे दादा थे, अलख जी या दादा, आदर और प्यार का सम्बोधन था। उनकी बीमारी ने जल्दी ही उनको हतोत्साहित कर दिया वरना रचनात्मक दृष्टि से वे बहुत सशक्त और सबल थे। उनका स्वास्थ्य तेजी से गिरा, अलखजी के स्वास्थ्य की फिक्र उनके सभी चाहने वालों ने की मगर मृत्यु बीमारी के बहाने एक दिन सुबह उनको ले ही चली।

भोपाल और खासकर मध्यप्रदेश में एक वरिष्ठ और प्रतिभासम्पन्न रंगकर्मी के रूप में अलखनन्दन को मिली मान्यता उनके, जाहिर है, काम के आधार पर ही थी। उनका हर काम जिज्ञासा के साथ-साथ बड़ी उम्मीद के साथ देखा जाता था। उनकी सक्रियता लम्बी थी लेकिन उनके सृजनात्मक सरोकारों को जानने के अपने लगभग छब्बीस साल के समय की अनेक अलग-अलग घटनाएँ और बातचीत के प्रसंग याद आ रहे हैं, जो उनके साथ जुड़े थे। भारत भवन, रंगमण्डल में अलखनन्दन लम्बे समय रहे और भारत भवन से हटने के बाद अब तक निरन्तर खूब सक्रियता बनाये भी रखी। डिफेन्स ऑडिट में नौकरी करने और उससे अवकाश लेने के बाद रचनात्मक सक्रियता में आते हुए, देशबन्धु अखबार में पत्रकारिता से अपना कैरियर शुरू करने वाले अलख जी का एक कविता संग्रह घर नहीं पहुँच पाता, भी प्रकाशित है और उनके दो श्रेष्ठ और उत्कृष्ट उल्लेखनीय नाटक चन्दा बेडऩी और उजबक राजा तीन डकैत भी पाँच वर्ष पहले दिल्ली से प्रकाशित हुए हैं।

अलख जी चन्दा बेडऩी और महानिर्वाण से बखूबी और हमेशा जाने गये। इरफान, उनके प्रिय कलाकार जो पच्चीस साल की उम्र से इन नाटकों के अहम किरदार बने और आज भी उसे निभा रहे हैं। इरफान के बगैर ये दो नाटक और रंजना के बगैर चन्दा बेडऩी की कल्पना ही व्यर्थ है। अलखनन्दन ही थे जो अपने नाटकों मेें सन्तूर वादक ओमप्रकाश चौरसिया का संगीत अपरिहार्य मानते थे। बाद के उनके म्युजिकल नाटकों के लिए तालवाद्य के गुणी कलाकार सुरेन्द्र वानखेड़े अपरिहार्य रहे। उन्नीस सौ छियासी में भारत भवन और रवीन्द्र भवन में होने वाले कार्यक्रमों पर एक प्रमुख स्थानीय अखबार के लिए टिप्पणी लिखते हुए अलख जी से परिचय हुआ था, जो उनके हर नये काम के पूर्वरंग और प्रस्तुति से जुड़ा रहा। अपनी बेबाकी और स्नेहिल बरताव से ही वे लोगों से जुड़े रहे। उजबक राजा, सुपनवा के सपना, जगर मगर, सुपरिमो, मगध, गोडाला देखत हन, आगरा बाजार आदि बहुत नाटक हैं उनके, एकदम से याद नहीं आते। अलख जी को शिखर सम्मान मध्यप्रदेश से मिला था और अभी संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार घोषित हुआ था।

अलखनन्दन, कुछ नया, कुछ खास करते समय यदि उनको समाज तक ठीक से पहुँचाने का मन होता था, तो फोन करके बुला लिया करते थे। वे कहते थे, तुमसे बात करके अच्छा लगता है, जो मैं सोचता हूँ, करना चाहता हूँ, तुमको बताकर यह भरोसा होता है कि अखबार में भी ठीक ढंग से आ जायेगा। अपने नाटकों के रिपीट शो या नये प्रदर्शनों के बारे में वे हमेशा बता दिया करते थे। उनका लगभग अन्तिम सशक्त और मर्म में गहरे उतर जाने वाला नाटक चारपायी था जिसमें उन्होंने एक प्रमुख भूमिका के लिए रंगमण्डल भारत भवन के वरिष्ठ कलाकार जावेद जैदी को लिया था। आजाद ख्याल और अरसो-बरसों में अभिनय करने वाले जावेद उनके नाटक में काम कर रहे हैं, यह बात अलख जी ने हँसते हुए बतायी थी। चारपायी एक अभावग्रस्त परिवार की कठिनाइयों और झुंझलाहट को उसके विषाद के साथ प्रस्तुत करता था। इसके भोपाल सहित देश में अनेक प्रदर्शन हुए और सराहा भी गया। यह नाटक अलखनन्दन के अच्छे मित्र नाटककार रामेश्वर प्रेम का लिखा था, जिनके दो और नाटक अजातघर और सुपरिमो वे पहले खेल चुके थे।

नाटकों के आंचलिक भाषाओं में प्रयोग प्रस्तुति को लेकर उनकी अपनी विशेषज्ञता थी। चन्दा बेडऩी इसी तरह का नाटक है, पूरा बुन्देलखण्डी में। विषय भी वहीं का, एक बेडऩी की कहानी जिसको प्रेम हो जाता है, कैसे वह कूटनीति, षडयंत्र और व्यवस्था का शिकार होती है, पूरा नाटक दिलचस्प ढंग से अपनी गति के साथ चलता है मगर जब अन्त में रस्सी पर नाचती चन्दा की मौत रस्सी काट दिए जाने से होती है, एक सन्नाटा व्याप जाता है। यह नाटक अलखनन्दन की रंग-सर्जना का सशक्त पर्याय माना जायेगा। सतीश आलेकर का महानिर्वाण अलखनन्दन ने खेला जिसमें भाऊ का किरदार कभी कारन्त जी ने निभाया था, उनके बाद इस चुनौती को इरफान सौरभ ने लिया सो आज तक निभाते आ रहे हैं। ऐसे ही अलखनन्दन की संस्था नटबुन्देले से जुड़े कलाकार आनंद मिश्रा, उनके देहावसान के समय उनके पास ही थे। सुबह साँस की तकलीफ महसूस होने पर उन्होंने आनंद को बुला लिया था। चारपायी नाटक में आनंद एक अहम भूमिका निभाते हैं। अलख जी को संगीत नाटक अकादमी पुरस्कार मिलने की सूचना तब मिली जब उनकी बीमारी जितनी बढ़ी हुई थी हौसला उतना ही घट गया था। फिर भी इस अवसर के लिए दिल्ली में चन्दा बेडऩी की प्रस्तुति के लिए उन्होंने अपना मानस बना लिया था।

अलखनन्दन, सचमुच इस दुनिया से बड़े बे-मन से गये, यह न जाने क्यों भीतर से लगता है। उनको बहुत सा काम करना था। जानलेना बीमारी का सबसे बड़ा गुनाह यही था कि उसने अलख जी को भरपूर ऊर्जा के साथ थिएटर करने से वंचित कर दिया। वे अपनी असहमतियाँ बेलाग ढंग से व्यक्त करते थे। यहाँ लेकिन असहमतियों ने एक तरह से कारुणिक अवसाद का रूप ले लिया था। हमने उनको और उनके सामने अपने को भी अलग-अलग धरातल पर इतना विवश नहीं देखा था। मुम्बई में फिल्मों में अब कला निर्देशक के रूप में प्रतिष्ठित जयन्त देशमुख, रंगमण्डल भारत भवन में उनके शिष्य थे जो आखिरी समय तक उनसे जुड़े रहे। जयन्त का कहना था, कि दादा असाधारण को अपने अनुशासन के दायरे में लाकर चैन लेते थे, यह उनका एक महत्वपूर्ण गुण था। उन्होंने उत्कृष्ट रंगकर्म और उसकी सार्थकता को प्रतिष्ठापित किया। अलखनन्दन ने अपने जीते-जी नट बुन्देले नाम की संस्था खड़ी की थी। उनके सारे के सारे रंग-उपक्रम उसकी ही देन हैं। नट बुन्देले की सम्हाल और उसकी निरन्तर सक्रियता एक बड़ी चुनौती है, पर फिलहाल अलखनन्दन की अनुपस्थिति के सच से ऊबरना कठिन लगता है।
-----------------------------------

कोई टिप्पणी नहीं: