रविवार, 15 अप्रैल 2012

सतही फिल्म की सफलता का जश्र


इन दिनों देश के सिनेमा प्रेमी हाउसफुल टू फिल्म को देखने के लिए टूटे पड़ रहे हैं। यह ठीक उस समय हो रहा है जब देश में खेल भी चल रहा है। ऐसा खेल जो हर बार फिल्म निर्माताओं को डराकर रखता है। ऐसी हवा बन्द करके रखता है कि जब तब खेल खेला जा रहा होता है तब तक कोई भी निर्माता अपनी फिल्म प्रदर्शित करने का दुस्साहस नहीं करता। वह निर्माता खासतौर पर सावधान रहता है जिसने अपनी फिल्म में भारी पैसा लगा रखा होता है, बड़े सितारे शामिल किए होते हैं। आयटम सांग डालकर रखा होता है अर्थात अपनी निगाह में वह जितनी रंगीन फिल्म बनाता है, उतना ही सतर्क रहता है। 

गर्मी का मौसम फिल्मों के लिए आफत का मौसम होता है। ठण्डे सिनेमाघर में फिल्में देखने के लिए घर से धूप में तो निकलना होता ही है, ऐसे में दर्शक संख्या तो घटी रहती ही है ऊपर से आई पी एल जैसे टूर्नामेंट से रही-सही कसर और पूरी हो जाती है। सिनेमाघरों में परिन्दा भी पर नहीं मारता। कई बार भूले-भटके चन्द दर्शकों के पैसे लौटाकर शो रद्द भी कर दिए जाते हैं। लेकिन इस साल ऐसे माहौल में साजिद खान की फिल्म हाउसफुल टू टिकिट खिडक़ी पर सफल हो गयी है। कल एक मनोरंजन चैनल पर एक फिल्म विश£ेषक लगभग बधाई गाने की तर्ज पर फिल्म की सफलता पर कसीदे काढ़ रहे थे। वे दुनिया भर के आयामों से आकलन करते हुए कमाई का कु ल योग लगा रहे थे। इतनी फिक्र देखकर लग रहा था कि वे निर्माता और निर्देशक के खासे शुभचिन्तक होंगे। बहरहाल उन्होंने पूरा जोड़ लगाकर यह साबित कर ही दिया कि फिल्म की कमाई लागत से काफी आगे तक निकल जायेगी। 

जहाँ तक फिल्म का सवाल है तो प्रश्र यही है कि क्या यही सिनेमा है? हाउसफुल टू ऐसा लगता है हिन्दी सिनेमा की एक ऐसी प्रतिनिधि फिल्म बन गयी है जहाँ सारी श्रेष्ठता, दृष्टि, बुद्धि और विचार अपने अस्तित्व के सबसे भोथरेपन में दिखायी देते हैं। एक प्रबुद्ध और बेबाक फिल्म समीक्षक ने हाउसफुल टू की सैद्धान्तिक ढंग से आलोचना की है और यह प्रमाणित किया है कि किस तरह एक निरर्थक फिल्म इतने सारे बड़े, पुराने और नये, खारिज और उपयोगी सितारों को लेकर गढ़ी जाती है। मनोरंजन जिसे सिनेमा के अंग्रेजीदां इण्टरटेनमेंट कहते हैं, अब इसी स्तर पर आकर जाँचा और परखा जाने लगा है। मनोरंजन फूहड़ता से परिभाषित है। 

सफल सिनेमा का गुण जैसे उसका सतही होना ही हो गया है। जरा हम अपनी चेतना को खंगालें, मनोरंजन की अपनी जरूरत को परखें, दुनिया और समाज से हम क्या इतना निराश और उकताये हैं कि ऐसी फिल्म पर हँस रहे हैं, मुग्ध हो रहे हैं और देखने के लिए टूटे पड़ रहे हैं? ऐसे परीक्षक बनकर क्या कभी आत्मग्लानि नहीं होती जिसमें किसी गँवार को मैरिट के नम्बर देकर फक्र महसूस किया जाता हो...........?

2 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

nice write up .

सुनील मिश्र ने कहा…

aapka hardik abhar chetna jee.