शुक्रवार, 1 अप्रैल 2011

एक अलहदा भाषा गढ़ते संवाद


हमारे सिनेमा में लगातार एक नयी संवाद-भाषा गढऩे का कुचक्र काफी हद तक न केवल पूरा हो चुका है बल्कि सफल होता भी नजर आ रहा है। यह काम काफी समय से हो रहा था, यदि यह कहा जाये तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। शुरू-शुरू में इसे बोल्डनेस या दुस्साहस की संज्ञा दी जाती थी मगर सिनेमा में ऐसा हो रहा है या होने लगा है, इस पर विस्मय भी होता था। सिनेमा के विभिन्न दृश्यों में खासकर कठिन परिस्थितियों वाले दृश्य में, ऐसे वक्त में जब फिल्म के नायक को या नायिका को या मजबूत चरित्र वाले किरदार को अपनी बात स्थापित करनी होती थी तो उसके लिए संवाद लेखक ऐसे वाक्य गढ़ता था जो कतिपय दृष्टि में अराजक होते थे।

भाषा की यह अराजकता सिनेमाहॉल में सीधे दर्शकों की ताली उठा लिया करती थी। अपनी जिन्दगी में कभी भी जोखिम न लेने वाला आम आदमी या दर्शक सिनेमा में ऐसे किरदारों को वह सब बोलते देख गदगद हुआ करता था, जो वह मन ही मन हरेक को बुदबुदाकर तो कह दिया करता था मगर सापेक्ष में उसके बूते के बाहर यह सब रहता था। फंतासी में ही सही उसके गुबार उसको अपने नायक या कलाकारों के माध्यम से आते हुए दीखते थे तो वह खुश होकर ताली बजाता था। यह काम लम्बे समय तक होता रहा है।

इश्किया और ओमकारा से लेकर दबंग और टर्निंग थर्टी, दिल तो बच्चा है जी तक आते-आते दर्शक घटिया संवादों पर ही ही ही करने का खुलकर आदी हो चुका है। अब हमारा दर्शक और समीक्षक भी मुक्त कंठ से रानी मुखर्जी के नो वन किल्ड जेसीका में बोले संवादों की सराहना करता है। कहते नहीं अघाता, क्या खूब गालियाँ बकी हैं, रानी ने। विद्या बालन से लेकर करीना कपूर और रानी मुखर्जी तक हम नायिकाओं के बीच भी एक सिने-भाषा विकसित होते देख रहे हैं। यह सब मूच्र्छित सेंसर की मेहरबानी से हम सब तक पहुँचता है।

इस तरह के संवाद कहीं न कहीं हमारे भीतर की क्षुद्रता को चपत मारकर जगा दिया करते हैं और बाहर से शालीनता और सुसंस्कृत छबि वाले हम गुदगुदी महसूस करते हैं। जाने, आगे सिनेमा अपनी आधुनिकता और दुुस्साहस में क्या-क्या गुल खिलाएगा, बहरहाल हम बीच-बीच में इस बात को याद करते रहा करेंगे कि एक वर्ष बाद सिनेमा की शताब्दी आरम्भ हो रही है।

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