शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

गीत रचनाओं का सदाबहार होना

हिन्दी फिल्मों में आज जिस तरह के गीत हमें सुनने को मिलते हैं उनको लेकर वैसे ज्यादा कुछ बात करते बनता नहीं है मगर फिर भी कई बार ऐसे विषय पर चर्चा करना इसलिए प्रासंगिक लगता है कि जब हम बीसवीं सदी के इस चमत्कारिक माध्यम को उसके सौवें साल में अपनी पहचान खोते देखें तो उसके कई मूलभूत कारकों की भी कैफियत ले लेनी चाहिए। गीत लेखन एक ऐसी विधा है जिसमें हिन्दी सिनेमा को समृद्ध करने में शायरों का बड़ा खास योगदान रहा है। ऐसे नामों की बड़ी लम्बी सूची है।

सवाक सिनेमा के लगभग पहले चार दशक यदि गीतों के मान से बड़े उल्लेखनीय और अविस्मरणीय माने गये तो उसके पीछे निश्चित ही ऐसे कवियों और शायरों की भूमिका रही है जिन्होंने निर्देशक और कलाकार के साथ बैठकर कहानी सुनी, उसकी सिचुएशन को जाना और तमाम रायशुमारी, मशविरे के बाद गाने बनाये। उन गानों पर चर्चा हुई, खासतौर पर एक दौर में गानों को लेकर लम्बी सिटिंग्स का दौर चलता था जिसमें धुनों को लेकर बात होती थी, मजमून पेश किए जाते थे, परिष्कार की बात चलती थी, सहमतियाँ-असहमतियाँ बनती थीं और बड़ी जद्दोजहद के बाद गाना तैयार होता था।

गाना तैयार होने की भी कथाएँ-उपकथाएँ हुआ करती थीं, कैसे गाना एकदम से बन गया और कैसे गाना तैयार होने में कई दिन लग गये और फिल्मांकन में तो पता चला, महीनों खर्च हो गये। मगर ऐसी तैयारी से जो आस्वाद दर्शक-श्रोता को आता था, वह पीढिय़ों में हस्तांतरित हो जाता था। तभी आज भी तीस-चालीस साल की उम्र के युवा, अपने पिता के जमाने के गानों का चयन अपनी सुरुचि के हिसाब से करते हैं और मौके-मौके पर सुनकर आनंद का अनुभव करते हैं। कितनी ही कारों में यादगार, सदाबहार गीतों की सीडियाँ बजा करती हैं, जिनमें लता मंगेशकर, तलत महमूद, मुकेश, हेमन्त कुमार, सहगल, वाणी जयराम, सुमन कल्याणपुर, आशा भोसले, गीता दत्त के गाने हमें उड़ा के जैसे किसी कल्पनालोक में ले जाया करते हैं।

आज का समय किसी ऐसे गीत-संगीत के सामने आने का नहीं है, जिसका महत्व आगे जाकर धरोहर के रूप में स्थापित हो। नहीं लगता कि बीस-पच्चीस साल बाद की पीढ़ी बड़े तन्मय होकर शीला की जवानी गाना सुनते हुए डूब जायेगी और इस दौर को याद करेगी।

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