रविवार, 12 दिसंबर 2010

शम्मी कपूर की तीसरी मंजिल

हिन्दी सिनेमा का सातवाँ दशक बड़े सितारों की विहंगम उपस्थिति के साथ-साथ कुछ ऐसे सितारों की भी सफलता का रहा है जिनकी फिल्में दर्शकों को सहज ग्राह्य होती रही हैं। वे नायक दर्शकों को पसन्द भी रहे हैं और बावजूद उनकी औसत उपस्थिति के अच्छे निर्देशन, नायिकाएँ, गीत-संगीत और कहानियों के माध्यम से उनकी फिल्में लोकप्रिय हुई हैं। शम्मी कपूर एक ऐसे ही कलाकार के रूप में जाने जाते हैं जो अपने बड़े भाई सहित उनके दो समानान्तर स्पर्धियों देव आनंद और दिलीप कुमार की निरन्तर सक्रियता और प्रभाव के बावजूद अपने लिए रास्ता निकालने में कामयाब रहे। रविवार के दिन उन्हीं की एक सफल फिल्म तीसरी मंजिल की चर्चा करना प्रासंगिक लग रहा है। नासिर हुसैन निर्देशित यह फिल्म 1966 में प्रदर्शित हुई थी और कहानी में दिलचस्प रहस्य और अच्छे गानों की वजह से सफल रही थी।

तीसरी मंजिल का कथानक फिल्म की नायिका के अपनी बहन के कातिल को ढूँढने के फैसले से शुरू होता है। रॉकी नाम के जिस आदमी को वह अपनी बहन की मौत का जिम्मेवार मानती है, स्थितियाँ कुछ ऐसी बन जाती हैं कि उसी से उसको प्यार हो जाता है। यह रॉकी, फिल्म का नायक अनिल है जो सचमुच इस हादसे का दोषी नहीं है मगर शक के घेरे में उसकी निगरानी, उसके घर की तलाशी भी गुप्त रूप से होती है। फिल्म की कहानी लगातार जिज्ञासा को बढ़ाती है। वास्तविक अपराधी कौन है, यह जानना कठिन होता है। तब फिल्में, खासकर ऐसी विषयवस्तु वाली फिल्मों में तीन चार संदिग्ध किरदार भी किसी न किसी रूप में हमारे सामने से होकर गुजरते थे जिन पर शक होता है मगर अपराधी कोई और ही निकलता है। तीसरी मंजिल में भी कहानी इसी तरह आगे बढ़ती है। प्रेमनाथ, मुख्य अपराधी हैं जो फिल्म में नायक के शुभचिन्तक, खैरख्वाह बने रहते हैं और हम सीबीआई ऑफीसर इफ्तेखार, नायिका की बहन के प्रेमी प्रेम चोपड़ा, नायक से एकतरफा इश्क करने वाली हेलेन और एक-दो दृश्यों में दीखते के.एन. सिंह में गुनहगार को ढूँढते हैं।

यह विजय आनंद निर्देशित फिल्म है, जिनकी अपनी ख्याति निर्देशक के रूप में रहस्य बुनने वाले प्रतिभाशाली फिल्मकार की रही है। फिल्म को सफल अन्त तक ले जाने में उनका निर्देशक गजब सफल होता है। कहा जाता है कि नासिर हुसैन इस फिल्म के नायक के रूप में देव आनंद को लेना चाहते थे मगर देव आनंद के ही परामर्श पर शम्मी कपूर को नायक लिया गया। नासिर हुसैन के साथ काम करने के अनुभव देव और शम्मी दोनों को बराबर के थे। आशा पारेख नासिर हुसैन की फिल्मों की पसन्दीदा नायिका थीं, जो यहाँ भी खूबसूरत और मासूम दिखायी देती हैं। यह राहुल देव बर्मन की भी पहली बड़ी सुपरहिट फिल्म थी। मजरूह सुल्तानपुर की लिखे, मोहम्मद रफी और आशा भोसले के गाये गाने सभी लोकप्रिय और सफल थे, ओ मेरे सोना रे सोना, ओ हसीना जुल्फों वाली, आजा आजा मैं हूँ प्यार तेरा और दीवाना मुझ सा नहीं को हम याद कर सकते हैं।

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