रविवार, 12 दिसंबर 2010

धराशायी फिल्मों का पखवाड़ा

बीता शुक्रवार भी ऐसी दो फिल्मों का रहा, जिनमें से एक बहुल सितारा फिल्म थी और दूसरी नये कलाकारों की मगर बड़े बैनर की। प्रभाव दोनों का ही निराशाजनक रहा। हालाँकि दोनों ही फिल्मों की स्थितियों में व्यापक अन्तर भी था। हम बात जाहिर है, नो प्रॉब्लम और बैण्ड बाजा बारात की कर रहे हैं। नो प्रॉब्लम को अनिल कपूर ने अपने बैनर पर बनाया था और अपनी तरह के उम्रदराज साथी कलाकारों, परेश रावल तो खैर ठीक है, चरित्र अभिनेता हैं, संजय दत्त और अक्षय खन्ना को साथ लिया था। अनीस बज्मी के बारे में कहा जाता है कि इस दौर की सतही कॉमेडी फिल्मों के तथाकथित पुरोधा निर्देशक हैं मगर यह फिल्म सुष्मिता सेन जैसी प्रौढ़ नायिकाओं के सौन्दर्यबोध के बावजूद न चली।

भोपाल शहर के सिनेमाघरों में इसकी ओपनिंग बड़ी निराशाजनक रही, शहर के दो सिनेमाघरों में खिड़कियाँ खुली थीं और मैदान खाली था। सप्ताहान्त भी उम्मीदजनक नहीं रह सका। दूसरी फिल्म बैण्ड बाजा बारात यश चोपड़ा के घराने की थी। अभिनेत्री अनुष्का एक-दो फिल्म कर चुकी है, नायक को भी छोटे-मोटे अनुभव हैं। विषय दिलचस्प है, प्रसंग अच्छे हैं और आज के वातावरण में मांगलिक कार्यों की अलग किस्म की दिखायी देने वाली चमचमाहट के बीच दो बेरोजगार युवा किस्म तरह अपनी ऊर्जा का रचनात्मक इस्तेमाल करते हैं, यह इस फिल्म के मूल में था। मगर नामी चेहरों के अभाव में यह अच्छी फिल्म भी अपने अंजाम तक नहीं पहुँच सकी। आशुतोष गोवारीकर की फिल्म खेलें हम जी जान से की स्थिति भी बुरी हुई। उसको नोटिस नहीं लिया गया जबकि वह स्वातंत्र्य आन्दोलन से एक कहानी, एक सच्ची घटना लेकर बनायी गयी थी।

आशुतोष के बारे में यह बात बहुत स्पष्ट और सच है कि वे गम्भीरता से फिल्में बनाते हैं। हम लगान, स्वदेस, जोधा अकबर और खेलें हम जी जान से जैसी चार विविध फिल्मों की आयामीयता पर निगाह डालें तो दिखायी देता है कि अपने माध्यम के प्रति किसी तरह की अव्हेलना उनकी दृष्टि में दिखायी नहीं देती। एक चैनल ने कहा कि पा के निर्देशक आर. बाल्कि, खेले हम जी जान से को पूरी देख न सके और बीच में उठकर चले गये। उपसंहार यह कि फिल्म अच्छी नहीं बनी। खेलें हम जी जान से, एक गहन फिल्म है, वैसे दर्शक अब हमारे बीच नहीं हैं। सिनेमा बहुतेरों को अनुकरणीय इसलिए नहीं लगता क्योंकि अब वह प्रेरित करता नहीं है मगर अच्छी फिल्म की पहचान भी हमारे बीच से धीरे-धीरे जा रही है, यह इस दौर में साफ दिखायी देता है।

दिसम्बर, जैसी कि हम कुछेक बार चर्चा कर चुके हैं, साल का धीरे-धीरे व्यतीत होता महीना है। यह पहला पखवाड़ा सिनेमा के मान से निराशाजनक रहा है। बचे हुए समय में कोई धौल-धमाका होगा, इसकी उम्मीद भी व्यर्थ लगती है।

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