शनिवार, 27 अगस्त 2011

शकुन की मौत


इस अभिव्यक्ति को यह शीर्षक देते हुए भीतर से बहुत विचलन रहा है, मगर न जाने क्यों मुझे इसके अलावा कोई शीर्षक नहीं सूझ पा रहा है। मैं अपनी बात हो सकता है, इस टिप्पणी पर शकुन की बेटियाँ शीर्षक के साथ भी कह पाता पर वह इस शीर्षक से नाहक समझौता करना होता क्योंकि शकुन की मौत ही अन्तत: वह परिणाम है जिसने मुझे चार-पाँच दिन से निरन्तर परेशान कर रखा है।

वो शायद रात के चार बजे का समय होगा जब गहरी नींद से मुझे हिला-जगाकर मेरे बेटे सुमुख ने मुझे बताया कि पापा, शकुन नहीं रही है, अभी उसके भाई का फोन आया है। जागकर, जाग्रत होने के पहले की अवस्था में मैं उसका वाक्य सुनता हूँ, लेटे-लेटे, कोई उत्तर नहीं होता मेरे पास उसकी बात के जवाब में। उसके देखते-देखते ही पत्नी का आदेश बेटे को प्राप्त होता है, पापा के कमरे की बत्ती बन्द कर दो। वो ऐसा करके चला जाता है, फिर मैं उस अंधेरे में आँख मूँदने और सोने का उपक्रम करता हूँ। यह तो नहीं कहता कि सुबह तक सो नहीं पाया, हाँ पता नहीं, कब सो गया फिर सुबह आठ बजे नींद खुली। उस वक्त ही बाकी बातें भी पता चलीं कि उसका भाई उसको बड़ी बहन के यहाँ ले गया है, वहीं से उसे ले जाया जायेगा। यह भी बात पता चली कि उसकी दोनों बच्चियाँ बहन के पास ही हैं।

शकुन हमारे यहाँ काम करने वाली बाई का नाम था। खानदेश के किसी गाँव से बरसों पहले वो यहाँ आयी थी। दस-बारह साल पहले उसने हमारे यहाँ बरतन माँझने का काम शुरू किया था, तब से वो बीच के दो-चार सालों को छोडक़र लगातार काम करती रही। शकुन सुबह भीतर के आँगन में बरतन माँझा करती थी। उसके आने का वक्त और मेरे उठने का वक्त लगभग एक ही हुआ करता। घर से काम करने के बाद फिर वो लोक निर्माण विभाग के मेन्टिनेंस ऑफिस में वहाँ के सब-इन्जीनियर साहब के बंगले पर काम करने जाया करती थी।

सुबह जब वो बरतन साफ किया करती, तब मैं आँगन में ब्रश कर रहा होता था, दाढ़ी बनाने का काम भी आँगन में ही शीशे के सामने। शकुन अपने आपमें बहुत दुखी, निश्छल और साफ मन की औरत थी। शायद चार-सवा चार फीट कद रहा होगा उसका, एकदम टिंगू सी और रंग स्याह काला। बड़ी सी बाल्टी भरकर वो टंकी से बरतन धोने के लिए पानी निकालती। आधा-पौन घण्टे उसका काम चलता, फिर चली जाती।

काम करते हुए उसकी अक्सर पत्नी से बातचीत चला करती, कभी बरतन ठीक से साफ न करने को लेकर, कभी बिना बताये न आने को लेकर मगर इसमें शकुन के तर्क और जवाब भी जारी रहते, कभी-कभी या अक्सर दिलचस्प और निडर से जवाब। बेपहरवाह उत्तर। फिर इसी बीच यह भी होता कि चाय बन गयी है, उठा ले जा शकुन पी ले या जाते हुए खाने की फलाँ चीज लेते जाना। मुझे वो भैया कहा करती थी। मुझे बताया गया था कि शकुन की तीन लड़कियाँ हैं। जब उसकी तीसरी लडक़ी का जन्म हुआ था, तभी उसका पति दुर्घटनाग्रस्त होकर इस दुनिया से चला गया था। दस-बारह साल की बड़ी बेटी दादी के पास रहती है, इससे बोलती-बताती नहीं। दो छोटी बेटियाँ एक छ: साल और एक चार साल की, वो इसके साथ झुग्गी में रहा करती थीं।

शकुन से उसकी बड़ी बेटी के बारे में पूछो तो वह बताती थी, भैया, वो मेर कू नई मिलती, मारपीट करती है, जब आती है। यई दो बच्चियों को सम्हालती हूँ मइ। शाम के वक्त शकुन को आते-आते झुटपुटा हो जाता, उस वक्त वो अपनी दोनों नन्हीं बेटियों को साथ लाती, एकदम साँवली सी, अच्छी सी आँखें और उनको देखो तो एकदम मुस्करा दें दोनों। जब तक शकुन बरतन माँझती, वे चौके में बैठी रहतीं, कुछ खाने को दिया जाता तो खातीं, आपस में झगड़तीं भी कई बार।

शकुन ने एक बार मुझे बताया था कि उसको एक झुग्गी का पट्टा बाग मुगलिया के पास मिला था लेकिन पड़ोसी ने उस पर कब्जा कर लिया है और उसको मारकर भगा दिया। शकुन चाहती थी कि मैं कुछ कार्रवाई करूँ। एक बार मैंने अपने एक परिचित सहायक उप निरीक्षक को भी उसके साथ भेजा था, एक बार जन सुनवाई के दौरान कलेक्टर को अपने मित्र के जरिए आवेदन भी दिलवाया था, लेकिन कमजोर और निरीह शकुन को जीते-जी न्याय नहीं मिल पाया। पता नहीं काईवाइयाँ किस दशा में होंगी और इस जरा सी औरत का दमन करके पड़ोसी ने उस जगह पर अपनी दीवारें खड़ीं कर लीं। अक्सर शकुन शाम को मुझसे पूछा करती, भैया मेरे काम का क्या हुआ? मैं उससे यही कहता, चिन्ता मत करो, जल्दी कुछ न कुछ होगा। वो निरुत्तर चली जाती मगर मुझे लगता था कि वो सोचती होगी, कि भैया के बस का कुछ भी नहीं है।

दो महीने पहले ही घर में बच्चों ने बताया कि शकुन को तो गम्भीर बीमारी है। मैंने पत्नी को कहा कि शकुन को हमारे अपने वरिष्ठ डॉक्टर साहब को दिखाकर लायें। जब दिखाकर लाया गया तो मालूम हुआ कि उसकी दोनों किडनी खराब हो चुकी हैं। ज्यादा दिन जी नहीं पायेगी। डॉक्टर साहब ने पन्द्रह दिन के अन्तर से एक इन्जेक्शन लिखा था, वह उसको लगवा दिया था। गैस राहत अस्पताल का उसका कार्ड था, जहाँ वो जाती थी तो अक्सर यहाँ जाओ, वहाँ जाओ करके उसको चलता कर दिया जाता था।

कुछ दिन पहले वो फिर जब चार-पाँच दिन नहीं आयी और एक तारीख नजदीक आयी तो मैंने उसकी तनख्वाह के साथ पत्नी को उसके घर भेजा था। मालूम हुआ, अस्पताल में भर्ती है, तबीयत ज्यादा खराब है। मैंने घर में कहा कि एक हजार रुपये ले जाकर उसको दो और हालचाल लो। लौटकर जो बात मालूम पड़ी उसने व्याकुल कर दिया। शकुन, पत्नी से लिपटकर रो पड़ी थी। कह रही थी, अब मैं बच नहीं पाऊँगी। मेरे बाद मेरी बच्चियों का क्या होगा?

यही आखिरी के दो-तीन वाक्यों के साथ मैं शकुन के बारे में सोचा करता था। समय इतना संकुचित हो गया था कि कुछ किया नहीं जा सकता था। क्षमता तो थी ही नहीं कि उस बेचारी को दूसरी किडनी मिल जाती। मुझे लगता था कि कभी भी शकुन को लेकर कोई बुरी खबर आ जायेगी। उसका भाई उसके पास था, दवा का इन्तजाम, खून का इन्तजाम। उस रात उसको खून चढ़ाया जा रहा था, जब लगभग तीन-साढ़े तीन बजे उसने अन्तिम साँस ली। शकुन की मरते समय उम्र पैंतालीस से ज्यादा नहीं रही होगी।

मैं सोचता था, सब करम हो गये इस दुखिया के, जरा सी जिन्दगी में। शकुन का ध्यान अक्सर आ जाया करता है, जाते हुए उसका मेरी मेज के पास खड़े होकर पूछना, भैया, मेरे काम का क्या हुआ? चौके मे बैठी अपनी माँ को काम करते देखतीं, उसके काम पूरा होने का इन्तजार करती उसकी बेटियाँ। शकुन की मौत इस दारुण समय का एक त्रासद उदाहरण है। हो सकता है, इतनी भयानक शारीरिक व्याधियों के साथ उसका जीना दिनों-दिन दुरूह होता मगर अब उन बच्चियों का क्या होगा? कितने दिन मौसी के पास रहेंगी, कितने दिन मामा फिक्र करेगा?

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