कई बार लगता है कि कुछ निर्देशक दक्षिण की सफल फिल्मों को हिन्दी में बनाकर भी कुछ खास किस्म की समझदारी करना नहीं भूलते, वही समझदारी उनको बाॅक्स आॅफिस पर भी निहाल कर दिया करती है। दरअसल दक्षिण की फिल्मों का एक्शन पक्ष इतना मजबूत और दर्शकों को खासे अचम्भे के साथ बांध कर रखने वाला होता है कि अगर पूरी की पूरी ही नकल कर दी जाये तो भी हम देखने वाले मुम्बइया एक्शन फिल्मों की परिपाटी या एकरसता से अलग कुछ दिलचस्प देख लेते हैं।
गब्बर इज़ बैक बनाते हुए निर्देशक कृष ने यथासम्भव यही किया है। यह निर्माता संजय लीला भंसाली की फिल्म है जिसमें उनके द्वारा निर्मित पिछली फिल्म राओडी राठौर के ही नायक अक्षय कुमार दोहराये गये हैं। अक्षय चुस्त और फुर्तीले एक्शन हीरो हैं और तमाम समय से एकरस होने के बावजूद भी बुरे नहीं लगते लिहाजा यहाँ भी नायक प्रभावशाली है। संवेदना, प्रतिशोध और साहस-दुस्साहस के आधुनिक फलसफों के साथ इस फिल्म को देखकर दर्शक जाग्रत बना रहता है वरना सुला देने वाली फिल्में भी हमारे यहाँ कम नहीं आतीं।
सामाजिक बुराइयों, व्यवस्था की खामियों और भ्रष्टाचार के साथ-साथ खामियों के साथ नायक अप्रत्यक्ष रूप से एक दहशत खड़ी करके लड़ता है। ए आर मुरुगदौस (गजनी के निर्देशक) ने इस फिल्म की पटकथा लिखी है। कृष ने बारह वर्ष पहले दक्षिण में हिट हो चुकी इस फिल्म का मुम्बइयाकरण नहीं किया और यथासम्भव जस का तस प्रस्तुत कर दिया है। माहौल और कहानी के लिए परिवेश जरूर मुम्बई और आसपास के जिले जिनके नाम सुनायी पड़ते हैं, रख लिया गया है। किस्सा एक बिल्डर के भ्रष्टाचार और ढह जाने वाली इमारत से सैकड़ों लोगों के साथ नायक के जीवन में भी हुए हादसे से कहानी आगे बढ़ती है। बिल्डर दुबई चला जाता है और उसका बेटा एक बड़ा निजी अस्पताल चलाकर मरीजों का शोषण करता है। नायक का बुराई और बुरों की सफाई के अभियान में ही खलनायक से नायक की दोबारा मुलाकात होती है। अस्पताल से याद आया, इस प्रायवेट अस्पताल में मुर्दे को भरती करके उसका इलाज करते रहने और पाँच लाख रुपए की फीस मांगने वाला प्रसंग खूब गढ़ा गया है।
रोमांचक और रोचक लड़ाई चलती है। पुलिस की भूमिका पूरी तरह हास्यास्पद बना दी गयी है। कण्ट्रोल रूम में बैठकर एक साथ चार-आठ पुलिस अधिकारी केवल मुखाग्र परम्परा में ही सारी चिन्ताएँ व्यक्त करते रहते हैं और गब्बर के कसीदे काढ़ा करते हैं। एक कान्स्टेबल ड्रायवर की भूमिका अच्छी है जो मुसीबत और व्यवस्था का मारा है, वह गब्बर को पकड़ने का बौद्धिक उपक्रम अकेले करता है। यह भूमिका सुनील ग्रोवर ने निभायी है, बखूबी। करीना अतिथि हैं। श्रुति हसन नायिका होकर भी नायक से अलग ही अन्य कामों में व्यस्त रहती हैं। जयदीप अहलावत मध्यान्तर के बाद आते हैं और अपने किरदार में उतर पाने के बजाय खीजे और बदहवास से पुलिस अधिकारी का किरदार निबाहते हैं।
यह फिल्म वास्तव में अक्षय कुमार के साथ गब्बर की पृष्ठभूमि में इस आन्दोलन से जुड़े छोटे-छोटे बहुत से कलाकारों के संजीदा काम से सधती है। फिल्म में नायक के साथ जो युवा और नैतिक रूप से मूल्यों पर अडिग रहने वाली युवा शक्ति काम करती है, वे नये और सहायक कलाकार फिल्म को सम्हालते हैं। फिल्म में दो-तीन गाने नजर आये, व्यर्थ के, सबसे ज्यादा व्यर्थ हो गयीं चित्रांगदा सिंह जिन्हें लगभग एक घटिया सा कैबरे करना पड़ा, अन्यथा सुधीर मिश्रा की फिल्म में वे यथासम्भव महत्व के किरदारों में आती थीं।
फिल्म का क्लायमेक्स अच्छा है, खासकर खलनायक सुमन तलवार को उन्हीं के मुखौटों वाली भीड़ के बीच से उठा ले जाने वाला सीन। सुमन तलवार को अच्छे से पेश भी किया गया है। दक्षिण की फिल्मों में खलनायक का प्रस्तुतिकरण भी प्रभावशाली होता है। मुम्बइया सिनेमा में खलनायक बड़ा दयनीय है।
आखिर में जरूर अक्षय कुमार का भाषण, दृष्टान्त की तरह हो गया है। फिल्म का अन्त, हीरो को होने वाली फाँसी की सजा से बड़े अरसे बाद किसी फिल्म में यह सन्देश लौटने की अच्छी घटना है कि कानून अपने हाथ में लेना, अपराध का सहारा लेकर अपराध से लड़ना भी गुनाह है, जितना बड़ा गुनाह उतनी बड़ी सजा, भले हीरो हो।
गब्बर को तीन सितारे देना चाहिए तथापि फिल्म जरा पन्द्रह मिनट और सम्पादित हो जाती तो और बेहतर होता...............
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