शुक्रवार, 8 मई 2015

पीकू देखते हुए.......

हमारी जिन्दगी का अतीत और व्यतीत अपने आपमें अनेक दृष्टिकोणों से किसी न किसी ऐसी कहानी का हिस्सा बन जाता है जिसका घटित होना यथार्थ होता है, उसको हमने अधूरा-पूरा जिया होता है। कभी जीवन में ऐसे अवसर भी आते हैं कि हम रचनात्मक जगत के सामने अपने अतीत और व्यतीत को बाँटने का अवसर पा लेते हैं। पीकू फिल्म की लेखिका जूही चतुर्वेदी ने भी इसी प्रभाव में इस फिल्म की पटकथा लिखी, निर्देशक शुजित सरकार ने इस पर यह फिल्म बनायी जो कि सचमुच एक दिलचस्प फिल्म है। व्यर्थ तार्किकता में न जायें तो इसे चार सितारे देकर सराह सकते हैं।

पीकू प्रथमतः लेखन (Juhi Chaturvedi), निर्देशक (Shoojit Sircar), छायांकन (Kamaljeet Negi) और दृश्य विभाजन की दृष्टि से एक दिलचस्प फिल्म है। उम्र अधिक हो जाने के बाद शारीरिक और वैयक्तिक स्तर पर अपने को असुरक्षित और अंदेशों में देखने वाले एक पिता की यह कहानी है। हमारे देश में शायद प्रत्येक मनुष्य किसी न किसी बिरादरी की पेट-व्याधि से ग्रसित है। इस फिल्म के मुख्य किरदार के साथ भी ऐसा ही है। बुढ़ापे में दवाइयों का जखीरा जिए रहने का हौसला दिए रहता है लेकिन भास्कर बैनर्जी को वेण्टिलेटर के त्रासद प्रयोगों की भी बखूबी जानकारी है जबकि उसका कोई अनुभव नहीं है। दर्शकों को लगातार गुदगुदाये रखने के लिए पेट से जुड़ी एक बड़ी असहजता साफ पाखाना न होना या बिल्कुल न होने को आधार बनाया गया है। फिल्म के प्रत्येक दृश्य पर इसी पर बैठक होती है जो कई बार सेमीनार की शक्ल भी ले लेती है।

निर्देशक ने लेखक के साथ मिलकर इस मूल चलाये रखने वाली हँसाऊ समस्या के साथ फिर कुछ संवेदनशील पक्षों को भी छुआ है। पुश्तैनी घर को लेकर मुख्य किरदार का लगाव और बेचैनी, बेटी के बगैर अपने जिये रहने को लेकर बना रहने वाला डर, सशंकित बने रहने और जिद्दी बचपने को बुजुर्ग परिपक्वता के साथ अपने आपमें बरतने की स्थितियों के बाद भी फिल्म बहुत सारे मनस्पर्शी दृश्यों के साथ घटित होती है। इनमें विशेष रूप से अमिताभ बच्चन का कोलकाता में सायकिल लेकर निकल पड़ना और खूब घूमकर आनंदित होना बड़ा ही महत्वपूर्ण दृश्य है। इस दृश्य के वे वाकई कमाल करते हैं। सदैव व्यग्र बने रहने वाला, घर में ही बना रहने वाला, बिस्तर पर ही पड़े रहकर आराम को सब कुछ मान लेने वाला शख्स जब सायकिल पर अपनी स्मृतियों के शहर को देखता है, तब साहब कमाल ही होता है।

दीपिका पादुकोण ने एक ऐसी आधुनिक बेटी की भूमिका की है जो जीवन की स्वतंत्रता में विश्वास करती है, उस तरह का जीवन जीती है लेकिन अपने पिता को बहुत प्यार करती है। पिता की सदा बनी रहने वाली व्यग्रता ने उसको सारा रूमान छीनकर चिड़चिड़ा और खब्ती बना दिया है लेकिन दीपिका भी उस दृश्य में कमाल करती है जब एक रात पिता अचानक गम्भीर बीमार हो जाते हैं और वह सुबह देर से जागकर जान पाती है। पिता के हाथ के पास बैठकर बेटी की आँखें भर आना ऐसा ही दृश्य है। 

इरफान पीकू का तीसरा कोण हैं जो अपनी उपस्थिति के कुछेक दृश्यों के बाद अपनी जगह बना पाते हैं। ट्रेवल एजेंसी चलाने वाले पढ़े-लिखे व्यक्ति के रूप में परिचित होने के बहुत बाद जब किसी भी ड्रायवर के कोलकाता ट्रिप के लिए दीपिका के घर न पहुँच पाने पर खुद चल देना उनकी जगह को विस्तार देता है। फिर बाद में तो खैर उनकी प्रतिभा उनके खुद अपने चाहे सन्तुलन से अपनी जगह बना लेती है, निस्संदेह वे अच्छे लगते हैं और प्रभावित करते हैं।

मौसमी चटर्जी कुछेक शुरूआती फिल्मों में अमिताभ बच्चन की नायिका रही हैं। सात-आठ साल बाद हिन्दी फिल्मों में वे आयीं हैं मगर उनकी भूमिका कहानी को कुछेक स्मृतियों से बड़े साधारण ढंग से जोड़ती है, कोई प्रभाव नजर नहीं आता। भोपाल के बालेन्द्र सिंह, वरिष्ठ रंगकर्मी नाटककार को इस फिल्म में बुधन का किरदार मिला है जो भास्कर का पुराना नौकर है। वे बड़े कलाकारों के बीच बिना हतप्रभ हुए अपने दृश्य करते चले जाते हैं। 
फिल्म में एक यात्रा है, दिल्ली से कोलकाता तक, सड़क मार्ग से। इस यात्रा के दृश्य, प्रसंग अच्छे लगे हैं। मालिक के पाखाने की समस्या से संवेदित बुधन का कामनापूर्ण ढंग से भास्कर को यह कहना कि देख लेना मालिक एक दिन आपको अच्छे से पाखाना होगा, हँसाता है। अच्छे पाखाने की कामना भर से खुश हो जाने वाले मालिक के मुँह से यह निकलना कि उसके बाद तो मैं मर ही जाऊँगा, ही फिल्म का अन्त है। 

निर्देशक शुजित सरकार इस फिल्म को बहुत सहजता से बरतते हैं। दृश्य विधान फिल्म के यह बताते हैं कि उन पर मेहनत हुई है। इसका श्रेय अच्छे सम्पादन (Chandrashekhar Prajapati) को भी जाता है। अच्छी फिल्म अच्छी सराही जाये, उसको अच्छा बाजार मिले तो यह सुख भी शायद निर्देशक के लिए खुलकर पेट साफ होने जैसा होगा, माफ कीजिएगा, फिल्म के विषय से जुड़कर ही यह वाक्य सहज चला आया। बहरहाल एक अच्छी और देखने योग्य फिल्म..............

हाँ फिल्म में गाने हैं, अच्छे शब्द और संगीत संयोजन (Anupam Roy) के साथ लेकिन बात वही कि वे फिल्म का हिस्सा नहीं बन पाते।

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