शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

भजन से आयटम सांग तक

अभी की पीढ़ी हिन्दी सिनेमा में आयटम सांग को खूब जानने लगी है। आयटम सांग की अपनी परिभाषा होती है। उसकी किसी भी फिल्म में उपस्थिति प्राय: कहानी का हिस्सा नहीं होती। कई बार उसके कैरेक्टर भी बस केवल उतने ही काम के लिए होते हैं। अक्सर मंचीय प्रस्तुति में गम्भीरता को बोझिल की पराकाष्ठा तक जाते देख, निर्देशक या कहानीकार हास्य प्रसंग रचता है। कुछ मिनट के लिए एक-दो लोग आते हैं और कुछ चुटकुलेबाजी, कुछ जोकराई करके चले जाते हैं। तनाव के ऊपर फूहड़ता दाँत निपोरने लगती है और वातावरण हल्का हो जाता है। हँसी हॉल में गूंज उठती है, ताली बजती है, कहानी फिर आगे बढ़ जाती है।

इधर सिनेमा में यह चलन पिछले एक दशक में कुछ अलग ढंग से आया। जुझारू और काबिल निर्देशकों को लगा कि सिनेमा देखता दर्शक दूर पैदल की लम्बी बिना आराम की यात्रा का थका और लडख़ड़ाकर चलता इन्सान सा हो जाता है, क्यों न इसको ऐसे बगीचे से गुजारा जाये जहाँ के फूल देखकर वो गद्गद हो जाये मगर यह फूल उसे दूर से ही दिखाये जाएँ इस चेतावनी के साथ कि छूना और तोडऩा मना है। ऐसे में कोई महान आयटम सांग के पुरोधा आये और यह क्रान्ति चल निकली। एक-एक करके लोग अपनी प्रतिभा इसी में सिद्ध करते दिखायी दिए। दिलवालों के दिल का करार लूटने से लेकर कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना से होते हुए शीला की जवानी और इसक का मंजन तक खुराक बदहजमी से अफारे तक पहुँच गयी।

एक जमाना था जब हर अच्छी फिल्म में एक न एक भजन हुआ करता था। कहानी कुछ इस तरह से बुनी जाती थी कि फिल्म के नायक-नायिका, चरित्र अभिनेता या अन्य कलाकार कोई न कोई एक अच्छा गाना, आरती, भजन या अपनी मुसीबत को दूर करने वाली प्रार्थना के साथ मन्दिर में खड़े होकर कोई न कोई गीत गाते अवश्य थे। ऐसे भजन लोकप्रिय भी खूब हुए हैं। दुनिया में तेरा है बड़ा नाम, मन तड़पत हरि दर्शन को आज, पग पग ठोकर खाऊँ चल न पाऊँ कैसे आऊँ मैं दर तेरे, सत्यम शिवम सुन्दरम, शिरडी वाले साईं बाबा आदि कितने ही भजन और प्रार्थनाएँ हम यहाँ पर याद कर सकते हैं। अब ऐसे भजन, ऐसी प्रार्थनाएँ फिल्मों में एक भी दिखायी नहीं देतीं। पहले फिल्मों में हर तकलीफ में आया किरदार भगवान की शरण में जाता था। अब कलाकार को ऐसे रास्ते पर जाने की फुर्सत भी नहीं है।

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