बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

अच्छे फिल्मकारों के खराब काम

एक अखबार में पढ़ा कि मधुर भण्डारकर को दिल तो बच्चा है जी बनाते हुए कोई खास परेशानी नहीं हुई। वे इसी बात को लेकर सन्तुष्ट रहे कि कम लागत में फिल्म बना लिया करता हूँ और अधिक सा मुनाफा हो जाया करता है। दिल तो बच्चा है जी उनकी एक दृष्टिसम्मत असावधानी हो सकती है ये वे नहीं मानते। उन्हे भी कम खर्च से आने वाला ज्यादा मुनाफा सुहाता है। दरअसल अच्छे फिल्मकार के रूप में जगह बना लेने के बाद किया जाने वाला खराब काम कितनी फजीहत का सबब बनता है, इसके बारे में सोचने की फुरसत ऐसे फिल्मकारों को नहीं रहती होगी। बेचने वाले की छबि के मोल पर खराब सामान का बिक जाना वास्तव में बड़ा दुर्र्भाग्यपूर्ण है। फिल्मकार नहीं जानते कि वे दर्शक को छला करते हैं इस तरह और अपना भरोसा कम करते जाते हैं।

कभी-कभी अच्छे फिल्मकारों का खराब प्रमाणित या घोषित हुआ काम संजीदा दर्शकों को ज्यादा तीव्रता के साथ आकर्षित करता है। विफलता, बाजार हारने की स्थितियों पर ही नहीं आँकी जाती। अपने वक्त में बासु भट्टाचार्य की फिल्म तीसरी कसम और कमाल अमरोही की फिल्म पाकीजा भी व्यावसायिक रूप से बड़ी हानि का शिकार हुई थीं लेकिन बाद में दर्शकों ने इन फिल्मों के मर्म को जाना और ज्यादा शिद्दत से उसको देखकर अपने ही निर्णय को बदल दिया। केवल पाकीजा या तीसरी कसम ही इस बात के उदाहरण नहीं हैं। राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर को देखने का मोहसंवरण आज भी दर्शक नहीं कर पाते जबकि प्रदर्शन के वक्त इस फिल्म के आर्थिक परिणामों ने शोमैन को सबसे ज्यादा व्यथित किया था।

पाँचवें से लेकर सातवें दशक तक हिन्दी सिनेमा में मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई के निर्माण घरानों ने पूँजी लगाकर, अच्छे निर्देशकों का चयन करके श्रेष्ठ फिल्मों का निर्माण किया था। फिल्मिस्तान, जेमिनी, प्रसाद, बॉम्बे टॉकीज, प्रभात, राजकमल आदि घरानों ने श्रेष्ठ और उत्कृष्ट सिनेमा के इतिहास रचे हैं। इनके माध्यम से सफल फिल्में भी आयीं और ऐसी भी जो टिकिट खिडक़ी पर चल नहीं सकीं। मगर बाद में दर्शकों ने ऐसी फिल्मों के पुनरावलोकन में कथ्य और अभिव्यक्ति के साथ-साथ दृष्टि-मर्म को भी जाना। मेहबूब खान से लेकर के. आसिफ तक, शशधर मुखर्जी से लेकर बिमल राय तक की फिल्मों में नरम फिल्में शामिल हैं।

हमें कभी-कभी गुजारिश जैसी फिल्मों को भी संजीदगी से देखने का साहस जुटाना चाहिए। गुजारिश जैसी फिल्म दर्शक से धीरज और तहजीब की भी मांग करती है, जो कि उसकी संवेदना और मर्म तक पहुँचने के लिए अपरिहार्य भी है। हाँ, सचमुच, जो बुरी फिल्में होने के लायक हैं, उनको बख्शना नहीं चाहिए।

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