शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

इन्साफ का मन्दिर है ये.. .. ..

स्वर्गीय मेहबूब खान की एक फिल्म अमर की चर्चा इस रविवार कर रहे हैं जिसका प्रदर्शन काल 1954 का है। अब से लगभग छप्पन साल पुरानी यह फिल्म अन्तरात्मा को झकझोरने और अपराधबोध को अपने भीतर एक चरम तक जीकर अन्तत: स्वीकार के उपसंहार पर एक प्रायश्चित पर जाने की प्रभावी कथा है, जो आपको शुरू से अन्त तक बांधे रखती है और संवेदनशील दर्शक की कई बार आँखें नम करती है।
यह कहानी एक ऐसे वकील की है जिसके प्रखर व्यक्तित्व और तार्किक दृष्टि की अपनी प्रसिद्धि है। उसका विवाह होने को है। अनजाने ही उसके जीवन में एक गरीब लडक़ी आती है जो अपने चंचल और निष्कलुष स्वभाव में भी परस्पर आकर्षण की स्थितियाँ निर्मित करती है। वकील अमर, इस लडक़ी सोनिया के सम्मोहन का हल्का प्रभाव अपने जीवन में महसूस करता है लेकिन शायद यहाँ प्रेम नहीं है। एक रात अमर को अपने पिता की मृत्यु का तार मिलता है, इस घटना के समय ही सोनिया उसके घर मुसीबत से बचते हुए पहुँचती है। अवसाद से भरे अमर के सामने सोनिया की उपस्थिति, कडक़ड़ाती बिजली और तूफान एक दुर्घटना के साथ शान्त होता है।

अमर गहरे अपराधबोध को जी रहा है। अंजु से उसका विवाह होने वाला है। वह उसे सब बता देना चाहता है मगर सम्भव नहीं है। वह झूठ और भरोसे के द्वन्द्व में जी रहा है। इधर बस्ती का एक गुण्डा संकट, सोनिया से शादी करना चाहता है। सोनिया उसे पसन्द नहीं करती मगर वह सोनिया को धमकाया करता है। अचानक एक दिन पता चलता है कि सोनिया गर्भवती है और माँ बनने वाली है। गर्भवती होने की खबर गाँव में सबको है पर बच्चा किसका है, यह किसी को नहीं पता।

एक दिन संकट सब जान जाता है और अमर को मार डालना चाहता है। दोनों में झूमाझटकी होती है और संकट, खुद अपने चाकू पर गिरकर मर जाता है। संकट के सीने से चाकू खींचते हुए सोनिया गाँव वालों द्वारा देख ली जाती है। अदालत में सोनिया पर मुकदमा चलता है। अमर की अन्तरात्मा उसे हिलाकर रख देती है, आखिर वह सोनिया की पैरवी करता है। अदालत में गीता की कसम खाकर वह स्वीकार करता है कि वह सोनिया के बच्चे का पिता है, संकट उसके साथ लड़ाई में मरा और सोनिया निर्दोष है।

अमर, दिलीप कुमार, सोनिया, निम्मी और अंजु मधुबाला, इन तीना किरदारों में यह फिल्म नैतिकता और मूल्यों के अन्तद्र्वन्द्व में नियति और अभिव्यक्ति के अनूठे मानकों का स्पर्श करती है। दिलीप कुमार और निम्मी का अभिनय बांधे रखता है। फिल्म में गाने खूब हैं और एक गाना, जिस पर फिल्म की बुनियाद टिकी है, इन्साफ का मन्दिर है ये, भगवान का घर है, पूरी फिल्म में अलग-अलग अन्तरे में कई बार आता है, कहानी के साथ यह गाना देखने वाले के रोम-रोम को स्फुरित कर देता है। गहरा दर्शन है इसमें।

कमाल है, मेहबूब की फिल्म, शकील बदायूँनी का यह गीत, नौशाद का संगीत और रफी साहब की आवाज। गाना ऐसा समरस कि सुनते हुए देह के विकार भीतर से हमें प्रताडि़त करते महसूस हों।

कोई टिप्पणी नहीं: