मंगलवार, 12 अक्तूबर 2010

दूर का राही किशोर कुमार

13 अक्टूबर स्वर्गीय किशोर कुमार की पुण्यतिथि है। आज के दिन उनका जन्म स्थान, मध्यप्रदेश का खण्डवा शहर बहुत भावुक होता है क्योंकि इसी शाम देश-दुनिया के साथ-साथ शहर को भी उनके नहीं रहने की सूचना तकरीबन चौबीस साल पहले मिली थी। देश-दुनिया के साथ-साथ शहर को भी तभी यह भी मालूम हुआ था कि अगले दिन पार्थिव शरीर खण्डवा लाया जा रहा है, किशोर कुमार की अन्तिम इच्छा को अपरिहार्य आदेश मानकर उनके परिजनों द्वारा। खण्डवा में ही अन्तिम संस्कार के लिए। यह उनकी वसीयत थी।

खण्डवा में ही जन्मे और खण्डवा की ही जमीन पर मिट्टी बनकर मिल गये। किशोर कुमार का निधन जिस दिन हुआ, वही दिन उनके बड़े भाई अशोक कुमार के जन्म का भी था। अपने छोटे भाई के छोडक़र चले जाने से व्यथित, बीमार और बुजुर्ग अशोक कुमार जार-जार रोए। जब तक अशोक कुमार जिए, उनके लिए 13 अक्टूबर जन्मदिन के बजाय अवसाद का दिन बना रहा।

यह कितना कठिन और विरोधाभासी एहसास है कि कुंजीलाल गांगुली के तीनों बेटों की सार्वजनिक छबि, जाहिर है, वे सिनेमा की दुनिया के चिर-परिचित चेहरे हो गये थे, बहुत ही हँसमुख, मस्त और जिन्दगी को आसमान तक विस्तीर्ण ऊँचाइयों तक ले जाकर जमकर बिखेर देने वाली ही बनी रही। परदे पर सभी प्राय-प्राय: कॉमेडी में खूब असरदार ढंग से हम सबके दिमाग में घुस-घुसू जाया करते थे, ऐसे में हमें कभी उनकी संवेदनशीलता की पहचान करने के अवसर नहीं मिले।

उनकी फिल्में देखने वाले तमाम दर्शक तीनों को ही ऊपरी तौर पर ही जानते रहे। अशोक कुमार बेहद सफल और प्रभावशाली थे, किशोर कुमार अपने भाई की छत्रछाया से जल्दी ही अलग होकर आत्मनिर्भर हो गये थे, एक सफल गायक के रूप में। अनूप कुमार कमतर और कमजोर थे मगर उनमें हीन भावना बिल्कुल नहीं थी। वे अपने किरदार के साथ, भले ही वो कितना छोटा ही क्यों न हो, बड़े आश्वस्त होकर सहभागी हुआ करते थे।

किशोर कुमार अपनी आत्मा और चपलता के साथ भीतर से लगभग स्पार्क हुआ करते थे, लिहाजा उन्होंने सिनेमा के गायन के अलावा अन्य माध्यमों में भी अपने हाथ-पाँव झटक कर फैलाये। उन्होंने स्वयं नौ फिल्में बनायीं। दसवीं ममता की छाँव में बनाना रह गया, जिसे वे आरम्भ करने चले थे लेकिन उन नौ फिल्मों झुमरू, दूर गगन की छाँव में, हम दो डाकू, दूर का राही, जमीन आसमान, बढ़ती का नाम दाढ़ी, शाबास डैडी, चलती का नाम जिन्दगी और दूर वादियों में कहीं के नामों पर नजर डालें तो कुछ शब्द साम्य दिखायी देते हैं। छाँव, दो बार है, बढ़ती और चलती है और सबसे विशेष तीन बार, दूर है, दूर गगन की छाँव में, दूर का राही और दूर वादियों में कहीं।

किशोर कुमार का कहीं बहुत दूर देखने और इस दूर से जीवन के पर्याय की तलाश के दार्शनिक पहलू शायद ही कोई समझ पाया हो। बहुत दूर चले गये किशोर कुमार शायद उसका पर्याय पा गये हों.....।

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