शनिवार, 30 अक्तूबर 2010

दूर का राही किशोर कुमार

किशोर कुमार द्वारा निर्मित और निर्देशित फिल्में जैसे दूर गगन की छाँव में या दूर का राही दुर्लभ थीं। अच्छी खबर यह कि दोनों ही फिल्में एक कम्पनी ने पिछले दिनों जारी कीं जिसमें से एक दूर गगन की छाँव में पर एक रविवार हम बात कर चुके हैं। दूर का राही पर इस बार बात करते हैं।

1971 में आयी, दूर का राही की शुरूआत, बर्फीले पहाड़ों में दूर से एक बुजुर्ग आदमी चला आ रहा है। लांग शॉट का यह दृश्य धीरे-धीरे हमारी नजर होता है। हम पहचानते हैं कि कुछ-कुछ सान्ताक्लाज के गेटअप में किशोर कुमार हैं। चलते-चलते, हाँफते-हाँफते गिर पड़ते हैं। कैमरा चेहरे पर होता है। आँखें कुछ भीगी सी दिखायी देती हैं। किरदार फ्लैश बैक में जाता है। एक नौजवान को एक बस्ती में देखते हैं। एक घर के सामने से निकलता है तो बाहर बैठा एक बुजुर्ग उसे तमाम दुआएँ देता है, उसके कल्याणकारी कामों के लिए। यह फिल्म का नायक है। किशोर कुमार ने यह भूमिका निभायी है।

मेरे बाप के, बाप के, बाप के, बाप के, बाप के, बाप के, बाप हमारे........नायक ने यह दिलचस्प वाक्य बस्ती के बच्चों को पाठ की तरह पढ़ाया हुआ है। बच्चे नायक को घेर लेते हैं, सुनाने की कोशिश करते हैं मगर जल्दी बोलना कठिन है, तब नायक बोलता है। एक निर्लिप्त किस्म का इन्सान है जिसे दुनिया की निन्दा, स्वार्थ, छल, कपट, धूर्तता आदि से कुछ भी लेना-देना नहीं है। वह अपने जीवन में सबको खुशी देने, सबके साथ कंधे से कंधा मिलाकर खड़ा होने और सबसे अपनापन स्थापित करने आया है। वह एक भाई जैसे मित्र के घर जाता है, उसकी मुसीबत में रक्षा करता है, एक अकेले और दुखी परिवार में जाता है, वहाँ अपनापन स्थापित करता है। फिल्म के क्लायमेक्स में एक स्थिति ऐसी बनती है जब पति को खो चुकी वैधव्य जीवन व्यतीत कर रही नायिका के लिए उसके ससुर विवाह के लिए अनुरोध करते हैं मगर नायक वहाँ भी यह बात बताता है कि अपने जीवन में उसका ठहराव कहीं नहीं है।

दूर का राही की दृश्यावलियाँ खूबसूरत हैं। सब तरफ पहाड़, वीराना और एक घर, जीवन, परिवार...। बड़ी गम्भीरता से सोचने को जी चाहता है कि क्यों भला खिलन्दड़ छबि के इस हरफनमौला ने इतनी संवेदनशील फिल्में बनायीं? दूर का राही, दूर वादियों में कहीं, दूर गगन की छाँव में फिल्मों में दूर शब्द के इस्तेमाल के गहरे निहितार्थ लगते हैं। एक गाना है, बेकरारे दिल, तू गाये जा, खुशियों से भरे वो तराने, जिन्हें सुन के दुनिया झूम उठे, और झूम उठे दिल दीवाने...अशोक कुमार और तनूजा पर फिल्माया गया है, मन में ऐसा बैठता है कि आसानी से निकलना मुश्किल।

अन्तिम दृश्य में नायक यादों में देखता है, मन्दिर में पड़ा रोता-बिलखता बच्चा, कुछ साधु उसकी परवरिश करते हैं। अच्छा ज्ञान और शिक्षा देते हैं। पिता सा स्नेह देने वाला साधु मृत्युशैया पर इस बच्चे को जो सीख देकर जाता है, जीवन पर वहीं निबाहता है यह नायक। सचमुच अनूठी फिल्म।

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