मंगलवार, 19 अक्तूबर 2010

एक्शन और आतिशबाजियों का साम्य

पटाखे सैद्धांतिक रूप से अपने रंग और तरीके से छोड़े-छुटाए जाते हैं। जिस तरह का अवसर होता है, वातावरण भी अपने आपको उसी के अनुकूल ढाल लिया करता है। मनोरंजन के तमाम साधन उसी के अनुरूप अपनी दिशा तय करते हैं। इसकी तैयारियाँ हालाँकि बहुत पहले से की जाती हैं मगर सही वक्त पर सही परिवेश रचने के अपने लाभ और लोकप्रियताएँ भी हैं। यों तो हमारे सिनेमा में साल भर आतिशबाजियाँ चला करती हैं। बदमाशों और उनके अड्डे पर ही गोला-बारूद और माल-असबाब नहीं होता, हीरो भी उनसे निबटने के लिए इस तरह की तैयारियाँ करके रखता है। आखिर उसे जीतना है और दर्शकों की तालियाँ भी अपने सरवाइव के लिए उसको चाहिए। ऐसे में ढाई घण्टे की फिल्म पटाखों और धमाकों का एक खास पर्याय बनकर सामने आती है।

कुछ समय पहले ही प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में बम, पिस्तौल, धमाकों की इफरात हमने देखी थी। यह फिल्म वास्तव में एक समानान्तर आतिशबाजी ही थी। हर किरदार आग में जल रहा था और एक-दूसरे पर पटाखा बनकर फट पडऩे के लिए अमादा था। इस फिल्म ने अच्छा-खासा व्यवसाय करके उस बीच के अन्तर को पाटने का काम किया जहाँ लम्बे समय से कोई एक्शन फिल्म ढंग की नहीं आयी थी और न ही सफल हो पायी थी। इधर दशहरा, दीपावली की बेला पर एक बार फिर एक्शन फिल्मों की आमद हो चली है। प्रियदर्शन की आक्रोश और मणिशंकर की नॉक आउट ताजा उदाहरण हैं। इनमें आक्रोश को ज्यादा पसन्द किया गया है और नॉक आउट को जरा कम मगर धाँय-धाँय वहाँ की भी दर्शकों को भा रही है। मौसम के अनुकूल बनने वाले दर्शकों के मनोविज्ञान को समझने वाले निर्देशक-निर्माता खूब मुनाफे में रहते हैं।

दीपावली के मौसम में बोतल में रॉकेट लगाकर आसमान तक उड़ाने वाले दर्शक को इसी सीमित समय में धूम-धड़ाका खूब सुहाता है। पटाखों की आवाजें कमजोर मन के लोगों का भले ही दिल दहला दें मगर आँख मिचकाकर, दिल थामकर भी वो धमाके का आनंद लेता है। साल पूरा होने में दो महीने से कुछ ज्यादा समय शेष है, इधर इस बचे समय में तीन-चार फूहड़ कॉमेडी, कुछेक एक्शन फिल्में और दो-तीन अच्छी फिल्में दर्शकों तक पहुँचेंगी, यदि घोषित तिथियों में उनका प्रदर्शित होना सम्भव हो सके। आमिर खान की धोबी घाट, टिगमांशु धूलिया की पान सिंह तोमर, फराह खान की तीस मार खाँ और संजय लीला भंसाली की गुजारिश से अच्छी उम्मीदें हैं।

सिनेमा के मान से साल के उत्तरार्ध को हम जरा अच्छा मान सकते हैं। इस दौर में कुछ अच्छी फिल्मेें आयी हैं और आयेंगी। आज के दौर में किसी भी निर्देशक से शोले जैसी यादगार आतिशबाजी की अपेक्षा करना तो व्यर्थ है, भेड़चाल की महाभीड़ में दर्शकों, आपकी मेहनत की कमाई के बदले जो ढंग का मिल जाये, वही बहुत मानिए।

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