शनिवार, 24 मार्च 2012

सप्रे संग्रहालय एक जीवन दृष्टि का साकार स्वरूप है



योगदान शब्द जीवन की सार्थकता के साथ जुड़ा होता है। योगदान करने के लिए अपनी क्षमताओं के बड़े विस्तार की आवश्यकता होती है। कुछ भीतर की बेचैनी होती है और कुछ छटपटाहट। एक सीमित आवृत्ति से बाहर जाकर रचनात्मक चेष्टा करना, एक राह बनाना, कोई साथ चले, न चले, खुद आगे बढ़कर अपनी ही चुनौतियों से जूझना और सम्भावनाओं को तलाश करना, ये सभी ऐसी कठिन प्रक्रियाएँ हंै जिनमें बहुत सारे ठहराव, सकारात्मक-नकारात्मक स्थितियाँ और उन सबमें अपनी निरन्तर, एक तरह से परीक्षा देते रहना वह भी परिणाम की परवाह किए बगैर, श्रीधर जी जैसे व्यक्तित्वों से ही सम्भव होता है। हम अपने नजदीक श्रीधर जी को देखते हैं, वर्षों से देखते रहे हैं, इसीलिए अपने संज्ञान में उनको प्रमुखता से देखते हैं। श्रीधर जी को श्रीधर जी भी नहीं, भाई साहब कहा है अतः उनका पूरा नाम लिखना धृष्टता लगता है। यह टिप्पणी जिस अभिनन्दन ग्रन्थ के लिए लिखने का सौभाग्य मिला है, उसमें उनका पूरा नाम कई जगत प्रकाशित होगा, लिहाजा पाठक को कोई तकलीफ नहीं होगी और मेरी मर्यादा भी भंग नहीं होगी।

श्रीधर जी को पद्मश्री घोषित होने की घोषणा ने मुझे बड़ी आत्मिक खुशी दी है, जिसे मैंने बिना देर किए उनसे व्यक्त किया था फोन पर पर मुझ जैसे साधारण व्यक्ति को भी अनुज सी आत्मीयता देने वाले भाई साहब ने उसी आत्मीयता के वशीभूत मेरी बात खारिज करते हुए तत्काल यह कहा था, ऐसे नहीं, घर आकर...........। उनकी खूबी है, जिसे अपनाते हैं, उससे उसी धरातल पर निबाहते हैं, किसी भी वक्त औपचारिक नहीं होते। उनका अनौपचारिक होना, दरअसल भीतर-बाहर एक लाजवाब इन्सान होना है, ऐसा लाजवाब इन्सान जिसकी पहचान हमारे आसपास अब बहुत कम हो गयी है।

निश्चित रूप से अब तक पच्चीस साल हो गये होंगे, श्रीधर जी के सम्पर्क में आये हुए। निश्चित रूप से सृजनात्मक लेखन और फिर विशेष रूप से कला-संस्कृति-साहित्य के क्षेत्र में लिखने के रुझान को सबसे पहले नईदुनिया अखबार में मदन मोहन जोशी जी ने प्रोत्साहन प्रदान किया था। 1987-88 में नईदुनिया इन्दौर से प्रकाशित होता था। तीसरे पेज की तैयारी प्रोफेसर्स काॅलोनी स्थित आॅफिस से होती थी। जोशी जी वहीं ब्यूरो प्रमुख थे जो बाद में इसी अखबार के भोपाल संस्करण के सम्पादक भी बने। नईदुनिया में दो वर्ष लिखने के बाद वहाँ दूसरे समीक्षक के जुड़ जाने के पश्चात मैंने नवभारत में अपने लिए सम्भावनाएँ तलाशनी चाहीं। श्रीधर जी उस समय नवभारत समाचार टीम के प्रमुख थे। मेरी नौकरी भी भारत भवन में उस समय शुरू हुई थी। एक दिन वहीं से दोपहर फोन करके उन्हें अपना परिचय देते हुए मैंने बताया कि मैं नईदुनिया में लिखता रहा हूँ। इन दिनों नहीं लिख रहा हूँ। अवसर मिले तो आपके साथ जुड़ना चाहता हूँ। श्रीधर जी ने तत्काल कह दिया, हम तलाश में ही थे कि कोई हमारे लिए यह काम कर दिया करे, तुम शुरू कर दो अभी से ही। उस समय भारत भवन में जयशंकर प्रसाद पर एकाग्र तीन दिवसीय आयोजन विभावरी हो रहा था। मैंने उस पर एक समग्र टिप्पणी लिखी जिसे उन्होंने दो दिन बाद ही सम्पादकीय पेज पर प्रकाशित किया। मेरे लिए यह सुखद अचम्भा था। फिर यही होता रहा कि आयोजन चलते रहे। मैं अपनी टिप्पणी भेज दिया करता, दूसरे दिन वो प्रकाशित हो जाया करती। 

फोन पर उनसे क्या भेजा, मिला कि नहीं, छप गया या छप रहा है, यह बात हो जाया करती थी। तीन-चार माह बाद एक दिन उन्होंने फोन पर ही कहा, एक दिन आकर मिलो, कई समीक्षाएँ छप गयीं, उनका मानदेय ले जाना। तभी उन्होंने यह भी बताया था कि दोपहर में ग्यारह बजे से कुछ समय हम किलोल पार्क के पास आचार्य नरेन्द्र देव पुस्तकालय के ऊपर सप्रे संग्रहालय में मिलते हैं। सप्रे संग्रहालय इस तरह भारत भवन के नजदीक ही था। एक दिन मिलने गया और फिर एक सिलसिला ऐसा बना कि उनके साथ ही नवभारत से जुड़ गया जहाँ नियमित रूप से कला समीक्षक के रूप में कार्य तो किया ही, चर्चा और परामर्श के साथ खुलकर काम करने के अवसर और आजादी के रूप मंे पहले सप्ताह में एक बार कला-संस्कृति के पेज का सम्पादन, शनिवार को सिनेमा के परिशिष्ट का सम्पादन और बाद में रविवारीय परिशिष्ट का सम्पादन भी किया। यह सब काम श्रीधर जी के वहाँ सम्पादक होने तक बढ़ते और स्वतंत्रतापूर्वक करने को मिले। नवभारत में सम्पादक रहते हुए जो अधिकार और जगह श्रीधर जी ने मुझे जैसे अल्पकालीन लेखक को प्रदान की उसे मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ। बाद में जब शासकीय सेवा की मेरी व्यस्तताएँ बढ़ीं, भारत भवन से मध्यप्रदेश फिल्म विकास निगम, प्रतिनियुक्ति पर मध्यप्रदेश गृह निर्माण मण्डल और बाद में संस्कृति संचालनालय में आते हुए सारे रचनात्मक नियमित काम छूटते गये, मैं नवभारत और श्रीधर जी से उस तरह नियमित जुड़ा नहीं रह सका फिर भी जब कभी उनको मुझ से कराने योग्य काम नजर आता, मुझे साधिकार आदेशित किया करते थे। ऐसे ही एक दिन जब धारावाहिक क्योंकि सास भी कभी बहू थी, की बहू तुलसी कौन बनेगा करोड़पति में अमिताभ बच्चन के सामने हाॅट सीट पर आयी तब उन्होंने फोन करके इस आदेश के साथ तलब किया था, रात को 9 बजे नवभारत आ जाओ, यहीं मेरे कमरे में पूरा कार्यक्रम देखो और तत्काल लिखो, पहले पेज पर जायेगा। वैसा ही करते हुए मैंने उसको प्रस्तुत किया, शीर्षक डालकर उनके सामने रख दिया। श्रीधर जी ने शीर्षक के नीचे मेरा नाम लिखा, सुनील मिश्र और पेज एक के प्रभारी को भेज दिया। वह एक मिनट में उनके सामने आकर कहने लगे, सर नाम से जाना है? यह तो हमारे यहाँ के एम्पलाई नहीं हैं। इस पर उनका दो टूक उत्तर था, हमने लिख दिया है न? नाम से ही जायेगा, दैट्स आल।

आचार्य नरेन्द्र देव पुस्तकालय में सप्रे संग्रहालय की शुरूआत एक बिरवे के रोपे जाने की तरह थी। श्रीधर जी ने जो काम करने का बीड़ा उठाया था वह अनूठा था। हम सब अपने जीवन में वक्त से बाहर हो जाने वाली चीजों को खारिज ही तो किया करते हैं। घर में बहुत सारा सामान एक वक्त में अनुपयोगी हो जाता है, उसे हम बाहर का रास्ता दिखा दिया करते हैं। बेच देते हैं और बिकने योग्य नहीं रहा तो फेंक देते हैं। ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो अनुपयोगी होने में लम्बा वक्त लेती हैं मगर हमारी निगाह उन पर बराबर बनी रहती है। हम पूरी तरह उनके व्यर्थ हो जाने की व्यग्रता से प्रतीक्षा करते हैं। पढ़ने-लिखने की चीजें जिन्हें पठनीय साहित्य कहा जाता है, पहले अर्थात तीस-चालीस साल पहले अखबारों के साथ-साथ विभिन्न पत्रिकाओं के रूप में भी आया करता था। मुखिया के लिए अखबार के साथ-साथ धर्मयुग या साप्ताहिक हिन्दुस्तान अपरिहार्य होता था। महिलाओं के लिए सरिता और मनोरमा की बराबर जगह हुआ करती थी। बच्चों के लिए उतनी ही बराबरी से चम्पक, नन्दन, पराग या चन्दामाला घर में अखबार वाले का लाना उसके मुख्य काम के साथ शामिल हुआ करता था। ये पत्रिकाएँ यदि समय पर न मिलें तो मन व्याकुल होने लगता था, अखबार वाले से पूछा जाता था, अब तक क्यों नहीं आया, कब आयेगा? खैर अब न तो ये प्रकाशन हैं और न ही उतने लोकतांत्रित ढंग से परिवार में साहित्य आता ही है, पर ये सभी साहित्य और अखबार भी एक दिन रद्दी पेपर खरीदने वाले के ठेले पर लदकर हमारे घर से विदा होते थे। बाद में उनका सामान की पुडि़या या लिफाफा बनकर समाप्त हो जाना जैसे उनका हश्र होता। मैं श्रीधर जी की यहाँ पर एक बड़ी सशक्त भूमिका देखता हूँ। श्रीधर जी ने इस धरातल पर अस्तित्वहीन होती धरोहरों को मूल्यवान बनाने, सिद्ध करने में एक बड़ी पहल की। सप्रे संग्रहालय का पूरा नाम है, माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान। श्रीधर जी को इस काम की शुरूआत करते हुए भीतर से बड़े कचोट भरे अनुभव हुए हैं। अक्सर पीछे मुड़कर न देखने वाली बात असाधारण जीवट को प्रमाणित करने वाले व्यक्तित्व के साथ जुड़ती है मगर श्रीधर जी ने इस संग्रहालय के माध्यम से एक प्रकार से बीसवीं सदी का पुनरावलोकन करना शुरू किया। निश्चय ही यह काम घर बैठकर नहीं हो सकता था। इसके लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक जाना होता, जो श्रीधर जी गये भी। पहले श्रीधर जी को बताना होता था कि वे क्या करने की कोशिश कर रहे हैं, किस विरासत को संरक्षित करने का संकल्प उन्होंने लिया हुआ है, बाद जब उनके काम की सार्थकता को आँका जाना शुरू हुआ तो सामने से लोगों ने आकर श्रीधर जी से कहा कि आपको दरअसल नहीं पता कि आपने क्या काम करने की कोशिश की, कितना उसमें समय, जीवन और जीवट लगाया और क्या कर दिखाया है! अपनी स्मृतियांे में मुझे जान पड़ता है, मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्रियों श्री अर्जुन सिंह, श्री मोतीलाल वोरा, श्री सुन्दरलाल पटवा, श्री दिग्विजय सिंह, श्री बाबूलाल गौर, श्री शिवराज सिंह चैहान तक सभी ने श्रीधर जी के जीवट को प्रोत्साहित किया और समय-समय पर उनके यज्ञ में क्षमताभर योगदान करके उनके सार्थक स्वप्न को साकार करने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया। सप्रे संग्रहालय के स्थापना दिवस समारोहों में ये विभूतियाँ जब-जब आयीं, काम को बढ़ता और समृद्ध होता देखा और श्रीधर जी की भूरि-भूरि प्रशंसा करके गये। 

माधवराव सप्रे समाचार पत्र संग्रहालय एवं शोध संस्थान की यात्रा बड़ी लम्बी है, आचार्य नरेन्द्र देव पुस्तकालय के छोटे से कमरे और हाॅल से काम शुरू होता है। उस समय यह सपना ही होता है कि कभी संग्रहालय का अपना भवन होगा। एक दिन वह भी आता है जब संग्रहालय के भवन के लिए कोलार मार्ग पर जमीन मिलती है और भूमि पूजन होता है। एक दिन वह भी होता है जब भवन बनकर तैयार होने को है और आचार्य नरेन्द्र देव पुस्तकालय से सामान यहाँ आना शुरू हो गया है। एक दिन वह भी जब यह विधिवत संस्थान नये भवन में स्थापित हो जाता है। मुझे याद है, जब आचार्य नरेन्द्र देव पुस्तकालय भवन में संग्रहालय हुआ करता था, एक दिन श्रीधर जी ने मुझसे कहा था कि कोई अच्छा शिल्पकार देखो, हमें संग्रहालय के लिए नारद जी और सप्रे जी की प्रतिमा बनवानी है। श्रीधर जी कहते रहे हैं कि नारद जी आदिपत्रकार थे जो जिनसे देवी-देवता समाचार पूछा करते थे और सुनाने का अनुरोध किया करते थे। अब इसमें पहला काम तो यही था कि नारद जी की तस्वीर कहाँ मिले? तलाश उन सब जगहों पर की गयी जहाँ पूजा-पाठ का सामान और भगवान की तस्वीरें मिला करती थीं। नारद जी की उपस्थिति प्रायः देवी-देवताओं के भव्य दरबार वाले चित्रों में कहीं एक तरफ वीणा लिए होती थी मगर ऐसा फोटो दुर्लभ था। आखिर एक बार तीन-चार ऐसे फोटो इकट्ठा कर पाये जिनमें नारद जी दीख रहे थे। श्रीधर जी को एक छबि पसन्द आयी और फिर उन्होंने सप्रे जी का भी एक फोटो दिया। ये दोनों प्रतिमाएँ हमने एक कुशल मूर्ति शिल्पी दुलालचन्द्र मन्ना से बनवायीं। मूर्तियाँ बनने में लगभग बीस दिन का समय लगा था। मुझे याद है, स्कूटर पर श्रीधर जी के साथ हर दो-चार दिन में बनती हुई मूर्ति देखने जाना होता था। जब वे मूर्तियाँ बनकर तैयार हुईं तो स्कूटर में ही पीछे बैठकर हाथ में उठाये हम संग्रहालय भवन पहुँचे थे। श्रीधर जी की खुशी का ठिकाना नहीं था। वे मूर्तियाँ आज भी अपने समय की धरोहर हैं, संग्रहालय में श्रीधर जी के पास।

नये भवन में माधवराव सप्रे संग्रहालय ने वास्तव में अपने विराटपन को पाया है। एक सपना जो नरेन्द्र देव पुस्तकालय भवन में, एक बिरवे के रूप में रोपा गया था, वह विशाल वृक्ष बनकर अपनी गरिमा को अपने स्थायी स्थान में प्राप्त कर रहा है। यह वृक्ष इतना घना हो गया है कि इसकी छाया में हम अपने रचनात्मक वक्त के साथ स्मृतियों में जा सकते हैं, उन घटनाओं के एक तरह से पुनर्साक्षी हो सकते हैं जिनके बारे में हमने केवल सुना है। मेरी जानकारी में वे गणितीय आँकड़े नहीं हैं जिनका उल्लेख सप्रे संग्रहालय का बखान करते हुए शायद जरूरी होता है, मैं इतना विश्वास जरूर रखता हूँ, करता हूँ कि पठनीय विरासत की कोई भी ऐसी सामग्री जिसका आप आँख मूँदकर स्मरण भर करो, संग्रहालय में किसी एक अच्छे स्थान पर मुकम्मल सन्दर्भ के साथ आपको करीने से रखी मिलेगी। किसी भी चीज की जान से ज्यादा हिफाजत करने को हमारी नानी, दूध-पूत की तरफ देखभाल करने वाली कहावत से जोड़ती थीं। श्रीधर जी इस संग्रहालय की हर एक चीज की सचमुच दूध-पूत की तरह हिफाजत करते हैं। इस संग्रहालय ने श्रीधर जी को अपने में इतना रमा लिया कि उन्होंने पत्रकारिता में अपनी प्रखर दृष्टि, प्रभाव, सक्रियता और साहस से कम समय में ही अर्जित उपलब्धियों के शीर्ष से भी एक सन्त की तरह निर्लिप्त होकर दिखा दिया। उस समय वे कहने लगे थे कि हमने जो काम शुरू किया है, सही मायने में हमारी जरूरत और जगह उसी काम को निष्ठापूर्वक आगे बढ़ाने में है। श्रीधर जी वास्तव में इस संग्रहालय के एक तरह से पर्याय हो गये हैं। उनकी साँसें वहीं बसती हैं, यही संग्रहालय श्रीधर जी को जीवन में आये युवा विवाहित और प्रतिभाशाली बेटे के बिछोह जैसे असहनीय और कठिन तथा त्रासद दुखों को भी सहने की शक्ति दे रहा है। 

मैं अपने आपको भाग्यवान मानता हूँ कि रचनात्मक कर्म में अपनी जगह बनाते हुए, सचेत होते हुए मुझे श्रीधर जी का सान्निध्य और स्नेह मिला। हमने उनकी खूब डाँट भी खायी है मगर वे अत्यन्त साफ दिल मनुष्य हैं जो मन में कलुष नहीं रखते। उनकी साफगोई और बेलाग होने की सख्ती बहुतेरों को हो सकता है उनसे दूर भी करती हो, मगर यह इन्सान सचमुच एक कच्चा नारियल है, दिल का बड़ा उजला, स्वच्छ और दूधिया। यह बात वही जान सकता है जो उनके उस अन्तःस्थल तक जाकर उनकी पहचान कर सके। मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे सप्रे संग्रहालय ने 2009 के यशवन्त अरगरे सम्मान से सम्मानित किया। अपने जीवन में सप्रे संग्रहालय और श्रीधर जी के सान्निध्य को अनमोल मानता हूँ। श्रीधर जी को पद्मश्री मिलना सामाजिक कृतज्ञता का सार्थक पर्याय है। उनका यश सतत समृद्ध हो, यही कामना है।
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सोमवार, 5 मार्च 2012

पान सिंह तोमर : चम्बल के बीहड़ में फिर एक विडम्बना


एक बार फिर आँखों के सामने चम्बल के बीहड़ ताज़ा हो गये। बरसों पहले जब शेखर कपूर की बैण्डिट क्वीन देखने का मौका मिला था, तब चम्बल के बीहड़ अपने पूरे यथार्थ के साथ दिखायी दिए थे और अब इस बार जब तिग्मांशु धूलिया की फिल्म पान सिंह तोमर देखी। पान सिंह तोमर फिल्म का इन्तजार लम्बे समय से था क्योंकि निर्देशक ने इस वक्त पर बनाकर पूरा कर दिया था। शायद तीन बरस पहले जब इस फिल्म के नायक इरफान से उनकी तब के समय की फिल्म बिल्लू को लेकर बातचीत कर रहा था, तब उन्होंने बताया था कि वे एक महत्वपूर्ण फिल्म के सिलसिले में मध्यप्रदेश-राजस्थान सीमा के निकट लोकेशन के नजदीक धौलपुर में लम्बे समय रहकर काम पूरा करने वाले हैं। यह वही फिल्म थी। इरफान ने इस फिल्म के विषय को लेकर थोड़ा बताया था, तभी से फिल्म को लेकर जो एक दिलचस्पी जगी थी वो अब जाकर दो दिन पहले पूरी हुई जब दिल्ली में इसे देखने का मौका आया।

ऐसी अनेक जि़न्दगानियाँ हैं जिनके सपनों के साथ समाज में अच्छा सलूक नहीं हुआ। प्रतिरोधी प्रवृत्तियों ने सकारात्मक जीवन और विचार को जब-जब चोट पहुँचाने और त्रास देने का काम किया तब-तब एक न एक बड़ा प्रतिवाद हुआ। वह ऐसे भयावह रूप में सामने आया, जिसने आखिरकार सब कुछ नष्ट करके रख दिया। ऐसा बहुत बार होता है जब समाज के खलनायकों से अपना प्रतिशोध लेते हुए वो नायक भी मर जाता है, जो निर्दोष होता है। यहाँ पर खड़ा होने वाला सन्नाटा बहुत सारे सवाल करता है जिसके उत्तर हमेशा नीचे देखते सिर ही हुआ करते हैं। इन्साफ जैसे लम्बी अनुपस्थिति की चीज़ हो गया है।

पान सिंह तोमर की कहानी इसी नाम के एक बागी का साक्षात्कार करने वाले एक पत्रकार की हेकड़ी से शुरू होती है। जब यह पत्रकार उस बागी के सामने होता है तो इतना भयभीत होता है कि बस पेशाब कर देना ही बाकी रह जाता है। उसी मन:स्थिति में वह अपने सवाल करता है। पान सिंह तोमर आरम्भ के एक-दो मूर्खतापूर्ण सवालों से उसको भगाने लगता है मगर तीसरे सवाल से वह फिर अपनी बात करना शुरू करता है। एक बड़े ऊर्जावान युवा की जि़न्दगी में ऊगते हुए सपनों के साथ होने वाली छल की यह दास्ताँ है। यह धावक पहले फौज में भरती होता है मगर वहाँ उसकी खुराक को लेकर उसकी फजीहत की जाती है तो फौज के खिलाड़ी के रूप में वह अपनी बदल करवा लेता है। पान सिंह तोमर की जिन्दगी में फिर दौडऩा और पदक जीतना उसकी दुनिया को बदल देते हैं।


 उसके परिवार में माँ है, पत्नी है, बेटा है जो मुरैना के पास एक गाँव में रहते हैं। वह जब नौकरी पूरी करके लौटता है तो उसे पता चलता है कि उसके खेत, चचेरे भाई ने हथिया लिए हैं। वह माँगने जाता है तो बेइज्जत होता है, गाली खाता है और मार भी खाने की स्थितियाँ बनती हैं। अपने सारे मैडल और सर्टिफिकेट लेकर दरोगा के पास जाता है तो वह यह सब बाहर फेंक देता है और बेइज्जती भी करता है। यहीं से पान सिंह तोमर के बागी होने की कहानी शुरू होती है। लड़ाई लम्बे समय परिवार के साथ ही है, चचेरा भाई मारकाट करवा रहा है, खून बहा रहा है, बदले में पान सिंह तोमर भी वही कर रहा है। बदले के उत्तर में बदला जैसे अन्तहीन समाधान है।

इस फिल्म के रूप में हमारे सामने जैसे यथार्थ घटित होता है। बेईमान पुलिस चचेरे भाई के पक्ष में है और उसके घर में छावनी बनाकर सुरक्षा कर रही है लेकिन पान सिंह तोमर हमला करके उस पुलिस अधिकारी के भी कपड़े उतरवा देता है जिसने उसका मैडल और सर्टिफिकेट उसके सामने जमीन पर फेंक दिए थे। यहाँ पर वर्दी से माफी मँगवाने का प्रसंग काफी महत्वपूर्ण है। फिल्म का एक दूसरा पहलू यह है कि एक तटस्थ पुलिस अफसर आकर डाकुओं का समूल सफाया करना शुरू करता है। पान सिंह तोमर अपना बदला पूरा करना चाहता है लेकिन मुखबिरों और धोखेबाजों के बीच अनेक बार उसकी स्थिति बड़ी कठिन हो जाती है। पान सिंह तोमर चूँकि शुरू से ही धावक रहता है, उसके बीहड़ों में भागने के दृश्य बहुत सजीव ढंग से फिल्माए गये हैं। इरफान ने सचमुच पान सिंह तोमर को पूरा ही जी-कर बताया है इस फिल्म में।

विकास और बदलाव की तथाकथित बयार से दूर किसी गाँव और वहाँ के घरों की क्या समस्याएँ हुआ करती हैं, यह हम इस फिल्म मेें देखते हैं। निर्देशक ने बड़ी ही सूझबूझ के साथ एक-एक दृश्य फिल्माये हैं। संजय चौहान की पटकथा में सहभागी रहे तिग्मांशु ने इस फिल्म को रोचक भी बनाया है, प्रस्तुतिकरण के लिहाज से। फौज से अवकाश पर आने वाले पान सिंह के अपनी पत्नी के साथ देहाती रोमांस के रंग बड़े दिलचस्प हैं। खासतौर पर वे प्रसंग जब अन्तरंगता का इच्छुक पान सिंह घर में अपने दोनों छोटे बच्चों को लेमनचूस दिलाने के लिए दूर की दुकान पर जाने के लिए कहता है। ऐसे में सचमुच तीस-चालीस साल पहले अस्तित्व से जा चुके लेमनचूस की याद आती है। बच्चों को लेमनचूस दिलाने के प्रसंग दो-तीन बार हैं। 

पान सिंह तोमर के अपने कोच के साथ रिश्ते भी कम दिलचस्प नहीं हैं। कोच सिख है, जुबाँ पर आधी-अधूरी गाली रहती है। एक दिन आज्ञापालक पान सिंह, कोच से कह देता है, ये माँ की गाली-वाली देकर हमसे बात मत किया करो, मन को लग गयी तो हम गोली भी मार देते हैं, फिर कोच के पैर भी छू लेता है। पान सिंह बरसों बाद रिटायर होने के बाद जब बागी बन चुका होता है, उसी बीच एक मौके, अपने फौज में भरती हो चुके बेटे से मिलने जाता है। वह दृश्य बड़ा प्रभाव देता है, वह सबकी नजर बचाकर बेटे से बात कर रहा है, बेटे पर निहाल हो रहा है, अपनी पत्नी के बारे में पूछ रहा है। लौटते हुए एक बंगले के बाहर तख्ती में अपने कोच का नाम देखता है तो घर के अन्दर चला जाता है। कोच उसे समर्पण करने को कहता है जो उसे मंजूर नहीं। यहाँ पर एक डायलॉग अच्छा है, वह कहता है, सामने से निकल रहा था, नाम देखा तो गाली खाने चला आया।

पूरी फिल्म में पान सिंह तोमर का एक डाकू और बागी को अलग-अलग विश्लेषित करना बहुत महत्वपूर्ण लगता है। अपने जैसे लोगों का बागी कहा जाना उसे नागवार गुजरता है, इसीलिए वह फर्क करके बतलाता है कि बागी और डाकू में क्या फर्क है? फिल्म में पान सिंह तोमर को एक चतुर और सजग बागी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। हर वक्त धोखे को लेकर वह बड़ा सजग रहता है मगर आखिर में उसकी मौत जिस मुठभेड़ में होती है, वह धोखे का ही परिणाम होती है जो उसके सबसे विश्वसनीय साथी द्वारा किया जाता है। 


 फिल्म में अपनी तरह की कसावट है। निर्देशक ने लेखक के साथ एक अच्छी पटकथा पर काम किया है। परिवेश चम्बल का है, वहीं की बोली है, वहीं जीवन के भटकाव, जुल्म और शोषण से उपजी एक त्रासद कथा का एक तरह से पुनर्फिल्मांकन है, क्योंकि यह सच्ची कहानी जो है। इस किरदार का धावक होना सचमुच पूरी फिल्म को एक अलग ही गति देता है। पान सिंह तोमर के रूप में नायक इरफान खान ने अत्यन्त प्रशंसनीय काम किया है। वे इस तरह दीखते हैं कि किरदार होकर रह जाते हैं। दर्शक और समीक्षक लम्बे समय तक उनके इस किरदार को भुला नहीं पायेंगे। एक तरह से उनके कैरियर में यह फिल्म मील का पत्थर है। ग्लैमरस माही गिल की भूमिका पान सिंह तोमर की पत्नी की है। एक भोली ग्रामीण पत्नी के छोटे से किरदार को अच्छा रंग दिया है उन्होंने। राजेन्द्र गुप्ता, कोच बने हैं। तिग्मांशु ने किरदारों प्रभावी बनाने के लिए रंगमंच के श्रेष्ठ कलाकारों को अच्छी भूमिकाएँ दी हैं, इसलिए पूरी फिल्म यथार्थ के बड़े नजदीक लगती है। पान सिंह तोमर, वास्तव में इरफान खान के लिए ही एक बड़ी चुनौती थी, उन्होंने इसे बखूबी अन्जाम भी दिया है। 

पान सिंह तोमर, बीहड़ में भटकाव और दिशाहीनता की एक ऐसी दास्ताँ है जो पिछली सदी में अभिशप्त चम्बल में अपनी ही तरह की जाने कितनी सच्ची कथाएँ और मर्मभेदी वृत्तान्त को समेटे हुए है। जि़न्दगी के ऊबड़-खाबड़ का चम्बल के ऊबड़-खाबड़ से कभी खत्म न होने वाला कदम-ताल हमें एक बारगी फिर उस पुराने समय में ले जाता है। यह फिल्म सिनेमा के उत्कृष्ट के पक्ष में अहम सिनेमाई दस्तावेज है।
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