सोमवार, 28 मई 2012

आमिर खान, सत्य की ऊर्जा और सत्य के प्रयोग


सत्यमेव जयते का मतलब सत्य की विजय होती है, यह पीढिय़ों ने, पीढिय़ों को, पीढिय़ों से सम्प्रेषित किया है। जब आमिर खान का इस नाम शीर्षक शो शुरू नहीं हुआ था, उसके पहले से इसके बारे में विधिवत प्रचार होने लगा था और आमिर खान खुद इसके बारे में बहुत सारी जो बातें बताया करते थे, उनमें एक बात थी, इसका नाम सत्यमेव जयते रखा जाना। आमिर खान ने कहा था कि कई तरह के नाम दिमाग में सूझ रहे थे, कई तरह के मशविरे भी इसके लिए आ रहे थे। बड़े सोच-विचार के बाद जब सत्यमेव जयते शीर्षक पर सोचने लगे तो विधिक परामर्शदाताओं और जानकारों ने उनको बताया कि इसका कोई कॉपीराइट नहीं हो सकता है। इस नाम से शो शुरू करने के बाद भी यह नाम आपका नहीं कहलायेगा और बाद में कोई भी इस नाम से कार्यक्रम बना ले या कोई दूसरा उपक्रम करने लगे तो उसको चुनौती भी नहीं दी जा सकेगी।

आमतौर पर इस तरह की सावधानियों के विषय में व्यावसायिक तौर पर बहुत सोचा-समझा और विचार किया जाता है। अपना अधिकारी, अपनी पट्टेदारी बड़ी अहम होती है लेकिन अपने असाधारण को लेकर आश्वस्ति और खुद का आत्मविश्वास इन सब चीज़ों को खारिज भी करता चलता है। यही कारण था कि आमिर खान सत्यमेव जयते नाम रखने के पक्ष में बने रहे। उनका यह कदम भी बहुत महत्वपूर्ण था कि इसका प्रसारण समानान्तर रूप से दूरदर्शन से भी हो क्योंकि दूरदर्शन आज भी गाँव-गाँव तक जाता है। आमिर खान की यह दृष्टि उस सन्दर्भ में रेखांकित है जहाँ चैनलों के दो-तीन दशक पूर्व आक्रमण और बढ़ते घमासान के बीच बिना कुछ जतन किए ही यह प्रबल और सबल माध्यम ध्वस्त हो गया है। दर्शक चैनलों को उनकी लोकप्रियता के क्रमानुपात में ताश के पत्ते की तरह जमाये हुए है और उसमें दूरदर्शन शायद सबसे पीछे भी नहीं है। हालाँकि बीच-बीच में दूरदर्शन में कुछ ऐसे मुख्य अधिकारी आये भी जिन्होंने इस शक्तिसम्पन्न संसाधन में ऊर्जा भरने की कोशिश की मगर सीमाएँ और किसी भी कार्य के प्रतिरोधियों, जिनकी उपस्थिति अब हर एक जगह है, होने ही नहीं दिया वैसा कुछ जैसा सोचा और चाहा गया होगा।

बहरहाल इस बात के लिए भी श्रेय आमिर खान को ही दीजिए कि घर के ऊपर छतरी जहाँ नहीं है, केबल का तार जिन घरों के टीवी के पीछे नहीं लगता है, वहाँ भी सत्यमेव जयते जा रहा है। एक एन्टीना के सहारे यदि जागरुकता अंचलों में दूरदर्शन के माध्यम से सम्प्रेषित हो रही है, तो वह एकदम निरर्थक तो नहीं जायेगी। आमिर खान का यह शो बहुत लोकप्रिय हो गया है। मुद्दे अपनी मौलिकता और ज्वलन्त परिप्रेक्ष्य के हर काल में प्रासंगिक हैं। जब व्ही. शान्ताराम ने दुनिया न माने फिल्म बनायी थी, तब और आज समय वही है जहाँ लडक़ा, लडक़ी पर भारी है। काम कुण्ठित आज भी भोले और मासूम बच्चों को अपना शिकार बनाने के लिए बड़े शातिर और कमीन इरादों के साथ अपना काम कर रहे हैं। दहेज नाम की फिल्म भी पचास साल पहले बनी थी और आज भी दहेज की लालसा उन सब मनुष्यों को निर्मम बनाकर रखती है जो अपने घर में पूजा-पाठ करते हैं, व्रत-उपवास करते हैं, मन्दिर जाते हैं, आँख मूँदकर प्रार्थना करते हैं, मिलकर त्यौहार मनाते हैं, हँसते-खिलखिलाते हैं लेकिन जब ब्याह तय करते हैं तो जैसे उनके पेट में मूर्छित नरभक्षी अँगड़ाइयाँ लेने लगता है। घटनाएँ होकर रह जाती हैं। हम अखबार में पढ़ते हैं और चैनलों में देखते हैं। दस-पन्द्रह-बीस सालों में कभी कोई मुकदमा निर्णय पर आता है तब फैसला हमें चाहकर भी उस घटना से जोड़ नहीं पाता क्योंकि हम सब कुछ भूल चुके होते हैं। 

दरअसल यह हमारी भूल भी है और भूलचूक भी। आमिर खान की संगत में हम एक-सवा घण्टा बैठकर कुछ आपबीतियाँ सुना करते हैं। हम सबकी आँखें छलछला आती हैं, आमिर खान भी आँख के किनारे अपने आँसू पोंछकर सुखाने की कोशिश करते हैं। सामने बैठे लोग भी रोने लगते हैं। वास्तव में हमने अपने आसपास दूसरे के दुख-सुख के लिए समय बचाकर रखा ही नहीं है। क्यों पूछे जाने पर कह देंगे कि हमें अपने ही रोने से फुरसत नहीं है, कहाँ वक्त है, इन सबके लिए। हर आदमी यही सोच रहा है, यही कारण है, कि मुसीबत में हर वो आदमी अकेला है, जिसकी ऐसी मनोवृत्ति है। हमने अपनी दुनिया का सीमांकन कर रखा है वह भी अपने घर के बन्द किवाड़ों में। इसीलिए हमें न रोता हुआ कोई दिखायी देता है और न ही सिसकता हुआ कोई सुनायी देता है। आमिर खान केवल फिल्मों से पैसा कमाने वाले कलाकार नहीं हैं बल्कि वे शायद ऐसे कलाकार हैं जो अपने कैरियर या फिल्मों को उस तरह से नहीं लेते जिसमें साल में कितनी फिल्में करना है, कितना पैसा कमाना है, कितनी जगह उसको सुरक्षित करना है, देश-दुनिया में कितने शो करना है, धन-प्रदाता आयोजनों में शिरकत करना है, जैसे प्रश्रों से दूर रहते हैं। यही कारण रहा कि सत्यमेव जयते को उन्होंने अपनी पूरी हो चुकी फिल्म तलाश के प्रदर्शन से ज्यादा प्राथमिकता दी। अब वह फिल्म 30 नवम्बर को प्रदर्शित हो रही है। 

सत्यमेव जयते हमारे लिए एक जरिया बना है अपने अन्तर्आकलन का जिसको लम्बे समय से हम खारिज किए हुए थे। हम हमेशा कहते रहेंगे कि कमबख्त मँहगाई में जीना मुहाल है मगर हमारी शान-शौकत में कहाँ कोई फर्क आया है? जि़न्दगी की मौज-मस्ती और सपने थोड़ी देर के लिए हमें सब भुला देते हैं। हम वैभव के ऐसे लोक में भटकर सज-सँवर रहे हैं, जी रहे हैं जहाँ इस बात का एहसास ही नहीं है कि हमारे नियंत्रण से कुछ भी बाहर है। यह एक अलग तरह का भ्रम और नीम-बेहोशी सी है, सत्यमेव जयते हमारे गाल पर आमिर खान की ऐसी थप है जिससे चौंककर आँख खुलती है। सत्य के साथ अपने भीतर जाना वाकई कठिन काम है। एकाएक बहुत सारे लोगों ने आमिर खान के इस उपक्रम का अपने-अपने ढंग से प्रतिवाद किया है। राजस्थान के स्वास्थ्य मंत्री ने शायद यह भी कह दिया है कि आमिर खान इसके जरिए खूब कमाई कर रहे हैं। ठीक है, आमिर खान की जो स्टार वैल्यू है, आज के समय का सबसे बिकाऊ सितारा सलमान खान भी जिनकी बौद्धिकता का बड़ा आदर करता हो, ऐसा कलाकार आमिर खान, बेशक इस प्रस्तुतिकरण का भी मानदेय प्राप्त कर रहे होंगे मगर वे यह काम जनता की आँखों में धूल झोंककर नहीं बल्कि झुँकी हुई धूल साफ करके या आँखें खोलकर प्राप्त कर रहे हैं। 

महात्मा गांधी ने सत्य के प्रयोग नामक अपनी आत्मकथा में आत्मालोचन के सम्बन्ध में ही कुछ बातें कहीं हैं। जैसे यह कि यह मार्ग तलवार की धार पर चलने जैसा है तो भी मुझे यह सरल से सरल लगा है। इस मार्ग पर चलते हुए मुझे अपनी भयंकर भूलें भी मुझे नगण्य सी लगी हैं क्योंकि वैसी भूलें करने पर भी मैं बच गया हूँ और अपनी समझ के अनुसार आगे बढ़ा हूँ। सत्य के शोध के साधन जितने कठिन हैं उतने ही सरल भी हैं। वे अभिमानी को असम्भव मालूम होंगे लेकिन एक निर्दोष बालक को सम्भव लगेंगे। सत्य की अपनी ऊर्जा होती है जो हमेशा निद्र्वन्द्व और निर्भीक रखती है। सत्यमेव जयते वास्तव में सत्य की विजय की विस्मृत विश्वसनीयता को भी पुनर्जाग्रत करने का एक उपक्रम है। यह कम नहीं है कि लोग अब कम से कम इस बात के लिए इतवार को दिन में भी खास उस वक्त के लिए जागे रहते हैं जब सत्यमेव जयते का प्रसारण होता है। यहाँ जागे रहने का मतलब कायिक अर्थों में नहीं बल्कि अपनी चेतना में जाग्रत रहने से है और यह आमिर खान ने कर दिखाया है।
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शनिवार, 26 मई 2012

भगवत रावत कविता कहते थे..............


हमारे समय के अत्यन्त महत्वपूर्ण कवि-साहित्यकार भगवत रावत का निधन हो गया है। यह सदी धीरे-धीरे हमारे बीच से ऐसे मूर्धन्य सृजनधर्मियों को दूर करती जा रही है जिनका बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महत्वपूर्ण योगदान रहा है। भगवत रावत ऐसे ही कवि थे जिन्होंने समय सापेक्ष सृजन की ऊर्जा और चिन्ता को अपने से कभी विलग होने नहीं दिया। उनका जन्म 13 सितम्बर 1939 को बुन्देलखण्ड के ग्राम ढेहरका, जिला-टीकमगढ़, मध्यप्रदेश में हुअ था। बचपन से स्नातक तक उनकी पढ़ाई झाँसी में हुई। 1957 में 18 वर्ष की आयु में रावत जी का विवाह हुआ। उन्होंने 1959 से प्राइमरी स्कूल के प्राध्यापक के रूप में काम करते हुए एम.ए., बी.एड. तक की शिक्षा भोपाल में पूरी की।

रावत जी भोपाल में ही 1966 में रीज़नल स्कूल में हिन्दी के व्याख्याता नियुक्त हुए। बीच में 1972 से 1975 तक तीन साल वे मैसूर (कर्नाटक) में कार्य करने के बाद 1975 में पुनः भोपाल आ गये। 1983 से 1994 तक रीजनल कॉलेज भोपाल में हिन्दी के रीडर पद पर कार्य किया। इसी साल वे मध्यप्रदेश हिंदी ग्रंथ अकादमी के संचालक भी बने। रावत जी रीजनल इंस्टीट्यूट ऑफ एजुकेशन, भोपाल में समाज विज्ञान तथा मानविकी विभाग के अध्यक्ष भी रहे। उनका बचपन से ही लेखन के प्रति रुझान रहा। गंभीरता से लेखन की शुरुआत उन्होंने 1957 से आरम्भ की। लगभग सभी पत्र-पत्रिकाओं में उनकी 500 से अधिक कविताएँ प्रकाशित हुई हैं। इसके साथ ही उनकी कविताएँ मराठी, बंगला, उड़िया तथा मलयालम में अनूदित हुईं जो अहम बात है। 1960 से 1970 के बीच कहानी, नई कहानियाँ, अपर्णा, नवलेखन आदि में कहानियाँ प्रकाशित होती रहीं तथा समीक्षात्मक गद्य तथा अनुवाद भी विभिन्न साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए।

सुदीर्घ सृजनात्मकता के समय में उनके अनेक काव्य संकलन प्रकाशित हुए जिनमें समुद्र के बारे में, दी हुई दुनिया, हुआ कुछ इस तरह, सुनो हीरामन, सच पूछो तो, बिथा कथा शामिल हैं। इसके साथ ही कविता का दूसरा पाठ (समकालीन हिंदी कविता पर आलोचनात्मक गद्य) पुस्तक का भी प्रकाशन हुआ। रावत जी मध्यप्रदेश साहित्य परिषद् के ‘दुष्यंत कुमार सम्मान’ तथा मध्यप्रदेश हिंदी साहित्य सम्मेलन के ‘वागीश्वरी सम्मान’ से सम्मानित भी हुए तथा 1997 में मध्यप्रदेश सरकार ने रावत जी को साहित्य के शिखर सम्मान से सम्मानित किया। वे 1989 से 1994 तक मध्यप्रदेश प्रगतिशील लेखक संघ के अध्यक्ष भी रहे तथा 1981 से 1994 तक ‘वसुधा’ का सम्पादन भी किया।

रावत जी की कविताएँ आज के समय में त्रासद सच को उद्घाटित करने वाली हैं। हिंदी कविता में जब यथार्थ के नाम पर लगभग मृतप्राय विचारों का प्रत्यारोपण अपने चरम पर था तब भगवत रावत ने हिन्दुस्तानी जनता के दुख को बहुत ही सादगी और गहरी आत्मनिष्ठा के साथ व्यक्त किया। उन्होंने उस ‘‘दी हुई दुनिया’’ की मुखालफत की जिसमें उत्पीड़न ही उत्पीड़न है। पहले काव्य संग्रह ‘‘समुद्र के बारे में’’ से लेकर ‘‘बिथा कथा’’ की कविताओं का ग्राफ बताता है कि उन्होंने असंगत व्यवस्था के विरुद्ध विरोध की संस्कृति सृजित की। वे तोड़-फोड़, रद्दोबदल के नहीं बल्कि श्रम के मूल्यांकन के कायल रहे। भगवत रावत मूलतः गहरे राग के कवि थे। इंसानी गर्मजोशी और इंतजार उनकी कविता के प्राण-तत्व हैं। वास्तव में ये तत्व उन्हें बुन्देलखण्ड और मालवा की माटी से मिले। रावत जी कविता लिखते नहीं, वरन् कविता कहते थे। यही वजह है कि ‘‘सुनो हीरामन’’, ‘‘कुछ हुआ इस तरह’’, ‘‘सच पूछो तो’’ और ‘‘बिथा कथा’’ संग्रहों में वे निम्न मध्यवर्ग से लेकर निम्न वर्ग की पीड़ा को अपनी जुबान देते हैं, विद्रूप को नामंजूर करते हैं जो इंसानियत को हकाल रहा है। वे मालवी करुणा के कवि थे। आज के मारक समय में जहां सब कुछ वस्तु में तब्दील हो रहा है करुणा के जरिए उन्होंने मानव-विरोधी मूल्यों के खिलाफ एक नकार दर्ज कराया था। यथार्थ की जमीन पर खड़ी उनकी कविताओं में एक ऐसी ज़मीनी आस्था है जो हार कर भी उठ खड़े होने और सतत संघर्षशील रहने का प्रत्याख्यान रखती है।

रावत जी की काव्य भाषा में एक निश्छल, ईमानदार सादगी है। वह बोलियों, लोककलाओं और छंदों की अन्तर्छवि तथा आधुनिक जीवन को पेंच को उघाड़ने और उसकी शिनाख्त के लिए सक्षम है। अपनी इसी पारदर्शिता के चलते वे समकालीन कविता में अपनी अलग पहचान बनाने में कामयाब रहे। पिछले कुछ सालों से उनका स्वास्थ्य निरन्तर गिर रहा था। सात-आठ वर्ष पहले वे मध्यप्रदेश की साहित्य अकादमी के निदेशक और वहाँ की साक्षात्कार पत्रिका के सम्पादक भी रहे। उनमें गजब का जीवट था। हाल के महीनों और दिनों में भी किडनी की बीमारी और निरन्तर डायलिसिस के बावजूद साहित्य और संस्कृति के आयोजनों में वे आ जाया करते थे। उनकी हिम्मत-हौसला चकित करता था। कुछ ही दिन पहले उनके कविता पाठ का एक आत्मीय आयोजन भी भोपाल में हुआ था। कुछ समय पहले उनके आत्मीय मित्र साहित्यकार कमला प्रसाद का निधन हुआ था, जिससे वे बहुत व्यथित हुए थे और उनका जाना भोपाल के सृजनात्मक समाज को व्यथित कर गया है। साहित्य जगत की अपूरणीय क्षति है उनका निधन।

रविवार, 20 मई 2012

सतीश कौशिक भोपाल में सम्मानित होंगे

सतीश कौशिक, रंगकर्म की कठिन और परिमार्जक साधना के साथ सिनेमा में अपनी गहरी प्रतिष्ठा स्थापित करने वाला वो नाम है, जिनके साथ तीन दशक की अनवरत सृजन सक्रियता और उत्कृष्ट प्रतिमान अनेकों उदाहरणों के साथ हम सभी स्मृतियों में निरन्तर विद्यमान हैं। अभिव्यक्ति की असाधारण क्षमताओं के साथ ही मौलिक और रचनात्मक निर्देशकीय दृष्टि सतीश कौशिक की विशिष्ट खूबी है। आपने अस्सी के दशक से रंगमंच और सिनेमा में अपनी वह उपस्थिति दर्ज करायी है, जो सृजन की निरन्तर यात्रा के रूप में आज भी हमारे सामने भावी जिज्ञासाओं और आयामों के प्रति हमें आश्वस्त करती है।

सतीश कौशिक राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय में उस पीढ़ी के साथ सक्रिय रहे हैं जिसने अनूठी ऊर्जा और उत्साह के साथ रंगमंच के इस प्रतिष्ठित संस्थान में सकारात्मक और यादगार वातावरण रचने का काम किया था। प्रतिभासम्पन्न और कुछ कर गुजरने वाले कलाकार मित्रों का यह समूह मुम्बई के सिने-जगत में विविधताओं के साथ अपनी-अपनी पहचान-प्रतिष्ठा बनाने में कामयाब रहा। सतीश कौशिक के कैरियर की शुरूआत अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति के फिल्मकार शेखर कपूर के साथ उनके सहायक के रूप में हुई जिनके साथ ही एक अभिनेता के रूप में भी मासूम और मिस्टर इण्डिया में उन्होंने अपनी क्षमताओं का परिचय दिया। मिस्टर इण्डिया के पात्र कैलेण्डर के रूप में आज भी उनकी पहचान उतनी ही ऊर्जस्व है।

सतीश कौशिक ने एक अभिनेता के रूप में लगभग सौ फिल्मों में काम किया है जिनमें मासूम, मिस्टर इण्डिया, जाने भी दो यारों, मण्डी, उत्सव, रामलखन, साजन चले ससुराल, बड़े मियाँ छोटे मियाँ, हम आपके दिल मंे रहते हैं, कलकत्ता मेल, आबरा का डाबरा, अतिथि तुम कब जाओगे, ब्रिक लेन आदि शामिल हैं वहीं अनेक सफल फिल्मों रूप की रानी चोरों का राजा, प्रेम, हम आपके दिल में रहते हैं, मुझे कुछ कहना है, हमारा दिल आपके पास है, बधाई हो बधाई, तेरे नाम, तेरे संग, मिलेंगे मिलेंगे आदि को निर्देशित भी किया है।

सिनेमा में अपनी द्विआयामी व्यस्तताओं के बावजूद सतीश कौशिक की छटपटाहट नाटकों के लिए हमेशा बनी रहती है। वे नादिरा जहीर बब्बर, नीलम मानसिंह चौधरी, राजा बुन्देला, गिरिजा शंकर, आलोकनाथ, राजेश पुरी के साथ सतत् रंगकर्म के साक्षी हैं। उनका एक प्रमुख नाटक सेल्समेन रामलाल देश-दुनिया में अपार लोकप्रिय है। आज भी उसके शो हाउसफुल होते हैं। इस नाटक के देश-विदेश में अनेकों प्रदर्शन हुए हैं। 

रंगमंच और सिनेमा जगत में सतीश कौशिक की उपस्थिति एक ऐसे कलाकार की है जो रचनाशीलता और अभिव्यक्ति की अन्तर्लय में खूबियों से लबरेज है। परदे पर उनको देखना, हर दर्शक के लिए मुरझायी उम्मीदों का फिर से हरे हो जाने जैसा है। वो अपनी अभिव्यक्ति से हम सबमें जिस आनंद की वर्षा करते हैं वो निराशा और उदासी की सारी उमस को पल पर में दूर कर देती है। हमारे समय के वे एक महत्वपूर्ण कलाकार और फिल्मकार हैं। उनको भोपाल शहर में  कारन्त जी के नाम का सम्मान इफ्तेखार नाट्य समारोह में प्रदान किया जा रहा है।

शुक्रवार, 11 मई 2012

इश्कजादे : प्रभावी कई स्तरों पर मगर एक बड़ी खामी के साथ


फिल्म निर्माण के बड़े घरानों में दूसरी पीढ़ी, स्वयं अपनी समृद्ध विरासत को दक्षता के साथ आगे चलाने के बजाय अवसर अपेक्षित प्रतिभाशाली युवा पीढ़ी को पहचान कर अपने बैनर पर काम करने का मौका दे रही है। दृष्टि, विचार और साहस से भरे नये फिल्मकार ऐसे प्लेटफॉर्म का बखूबी उपयोग कर रहे हैं। फिल्म की सफलता से निर्माण घराने को खूब फायदा होता है और निर्देशक को भी अपने पैर जमाने में बड़ी सहायता हो जाती है। इस समय यशराज फिल्म्स और धर्मा प्रोडक्शन्स में यह खूब हो रहा है बल्कि यशराज में और ज्यादा। 

हबीब फैजल की फिल्म इशकजादे इसी तरह की फिल्म है जो इस हफ्ते रिलीज हुई है। हबीब फैजल ने इसके पहले ऋषि कपूर और नीतू सिंह के साथ एक अच्छी फिल्म दो दूनी चार बनायी थी जो बड़े दिनों बाद रिलीज हो पायी थी। इशकजादे के जरिए वे आदित्य चोपड़ा के सम्पर्क में आये। इस फिल्म की कहानी और पटकथा में हबीब से ऊपर आदित्य चोपड़ा का नाम है। इशकजादे देखकर यही अन्दाजा होता है कि तार्किकता के धरातल पर यह एक अधूरी फिल्म है। कहानी जिस परिवेश के अनुरूप गढ़ी गयी है, उस तरह से उसे पूरा फिल्माया भी गया है मगर तीन चौथाई बेहतर होने के बाद यह अन्त में लगभग दिशाहीन सी हो जाती है।

उत्तरप्रदेश के हरदोई जिले में इसका फिल्मांकन हुआ है। कुछ दिन पहले ही उत्तरप्रदेश में चुनाव हुए हैं और सरकार बनी है। इशकजादे की कहानी मे नायक का दादा और नायिका का पिता चुनाव मैदान में एक-दूसरे के खिलाफ हैं। फिल्म का आरम्भ नायक-नायिका के बचपन के एक दृश्य से होता है जिसमें स्कूल जाते हुए दोनों में तू-तू, मैं-मैं हो रही है और एक-दूसरे के माता-पिता को दोनों ही भला-बुरा कह रहे हैं। स्थापित करने की कोशिश यह है कि बचपन से ही नफरत है। चौहान और कुरैशी विधायक का चुनाव लड़ रहे हैं। चौहान का बिगड़ैल पोता अपने दादा को जिताना चाहता है। कुरेशी का परिवार भी अपनी दमखम लगा रहा है। इधर युवा हुए नायक-नायिका में वही बचपन वाले हुज्जत भरे आपसी रिश्ते हैं। नायिका, नायक को थप्पड़ मारकर कॉलेज में उसकी बेइज्जती कर देती है जिसके जवाब में नायक अगले दृश्यों में उसको मोहब्बत का यकीन कराता है, दोनों शादी कर लेते हैं लेकिन शादी के बाद अन्तरंग सम्बन्ध स्थापित करके नायक कुटिल हँसी हँसता हुआ बायीं दिशा में चला जाता है, यह कहते हुए कि उसने अपना बदला ले लिया। 

कहानी यहाँ से अपनी दिशा खोती है। एक तरफ नायक इस घटना के एमएमएस पूरे शहर के मोबाइलों में भेज देता है। चुनाव होते हैं और नायक के दादा की विजय हो जाती है। श्रेय नायक को मिलता है। नायक को प्रायश्चित नहीं है। नायिका तेज-तर्रार है, वह गोली मारकर बदला लेना चाहती है। दोनों के परिवार और अविभावक एक-दूसरे का प्रभुत्व स्वीकारने को तैयार नहीं है। नायक की विधवा माँ हिम्मत दिखाती है, अपने बेटे को सही रास्ता दिखाने की कोशिश करती है मगर ऐसी ही एक जद्दोजहद में नायक का दादा, नायक की माँ को गोली मार देता है। मरती हुई माँ नायक से गल्ती सुधारने को कहती है। माँ की मृत्यु और अन्तिम इच्छा से नायक की आँखें खुलती हैं। वह और नायिका विरोधाभासी परिस्थितियों में एक तो हो जाते हैं मगर अब नायक का दादा और नायिका के पिता दोनों आपस में मिल गये हैं और अपने राजनैतिक भविष्य की फिक्र करते हुए यह फैसला करते हैं कि परमा और जोया दोनों को मार दिया जाये। फिल्म का अन्त यह है कि अपने ही दुश्मनों से घिरे परमा और जोया आपस में एक-दूसरे को गोली मारकर जीवन का अन्त कर लेते हैं। 


 इशकजादे, मेरे ख्याल से सही नाम इश्कजादे होना चाहिए, बहरहाल हिन्दी के साथ हिन्दी सिनेमा में और भी बड़ी-बड़ी गुस्ताखियाँ होती हैं, अच्छी स्क्रिप्ट और संवादों के साथ अपने पूरे वातावरण से मेल खाती एक बहुत वास्तविक सी फिल्म है। उत्तरपूर्व का एक स्थान, बालुई जमीन से उड़ती गरम धूल और शारीरिक और मानसिक अराजकता में डूबी बाहुबलियों की दुनिया। देशी कट्टे, पिस्तौल और बन्दूक का इस्तेमाल पटाखे की तरह हो रहा है। देश को ऊँचाई पर ले जाने का स्वप्र देखने वाले तथाकथित जन-प्रतिनिधि और उनकी सोच, घरों की प्रताडि़त होती स्त्रियाँ। निर्देशक फिल्म को यथार्थ के काफी नजदीक ले जाकर बनाता है। गन्दी सडक़ों और गलियों में जान बचाती और जान लेने को आतुर बदहवास दौड़, सब कुछ बड़ी सच्चाई के साथ हम फिल्म में देखते हैं। 

नायक के रूप में हमारे सामने बड़े अरसे बाद एक टफ सा चेहरा है अर्जुन कपूर के रूप में। अच्छा है कि देखने में वो न तो बोनी कपूर और न ही अनिल कपूर की छाया देता है, वह एक मौलिक छबि लगती है। अर्जुन ने अच्छा काम किया है, खासतौर से बहुत गम्भीर होकर हँसने की उसकी अदा कमाल है। परमा के किरदार को वो पूरी तरह माहौलसम्मत अराजकता के साथ निभाता है। मरती हुई माँ के गल्ती सुधारने वाले शब्द ही उसका जीवन बदलते हैं। वहाँ से नायक की एक अलग ढंग की प्रतिभा देखने में आती है। नायिका परिणीति चोपड़ा की अपने किरदार में उपस्थिति ज्यादा मुखर और आत्मविश्वास से भरी हुई है। वह सुन्दर तो है ही साथ ही संवादों पर भी उसका गजब का नियंत्रण है। नायक से उसके रिश्ते परदे पर दर्शकों को लगातार गुदगुदाते हैं। नायक के दादा की भूमिका लखनऊ और देश के जाने-माने रंगकर्मी अनिल रस्तोगी ने निभायी है। वे एक ऐसे किरदार को जीते हैं जो अपने कुटुम्ब-परिवार का मुखिया होने के बावजूद अपने राजनैतिक रसूख और भविष्य की फिक्र में सब कुछ दाँव पर लगा देना चाहता है, फिल्म के अन्त में उसका कुरैशी के साथ मिलकर परस्पर स्वार्थ का विषय छेडक़र नायक-नायिका को मरवा देने का प्रस्ताव, फैसला और उसके उपक्रम हैरतअंगेज हैं। वे अपनी भूमिका को बखूब निभाते हैं, इसलिए भी कि लम्बी रंग-सक्रियता और उपस्थिति में उन्होंने सारे वातावरण को नजदीक से देखा परखा है।

चलते-चलते एक बड़ी खामी का जिक्र यहाँ किया जाना जरूरी है और वह यह है कि इस पूरी फिल्म में जहाँ चुनाव, हिंसा, अराजकता, खून-खराबा, मारधाड़, गोलियों की धाँय-धाँय शुरू से लगभग अन्त तक चल रही है, पुलिस का एक सिपाही भी दृश्य में नहीं है। पुलिस फोर्स, बड़े अधिकारी, कानून के नुमाइन्दे देखने-दिखाने तक को नहीं हैं। समझ में नहीं आता, यह चुनाव जैसी गतिविधि किसी स्थान पर उन परिस्थितियों में हो रही है जहाँ सब एक-दूसरे के खून के प्यासे हों, वहाँ पुलिस है ही नहीं। इसी तरह इस फिल्म का अन्त भी अव्यवहारिक है क्योंकि नायक-नायिका दोनों ही बहादुर और साहसी हैं, वे दूर से आते बदमाशों के को देखते हुए जिस तरह एक-दूसरे को गोली मारकर अपना जीवन खत्म कर लेने के लिक उकसाते हैं, वह गले नहीं उतरता।

बुधवार, 9 मई 2012

आमिर खान होने का अर्थ


आमिर खान की शख्सियत ही आकर्षित नहीं करती बल्कि समग्रता में वे अपने उन सारे आयामों में आकर्षित करते हैं जो उनसे विस्तार पाते हैं। आगे चलकर वे सत्यमेव जयते से बढक़र न जाने कौन सा काम करेंगे कि लोग फिर उनके किए पर चकित या हतप्रभ से रह जायेंगे, मगर अपने आपमें मौलिकता और पुरुषार्थ की अपार सम्भावनाएँ लेकर यह आदमी सचमुच कमाल करता है। विभोर होकर, अनुराग से भरकर हम कभी किसी का माथा चूम लेते हैं, कभी किसी का हाथ चूम लेते हैं, कभी किसी का गाल चूम लेते हैं लेकिन आमिर खान के प्रति जो भाव जागते हैं उसमें उनके लिए दिल से भरपूर दुआ निकलती है। मन कहता है कि नैतिकता और सु-समाज का स्वप्र देखने वाले इस इन्सान का रास्ता निष्कंटक किया जाये।

रास्ता निष्कंटक करने की बात इसलिए भी आती है क्योंकि हमारे यहाँ काँटे बोने और बिछाने दोनों में दक्षों की संख्या बहुत है। आमिर खान का धारावाहिक सत्यमेव जयते कितनी तरहों से निरर्थक साबित किया जा सकता है, इसका प्रयास इसके प्रसारित और हाथों-हाथ लिए जाते ही शुरू हो गया था। प्रवृत्तियाँ इस बात पर जरा भी ठहरने को तैयार नहीं कि एक सृजनात्मक व्यक्ति लम्बे समय से अपने एक महत्वपूर्ण काम, जाहिर है जिससे जनहित भी जुड़ा है, के प्रति कितना एकाग्र है। किस तरह आमिर खान ने अपनी महात्वाकांक्षी फिल्म तलाश का प्रदर्शन छ: माह आगे बढ़ा दिया और सत्यमेव जयते की परियोजना पर हाँ करने के बाद उसकी पारदर्शिता, सार्थकता और सकारात्मकता की फिक्र के साथ उससे जुड़ गये। जाहिर है, यह काम आसान होता तो अब तक कर लिया जाता। 

मिस्टर परफेक्शनिस्ट के रूप में अपने नाम का पर्याय माने जाने वाले आमिर खान फिल्मों से पैसा पीटने वाले सितारे भर नहीं हैं। लगभग चौबीस वर्ष पहले 1988 में आमिर खान की बतौर नायक पहली फिल्म कयामत से कयामत तक आयी थी। पापा कहते हैं बड़ा नाम करेगा, बेटा हमारा ऐसा काम करेगा, यह उस फिल्म का पहला ही गाना था। इस गाने को फिल्म में याद करता हूँ तो आमिर के पापा बने दलीप ताहिल का चेहरा याद आता है जो कॉलेज के समारोह में अपने बेटे को वह गाना गाते हुए दूर से देखते हैं और अपनी भीगी आँखें उंगलियों से पोंछते हैं। हिन्दी सिनेमा में सक्रियता का यह आमिर का पच्चीसवाँ साल है और सचमुच उन्होंने बड़ा नाम किया है। उनकी फिल्में जो चुनिन्दा ही रहीं क्योंकि वे हमेशा सबसे अलग रहे। फिल्म की स्क्रिप्ट से सन्तुष्ट होकर ही हाँ की और इसी का परिणाम है, थ्री ईडियट्स तक आमिर खान का अर्थात्। 

आमिर खान ने निरन्तर काम करते हुए इमेज और उम्र की निरर्थक फिक्र से अलग हटकर काम किया। वे हम हैं राही प्यार के में शरारती बच्चों के मामा भी बने, अकेले हम अकेले तुम में बड़े होते बच्चे के पिता का बड़ा गम्भीर किरदार निभाया, अन्दाज अपना अपना को सलमान खान के साथ एक अलग रंग दिया। सरफरोश में एक पुलिस ऑफीसर की भूमिका को अलग ढंग से प्रस्तुत किया। गुलाम का जाँबाज और दुस्साहसी नायक हो या रंगीला का टपोरी, राजा हिन्दुस्तानी का स्वाभिमानी युवा हो या लगान टीम लीडर। गजनी का प्रतिशोधी और थ्री ईडियट्स का रेंछो आमिर विविधताओं में विलक्षण है। सिनेमा में आमिर खान की सक्रियता ने उनके आत्मविश्वास को लगातार समृद्ध करने का काम किया। सफलताओं ने आमिर खान की दृष्टि और आशावाद को विस्तार दिया। आमिर का हर उपक्रम उनको सुर्खियों में लाता है। उनकी चुप्पी या अन्तराल और अवकाश में भी सुर्खियों के तत्व बड़े दिलचस्प तरीके से देखे जाते हैं। आमिर खान अपने भतीजे का कैरियर भी बनाने के लिए जुटते हैं वहीं पीपली लाइव जैसी फिल्म के पीछे खड़े होकर उसे रातोंरात चर्चित बना देते हैं। पीपली लाइव के नायक नत्था अर्थात ओंकारदास माणिकपुरी ने एक बार अपने टूटे-फूटे लहजे में बताया था, हमसे आमिर खान साहब बोले, भाई तुमने तो हमारा रोल ले लिया, नत्था की भूमिका पहले हम करने वाले थे, जब तुमको देखा तो हमें लगा कि हमसे बेहतर तो तुम कर सकते हो, इसलिए फिर हमने छोड़ दिया। हबीब तनवीर के ग्रुप में तीसरी पंक्ति में रोल करने वाला ओंकारदास अब आमिर की बात कहते हुए जिस तरह प्रफु ल्लित दिखायी देता है, वह कमाल ही है। 

सत्यमेव जयते की टेलीविजन पर शुरूआत 6 मई के रविवार से नहीं हुई है। दअरसल इसका पूर्वरंग तो बड़े पहले से चल रहा था। टुकड़ों-टुकड़ों में, नजदीक आते दिनों की प्रत्याशा में इसको लेकर बहुत सारी जिज्ञासाएँ खड़ी की जा रही थीं जो कि जाहिर है, एक अलग हटकर, महत्वपूर्ण  शुरूआत के लिए मायने भी रखती थीं। टेलीविजन के विभिन्न चैनलों में पत्रकार आमिर खान से बात कर रहे थे। महसूस किया कि अनेक लोगों के पास आमिर खान से करने के लिए गम्भीर और सार्थक सवाल नहीं होते थे। ज्यादातर लोग इस तरह के प्रश्र किया करते जिनमें घूम-फिरकर यही सवाल होता कि आपके शो की अमिताभ बच्चन, शाहरुख, सलमान के शो से तुलना की जायेगी, आपको क्या लगता है, और भी इसी तरह के बेमतलब के प्रश्र लेकिन आमिर खान इस तरह के बेमानी सवालों के जवाब भी शिष्टतापूर्वक दिया करते थे। अपनी बातचीत में वे लगभग अतिविनम्रता के साथ इस बात को रेखांकित किया करते थे कि मैं मानता हूँ तुलना होगी या की जायेगी मगर अपना यह कार्य मैंने ऐसी धारणाओं को सोचकर नहीं किया है। मेरा कार्य सामाजिक सरोकारों का एक अलग तरह का बिम्ब प्रस्तुत करने की कोशिश है, मैं ज्वलन्त और सार्थक प्रश्रों के साथ अधिक से अधिक लोगों के पास पहुँचने की कोशिश कर रहा हूँ। 

हमारे यहाँ मीडिया में अब तेजी से वैसी पीढ़ी की उपस्थिति और आमद रेखांकित हो रही है प्रतिभा और गरिमा की वाकई उस तरह की परख नहीं करती, जैसी करनी चाहिए। आमिर खान या अमिताभ बच्चन या दिलीप कुमार किसी के प्रश्रों का उत्तर देने के लिए उपलब्ध होते हैं, यह आसान बात नहीं है। हो सकता है, जो अच्छे सवाल कर सकता है, वह ऐसा खुशकिस्मत न होता हो, अतएव उस महत्व को समझा जाना चाहिए और उसकी कद्र की जानी चाहिए। जीनियस कलाकारों से बहुत अच्छे उत्तर मिल सकते हैं, मगर उसके लिए व्यक्तित्व और योगदान के आकलन की गम्भीर दृष्टि भी जरूरी है। हालाँकि अन्तत: वह लोकतांत्रिक स्थिति जिसमें फिर सीधे कलाकार अपने प्रशंसक के सामने होता है, ही आदर्श होती है। सत्यमेव जयते से हमारी दृष्टि और खुल रही है। यथार्थ हमको उन सचाइयों से भी अवगत कराता है, जिनको जानकर भी हम अनजान होते हैं। कचरे के पात्र से जूठन खाते गरीब बच्चों को हम भले रोज देखते हों मगर जब हम ऐसे दृश्य बन्ध किसी कहानी में पढ़ते हैं, धारावाहिक या सिनेमा में देखते हैं तब ही हमारी आँखों में आँसू आते हैं। आमिर खान को फिर एक सार्थक सृजनशीलता का आदर्श उदाहरण उपस्थित करने का श्रेय है। यही आमिर खान होने का अर्थ भी है।

बुधवार, 2 मई 2012

सिनेमा सदी में एक महत्वपूर्ण किताब


बीसवीं शताब्दी की महान कला सिनेमा को लेकर सभी के मन में हमेशा ही कौतुहल रहा है। हमें पूरी तरह शायद पता न हो मगर यह एक बड़ी सुखद घटना है कि 2013 का साल हमारे देश में सिनेमा की शताब्दी का साल है अर्थात भारत में सिनेमा की उम्र सौवें वर्ष में प्रवेश कर गयी है। 21 अप्रैल 1913 को मुम्बई के ओलम्पिया सिनेमा में भारतीय सिनेमा के जनक दादा साहब फाल्के ने चुनिंदा मेहमानों के लिए बड़े जतन से बनायी अपनी पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र का प्रदर्शन किया था। यह फिल्म वहाँ तेरह दिन तक चली थी और इतिहास रचा था, इतिहास इस तरह रचा था कि जनता परदे पर जीती-जागती मानवाकृतियाँ देखकर अचम्भित रह गयी थी। यह चमत्कार ही सिनेमा के जन्म की कहानी है। भारत में सिनेमा की शताब्दी की शुरूआत 3 मई से मानी जाती है क्योंकि इसी दिन यह फिल्म कोरोनेशन थिएटर में लगायी गयी जो तेईस दिन तक चली। यह एक रिकॉर्ड था। 

सिनेमा की यात्रा बड़ी लम्बी है। अब तक हम सभी इस मान्यता से काफी बाहर आ चुके हैं कि सिनेमा सिर्फ उतने ही लोगों का सृजन है जो परदे पर नजर आते हैं। वाकई सिनेमा सिर्फ एक कहानी और भूमिकाएँ करने वाले हीरो-हीरोइन, खलनायक, चरित्र अभिनेता, एक्स्ट्रा, गीत-संगीत के ही मेलजोल या उन सबको एक परिकल्पना में अवस्थित कर देने का परिणाम नहीं है। वास्तव में सिनेमा एक साथ सैकड़ों हजारों प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष लोगों के अथक सृजनात्मक योगदान का नतीजा है।

यह अत्यन्त सुखद है कि सिनेमा की शताब्दी की बेला में हिन्दी में एक महत्वपूर्ण किताब इन्दौर से प्रकाशित हुई है। बीते कल के सितारे नाम की इस पुस्तक के लेखक हैं, वरिष्ठ सिने-विश्लेषक श्रीराम ताम्रकर। श्रीराम ताम्रकर की प्रतिष्ठा समकालीन फिल्म पत्रकारिता के क्षेत्र में एक ऐसे अलग मगर विलक्षण साधक के रूप में है जिन्होंने ताजिन्दगी सिनेमा पर काम किया, सिनेमा को जिया और कंठस्थ किया। वे अपनी बातचीत में अक्सर एक्सटम्पोर शब्द का प्रयोग करते हैं, वाकई सिनेमा के मामले में जानकारियाँ, उन्हें बताना, उन पर बात करना और समझाना, ऐसा है कि आपके पास सुनने, समझने की सुरुचि और समय है तो उनका सान्निध्य कमाल है। ऐसे श्रीराम ताम्रकर जो पिछले तीन दशकों में महत्वपूर्ण संग्रहणीय सिनेमा विशेषांकों परदे की परियाँ, सरगम का सफल, नायक-महानायक, दूरदर्शन-सिनेमा, फिल्म और फिल्म, भारत में सिनेमा, विश्व सिनेमा के संचयन और सम्पादन से देश भर में जाने गये हैं, जिन्होंने फिल्म पत्रकारिता का पाठ पिछले तीस सालों में तीन युवा पीढिय़ों को पढ़ाया और पारंगत किया, उन्होंने बीते कल के सितारे किताब लिखकर एक अनूठा काम किया है।

बीते कल के सितारे किताब ऐसे वक्त में अत्यन्त मूल्यवान और संग्रहणीय है जब हमारे यहाँ हिन्दी सिनेमा पर हिन्दी में ही अच्छी, शोधपरक-सुरुचिपूर्ण किताबों का प्रकाशन नहीं होता। तीस साल पहले मनमोहन चड्ढा ने हिन्दी सिनेमा का इतिहास नाम की एक बहुमूल्य किताब लिखी थी। हिन्दी सिनेमा का सारा कारोबार, बातचीत-व्यवहार अंग्रेजी में होता है। आज की कलाकार पीढ़ी को हिन्दी में बात करना सबसे ज्यादा तकलीफदेह लगता है, ऐसे भाषायी संक्रमण में बीते कल के सितारे का प्रकाशन एक सुखद रचनात्मक घटना है। दो सौ बीस पृष्ठों की इस किताब में एक सौ तेईस कलाकारों का उनके योगदान के साथ इस तरह स्मरण किया गया है कि कोई भी पाठक इसे पढ़ते हुए हिन्दी सिनेमा को शताब्दी के यश तक पहुँचाने में अपना अनमोल अवदान करने वाले कलाकारों को जान सकें। इस किताब की खासियत यह है कि इसमें नायक-नायिका, चरित्र अभिनेता, हास्य कलाकार, सशक्त पाश्र्व उपस्थिति वाले कलाकारों पर एक तरह से बड़े ही सुरुचिपूर्ण पाठ लिखे गये हैं। श्रीराम ताम्रकर का लेखन सुबोध और सम्प्रेषणीय है। एक साथ इतने सारे कलाकारों के बारे में जान पाना अपने आपमें रोमांचक अनुभव की तरह है और वह तब होता है जब हम इस किताब को पढ़ते हुए समापन तक जाते हैं।

बीते कल के सितारे में प्रमुख रूप से अशोक कुमार, अजीत, बलराज साहनी, बाबूराव पेंटर, बेगम पारा, भगवान दादा, भालजी पेंढारकर, भारत भूषण, दादा साहब फाल्के, दुर्गा खोटे, देविका रानी, डेविड, गजानन जागीरदार, गोप, गौहर मामाजी वाला, हिमांशु राय, हरिकृष्ण प्रेमी, जद्दन बाई, जुबैदा, जानकी दास, जोहरा सहगल, कन्हैयालाल, कामिनी कौशल, कानन देवी, किदार शर्मा, कुक्कू, कुन्दनलाल सहगल, के. एन. सिंह, ख्वाजा अहमद अब्बास, ललिता पवार, मधुबाला, मास्टर निसार, मीना कपूर, मुबारक बेगम, मुमताज अली, निम्मी, मेहबूब खान, मोतीलाल, नरगिस, नलिनी जयवन्त, नाडिया, नितिन बोस, नूरजहाँ, ओमप्रकाश, पन्नालाल घोष, प्रदीप, प्रमथेश चन्द्र बरुआ, पृथ्वीराज कपूर, सितारा देवी, सुरैया, सुुचित्रा सेन, सुरेन्द्र, सोहराब मोदी, श्याम, शशिकला, शशधर मुखर्जी, शाहू मोडक, शान्ता आप्टे, शोभना समर्थ, शेख मुख्तार, त्रिलोक कपूर, उदय शंकर, वनमाला, विजय भट्ट, विष्णुपंत पगनीस, याकूब इत्यादि कलाकार शामिल हैं। यह उल्लेखनीय है कि इनमें से सर्वाधिक कलाकार अब इस दुनिया में नहीं हैं मगर जो कुछ कलाकार जैसे निम्मी, जोहरा सहगल, सितारा देवी, सुचित्रा सेन, शशिकला आदि जो शताब्दी की इस बेला में हमारे बीच हैं, गौरवशाली उपस्थिति की तरह हैं।

बीते कल के सितारे पुस्तक के लिए लेखक ने दुर्लभ फोटो भी जुटाये हैं जो उनके बरसों के संग्रह का नतीजा है। श्रीराम ताम्रकर ने इस किताब को अपने व्यक्तित्व के अनुरूप ही विनम्रता के साथ प्रस्तुत किया है। हमारे यहाँ प्रकाशनों के वितरण का तंत्र उतना सुगम नहीं है जितनी अपेक्षा की जाती है। यह किताब अपनी रफ्तार से किताबों की दुकान तक पहुँचेगी। लेखक की आकाँक्षा यही रहती है कि ऐसे महत्वपूर्ण काम को देश तक पहुँचाया जाये। पाँच सौ रुपए मूल्य की इस पुस्तक को प्राप्त करके पढऩे के उत्सुक जिज्ञासु पाठक श्रीराम ताम्रकर से सम्पर्क कर सकते हैं। उनका पता - 2 संवाद नगर, इन्दौर - 1 है। किताब के बारे में उनसे प्रतिदिन सुबह 8 से 10 एवं शाम 4 से 6 बजे के बीच उनके फोन नम्बर 0731-2401744 पर बात भी की जा सकती है।

मंगलवार, 1 मई 2012

प्रियदर्शन की अति-तेज़

हिन्दी सिनेमा में बाजार के खतरे जितने ज्यादा बढ़ गये हैं उतना ही ज्यादा असुरक्षित हो गये हैं हमारे फिल्मकार। जितनी बड़ी पूँजी फिल्म बनाने में लगती है, उतना हासिल कर पाना अब आसान नहीं रहा। निर्माण घराने सिमट गये हैं। एक फिल्म बनाने के लिए एक साथ कई संसाधनों पर अवलम्बित रहना पड़ता है। इसके बावजूद नीरस विषय, खराब पटकथा, थके हुए कलाकार और फिल्मकार मिलकर जिस तरह की फिल्में बनाते हैं उनका विफल होना लाजमी है। इन्हीं सारे यथार्थों के बीच प्रियदर्शन की फिल्म तेज देखने का अपना अनुभव रहा है। प्रियदर्शन चूँकि एक महत्वपूर्ण निर्देशक हैं और उनके काम को लेकर अन्ततः यह उम्मीद बची रहती है कि पूरी तरह कूड़ा काम नहीं करेंगे, सो तेज देखने का भी मन हो गया, हालाँकि पिछले एक दशक में हेराफेरी से लेकर बिल्लू और राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त फिल्म कांचीवरम बनाने वाले प्रियदर्शन ने एक साल से ज्यादा समय पूरी तरह इस फिल्म के लिए लगाया। 

तेज को बनाने में भी कई लोगों का हाथ लगा है, भरत शाह, इरोज इन्टरनेशनल, वीनस-यूनाइटेड सेवन जैसे प्रत्यक्ष और अनेक अप्रत्यक्ष लोग। इरोज को छोड़ दें तो अन्य निर्माण घरानों से सफलता रूठी हुई है और कुछ साल से चलन से बाहर भी हैं वे लिहाजा चालीस करोड़ की तेज सबने मिलकर बनायी मगर यह फिल्म आशाओं पर खरी नहीं उतरती। यह फिल्म लन्दन में बनी है। एक युवा लन्दन में अपनी पसन्द की लड़की से शादी करके वहाँ व्यावसाय करके बस जाना चाहता है। नागरिकता का सवाल आता है। कानूनी प्रक्रियाएँ पूरी नहीं की गयी हैं लिहाजा उसे भारत जाने का हुक्म होता है। प्रतिशोध और आर्थिक सुरक्षा की मनःस्थितियों में वह एक अपराध रचता है जिसमें उसका एक मित्र और एक युवती शामिल होते हैं। षडयंत्र रचकर ट्रेन में बम लगा दिया जाता है, जिसके तार नहीं जोड़े गये हैं यह खुलासा बाद में होता है।

पूरी फिल्म इसी बदहवासी में रची गयी है। रह-रहकर परदे पर एक सौ दस मील प्रति घण्टे की रफ्तार से ट्रेन चली जा रही है, गति धीमी की गयी तो बम फट जायेगा। रेल महकमा, पुलिस, अपराधी सब एक-दूसरे में गुंथे हुए हैं। भारतीयों को शक की निगाह से देखने का एंगल भी इस फिल्म में मौजूद है क्योंकि पुलिस अधिकारी अनिल कपूर पर लन्दन मूल की पुलिस का एक अधिकारी अविश्वास करता है। अजय देवगन अपराध की ओर प्रवृत्त युवा जिसके साथी जायद खान और समीरा रेड्डी हैं जो एक बड़ी फिरौती यूके सरकार से हासिल करना चाहते हैं। फिल्म में एक-एक करके तीनों अपराधी मारे जाते हैं लेकिन अन्त में दर्शक को तार्किकता के आधार पर यह फिल्म कुछ दे नहीं पाती। कंगना राणावत चार दृश्यों की हीरोइन हैं लेकिन समीरा रेड्डी ने बीस मिनट के पुलिस को छकाने वाले दृश्य में कमाल कर दिया है।

प्रियदर्शन ने वाकई फिल्म की गति तेज रखी है। कुछ समीक्षकों ने इस फिल्म को स्पीड और द बर्निंग ट्रेन से प्रेरित बल्कि कमजोर नकल माना है। यह फिल्म अपने एक्शन दृश्यों और भव्य सिनेमेटोग्राफी के कारण बांधे रखती है। जहाँ तक प्रभाव की बात है, इसे तीन सितारों वाली फिल्म की श्रेणी में रखा जा सकता है क्योंकि तकनीकी पक्ष बहुत प्रबल हैं। अनिल कपूर को बड़े समय बाद एक अच्छी भूमिका मिली है लेकिन अजय देवगन अपने किरदार के प्रति अन्त तक आश्वस्त नहीं दिखे। जायद की भूमिका छोटी है मगर वह दृश्य महत्वपूर्ण है जिसमें अनिल कपूर उनका पीछा करते हैं। गीत-संगीत सामान्य हैं। विशेष रूप से इस फिल्म में प्रियदर्शन ने अपने बचपन के मित्र और मलयाली सिनेमा के महान अभिनेता मोहनलाल को जाया किया है। उनको इतने सामान्य किरदार में शामिल नहीं किया जाना था। एक जीनियस निर्देशक को अपने जीनियस कलाकार मित्र के साथ ऐसी मैत्री नहीं निभानी चाहिए थी.......................