सोमवार, 28 फ़रवरी 2011

सत्तरवें साल में जगजीत सिंह

दो दिन पहले प्रख्यात गजल गायक जगजीत सिंह का सत्तरवाँ जन्मदिन उनके चाहने वालों ने बड़े प्यार से मनाया। नई दिल्ली के सिरीफोर्ट सभागार में विख्यात कथक नर्तक पण्डित बिरजू महाराज, निर्देशक, पटकथाकार और गीतकार गुलजार और जगजीत सिंह की अनूठी प्रस्तुति त्रिधारा का संयोजन इस विशिष्ट अवसर के लिए किया गया था। जो मंच पर थे, वरिष्ठ कलावन्त, उनके लिए यह साथ एक अविस्मरणीय अनुभव तो था ही साथ ही साथ जो श्रोता-दर्शक इस बहुमूल्य अवसर के साक्षी हुए, वे संस्कृति की इन तीन धाराओं का समवेत शायद लम्बे समय न भुला पायें।

स्वाभाविक रूप से जगजीत सिंह का इस उम्र में आना, बड़ा कौतुहलभरा इसलिए लगता है क्योंकि वे सदैव से अपनी अभिव्यक्त शालीन छबि और व्यवहार से युवा ही दिखे हैं। यकीन ही नहीं होता कि इतने वर्ष उनको गाते हुए हो गये। उनका गला उसी तरह का है, जैसा हमने बरसों से सुना, सुन रखा है या सुनते आ रहे हैं। जगजीत सिंह की सक्रिय उपस्थिति हमें उस माहौल की याद दिलाती है जो लगभग तीन दशक से भी पहले एक साथ अनेक प्रतिभाशाली गजल गायकों की भरपूर सक्रियता और अदम्य ऊर्जा का हुआ करता था। उस समय शायद जगजीत सिंह शीर्ष के एक-दो गजल गायकों की तरह लोकप्रिय नहीं हुआ करते थे मगर धीरे-धीरे देखने में यही आया कि वक्त के साथ-साथ बहुत से नाम पुराने पड़ गये, बहुत सी छबियाँ तेजहीन हो गयीं और बहुत-सों के पास से जादू जाता रहा लेकिन जगजीत सिंह एक ही सन्तुलन से समय को अपनी श्रेष्ठता और उपलब्धियों के साथ साधते हुए यहाँ तक आ गये।

जगजीत सिंह की विशेषता यह रही है कि उन्होंने अपने भीतर से उत्कृष्टता को एक गरिमा के साथ अनुशासित रखा। उत्कृष्टता को भार की तरह या वजन की तरह उन्होंने एक कलाकार के रूप में कभी पेश नहीं किया। कला की दुनिया में उनकी अपनी ख्याति, उनका मूर्धन्य होना और महफिल में अपने एक्सीलेंस को लगातार धार दिए रहना यह सब उस तरह थे जो पूरी तरह उन ही से नियंत्रित हुआ करते थे। जगजीत सिंह किसी दौड़ का हिस्सा नहीं बने इसीलिए न वे जीते और न वे हारे। वे उस दौड़ के दर्शक भी नहीं हुआ करते थे बल्कि अपनी चाल पर उन्होंने सदैव ध्यान दिया और उसका सन्तुलन भी बरकरार रखा। जगजीत सिंह को जगजीत सिंह यही खूबी बनाती भी है।

उनको चाहने वालों का श्रोता-वर्ग अत्यन्त विराट है। गाते हुए वे मन मोह लेते हैं, मुग्ध कर देते हैं। उनके मुरीदों को कई बार उनका बहुत सहज या मिलनसार होकर न मिल पाना, तकलीफ देता है क्योंकि मंच से अलग चाहने वालों की मोहब्बत या आत्मीयता का पक्ष अपनी जगह सम्मोहन से वशीभूत होता है। सितारों से लेकर बड़े और लोकप्रिय चेहरों और शख्सियतों के प्रति आसक्ति रखने वालों की भावना का कुछ नहीं किया जा सकता। बहरहाल, जगजीत सिंह उम्र और यश में और समृद्धि हासिल करें, यह भी उनकी गायिकी के मुरीदों की चाह रहेगी। इस भावना को समझने वाले, चाहने वालों के प्यार से समृद्ध जिन्दगी को अमरत्व के बराबर मानते हैं।

शनिवार, 26 फ़रवरी 2011

गुड्डी कुसुम के सपनों में धर्मेन्द्र

इस रविवार हम जया बच्चन की एक खूबसूरत फिल्म गुड्डी की चर्चा करने जा रहे हैं। इस फिल्म का प्रदर्शन काल 1971 का है। प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी ने इस फिल्म का निर्देशन किया था। यह फिल्म आम आदमी की जिन्दगी में सिनेमा और सपनों के बड़े सम्मोहक और कल्पनातीत अनुभूतियों के यथार्थ को उपस्थित करती है। यों देखा जाये तो हम पहली निगाह में इस विषय को हल्का-फुल्का कह सकते हैं मगर वास्तविकता यह है कि यह एक संवेदनशील विषय था जिसको अपनी सूक्ष्म और समाजप्रतिबद्ध व्यवहारिक दृष्टि से हृषि दा जैसे महान फिल्मकार ने एक अविस्मरणीय फिल्म के रूप में सार्थक किया था।

कुसुम, एक छात्रा है, स्कूल में पढ़ती है। घर-परिवार की लाड़ली कुसुम का नटखट और चंचल स्वभाव उसको अपनों के बीच हमेशा एक ऐसी लडक़ी के रूप में चिन्हित करता है जिसकी दुनिया एकदम सौम्य, निष्कपट और अनुपम है। वह फिल्मों की शौकीन है। खासतौर पर धर्मेन्द्र की बड़ी प्रशंसक है। उनके प्रति कुसम का अनुराग उसी तरह का है जिस तरह का मीरा का कृष्ण के प्रति था। ख्वाबों और ख्यालों में कुसुम के जहन में जो सिनेमा, अपने रोचक और अनूठे दृश्यों के साथ चला करता है, उसके नायक धर्मेन्द्र होते हैं, और नायिका कुसुम स्वयं। हम इस कल्पनाशीलता में कुछ चिरपरिचित गानों के मुखड़े भी सितारा धर्मेन्द्र और कुसुम के रूमानी और गुदगुदाने वाले सरोकारों के रूप में देखते हैं।

एक योग इस तरह का बनता है कि एक फिल्म की शूटिंग हो रही है और मालूम हुआ कि उसमें हीरो धर्मेन्द्र आये हुए हैं। तमाम लड़कियाँ उनका आटोग्राफ ले रही हैं। कुसुम की ख्वाहिश है। वह मिलना चाहती है। कुसुम को धर्मेन्द्र से मिलवाया जाता है। कुसुम के परिजन एक मध्यस्थ के माध्यम से धर्मेन्द्र से मिलते हैं और कुसुम के बारे में बताते हैं। धर्मेन्द्र, कुसुम के मन के भ्रम को दूर करने में परिवार की मदद करते हैं। वो कई बार सेट पर उनसे मिलती है और वो बतलाते हैं कि दरअसल फिल्मों में जो दिखाया जाता है, उसका सचाई से कितना सरोकार होता है और सिनेमा में किरदारों की जिन्दगी, वैभव, सहजताएँ, अनुकूलताएँ वास्तविकता के कितना नजदीक होती है। आखिर कुसुम के मन से सब भ्रम जाते रहते हैं।

गुड्डी की पटकथा स्वयं हृषिकेश मुखर्जी ने लिखी थी जिसमें गुलजार ने उनको सहयोग किया था। सत्तर के दशक में धर्मेन्द्र की सदाबहार मोहक छबि और उनसे जुड़े मैनरिज़्म को यह फिल्म बखूबी दर्शाती है। हृषिदा से अपने रिश्तों के चलते फिल्म में मेहमान कलाकार के रूप में दिलीप कुमार, प्राण, असरानी आदि सितारे भी नजर आते हैं। दूसरी भूमिकाओं में सुमिता सान्याल, अवतार कृष्ण हंगल, उत्पल दत्त, समित भंज, केश्टो मुखर्जी आदि बड़ी खूबसूरती से कहानी का हिस्सा होते हैं। जया बच्चन, तब वे भादुड़ी थीं, इस फिल्म के शीर्षक की ऐसी पर्याय हुईं कि उनको हमेशा गुड्डी ही कहा गया। दरअसल उनकी और धर्मेन्द्र की भूमिका ही इस फिल्म का मुकम्मल अर्थात है। हमको मन की शक्ति देना, गीत अनूठा और यादगार है।

शुक्रवार, 25 फ़रवरी 2011

किरदार में तब्दील होती काया

प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण में अमिताभ बच्चन एक प्राचार्य का किरदार निभा रहे हैं। विषय, फिल्म के नाम के अनुकूल आरक्षण का है। कहानी समाज और शिक्षा के साथ-साथ परिवेश के इर्द-गिर्द घूमती है। फिल्म में अमिताभ बच्चन के साथ-साथ सैफ अली खान, मनोज वाजपेयी, दीपिका पादुकोण और तन्वी आजमी भी अहम भूमिकाएँ निबाह रहे हैं। सहयोगी कलाकारों में मुकेश तिवारी, यशपाल शर्मा, चेतन पण्डित, सौरभ शुक्ला आदि शामिल हैं। प्रकाश झा की फिल्म का क्राफ्ट अपनी तरह का होता है। बहुतेरे दूसरे फिल्मकार अपनी फिल्मों की रचनात्मकता को अपनी दृष्टि से विकसित करते हैं मगर प्रकाश झा, ज्वलन्त विषय उठाते हैं, राजनीति का सिनेमा और सिनेमा की राजनीति दोनों को ही पिछले तीन दशक में बखूबी समझ लेने वाले झा से, यदि यह कहा जाये कि सिनेमा, उनका सिनेमा, नब्ज के साथ नियंत्रित होता है तो कोई अतिश्योक्ति न होगी।

आरम्भ में या प्रगति लेती फिल्म में प्रकाश झा की फिल्म की कहानी को समझ पाना मुश्किल होता है। वे स्वयं भी जाहिर करना पसन्द नहीं करते। यही गम्भीरता और गोपनीय बनाये रखकर बरती जाने वाली एकाग्रता, फिल्म को विशिष्ट बनाती है। दामुल से लेकर पिछली फिल्म राजनीति और बन रही फिल्म आरक्षण तक यही तरीका उनका काम करने का रहा है। वे इस बात को लेकर खुशी जाहिर भी करते हैं कि उनके आसपास बहुत बड़े प्रतिशत में इस बात को आसानी से समझ लिया जाता है और उनको काम करने की स्वतंत्रता बिना व्यवधान के दी भी जाती है। कतिपय कठिनाइयों को कई बार धीरजभर वे वहन भी किया करते हैं। लेकिन इतना तो कहा जायेगा कि जिस तरह की गम्भीरता उनके काम में होती है, वह अब आज के दौर में सक्रिय फिल्मकारों के एक बड़े प्रतिशत में नजर नहीं आती।

आरक्षण में अमिताभ बच्चन के साथ उनका काम करना निश्चित ही महत्वपूर्ण है। कई बार लम्बे समय दो गम्भीर दृष्टि वालों की बैठक नहीं हो पाती और न ही उनमें तादात्म्य स्थापित हो पाता है। हो सकता है इसके अनेक कारण हों मगर सृजन में मील का पत्थर स्थापित होने की बाट समय भी जोहता है और उसके परिणाम भी देता है। अमिताभ बच्चन एक तरह से फिल्म में परदे पर नजर आने वाले कलाकारों और किरदारों दोनों के मुखिया की तरह हैं। फिल्म में उनकी भूमिका निर्णायक है। सही और गलत के फैसले, न्याय और पक्षपात के बीच अपना रुख, तटस्थ भाव या लिए गये निर्णय की आदर्श स्थितियों को लेकर जो उपसंहार आरक्षण फिल्म दर्शक के सामने लायेगी, वह एक सार्थक फिल्मकार, सार्थक कलाकार और सार्थक फिल्म को उसकी सार्थक परिभाषा भी देगी। हमें आरक्षण का इन्तजार इसी अभिलाषा से करना होगा।

बुधवार, 23 फ़रवरी 2011

स्वाभिमान से खड़े होने वाले खाँटी

सिनेमा माध्यम अजब ही है। जाने कितने भेद, जाने कितने भेदिए। कितनी ही तरह के किस्से। मान-अपमान से लेकर गल्प और यथार्थ तक। खाक से फलक तक जाने और वापस खाक पर आने का जीता-जागता, देखा-दिखायी देता दस्तावेज। शुभचिन्तकों से लेकर चाटुकारों और खुशामदगीरों की दुनिया। वक्त के साथ आते-जाते रहने वालों की दुनिया। बुरे वक्त में छोडक़र जाने और कभी-कभी नहीं जाने वालों की दुनिया। मिट चुकने के बाद पुनर्जन्म की गवाह दुनिया। भीड़ से मुहाने पर ला-खड़ा करने वाली किस्मत। शोहरत में भी मुलायम बने रहने के प्रमाण। दुर्गति को प्राप्त होने के बावजूद तनी रीढ़ के अहँकार में जीते चेहरे। पता नहीं कितना अजब-गजब।

बहरहाल, चलता सब है। हिन्दी सिनेमा का भारत के दूसरे तमाम बेहतर और बुरे सिनेमा से अलग ही संसार है जिसमें बहुत सारे पेचोखम मौजूद होते हैं। जिस तरह शिक्षा से लेकर नौकरी और राजनीति से लेकर तमाम दूसरे क्षेत्रों में जमे पैरों पर अपनी विरासत को जमाने की जुगत होती है, वैसी यहाँ भी। चांदी का चम्मच लेकर जन्म लेने वाले बहुतेरे उदाहरण यहाँ मौजूद होते हैं मगर यह भी किस्मत का फेर है कि बहुत सारे चमचमाते चेहरों की आगे की पीढ़ी डफर साबित होती है, वहीं बिना किसी मालिक या पिता के, बिना किसी बड़े समर्थन के अचानक कोई सामने आकर अपना कद बड़ा करता हुआ हमें दीखता है।

कई बार किस्मत बड़ी गजब होती है। सत्तर के दशक में दवाओं की विज्ञापन फिल्म में काम करने वाले सुरेश ओबेरॉय की अच्छी आवाज हमने पहली बार प्रकाश मेहरा की फिल्म लावारिस में सुनी। मेहरा, सुरेश ओबेरॉय के काम से इतने प्रभावित थे कि अपनी एक फिल्म घुंघरू की वो भूमिका उनको दी जो अमिताभ बच्चन को ध्यान में रखकर लिखी गयी थी। सुरेश ओबेरॉय सामान्य भूमिकाओं में चलते रहे मगर उनके बेटे विवेक ने पहली फिल्म से ही अपनी पहचान बनायी। बाद में भले वे भटकाव के शिकार हुए मगर उनकी आमद दुरुस्त थी। राकेश रोशन कभी बड़े सितारे नहीं रहे मगर जब उनके बेटे हिृतिक हीरो बने तो शाहरुख खान को पसीना आ गया। शाहिद कपूर भी अपनी मेहनत से आगे आया होनहार कलाकार है। टिप्स ने शाहिद को ब्रेक दिया। उससे पहले वे सुभाष घई की फिल्म ताल में एक्स्ट्रा कलाकार की तरह एक गाने में पीछे नाच रहे थे।

शाहरुख खान भी कुन्दन शाह, अजीज मिर्जा, राज कँवर जैसे निर्देशकों के माध्यम से मुम्बइया सिनेमा में आये और बहुत सारे सितारों पर भारी पड़े। आज भी वे अपनी जगह कम नहीं हैं मगर इन दिनों उनकी ऊ र्जा खुन्नस और उसके तनाव को भोगने में ज्यादा व्यतीत हो रही है। अभिषेक बच्चन, अपने बूते सरकार में जरा बेहतर लगे थे लेकिन बाद में लगातार उनका काम खराब हुआ। उम्र बढऩे और रणवीर तथा नील जैसे सितारों में अधिक ऊर्जा दिखायी देने के साथ ही उनका भविष्य खास नजर नहीं आता। हम इरफान खान के रूप में इसी दौर में अपने स्वाभिमान और असाधारण प्रतिभा से भरे कलाकार को देखते हैं, तो अचम्भित रह जाते हैं।

अच्छे फिल्मकारों के खराब काम

एक अखबार में पढ़ा कि मधुर भण्डारकर को दिल तो बच्चा है जी बनाते हुए कोई खास परेशानी नहीं हुई। वे इसी बात को लेकर सन्तुष्ट रहे कि कम लागत में फिल्म बना लिया करता हूँ और अधिक सा मुनाफा हो जाया करता है। दिल तो बच्चा है जी उनकी एक दृष्टिसम्मत असावधानी हो सकती है ये वे नहीं मानते। उन्हे भी कम खर्च से आने वाला ज्यादा मुनाफा सुहाता है। दरअसल अच्छे फिल्मकार के रूप में जगह बना लेने के बाद किया जाने वाला खराब काम कितनी फजीहत का सबब बनता है, इसके बारे में सोचने की फुरसत ऐसे फिल्मकारों को नहीं रहती होगी। बेचने वाले की छबि के मोल पर खराब सामान का बिक जाना वास्तव में बड़ा दुर्र्भाग्यपूर्ण है। फिल्मकार नहीं जानते कि वे दर्शक को छला करते हैं इस तरह और अपना भरोसा कम करते जाते हैं।

कभी-कभी अच्छे फिल्मकारों का खराब प्रमाणित या घोषित हुआ काम संजीदा दर्शकों को ज्यादा तीव्रता के साथ आकर्षित करता है। विफलता, बाजार हारने की स्थितियों पर ही नहीं आँकी जाती। अपने वक्त में बासु भट्टाचार्य की फिल्म तीसरी कसम और कमाल अमरोही की फिल्म पाकीजा भी व्यावसायिक रूप से बड़ी हानि का शिकार हुई थीं लेकिन बाद में दर्शकों ने इन फिल्मों के मर्म को जाना और ज्यादा शिद्दत से उसको देखकर अपने ही निर्णय को बदल दिया। केवल पाकीजा या तीसरी कसम ही इस बात के उदाहरण नहीं हैं। राजकपूर की फिल्म मेरा नाम जोकर को देखने का मोहसंवरण आज भी दर्शक नहीं कर पाते जबकि प्रदर्शन के वक्त इस फिल्म के आर्थिक परिणामों ने शोमैन को सबसे ज्यादा व्यथित किया था।

पाँचवें से लेकर सातवें दशक तक हिन्दी सिनेमा में मुम्बई, कोलकाता, चेन्नई के निर्माण घरानों ने पूँजी लगाकर, अच्छे निर्देशकों का चयन करके श्रेष्ठ फिल्मों का निर्माण किया था। फिल्मिस्तान, जेमिनी, प्रसाद, बॉम्बे टॉकीज, प्रभात, राजकमल आदि घरानों ने श्रेष्ठ और उत्कृष्ट सिनेमा के इतिहास रचे हैं। इनके माध्यम से सफल फिल्में भी आयीं और ऐसी भी जो टिकिट खिडक़ी पर चल नहीं सकीं। मगर बाद में दर्शकों ने ऐसी फिल्मों के पुनरावलोकन में कथ्य और अभिव्यक्ति के साथ-साथ दृष्टि-मर्म को भी जाना। मेहबूब खान से लेकर के. आसिफ तक, शशधर मुखर्जी से लेकर बिमल राय तक की फिल्मों में नरम फिल्में शामिल हैं।

हमें कभी-कभी गुजारिश जैसी फिल्मों को भी संजीदगी से देखने का साहस जुटाना चाहिए। गुजारिश जैसी फिल्म दर्शक से धीरज और तहजीब की भी मांग करती है, जो कि उसकी संवेदना और मर्म तक पहुँचने के लिए अपरिहार्य भी है। हाँ, सचमुच, जो बुरी फिल्में होने के लायक हैं, उनको बख्शना नहीं चाहिए।

सोमवार, 21 फ़रवरी 2011

चुनौतियों के जरिए सफलता का मार्ग

बुरा सिनेमा देखते-देखते अघाये दर्शक के सामने एक तरफ अच्छा देखने का संघर्ष है तो दूसरी तरफ निर्माता-निर्देशकों और अभिनेता-अभिनेत्रियों के सामने उस रास्ते को खोजने की चुनौती जिसके माध्यम से वे ऐसा कुछ कर सकें कि बिसूरे दर्शक एक बार फिर सिनेमाघर की तरफ लौट सकेें और सिनेमा के अच्छेपन पर उनका विश्वास पुन: कायम हो सके। रास्ते ढूँढ़े जाते हैं, उन रास्तों पर चला जाता है, सफलता मिल गयी तो उसकी खुशी मनायी जाती है और नहीं मिली तो फिर स्यापा तो है ही। आजकल मौलिकताओं के फेर में लोग ज्यादा नहीं पडऩा चाहते। फार्मूला बड़ी चीज है, उसे खोजना-पाना अपने आपमें एक काम है। दौर दोहराये जा रहे हैं। रस छोड़ चुका गन्ना मशीन में इस उम्मीद से लगा दिया जाता है कि बचा-खुचा और बह निकलेगा। इसके बाद भी सफलता का ऊपरवाला ही मालिक है।

इस समय हम दो-तीन अभिनेत्रियों को अपने कैरियर में जाते-जाते एक बार अपना झण्डा बुलन्द करने की जद्दोजहद देख रहे हैं। ये अभिनेत्रियाँ हैं रानी मुखर्जी, विद्या बालन और प्रियंका चोपड़ा। दो ज्यादा पापुलर नायिकाएँ करीना और कैटरीना, चुनौतियों के फेर में वक्त गँवाने वाली नहीं हैं, वे अपने बेहतर वक्त को जीते हुए एक दिन अचानक ही अपनी जगह पर किसी को स्थापित हुआ देखेंगी। सिनेमा में सचमुच वक्त अपनी तरह से जमावटें करता है और एक सीमा के बाद सभी को अपना रास्ता या तो बदलना होता है या खुद को बदलना होता है या फिर अपना रास्ता देखना होता है।

रानी मुखर्जी का समय एक तरह से व्यतीत हो चुका है मगर वे नो वन किल्ड जेसीका के माध्यम से एक बार अपने आपको किसी तरह जमाने में सफल रही हैं। यह किरदार उन्होंने उसी तरह जिया, जिसके माध्यम से उनका कलाकार भी यही साबित कर पाया कि तिलों में अब ज्यादा तेल नहीं बचा। विद्या बालन के पास अपेक्षाकृत अभी वक्त है। वे इश्किया से लेकर नो वन किल्ड जेसीका तक कुछ प्रयोग अपने लिए कर रही हैं, उनके किरदार बोल्ड हुए हैं, आगे भी कुछ फिल्मों के लिए वे अलहदा उत्साह से जुटी हैं। तीसरी कलाकार प्रियंका चोपड़ा का वक्त कुछ बेहतर दिखायी देता है। अभी सात खून माफ के लिए संजीदा समीक्षकों ने प्रियंका को उनके किरदार में बहुत सराहा है। विशाल भारद्वाज के साथ कमीने और यह नयी फिल्म उनकी अभिव्यक्ति में एक तरह का तीव्र इन्फ्लुएन्स पेश करती हैं। निर्देशक अब उन्हें और बेहतर भूमिकाएँ दें, यह भी प्रियंका का इशारा आगे के लिए है। चुनौतियों के जरिए ही सफलता का मार्ग भी सुनिश्चित है, इस पर अब प्रियंका का अगाध विश्वास हो गया है।

रविवार, 20 फ़रवरी 2011

स्वाभिमान और सम्मोहन की समस्याएँ

ग्लैमर, अपने आपमें एक बड़ा और भव्य सा ऐसा शब्द है जिसके अपने व्यापक विस्तार हैं। बहुत सारे लोकप्रिय माध्यमों में काम करने वाले इस वैभवशाली शब्द के केन्द्र मेंं होते हैं और उनके सामने तमाम संख्या विभिन्न कारणों से उनकी मुरीद। एक तरफ बिना सोचा-समझा आकर्षण है तो दूसरी तरफ अपनी निजता और व्यवहारिक समस्या की फिक्रें। जो ग्लैमर के केन्द्र में है, वह लगातार लम्बे समय ऐसे यश-वैभव को जीते हुए अपना स्वभाव निर्मित करता है।

धरातल दो तरह के होते हैं। एक तरफ जो मुरीद हैं वो हर लोकप्रिय चेहरे को जानते हैं। यह देशव्यापी प्रभाव होता है। दूसरी ओर सम्मोहन के वशीभूत मुरीद लोगों को वो बिल्कुल नहीं जानते-पहचानते जो लोकप्रियता का आइकॉन बन चुके होते हैं। एक तरफ हार्दिक उदारता की अपनी सीमा या संकीर्णता है, कि आप लोगों से मिलो या नहीं मिलो, कितना और कैसा तथा किस सीमा तक मिलो, उनकी भाषा में कहें तो, बर्दाश्त करो। दूसरी तरफ भीड़, समूह या समाज का अपना आकर्षण आपको चैन नहीं लेने देना चाहता। या तो उसके हाथ में आपकी उंगली आयेगी नहीं, जिसके लिए वह जी-जान एक किए हुए है और यदि आ गयी तो फिर वह उसे छोड़ेगा नहीं भले ही टूट कर वह उसके हाथ में क्यों न आ जाये। हो सकता है, दीवानगी उसे भोलेपन में इतना निर्मम बना दे।

बहरहाल सिनेमा की दुनिया में ऐसे उदाहरण बहुत होते हैं। भोपाल में अब फिल्में बनने लगी हैं, या कह लें खूब बन रही हैं, और यह शहर अभी अपने मुरीदों के धीरज के इम्तिहान का किस्म-किस्म के किस्सों से रूबरू हो रहा है। प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण की शूटिंग इस बार और अधिक अनुशासित ढंग से हो रही है, उसकी अपनी गोपनीयता, सख्ती और एकाग्रता है मगर निष्प्रभावी से लेकर प्रभावी तक सभी के एकसूत्रीय लक्ष्य विभिन्नताओं के साथ कई आयामों में सक्रियता लिए हुए हैं। सबसे बड़ा कारण अमिताभ बच्चन हैं जिनके दीदार तक को लोग तरसे हुए हैं। उनका चेहरा जब तक देख न लें, उनसे एक बार मिल न लें तब तक जीवन व्यर्थ सा है। तमाम तरह प्रयास और प्रभाव हैं, समूह से लेकर अकेले में मिलने की ख्वाहिशें। एक सामूहिक समझदारी केवल जी-कड़ा करने से ही आ जायेगी। काम करने वालों को काम करने देना चाहिए।

दर्शकों ने पूरा जीवन अमिताभ बच्चन को फिल्म में देख-देखकर ही महानायक बनाया है, मेल-मुलाकात या दीदार कोई अपरिहार्यता नहीं रही कभी। आरक्षण भी एक न एक दिन सिनेमाघर में आयेगी ही। अपने ब्लॉग में भोपाल और भोपाल के लोगों की तारीफ करने वाले अमिताभ बच्चन चाहें तो एक बड़े दिल का निर्णय इस फिल्म की शूटिंग या अपना काम समाप्त होने के बाद यह पहल करके कर सकते हैं कि वे लाल परेड ग्राउण्ड में पूरे भोपाल को आधा घण्टा सम्बोधित कर दें, मध्यप्रदेश शासन के समन्वय और परस्पर विचार से। मध्यप्रदेश सरकार भी चाहे तो उनका नागरिक अभिनंदन वहाँ कर सकती है और वे उसके लिए च्डिजर्वज् भी करते हैं। उनका और भोपाल, दोनों का मान रह जायेगा।

शनिवार, 19 फ़रवरी 2011

बासु चटर्जी की अविस्मरणीय फिल्म "स्वामी"

रविवार को फिल्म विशेष के पुनरावलोकन के तारतम्य में इस बार हम विख्यात निर्देशक बासु चटर्जी की फिल्म स्वामी की चर्चा कर रहे हैं। इस फिल्म का निर्माण 1977 में हेमा मालिनी की माँ जया चक्रवर्ती की निर्माण संस्था जया सारथी कम्बाइन्स के बैनर पर हुआ था। दौर बहुल सितारा फिल्मों का था, अमिताभ बच्चन जैसे अभिनेता दीवार से ऊँचाई पर पहुँच चुके थे, शोले आ चुकी थी। मनमोहन देसाई और प्रकाश मेहरा के साथ यश चोपड़ा जैसे प्रतिष्ठित निर्देशक इस दौर में अपना परचम फहरा रहे थे, उसी गहमागहमी में बासु दा की यह प्यारी और अच्छी सी फिल्म स्वामी आयी थी।

स्वामी में हिन्दी सिनेमा के दर्शकों ने पहली बार कन्नड़ के प्रख्यात अभिनेता-रंगकर्मी गिरीश रघुनाथ कर्नाड को नायक के रूप में देखा। शाबाना आजमी फिल्म की नायिका थी। यह फिल्म एक नायिका को पारिवारिक अनुशासन में विवाह होने के उपरान्त प्रेमी की दुनिया में अपने छूटे अपने मन से उत्पन्न विचलन को व्यक्त करती है। नायिका सौदामिनी का विवाह से पहले एक प्रेमी नरेन्द्र होता है जिसे वह भुला नहीं पाती। सुदूर गाँव में एक पारम्परिक और पारिवारिक कुटुम्ब में वह बहू बनकर आती है जहाँ उसे घुटन महसूस होती है। वह परिवार और पति घनश्याम से अपने तादात्म्य स्थापित कर पाने में बहुत कठिनाई महसूस करती है। उसे अपने पति की सौतेली माँ और रिश्ते-नातों से निबाह करना कठिन हो जाता है।

इधर नरेन्द्र भी सौदामिनी को भूल नहीं पाता। वह उपाय करता है कि किसी तरह सौदामिनी के घर जाकर उससे मिले और विवाह के बावजूद उसके मन में सौदामिनी को लेकर जो भावनाएँ हैं, उसे व्यक्त करे, उसकी आत्मीयता हासिल करे। परिवेश में असहज और माहौल से असहमत सौदामिनी एक बार फिर नरेन्द्र के बहकावे में आ जाती है और उसके साथ चले जाना चाहती है लेकिन नैतिकता और आदर्श के साथ-साथ दृढ़ आचरण की मिसाल घनश्याम, सौदामिनी को रेल्वे स्टेशन से घर वापस ले आता है और नरेन्द्र रेल में बैठा अकेला लौट जाता है।

शरतचन्द्र चटर्जी के उपन्यास पर बनी इस फिल्म की पटकथा मन्नू भण्डारी ने लिखी थी। स्वामी अपने समय की एक खूबसूरत और मन में गहरे उतर जाने वाली फिल्म है। इस फिल्म के गीत अमित खन्ना ने लिखे थे और राजेश रोशन ने संगीत दिया था। येसुदास की आवाज में, का करूँ सजनी, आये न बालम, सौदामिनी के विरह और बेचैनी का एक तरह से उसके सामने प्रतिबिम्ब बनकर दृश्य में सार्थक होता है। बासु चटर्जी, एक मर्मस्पर्शी कहानी को अपनी रचनात्मक दृष्टि से एक अनूठे तानेबाने में रचकर साकार करते हैं। फिल्म में उत्पल दत्त, शशिकला और धीरज भी अपनी भूमिकाओं में कहानी का सहज और प्रभावी हिस्सा बनकर प्रभावित करते हैं। यह फिल्म देखना, सचमुच एक अनूठा अनुभव साबित होता है।

गुरुवार, 17 फ़रवरी 2011

प्रीत ये कैसी बोल री दुनिया : निम्मी

18 फरवरी, भारतीय सिनेमा के स्वर्णयुग की एक प्रमुख अभिनेत्री निम्मी का जन्मदिन है। अटहत्तर वर्षीय यह अभिनेत्री मुम्बई में जुहू के निकट एक फ्लैट में रहती हैं और खाली पलों में बीते लम्हों को याद करती हैं। सिनेमा में हम जो समय देख रहे हैं, वहाँ सक्रिय पीढ़ी आपस में एक-दूसरे से छींटाकशी, द्वेष और परस्पर नीचा दिखाने वाले रिश्ते निभा रही है। ऐसे में भला किसके पास इतना वक्त होगा कि वो प्राण साहब को जन्मदिन की मुबारकबाद दे आये, निम्मी के पास बैठ आये, हंगल की सुध-बुध ले या खैयाम को जन्मदिन की बधाई कहे? सचमुच एक विचित्र सा गलाकाटस्पर्धी समय है और किसी को अपने पीछे का याद नहीं है।

खैर, पुरोधाओं को इससे क्या फर्क पड़ता है? अपने हुनर और प्रतिभा से बीसवीं सदी के इस सबसे चमत्कारिक माध्यम में चार चांद लगाने वाले और अपनी सहभागिता से इतिहास रचने वाले कलाकार अपने स्वाभिमान को भी जी रहे होते हैं। उनके पास देने के लिए आशीर्वाद होता है मगर उसे वे लिए-लिए नहीं फिरते, अपनी गरिमा के साथ अपने पास सहेजकर रखते हैं। अभी पिछले रविवार हमने मेहबूब खान की फिल्म अमर की चर्चा की थी जिसमें निम्मी का जिक्र आया था। सत्रह वर्ष की उम्र में राजकपूर की फिल्म बरसात से शुरूआत करने वाली निम्मी ने के. आसिफ की फिल्म लव एण्ड गॉड के बाद अपने काम को विराम दिया था। लेखक-पटकथाकार अली रजा से उनका विवाह हुआ था। अस्सी के बाद फिर उन्होंने काम नहीं किया।

निम्मी से राजकपूर उस वक्त प्रभावित हुए थे, जब वे अन्दाज के सेट पर मेहबूब खान से मिलने आयीं थीं, जिनसे उनके परिवार का करीबी रिश्ता था। फतेहाबाद, आगरा की रहने वाली निम्मी का नाम नवाब बानो था। बरसात में वे अभिनेता प्रेमनाथ की हीरोइन बनी थीं। इस फिल्म में उन पर तीन गाने फिल्माए गये थे, बरसात में तुमसे मिले हम, जिया बेकरार है और पतली कमर। दिलीप कुमार उन दिनों मधुबाला, नरगिस आदि के साथ काम कर रहे थे मगर निम्मी के साथ भी उनकी फिल्में लगातार आयीं थीं जिनमें दीदार, दाग, आन और अमर प्रमुख हैं। तीस साल के अपने कैरियर में उन्होंने चालीस से ज्यादा फिल्मों में काम किया जिनमें भँवरा, सजा, आंधियाँ, उडऩ खटोला, भाई-भाई, मेरे मेहबूब, बसन्त बहार, चार दिल चार राहें आदि उल्लेखनीय हैं।

निम्मी, खूबसूरत आँखों वाली सम्मोहक अभिनेत्री स्वीकारी जाती रहीं। उनकी भूमिका, सहनायिका जैसी कभी नहीं रही। यादगार फिल्मों में उन पर अनेक न भूले जाने वाले गाने फिल्माए गये जिनमें सजा का, तुम न जाने किस जहाँ में खो गये, आन का, आज मेरे मन में सखी बाँसुरी बजाए, दाग में, प्रीत ये कैसी बोल री दुनिया, अमर में, उड़ी उड़ी छायी घटा, उडऩ खटोला में, हमारे दिल से न जाना, भाई-भाई में, मेरा नाम अब्दुल रहमान, मेरे मेहबूब में, अल्ला बचाये नौजवानों से और आकाशदीप का, दिल का दिया जला के गया, ये कौन मेरी तन्हाई में, आज भी अमर हैं।

बुधवार, 16 फ़रवरी 2011

जयन्त देशमुख की कला-दृष्टि

जयन्त देशमुख की ख्याति एक जाने-माने कला निर्देशक के रूप में पिछले एक दशक में व्यापक रूप से समृद्ध हुई है। इन दिनों प्रकाश झा की फिल्म आरक्षण, जिसके भी वे कला निर्देशक हैं, के काम से उनका अनवरत भोपाल आना-जाना हो रहा है। शायद यह बात यहाँ कहना अतिश्योक्तिपूर्ण लगे, मगर यह सच भी है कि भोपाल को फिल्मकारों की सुरुचि और आकर्षण के दायरे में लाने का एक बड़ा श्रेय इस शख्स को जाता है।

पिछले एक दशक में ऐसा अनेक बार हुआ जब जयन्त ने निर्देशकों को भोपाल के बारे में बताया, लोकेशन देखने के लिए भोपाल और आसपास के स्थान सुझाये और उनको इस बात के लिए सहमत कराने की कोशिश की कि मुम्बई और दूसरे आउटडोर की अपेक्षा भोपाल और उसका परिवेश फिल्म निर्माण के लिए अनुकूल ही नहीं बल्कि उपयोगी और लाभप्रद भी है। जयन्त देशमुख अस्सी के दशक की शुरूआत में रायपुर से भोपाल रंगकर्म करने आये थे। भारत भवन स्थापित हुआ था और उसके चार प्रभागों में से एक रंगमण्डल एक नयी ऊर्जा के साथ सक्रिय हो रहा था। जयन्त उस सपने का युवा चेहरा थे। उस समय की बहुत सी यादें हैं। जयन्त को मंच निर्माण और विभिन्न रचनात्मक आकल्पन प्रकल्पों में अपना रुझान अधिक व्यक्त करने की ललक हुआ करती थी। वे अभिनेता तो थे ही मगर बाकी काम वे बिना आदेशित हुए अपनी मरजी और रुचि से ले कर किया करते थे।

रंगमण्डल के बन्द हो जाने के बाद उसके तनाव को सिरमाथे लिए रहने के बजाय उन्होंने मुम्बई का रुख करना मुनासिब समझा और मुम्बई में आरम्भ में, उस तरह की शुरूआत जैसी कि हर बेचैन और कल्पनाशील युवक की होती है, वैसी ही की। जयन्त का यह बहुत समझदार निर्णय था कि उन्होंने अपने आपको कला निर्देशक के रूप में एकाग्र किया और दिन-रात अथक परिश्रम किया। आज जयन्त अपनी उपलब्धियों, ऊँचाइयों और उस सबके साथ-साथ अपनी वही तीस साल पहले की सहजता और यारबाजी से प्रभावित करते हैं। भोपाल में जयन्त अपनी घेराबन्दी को भी महसूस करते हैं। पुराने और परिचित चेहरों में अपेक्षाएँ उनके इर्दगिर्द सार्वजनिक और एकान्त के हर क्षण का अतिक्रमण करती हैं मगर जयन्त मुकम्मल विनम्र हैं, अपनी सीमाएँ उतना समझा नहीं पाते, जितना खुद समझते हैं।

जयन्त देशमुख की दृष्टि, व्यावसायिक कला निर्देशकों से कहीं ज्यादा रचनात्मक और सर्जनात्मक है। पारम्परिक शिल्प, किताबें, पेंटिंग्स उनके काम में गरिमापूर्ण ढंग से अपनी जगह पाते हैं। पचास फिल्में और धारावाहिक कर चुका यह आर्ट डायरेक्टर प्रसंग, वातावरण, प्रवृत्ति और देशकाल के अनुरूप ऐसे स्थान, गाँव, बस्ती, मकान और घर खड़े करता है, जो वहाँ रहने वाले मनुष्यों की मन:स्थिति का जैसे पर्याय होते हैं। मकबूल, तेरे नाम, आँखें, दीवार, बवंडर, राजनीति, आरक्षण से आगे आयाम बड़े और विहँगम तक जाते हैं। तकनीकी भाषा में क्रिएशन से लेकर डिस्मेंटल तक यह शख्स अपनी आँख से सब कुछ जैसे जादूगरी में रचता है। अपनी बातों में जयन्त देशमुख कुछ बड़े सपनों पर झीना दुपट्टा डालकर दिखाते हैं। आगे और बड़ा करने का जज्बा उनका अभी पूरा नहीं हुआ है।

मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

फिल्म रंगीन करने के प्रयोग

फरवरी के पहले सप्ताह में देव आनंद का मुम्बई में घर से बाहर निकलकर लोगों से मिलना और अपनी यादगार फिल्म हम दोनों को रंगीन संस्करण में देखने का अनुरोध करना, व्यापक चर्चा का विषय बना। लगभग 83 साल के देव आनंद का अपनी पाँच दशक पुरानी फिल्म के साथ जुडऩा और उसके समर्थन में आना सराहना की बात है। यह बात अलग है कि लगभग एक साल से भी अधिक समय से इस फिल्म को रंगीन करने की तकनीकी प्रक्रिया के चलने, ऐसा व्ययसाध्य काम होने के बावजूद दर्शकों में हम दोनों के लिए कोई उत्साह दिखायी नहीं दिया। इसके बावजूद सुना जा रहा है कि साहब बीवी और गुलाम, चौदहवीं का चांद आदि फिल्मों को भी रंगीन किए जाने का विचार हो रहा है।

इस तरह की पहल कुछ वर्ष पहले के. आसिफ की फिल्म मुगले आजम के साथ हुई थी। यद्यपि इस फिल्म के कुछ दृश्य, खासकर, प्यार किया तो डरना क्या, गाने के दृश्य रंगीन थे जिसमें प्रेमासक्त अनारकली की गुस्ताखियों से अकबर का चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ, सुर्ख लाल दिखायी देता है। निर्देशक को इतना सा काम रंगीन करने के लिए बहुत पैसे खर्च करने पड़े थे। यही फिल्म जब कुछ समय पहले रंगीन करके दिखायी गयी तब लोगों में इसका यकायक आकर्षण व्याप्त हुआ। तीन-चार हफ्ते रंगीन मुगले आजम सिनेमाघरों में लगी भी रही।

दूसरी पहल बी.आर. चोपड़ा की फिल्म नया दौर को लेकर की गयी। नया दौर भी अपने दौर की सबसे सफल और एक तरह यादगार फिल्म है। कहानी से लेकर, कलाकारों का अभिनय, विषय वस्तु, गीत-संगीत सभी का अपना जादू था जो आज भी उसी तरह कायम है। नया दौर को रंगीन बनाकर पेश करने का उपक्रम बी.आर. चोपड़ा के बेटे रवि चोपड़ा की पहल पर हुआ था, इस फिल्म को भी मुगले आजम की तरह तो नहीं मगर कुछ सफलता मिली लेकिन तब उस संकेत को निर्माता समझ नहीं पाये कि आज के दर्शक की रुचि कालातीत सिनेमा, भले ही वह श्रेष्ठ या उत्कृष्ठ मानकों का क्यों न हो, इस तरह से देखने में रुचि नहीं है।

नवकेतन की हम दोनों तीसरा प्रमाण है। इस तरह की पहल के साथ जिस तरह के माहौल को जगाने की अपेक्षा होती है, उस तरफ ध्यान ज्यादा नहीं दिया गया। जिस तरह फिल्म सहज भाव से प्रदर्शित कर दी गयी, उसमे सफलता की गुंजाइश ही नहीं बनी। बेहतर होता, देव साहब घर से बाहर निकलकर मुम्बई की सडक़ों तक ही अपने आपको सीमित न रखकर देश के दस-पचीस शहरों में आते। निश्चित ही इससे बेहतर माहौल बनता। हालाँकि प्रबुद्ध समीक्षकों का एक बड़ा और संजीदा वर्ग कालजयी फिल्मों को रंगीन किए जाने के सैद्धान्तिक खिलाफ है। उनका मानना है कि इस तरह ये फिल्में अपना रस, असर और प्रभाव खो देंगी जो श्वेत-श्याम प्रस्तुति में दर्शकों के मन में गहरे उतरता था। पाठक क्या कहते हैं?

सोमवार, 14 फ़रवरी 2011

सुर्खियाँ और शाहिद कपूर

शाहिद कपूर एक चॉकलेटी चेहरा है। मासूम और खूबसूरत हीरो। उनके चेहरे पर गजब का भोलापन है। सभी को सुहाते हैं। जब टिप्स ने उनको पहली बार लाँच किया था, तब लगता नहीं था, कि उनका स्थान इतनी जल्दी आसानी से बन जायेगा। बावजूद एक जीनियस अभिनेता पंकज कपूर के बेटे होने के, उन्होंने शुरूआत अपने ही बूते की थी। पहली फिल्म को मिली सफलता से उनके रास्ते खुले, एक के बाद एक फिल्में मिलीं और धीरे-धीरे सभी बड़े कैम्प में वे शामिल हुए। यशराज कैम्प से लेकर विशाल भारद्वाज की फिल्म कमीने तक उनकी यात्रा दिलचस्प रही है।

निश्चित तौर पर शाहिद कभी ऐसी पर्सनैलिटी नहीं बन पाये कि नम्बर एक की दौड़ में शामिल दिखायी दें मगर वे चलन से कभी बाहर नहीं हुए और इन सात-आठ सालों में उनको खूब जाना गया। उनको एक परस्पर ख्याति करीना कपूर के प्रेमी होने की भी मिली, जिसमें कोई परदेदारी नहीं थी। उनके किस्से तमाम, आम हुए मगर जोड़ी भी कमाल थी जो परदे पर न सही परदे के बाहर तब तक जमती रही, जब तक अचानक उसके टूट जाने की खबर नहीं आयी। करीना, सैफ की हो गयीं और शाहिद कुछ समय अकेले रहकर पहले विद्या बालन और फिर प्रियंका चोपड़ा के करीब आये।

कमीने में प्रियंका, शाहिद कपूर की नायिका रही हैं। इस फिल्म से ही नजदीकियाँ किस्सों में तब्दील हुईं और यह मासूम, शाहिद एक बार फिर जिस दुनिया की जीवनशैली में महारथ हासिल करने वाले के रूप में लोकप्रिय हुआ, एक बार फिर हो गया।

अभी एक विज्ञापन में जिस तरह प्रियंका और शाहिद दिखायी दे रहे हैं, उसमें अनौपचारिकता और रिश्ता दोनों दिखायी देते हैं। वैसे शाहिद को चाहने वाले, उनके हमदर्द यह चाहते भी थे कि टूटे दिल का यह खिलौना, फिर खिल उठे। खिलौना खिल भी उठा और खिलखिला भी रहा है। शाहिद एक कलाकार के रूप में मेहनती और अपने किरदार को जी-भरके जीने वाले माने जाते हैं। कमीने से उन्होंने यह साबित भी किया। उनको भरपूर सफल जानकर उनके पिता का प्यार भी उन पर उमड़ आया है जो उनको लेकर मौसम फिल्म निर्देशित कर रहे हैं। यह फिल्म पूरी होने को है।

इसके अलावा शाहिद को एक सबसे अच्छा अनुबन्ध ए.आर. मुरुगदौस से मिला है जो तमिल फिल्म सेवन ए एम अराइवु को हिन्दी में शाहिद को नायक लेकर बनाने जा रहे हैं। गजनी मुरुगदौस और शाहिद का यह जोड़ कमाल करेगा, ऐसी उम्मीद है।

पाठकों की जानकारी के लिए बता दें, सेवन ए एम अराइवु में मुख्य भूमिका दक्षिण के सुपरहिट अभिनेता सूर्या ने निभायी है, गजनी की ही तरह। हिन्दी दर्शक शाहिद को इस भूमिका में देखेंगे। शाहिद रोमांचित हैं।

रविवार, 13 फ़रवरी 2011

बासु दा और बाछाराम का बगीचा

पितामह निर्देशकों में बासु चटर्जी हमारे बीच निरन्तर सक्रिय हैं, इक्यासी साल की उम्र में भी। अभी पता चला है कि वे एक फिल्म बनाने जा रहे हैं जो मनोज मित्र की बंगला कृति बाछारामेर बागान पर आधारित है। यह एक दिलचस्प कथा है जिस पर समय-समय पर अनेक रंगप्रयोग हुए हैं। इस कृति को बंगला सहित हिन्दी एवं अन्य अनेक भाषा में नाटक के रूप में खेला गया है।

यह लोभी-लालची जमींदार की कथा है जो गरीबों की जमीनें गिरवी रखकर उनको तंग किया करता है। एक बार वह ऐसे ही बाछाराम की जमीन पर अपनी बुरी नजर डालता है। बाछाराम के घर में उसका एक पोता भर है जो आवारा है, उसको जब कभी बाछाराम गरियाता भी रहता है। उम्रदराज और लाचार जानकर बाछाराम की जमीन पर कब्जा करने की नीयत लिए जमींदार उसके घर आता है। बाछाराम उसको जमीन दे देने का वादा करता है और कुछ रुपयों की अपेक्षा जाहिर करता है। जमींदार यह सोचता है कि बिस्तर पर पड़ा बाछाराम जल्दी ही मर जायेगा लेकिन जमींदार से ही पैसे मांग-मांगकर बाछाराम एक दिन बिस्तर से उठ खड़ा हो जाता है। उसके पोते का विवाह होता है और कुछ दिनों बाद उसके यहाँ बच्चा होने से बाछाराम की जीने की इच्छा और जाग्रत हो जाती है।

कहानी का अन्त यह है कि जिस रफ्तार से बाछाराम ठीक होता जाता है, उसी रफ्तार से जमींदार रुग्ण और बीमार, आखिर एक दिन जमींदार मर जाता है और बाछाराम एकदम मस्त। इस कहानी में हास्य-व्यंग्य का समावेश रोचक है। दूरदर्शन इस पर बगिया बाछाराम की नाम से एक टेलीफिल्म बरसों पहले बना चुका है जिसमें एस.एम. जहीर ने बाछाराम की भूमिका की थी। 1980 में विख्यात बंगला निर्देशक तपन सिन्हा ने इसी कहानी पर कृति के नाम से ही बाछारामेर बागान फिल्म निर्देशित की थी। बासु चटर्जी अपनी कल्पनाशीलता और दृष्टि के निर्देशक हैं। उन्होंने अपने मन की फिल्म बनाने की दृष्टि से ही इसका निर्माण भी खुद ही करने का निश्चय किया है।

छोटी सी बात, रजनीगंधा, सारा आकाश, चितचोर, स्वामी, पिया का घर, शौकीन आदि अनेक श्रेष्ठ फिल्में बना चुके बासु दा ने फिल्म का नाम बाछाराम का बगीचा तय किया है और बाछाराम की मुख्य भूमिका के लिए अभिनेता रघुवीर यादव को अनुबन्धित किया है। रघुवीर यादव, किरदारजीवी अभिनेता हैं, निश्चय ही यह फिल्म अपने ढंग का एक अनुभव होगी। दर्शक भी नयी सदी में बासु दा का नया काम उनकी परम्परा को याद करके देखेंगे।

शनिवार, 12 फ़रवरी 2011

इन्साफ का मन्दिर है ये.. .. ..

स्वर्गीय मेहबूब खान की एक फिल्म अमर की चर्चा इस रविवार कर रहे हैं जिसका प्रदर्शन काल 1954 का है। अब से लगभग छप्पन साल पुरानी यह फिल्म अन्तरात्मा को झकझोरने और अपराधबोध को अपने भीतर एक चरम तक जीकर अन्तत: स्वीकार के उपसंहार पर एक प्रायश्चित पर जाने की प्रभावी कथा है, जो आपको शुरू से अन्त तक बांधे रखती है और संवेदनशील दर्शक की कई बार आँखें नम करती है।
यह कहानी एक ऐसे वकील की है जिसके प्रखर व्यक्तित्व और तार्किक दृष्टि की अपनी प्रसिद्धि है। उसका विवाह होने को है। अनजाने ही उसके जीवन में एक गरीब लडक़ी आती है जो अपने चंचल और निष्कलुष स्वभाव में भी परस्पर आकर्षण की स्थितियाँ निर्मित करती है। वकील अमर, इस लडक़ी सोनिया के सम्मोहन का हल्का प्रभाव अपने जीवन में महसूस करता है लेकिन शायद यहाँ प्रेम नहीं है। एक रात अमर को अपने पिता की मृत्यु का तार मिलता है, इस घटना के समय ही सोनिया उसके घर मुसीबत से बचते हुए पहुँचती है। अवसाद से भरे अमर के सामने सोनिया की उपस्थिति, कडक़ड़ाती बिजली और तूफान एक दुर्घटना के साथ शान्त होता है।

अमर गहरे अपराधबोध को जी रहा है। अंजु से उसका विवाह होने वाला है। वह उसे सब बता देना चाहता है मगर सम्भव नहीं है। वह झूठ और भरोसे के द्वन्द्व में जी रहा है। इधर बस्ती का एक गुण्डा संकट, सोनिया से शादी करना चाहता है। सोनिया उसे पसन्द नहीं करती मगर वह सोनिया को धमकाया करता है। अचानक एक दिन पता चलता है कि सोनिया गर्भवती है और माँ बनने वाली है। गर्भवती होने की खबर गाँव में सबको है पर बच्चा किसका है, यह किसी को नहीं पता।

एक दिन संकट सब जान जाता है और अमर को मार डालना चाहता है। दोनों में झूमाझटकी होती है और संकट, खुद अपने चाकू पर गिरकर मर जाता है। संकट के सीने से चाकू खींचते हुए सोनिया गाँव वालों द्वारा देख ली जाती है। अदालत में सोनिया पर मुकदमा चलता है। अमर की अन्तरात्मा उसे हिलाकर रख देती है, आखिर वह सोनिया की पैरवी करता है। अदालत में गीता की कसम खाकर वह स्वीकार करता है कि वह सोनिया के बच्चे का पिता है, संकट उसके साथ लड़ाई में मरा और सोनिया निर्दोष है।

अमर, दिलीप कुमार, सोनिया, निम्मी और अंजु मधुबाला, इन तीना किरदारों में यह फिल्म नैतिकता और मूल्यों के अन्तद्र्वन्द्व में नियति और अभिव्यक्ति के अनूठे मानकों का स्पर्श करती है। दिलीप कुमार और निम्मी का अभिनय बांधे रखता है। फिल्म में गाने खूब हैं और एक गाना, जिस पर फिल्म की बुनियाद टिकी है, इन्साफ का मन्दिर है ये, भगवान का घर है, पूरी फिल्म में अलग-अलग अन्तरे में कई बार आता है, कहानी के साथ यह गाना देखने वाले के रोम-रोम को स्फुरित कर देता है। गहरा दर्शन है इसमें।

कमाल है, मेहबूब की फिल्म, शकील बदायूँनी का यह गीत, नौशाद का संगीत और रफी साहब की आवाज। गाना ऐसा समरस कि सुनते हुए देह के विकार भीतर से हमें प्रताडि़त करते महसूस हों।

भजन से आयटम सांग तक

अभी की पीढ़ी हिन्दी सिनेमा में आयटम सांग को खूब जानने लगी है। आयटम सांग की अपनी परिभाषा होती है। उसकी किसी भी फिल्म में उपस्थिति प्राय: कहानी का हिस्सा नहीं होती। कई बार उसके कैरेक्टर भी बस केवल उतने ही काम के लिए होते हैं। अक्सर मंचीय प्रस्तुति में गम्भीरता को बोझिल की पराकाष्ठा तक जाते देख, निर्देशक या कहानीकार हास्य प्रसंग रचता है। कुछ मिनट के लिए एक-दो लोग आते हैं और कुछ चुटकुलेबाजी, कुछ जोकराई करके चले जाते हैं। तनाव के ऊपर फूहड़ता दाँत निपोरने लगती है और वातावरण हल्का हो जाता है। हँसी हॉल में गूंज उठती है, ताली बजती है, कहानी फिर आगे बढ़ जाती है।

इधर सिनेमा में यह चलन पिछले एक दशक में कुछ अलग ढंग से आया। जुझारू और काबिल निर्देशकों को लगा कि सिनेमा देखता दर्शक दूर पैदल की लम्बी बिना आराम की यात्रा का थका और लडख़ड़ाकर चलता इन्सान सा हो जाता है, क्यों न इसको ऐसे बगीचे से गुजारा जाये जहाँ के फूल देखकर वो गद्गद हो जाये मगर यह फूल उसे दूर से ही दिखाये जाएँ इस चेतावनी के साथ कि छूना और तोडऩा मना है। ऐसे में कोई महान आयटम सांग के पुरोधा आये और यह क्रान्ति चल निकली। एक-एक करके लोग अपनी प्रतिभा इसी में सिद्ध करते दिखायी दिए। दिलवालों के दिल का करार लूटने से लेकर कजरारे कजरारे तेरे कारे कारे नैना से होते हुए शीला की जवानी और इसक का मंजन तक खुराक बदहजमी से अफारे तक पहुँच गयी।

एक जमाना था जब हर अच्छी फिल्म में एक न एक भजन हुआ करता था। कहानी कुछ इस तरह से बुनी जाती थी कि फिल्म के नायक-नायिका, चरित्र अभिनेता या अन्य कलाकार कोई न कोई एक अच्छा गाना, आरती, भजन या अपनी मुसीबत को दूर करने वाली प्रार्थना के साथ मन्दिर में खड़े होकर कोई न कोई गीत गाते अवश्य थे। ऐसे भजन लोकप्रिय भी खूब हुए हैं। दुनिया में तेरा है बड़ा नाम, मन तड़पत हरि दर्शन को आज, पग पग ठोकर खाऊँ चल न पाऊँ कैसे आऊँ मैं दर तेरे, सत्यम शिवम सुन्दरम, शिरडी वाले साईं बाबा आदि कितने ही भजन और प्रार्थनाएँ हम यहाँ पर याद कर सकते हैं। अब ऐसे भजन, ऐसी प्रार्थनाएँ फिल्मों में एक भी दिखायी नहीं देतीं। पहले फिल्मों में हर तकलीफ में आया किरदार भगवान की शरण में जाता था। अब कलाकार को ऐसे रास्ते पर जाने की फुर्सत भी नहीं है।

गुरुवार, 10 फ़रवरी 2011

रुपहले परदे के मोहपाश

पिछले कुछ समय से माधुरी दीक्षित हिन्दुस्तान में हैं। इस बार जरा कुछ ज्यादा ही लम्बी छुट्टी लेकर आयी हैं वे, ऐसा लगता है। यही कारण है कि कई शो में वो नजर आती हैं। उनकी सहभागिता अतिथि के रूप में भी होती है और शो की निर्णायक या विशेषज्ञ के रूप में भी। इधर अवार्ड समारोहों में भी उनकी भागीदारी नजर आ रही है। हाल ही में एक अवार्ड समारोह में वे शाहरुख के साथ नाचीं भी मंच पर। कुल मिलाकर यह कि माधुरी का मोह मुम्बई से, खासकर मायानगरी से छूट नहीं सका है। उनकी शादी यकायक सरप्राइज की तरह थी। कोई नहीं जानता था कि उनका दूल्हा कौन होगा, कहाँ का होगा। अचानक ही खुलासा हुआ और अपने बचे अनुबंधों को पूरा करके वे अपने परिवार की हो गयीं और अमेरिका चली गयीं।

इधर माधुरी दीक्षित के बिना मुम्बइया फिल्म उद्योग कुछ समय तो तंग रहा ही क्योंकि जाहिर है वे उस वक्त हीरोइन के रूप में नम्बर वन थीं और बहुत से निर्माण घरानों और सितारों की स्थायी सी नायिका थीं। उनके जाने से एक साथ कई हीरो प्रभावित हुए जिनमें सबसे खास तो अनिल कपूर ही जिनके साथ उनकी जोड़ी खासी जमी रही थी। खैर दौर बदला इसी बीच और हमारे सामने नायकों की नयी खेंप आ गयी और तेजी से नायिकाओं का परिदृश्य भी तब्दील हुआ, अनेकानेक नये चेहरे आये और गये। करीना, कैटरीना, दीपिका पर इण्डस्ट्री एकाग्र हो गयी। वरीय नायकों का काम कम हो गया मगर अक्षय कुमार, अजय देवगन, आमिर खान, सलमान खान और शाहरुख खान जरूर आज तक अपनी-अपनी वजहों से जमे हुए हैं। ये लगभग सभी हीरो, माधुरी दीक्षित के साथ काम कर चुके थे मगर अब सभी अपने से आधी उम्र की नायिकाओं के साथ जोड़ी बनाकर भी जमे हुए हैं।

सम्भव है, दो-चार साल बाद परिदृश्य और खिसके या बदले मगर नायकों की अपेक्षा नायिकाओं का समय वाकई फिल्म जगत में बड़ा काम होता है। यही कारण है कि अवार्ड समारोह में शाहरुख के साथ नाचती माधुरी दीक्षित जो कभी उनकी हीरोइन हुआ करती थीं, उनसे बड़ी और अधिक परिपक्व नजर आ रही थीं। माधुरी को एक बार फिल्म रुपहले परदे के मोहपाश ने विचलित किया है। यशराज कैम्प की फिल्म दिल तो पागल है से अपना अलग स्थान बनाने वाली माधुरी इसी कैम्प की अपनी वापसी वाली फिल्म आजा नच ले में कमाल नहीं कर पायीं। अब कुछ विकल्प उनकी ओर से तथा कुछ विकल्प निर्माताओं की ओर से खुले हैं। देखना होगा, माधुरी क्या फैसला लेती हैं?

बुधवार, 9 फ़रवरी 2011

एक शर्मीला और सफल निर्माता

अरबाज खान, एक शर्मीले और सफल निर्माता हैं। इन दिनों टेलीविजन के विभिन्न चैनलों पर अवार्डों के समारोह खूब देखने को मिल रहे हैं। इन समारोहों में तमाम चमचमाये चेहरों के बीच अरबाज खान अपनी पत्नी मलायका अरोड़ा के साथ बैठे नजर आते हैं। चेहरे पर सफलता की खुशी का भाव है और उस भाव में संकोच और विनम्रता का बड़ा परस्पर मिश्रण भी है। व्यतीत साल उनके लिए खुशियाँ भरपूर लेकर आया। इतनी कि न मन में समाये न मन के बाहर। दबंग फिल्म की सफलता का व्यावसायिक आँकड़ा एक सिनेमा चैनल अक्सर बताया करता है। सबसे ऊपर उसी का नाम है और सामने शायद लिखा है एक सौ तिरपन करोड़।

अभी कुछ दिन पहले ही एक अवार्ड समारोह का प्रसारण देखा जा रहा था। एंकर अरबाज के पास आकर पूछता है, कितनी कमाई हुई, बताओ। अरबाज सकुचा जाते हैं। वह अपना सवाल दोहराता है। अरबाज और मुस्कराते हैं। एंकर तिबारा पूछता है, तो बड़े विनम्र से जवाब देते हैं, इतनी कि दबंग पार्ट टू बन जाये। यह बात कहते हुए उनका चेहरा देखने लायक होता है। अरबाज दरअसल एक उदाहरण हैं, जिनको देखा जा सकता है, जिनसे सीखा जा सकता है। अरबाज की सलमान के भाई के रूप में पहचान रही है। अभिनय के प्रति उनका रुझान अपने एक और भाई सोहेल खान से जरा ज्यादा है मगर निश्चित रूप से सलमान से जरा कम। हालाँकि उनको अब तक फिल्में खूब मिली हैं। टफ कैरेक्टर उन पर खूब फबते हैं मगर निश्चित ही वे हीरो की तरह नहीं हैं। सहायक भूमिकाओं में उनके लिए लगातार ऐसे अवसर शायद नहीं हैं, जिनके माध्यम से वे बड़े कैनवास के ख्वाब को साकार कर सकें।

अरबाज खान ने वास्तव में यह बहुत समझदार निर्णय लिया कि वे निर्माता बने और दबंग बनाने की पृष्ठभूमि बनायी। जिस तरह की कहानी थी, जाहिर है, नायक तो सलमान को ही होना था। इस फिल्म ने वाण्टेड के बाद ठीक अपना वो प्रभाव दर्शकों के बीच छोड़ा जिसने सलमान को अपने आसपास में सर्वश्रेष्ठ साबित किया। यद्यपि दबंग के अपने जोखिम भी थे। अभिनव सिंह कश्यप की कोई ख्याति नहीं थी। लेकिन जिस तरह फिल्म बनी, वह सम्पादन, अभिनय और निर्देशन तीनों स्तरों पर एक सधा हुआ व्यावसायिक सिनेमा है। दबंग ने जितना आगे जाकर सलमान को ऊँचाई प्रदान की, उतना ही सीना चौड़ा किया अरबाज खान का। इस समय अरबाज खान इस सफलता का लुत्फ ले रहे हैं। उनको देखकर पता ही नहीं चलता कि ये वो निर्माता है, जिसके खाते बीते साल की सर्वाधिक हिट फिल्म है। उनका जमीन पर बने रहना, सचमुच प्रभावित करता है।

मंगलवार, 8 फ़रवरी 2011

गुलज़ार की मेरे अपने

कोई होता जिसको अपना, हम अपना कह लेते यारों, पास नहीं तो दूर ही होता, लेकिन कोई मेरा अपना, गाना किशोर कुमार ने बड़े गम्भीर भाव से गाया है। यह एक उपेक्षित और कमोवेश परिवेश से एकतरहा स्थगित से व्यक्ति का अन्त:संलाप है। मेरे अपने (1971) फिल्म में यह गाना विनोद खन्ना पर फिल्माया गया था। यह जानना दिलचस्प है कि इस फिल्म के दो मुख्य सितारे विनोद खन्ना और शत्रुघ्र सिन्हा, दोनों के कैरियर की शुरूआत नकारात्मक भूमिकाओं से हुई थी लेकिन दोनों ही आगे चलकर सकारात्मक भूमिकाएँ करते हुए नायक बनकर फिल्मों में आने लगे।

मेरे अपने, गुलजार की फिल्म है। वे महान फिल्मकार स्वर्गीय बिमल राय के सहायक रहे हैं। गुलजार की शुरू की फिल्मों की बुनावट में बिमल दा के सिनेमाई सृजन के हल्के प्रभाव रह-रहकर नजर आते रहे। हालाँकि मेरे अपने में ऐसा कोई प्रभाव दिखायी नहीं देता क्योंकि उसको गुलजार ने सचमुच अपनी पहली फिल्म की तरह ही कुछ जोखिम रचकर खड़ा किया था। यह फिल्म छेनू और श्याम नाम के दो ऐसे युवकों की कहानी है, जो कभी आपस में दोस्त थे मगर अब एक-दूसरे की जान के दुश्मन। कॉलेज का माहौल है। अराजकता है। नियंत्रण के बाहर स्थितियाँ हैं। अनुशासनहीन युवाओं ने छेनू और श्याम के साथ अपने को बाँट लिया है और हर वक्त एक-दूसरे को सबक सिखाने का मौका देखा करते हैं।

यहीं एक बुजुर्ग स्त्री का किरदार है, जिसको एक शहरी अपने घर भ्रामक रिश्तों का हवाला देकर ले आता है और घर पर नौकरानी से बदतर जिन्दगी देता है। एक दिन प्रताडऩा से तंग यह स्त्री उस घर को छोडक़र बाहर आती है तो एक छोटा बच्चा उसे श्याम के पास ले आता है। श्याम के अड्डे पर यह स्त्री सबकी नानी माँ हो जाती है। नानी माँ इन युवकों से हमेशा बुरे रास्तों को छोड़ देने की बात कहती है। बढ़ते झगड़ों में एक दिन जब छेनू और श्याम आमने-सामने होते हैं, छेनू की पिस्तौल से नानी माँ की मौत हो जाती है।

नानी माँ की मौत बड़े सवाल खड़े करती है। अराजक और गुण्डे युवक जेल जा रहे हैं मगर सबकी आँखों में आँसू हैं, एक भयानक गुनाह के। मेरे अपने, समकालीन स्थितियों, राजनैतिक हस्तक्षेप और अराजकता के बीच दिशाहीन पीढ़ी के अंधकार और भटकाव को प्रभावी ढंग से प्रस्तुत करती है। अन्तिम दृश्य में मृत नानी माँ की देह पर कैमरा रुकता है और उसकी नसीहतें सुनाई देती हैं। मीना कुमारी इस भूमिका में गहरी छाप छोड़ती हैं। बीती जिन्दगी, पति के साथ संवाद, पूर्वदीप्ति (फ्लैश बैक) मेंं बड़े अच्छे दृश्य रचते हैं। उनके भी अन्तिम समय की यह एक अहम फिल्म थी।

डैनी, असरानी, पेंटल, दिनेश ठाकुर, देवेन वर्मा, योगेश छाबड़ा फिल्म में अपनी भूमिकाओं में ऐसा प्रभावित करते हैं कि वे याद रहते हैं। गुलजार ने इस फिल्म की पटकथा और गीत भी लिखे थे।

सिनेमा में काशी का अस्सी

प्रख्यात आलोचक डॉ. नामवर सिंह केे छोटे भाई काशीनाथ सिंह की अपनी सृजन-भाषा है। बरसों से बनारस में रह रहे काशीनाथ सिंह ने इस शहर, शहर की संस्कृति से लेकर राजनीति और समाज को एक सर्जक के नजरिए से बड़े गहरे देखा है। बनारस में अस्सीघाट है। काशीनाथ सिंह ने इस पूरे परिवेश और अस्सीघाट की अपनी व्यवहारिक महिमा का परिप्रेक्ष्य अपने कहानी संग्रह काशी का अस्सी पुस्तक में रचा है। इस संग्रह में पाँच कहानियाँ हैं, देख तमाशा लकड़ी का, संतों घर में झगरा भारी, संतों असंतों और घोंघाबसंतों का अस्सी, पांड़े कौन कुमति तोहे लागी और कौन ठगवा नगरिया लूटल हो।

जब काशीनाथ सिंह ने इस कृति की शुरूआत की थी, तब इसके कुछ अंश एक अखबार में सिलसिलेवार प्रकाशित हुए थे। तभी इनको काफी चर्चा मिली थी, लोगों में रसमग्रता के साथ-साथ विवाद का हिस्सा भी बने थे क्योंकि भाषायी शिष्टाचार के खिलाफ इसमें आम बोलचाल का जैसा भदेस इस्तेमाल किया गया था, वह विवाद खड़े करने वाले को भी भीतर ही भीतर मनोरंजित करता था। आवरण में तो खैर सभी शालीन होते हैं। बहरहाल चाणक्य धारावाहिक के मुख्य किरदार और इसी के निर्देशक डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी को काशीनाथ सिंह की यह किताब अपनी फिल्म के लिए महत्वपूर्ण लगी और उन्होंने इस पर फिल्म बनाने के लिए श्रेष्ठ पटकथा के स्तर पर व्यापक शोध किए। डॉ. चन्द्रप्रकाश के सृजनात्मक सरोकार बड़े सूक्ष्म और गहरे हैं।

कम काम करने के बावजूद हम उनकी सक्रियता के बीस साल के लगभग इस समय को निरन्तरता में सार्थक मान सकते हैं क्योंकि पिंजर फिल्म भी उन्होंने बड़ी तन्मयता के साथ बनायी थी जिसे बहुत सराहा गया था। डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी पटकथा के स्तर पर शोध और सृजन को व्यापक आवृत्ति और मुकम्मल समय देने और लेने के पक्षधर हैं। एक-दो परियोजनाएँ उन्होंने तय करके भी इसीलिए बन्द कर दीं कि वे उनसे सन्तुष्ट नहीं थे। काशी का अस्सी, किताब उन्हें अन्तत: अपने उस काम के लिए प्रासंगिक और अनुकूल लगी जिसका आरम्भ हो चुका है और अंजाम तक उसे पहुँचना है।

फिल्मकारों को वक्त-वक्त पर बनारस बहुत आकर्षित करता रहा है। दिलीप कुमार की फिल्म संघर्ष पाठकों को याद होगी। बाद में दीपा मेहता ने वाटर और भावना तलवार ने धर्म जैसी महत्वपूर्ण फिल्में बनारस की पृष्ठभूमि पर बनायीं। अब डॉ. चन्द्रप्रकाश द्विवेदी ने एक अहम और ज्वलन्त विषय अपने हाथ में लिया है। सनी देओल इस फिल्म में मुख्य भूमिका में हैं। वे संस्कृत के शिक्षक बने हैं।

काशी का अस्सी, हो सकता है अन्तिम रूप से फिल्म का तय नाम हो, न हो मगर यह फिल्म समकालीन परिदृश्य में हमें आकर्षित जरूर करेगी, यह डॉ. चन्द्रप्रकाश के भरोसे एक तरह की आश्वस्ति ही है।

अपने किरदारों में नसीर

विशाल भारद्वाज और नसीरुद्दीन शाह के बीच कल्पनाशीलता और समृद्ध दृष्टि की समझ का रिश्ता है। विशाल के गुरु गुलजार साहब के साथ नसीरुद्दीन शाह ने श्रेष्ठ फिल्में की हैं जिनमें इजाजत और लिबास प्रमुख हैं। संगीत निर्देशन से निर्देशक के रूप में विशाल ने जब अपने आयाम का विस्तार किया तो अपनी एक उल्लेखनीय फिल्म मकबूल में ओमपुरी के साथ नसीर को एक दिलचस्प भूमिका में लिया। पुलिस इन्सपेक्टर के ये दोनों किरदार हमें एक पूरे माहौल, एक पूरे वातावरण से दो-चार कराते हैं जिसमें एक तरफ हम अपराध-पुलिस की परस्पर स्थितियों और यथार्थ को सहजता और प्रभाव के साथ देखते हैं।

विशाल ने बाद में अपनी निर्माण संस्था की फिल्म इश्किया में भी नसीर को एक अलग तरह की भूमिका में लिया। अरशद वारसी इस फिल्म में उनके साथ थे मगर नसीर अलग से अपने किरदार के साथ इस फिल्म में रेखांकित होते हैं। विशाल की नयी फिल्म सात खून माफ में नसीर फिर एक बार हैं। जाहिर है, वे फिल्म में एक सशक्त किरदार हैं। विशाल को पश्चिमी साहित्य, एपिक और रोचक कथाएँ हमेशा अपनी फिल्म के लिए आकृष्ट करती हैं। सात खून माफ भी रश्किन बॉण्ड की एक छोटी कहानी से सिनेमा के रूप में विस्तारित हुई है। नसीर इस दौर में चरित्र अभिनेता की अपनी स्वतंत्र और प्रभावी पहचान के लिए खुद को आजमा रहे हैं। यों देखा जाए तो लगभग तीन दशक से भी ज्यादा समय के अपने कैरियर की निरन्तरता में उनके किरदारों ने भारतीय सिने दर्शकों के मन को हमेशा छुआ है।

निशान्त, मंथन, भूमिका, जुनून, आक्रोश, स्पर्श, चक्र, हम पाँच, उमराव जान, आधारशिला, मासूम, बाजार, कथा, अर्धसत्य, मण्डी, जाने भी दो यारों, पार, पेस्टन जी, रिहाई आदि अनेकानेक फिल्में नसीर को नसीर के रूप में ही स्थापित करती हैं। अपने किरदारों को लेकर बड़े सजग रहने वाले नसीर कई बार छोटी भूमिकाओं को भी निभाते हैं। प्रकाश झा की फिल्म राजनीति में उनकी भूमिका लगभग न के बराबर थी। झा के ख्याल में यह चरित्र नसीर के लिए ही था। उन्होंने बताया भी था कि मैंने नसीर साहब से कहा कि भूमिका बहुत छोटी है पर आपके कर लेने से उसका महत्व बढ़ा जायेगा। आत्मीय और उदार नसीर ने भूमिका सुनकर तत्काल हाँ कह दी। बाद में हाँलाकि आलोचकों ने उस भूमिका के लिए नसीर का जिक्र इसी प्रश्र के साथ किया कि ऐसा रोल करने की उनको क्या आवश्यकता थी?

बहरहाल हम नसीर को चक्र के लुक्का, मण्डी के डुंगरूस जैसी यादगार भूमिकाओं सहित कई बेहतर किरदारों के लिए ज्यादा जानते हैं।

ठहरे हुए निर्देशकों के बारे में

इधर सुधीर मिश्रा ने पिछले पाँच-सात सालों में अपनी सक्रियता को बढ़ाया है। अक्सर काम की निरन्तरता इस बात के आगे की बात भी है कि दर्शक ही दरअसल आपको और तथा बेहतर काम करने के लिए प्रेरित कर रहा है। सुधीर ने जब हजारों ख्वाहिशें ऐसी बनायी थी उसके पीछे उन्होंने लम्बा अवकाश लिया था। बाद में एक साथ कई काम किए। दिवंगत अनंत बालानी की फिल्म चमेली को पूरा करने के साथ ही खोया-खोया चांद, मुम्बई मेरी जान और ये साली जिन्दगी फिल्में अपनी निरन्तरता में उन्होंने बनायी हैं। इधर बन्दिश, दिल क्या करे और राहुल में विफलताओं को आजमाकर प्रकाश झा ने भी अपहरण, गंगाजल से राजनीति तक आते-आते अपना ट्रेक पकड़ लिया। अब आरक्षण बनाते हुए वे ज्यादा आश्वस्त निर्देशक बनकर सामने आते हैं। आर्थिक और सृजनात्मक रूप से अब वे इतने आत्मनिर्भर और सुरक्षित हैं कि चार डूबते जहाजों को भी अपने समर्थन से खड़ा कर सकते हैं।

इधर अच्छे निर्देशकों की याद आती है। केतन मेहता, कुन्दन शाह, सईद अख्तर मिर्जा, गोविन्द निहलानी आदि। गोविन्द निहलानी से कुछ समय पहले मुलाकात हुई थी उस समय वे बच्चों के लिए एक दिलचस्प फिल्म कैमलू बना रहे थे। एक ऊँट की कहानी, बाल ऊँट। अभी शायद वो पूरी नहीं हुई। इधर मिर्च मसाला, भवनी भवई बनाने वाले केतन मेहता ने कुछ वर्ष पहले अपनी एक कलात्मक फिल्म रंगरसिया पूरी की मगर बड़ी आर्थिक हानि का भय उस फिल्म को बाहर नहीं आने दे रहा। एक फिल्म दस-ग्यारह वर्ष बाद सईद अख्तर मिर्जा ने बनायी है, वह भी अभी प्रदर्शित नहीं हुई है। इसी सिनेरिओ में कुन्दन शाह की याद आती है, उनकी एक खूबसूरत फिल्म कभी हाँ कभी ना की याद के साथ। वे, सईद अख्तर मिर्जा और अजीज मिर्जा, किसी जमाने में एक टीम रहे हैं। बहुत सी यादगार और दिलचस्प फिल्मों के साथ अलग-अलग हिस्सों से जुड़े रहकर उनका काम समय ने रेखांकित किया है। बाद में सभी अलग-अलग फिल्में बनाने लगे। इधर अब उनका सिनेमा गुंजाइश बाहर है।

लगता है कि इस निराश और शून्य वक्त में उन्हें काम करना चाहिए मगर सवाल यही है कि कौन संस्था या व्यक्ति इनके सृजन और दृष्टि पर धन लगाए? आजकल तो मधुर भण्डारकर भी दिल तो बच्चा है जी टाइप वाहियात फिल्म बनाकर अपने को खर्च हुआ प्रमाणित कर चुके हैं। अब यहाँ आज, कोई शशि कपूर जैसा व्यक्ति भी सक्रिय दिखायी नहीं देता जो काबिल निर्देशकों के साथ अच्छा निर्माता बनना चाहे।

शुक्रवार, 4 फ़रवरी 2011

हेमा मालिनी - सौन्दर्य और गरिमा का समग्र

पिछले लगभग दो दशक से स्वप्र सुन्दरी हेमा मालिनी सक्रियता के एक दूसरे आयाम में अपनी प्रतिष्ठा को समृद्ध करने का काम कर रही हैं। निश्चय ही इसमें उनको सफलता भी मिली है, लेकिन उनकी खासियत यह है कि वे सफलता या बड़ी उपलब्धियों को अपने व्यक्तित्व की तरह ही नियंत्रित करती हैं। भरतनाट्यम, अभिनय से अलग उनकी रचनात्मकता के मूल में बरसों से रहा है। उन्होंने उसकी विधिवत तालीम भी हासिल की है। एक अभिनेत्री के रूप में हिन्दी सिनेमा में चार दशक से भी ज्यादा लगातार सक्रियता ने उनको कुछ ज्यादा ही जस का तस रखा है। यही कारण है कि उनकी पर्सनैलिटी पर सभी मुग्ध रहते हैं।

बागवान के प्रदर्शन और सफलता के भी कुछ वर्षों बाद जब एक समारोह में अमिताभ बच्चन, वहाँ उपस्थित हेमा मालिनी के बारे में बोल रहे थे तब उन्होंने कहा कि मैं चकित हूँ कि हेमा जी आज भी हमेशा की तरह खूबसूरत हैं। उनके पास क्या जादू है, किसी को मालूम नहीं है। अमिताभ बच्चन ने अनेक फिल्मों में उनके साथ काम किया है और उनके मन में हेमा जी के लिए बड़ा आदर रहा करता है। वैजयन्ती माला के बाद हेमा मालिनी अकेली ऐसी अभिनेत्री रही हैं जो दक्षिण भारत से भरतनाट्यम में दीक्षित होकर फिल्मों में आयीं और अपना स्थान बनाया। उनका अपना एक लम्बा कैरियर ग्राफ है जिसमें बहुत सारी सफल फिल्में शामिल हैं।

वे रमेश सिप्पी की सीता और गीता से लेकर शोले तक, गुलजार की किनारा, खुश्बू, लेकिन से लेकर मीरा तक, प्रमोद चक्रवर्ती की नया जमाना से लेकर ड्रीम गर्ल तक, विजय आनंद की जॉनी मेरा नाम से लेकर तेरे मेरे सपने और राजपूत तक, कमाल अमरोही की फिल्म रजिया सुल्तान सहित अनेक उन महत्वपूर्ण फिल्मों के माध्यम से स्थापित हैं, जिनका जिक्र एक साथ यहाँ नहीं हो पा रहा है। स्वप्र सुन्दरी की उपमा उनको हिन्दी सिनेमा में इन्हीं सक्रियताओं और उपलब्धियों के बीच मिली है जब 1977 में प्रमोद चक्रवर्ती ने ड्रीमगर्ल फिल्म ही बनायी। उन्होंने बासु चटर्जी के निर्देशन में एक बहुत अच्छी फिल्म स्वामी का निर्माण भी किया था जिसमें गिरीश कर्नाड और शाबाना आजमी ने काम किया था।

नृत्य और नृत्य नाटिकाएँ उनको लगातार स्फूर्त और तरोताजा रखती हैं, ऐसा उनका कहना भी है और परमविश्वास भी। चार दिन पहले वे खजुराहो में भी, बेटियों के साथ उन्होंने मंच पर नृत्य किया। बाद में अपने उद्बोधन में जितने विनम्र भाव से अपनी सहभागिता को लेकर कृतज्ञता व्यक्त करते हुए उन्होंने खजुराहो नृत्य समारोह के मंच के महत्व की व्याख्या की वह, बड़े महत्व की है, उनका कहना था हर नृत्याँगना का स्वप्र इस मंच पर नृत्य का होता है, मेरा भी रहा है। यहाँ नृत्य करके साधना को पूर्णता प्राप्त होती है।