मंगलवार, 15 फ़रवरी 2011

फिल्म रंगीन करने के प्रयोग

फरवरी के पहले सप्ताह में देव आनंद का मुम्बई में घर से बाहर निकलकर लोगों से मिलना और अपनी यादगार फिल्म हम दोनों को रंगीन संस्करण में देखने का अनुरोध करना, व्यापक चर्चा का विषय बना। लगभग 83 साल के देव आनंद का अपनी पाँच दशक पुरानी फिल्म के साथ जुडऩा और उसके समर्थन में आना सराहना की बात है। यह बात अलग है कि लगभग एक साल से भी अधिक समय से इस फिल्म को रंगीन करने की तकनीकी प्रक्रिया के चलने, ऐसा व्ययसाध्य काम होने के बावजूद दर्शकों में हम दोनों के लिए कोई उत्साह दिखायी नहीं दिया। इसके बावजूद सुना जा रहा है कि साहब बीवी और गुलाम, चौदहवीं का चांद आदि फिल्मों को भी रंगीन किए जाने का विचार हो रहा है।

इस तरह की पहल कुछ वर्ष पहले के. आसिफ की फिल्म मुगले आजम के साथ हुई थी। यद्यपि इस फिल्म के कुछ दृश्य, खासकर, प्यार किया तो डरना क्या, गाने के दृश्य रंगीन थे जिसमें प्रेमासक्त अनारकली की गुस्ताखियों से अकबर का चेहरा गुस्से से तमतमाया हुआ, सुर्ख लाल दिखायी देता है। निर्देशक को इतना सा काम रंगीन करने के लिए बहुत पैसे खर्च करने पड़े थे। यही फिल्म जब कुछ समय पहले रंगीन करके दिखायी गयी तब लोगों में इसका यकायक आकर्षण व्याप्त हुआ। तीन-चार हफ्ते रंगीन मुगले आजम सिनेमाघरों में लगी भी रही।

दूसरी पहल बी.आर. चोपड़ा की फिल्म नया दौर को लेकर की गयी। नया दौर भी अपने दौर की सबसे सफल और एक तरह यादगार फिल्म है। कहानी से लेकर, कलाकारों का अभिनय, विषय वस्तु, गीत-संगीत सभी का अपना जादू था जो आज भी उसी तरह कायम है। नया दौर को रंगीन बनाकर पेश करने का उपक्रम बी.आर. चोपड़ा के बेटे रवि चोपड़ा की पहल पर हुआ था, इस फिल्म को भी मुगले आजम की तरह तो नहीं मगर कुछ सफलता मिली लेकिन तब उस संकेत को निर्माता समझ नहीं पाये कि आज के दर्शक की रुचि कालातीत सिनेमा, भले ही वह श्रेष्ठ या उत्कृष्ठ मानकों का क्यों न हो, इस तरह से देखने में रुचि नहीं है।

नवकेतन की हम दोनों तीसरा प्रमाण है। इस तरह की पहल के साथ जिस तरह के माहौल को जगाने की अपेक्षा होती है, उस तरफ ध्यान ज्यादा नहीं दिया गया। जिस तरह फिल्म सहज भाव से प्रदर्शित कर दी गयी, उसमे सफलता की गुंजाइश ही नहीं बनी। बेहतर होता, देव साहब घर से बाहर निकलकर मुम्बई की सडक़ों तक ही अपने आपको सीमित न रखकर देश के दस-पचीस शहरों में आते। निश्चित ही इससे बेहतर माहौल बनता। हालाँकि प्रबुद्ध समीक्षकों का एक बड़ा और संजीदा वर्ग कालजयी फिल्मों को रंगीन किए जाने के सैद्धान्तिक खिलाफ है। उनका मानना है कि इस तरह ये फिल्में अपना रस, असर और प्रभाव खो देंगी जो श्वेत-श्याम प्रस्तुति में दर्शकों के मन में गहरे उतरता था। पाठक क्या कहते हैं?

कोई टिप्पणी नहीं: