गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

पुस्तक चर्चा : महात्मा गांधी और सिनेमा


वरिष्ठ फिल्म समालोचक जयप्रकाश चौकसे की नयी किताब महात्मा गांधी और सिनेमा, हिन्दी सिनेमा के परिदृश्य पर महात्मा गांधी के प्रभाव का गम्भीर आकलन करती है। जयप्रकाश चौकसे की आधी सदी बराबर सिने-सर्जना इन्दौर में हुई है और वे अब कुछ वर्षों से मुम्बई में रहते हैं, इन्दौर उनकी आवाजाही निरन्तर है क्योंकि जड़ें वहीं हैं मगर सिनेमा के हिन्द महासागर को वे अपने सुदीर्घ अनुभव और दृष्टि से अधिक नजदीक से देखते हैं इन दिनों। इस किताब का विचार वहीं से पनपा, यह बात और है कि इस किताब ने उनकी मुम्बई और इन्दौर की परस्पर निरन्तर यात्रा में अपना स्वरूप गढ़ा।

महात्मा गांधी के जीवनकाल में सिनेमा पैंतीस वर्ष की उम्र का ही हो पाया था। आरम्भ मूक सिनेमा से हुआ था। राजा हरिश्चन्द्र पहली फिल्म थी, हिन्दुस्तान के सिने इतिहास की। फिर सिनेमा को ध्वनि मिली और अपनी परम्परा तथा चेतना से अपनी क्षमताओं को मजबूत करने में लगे सिनेमा में एक पौराणिक फिल्म रामराज्य के बारे में कहा जाता है कि गांधी जी ने वह फिल्म देखी थी। विजय भट्ट की इस फिल्म को उन्होंने सराहा था। एक तथ्य यह भी है कि गांधी जी की भेंट विश्व के महान कलाकार और सहज करुणा तथा हास्य के जनक चार्ली चेपलिन से भी एक मुलाकात 1931 में हुई थी। यही साल सिनेमा में ध्वनि के आगमन का भी था और पहली बोलती फिल्म आलमआरा इसी साल रिलीज हुई थी। एक तरफ वह विलक्षण कलाकार था जो दुनिया में अपनी लोकप्रियता का परचम फहरा रहा था तो दूसरा हिन्दुस्तान की स्वतंत्रता का एक विनम्र मगर जीवट से ओतप्रोत स्वप्रद्रष्टा था। गांधी जी मशीनीकरण के समय से मजदूर हाथों और उनके जीवन को होने वाली हानि से व्यथित थे, यह बात उन्होंने चार्ली चेपलिन से कही भी थी कि एक मशीन पन्द्रह मजदूरों के हाथ काम छीन रही है। यही बात आगे चलकर चार्ली की एक फिल्म मॉडर्न टाइम्स में मूल विषय बनी कि इन्सान मशीनों का गुलाम हो गया है और अपने ही हाथ गवाँ बैठा है।

यह बात सच है कि महात्मा गांधी सिने-प्रेमी नहीं थे। उनके पास इतना समय या अवकाश नहीं था कि वे उसका सदुपयोग फिल्म देखने में करते। उनके पास फिल्म देखने से ज्यादा ज्वलन्त और जरूरी काम थे जिनमें वे व्यस्त रहते थे, शेष समय उनके अपने पुरुषार्थ का था जिसमें बहुत सारे काम मसलन चरखा, अध्ययन, विचार, बातचीत और आत्मचिन्तन शामिल थे। इसके बावजूद, सिनेमा से निरन्तर निरपेक्ष रहते हुए भी कैसे सिनेमा ने महात्मा से किस तरह का विचार लिया, किस तरह की फिल्में बनीं जो कहीं न कहीं गांधी जी की विचारधारा, स्वप्र और आचरण से प्रेरित थीं, यह देखने की कोशिश अपनी किताब महात्मा गांधी और सिनेमा में जयप्रकाश चौकसे ने की है। उन्होंने यह काम उतनी ही बेलागी और साफगोई से किया है जिसके लिए वे और उनका लेखन जाना जाता है। उन्होंने किताब में सर रिचर्ड एटिनबरो का उदाहरण भी दिया कि उन्होंने चार्ली चेपलिन और गांधी दोनों पर सिनेमा बनाया।

महात्मा गांधी और सिनेमा के बारह अध्यायों में विस्तार से इस बात का विवेचन किया गया है कि सिनेमा के जन्म और विकास के साथ-साथ महात्मा गांधी का देशव्यापी अनुष्ठान और जनजाग्रति का उपक्रम किस तरह परवान चढ़ा। कैसे अपने समय की यादगार फिल्मों के किरदारों की छवि और वेशभूषा महात्मा गांधी की छबि और वेशभूषा से मेल खाती रहीं। किस तरह सत्य का आग्रही नायक हमारे सिनेमा में हुआ, किस तरह हिंसा के विरुद्ध आत्मबल और जीवट काम आया। किस तरह सामाजिक बुराइयों और कुरीतियों को आइना दिखाने का काम सिनेमा में हुआ और किस तरह जागरुकता के लिए महात्मा गांधी ने देशव्यापी यात्राएँ कीं, गाँव-गाँव जाकर एक-एक आदमी से संवाद स्थापित करने का प्रयत्न किया और उनके दुख-सुख को नजदीक से जाना। यही दुख-सुख सिनेमा का विषय भी बने, उत्कृष्ट कथाएँ लिखी गयीं जिनके चरित्रों को बड़े-बड़े अभिनेताओं ने परदे पर साकार किया। जीवन का गीत-संगीत अर्थवान हुआ और मनुष्य के यथार्थ के विहँगम बिम्ब हमने सिनेमा के परदे पर देखे।

अध्याय दो में जयप्रकाश चौकसे ने महात्मा गांधी की इन्दौर यात्रा का जिक्र किया है। महात्मा गांधी 1918 में इन्दौर आये थे। वे वहाँ हिन्दी साहित्य सम्मेलन में भाग लेने पहुँचे थे। उस समय पहला विश्वयुद्ध समाप्त ही हुआ था। चौकसे लिखते हैं कि भारतीय सिनेमा को कवि हृदय, लेखक और फिल्मकार देवकी बोस गांधी जी की कृपा से ही मिला। जिस समय गांधी जी ने असहयोग आन्दोलन की अलख जगा रखी थी उसी समय देवकी बोस ने चण्डीदास और विद्यापति जैसी फिल्में बनाकर इस आन्दोलन को रचनात्मक बल देने का काम किया। देवकी बोस पहले गांधी जी के असहयोग आन्दोलन से जुड़े थे। जयप्रकाश चौकसे, व्ही. शान्ताराम को भी कहीं न कहीं गांधी जी की दृष्टि का समर्थक मानते हैं और अपनी किताब में उल्लेख करते हैं कि शान्ताराम ने अपनी लम्बी सार्थक पारी में अनेक गांधीवादी फिल्मों का निर्माण किया।

महात्मा गांधी और सिनेमा उन अर्थों में एक पठनीय किताब बनती है जिसको केन्द्र में रखकर लेखक ने सौ साल के सिनेमा से बहुत महत्वपूर्ण कुछ पक्ष सोदाहरण उठाये हैं  और बड़ी सार्थकता के साथ उन्हें व्यक्त किया है। लेखक ने तर्कशास्त्र से परे व्यवहारिक समानता को अपने लेखन का आधार बनाते हुए इस विधा में निरन्तर लेखन के अपने लम्बे अनुभवों का बेहतर प्रस्तुत करने का सफल जतन किया है। यह किताब इस विशेष समय में, जब हम सिनेमा की सदी मना रहे हैं, एक उल्लेखनीय विश्लेषणात्मक  कृति के रूप में सामने आती है, जिसे पढऩा उस बोध से अपने आपको प्रत्यक्ष करना है, जिस पर हम अमूमन विचार नहीं करते। पुस्तक का आवरण प्रसिद्ध चित्रकार प्रभु जोशी ने तैयार किया है।
 
पुस्तक - महात्मा गांधी और सिनेमा
लेखक - जयप्रकाश चौकसे
मूल्य - 295 रुपये
प्रकाशक - मौर्य आर्ट्स प्रा.लि. मुम्बई
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मंगलवार, 18 दिसंबर 2012

ग्वालियर का तानसेन समारोह: एक अविरल परम्परा की दिखायी देती सदी


सदियों की अनुभूति गौरव प्रदान करती है। किसी परम्परा का अविरल बने रहना और उसी के साथ-साथ हमारी अपनी चेतना का संगत करना, फिर उसी अनुभूति को थामे-थामे बहुत दूर नहीं, कुछ जरा पास ही दिखायी देती सदी को महसूस करना एक विलक्षण अनुभव है। 88 साल के तानसेन संगीत समारोह के विषय में सोचते हुए ऐसे अनुभव स्वाभाविक हैं। मध्यप्रदेश में तानसेन समारोह विदा होते साल का सबसे महत्वपूर्ण, सबकी चिन्ता और श्रद्धा में शामिल एक ऐसा उत्सव है जिसके लिए हम सभी पूरे साल सचेत रहते हैं। जैसे-जैसे इस समारोह की उम्र समृद्ध हो रही है, वैसे-वैसे एक पूरा का पूरा परिप्रेक्ष्य ही इस समारोह की गरिमा के प्रति अपने उत्तरदायित्वबोध को भी ज्यादा सजग बनाता जाता है।

तानसेन समारोह में अब एक तरह से देखा जाये तो लगभग पूरे नौ दशक ही पूर्णता के हो गये हैं। इस गरिमामयी संगीत प्रसंग का आदि अपने आपमें अनेक जिज्ञासाएँ जगाता है। एक बड़ा पुराना इतिहास है जिसके पन्ने बादामी होकर एक तरह से कालजयी दस्तावेज बनकर रह गये हैं। उन पन्नों पर अपनी स्मृतियों, कल्पनाओं और कौतुहल का हस्त-स्पर्श हमें गरिमाबोध से भर देता है। हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत परम्परा की महान विभूतियों ने तानसेन संगीत समारोह के मंच पर एक महान गायक को अपनी श्रद्धांजलि डूबकर दी है। ऐसे अनेक विलक्षण कलाकार हैं जो अपने जीवनकाल में एक से अधिक बार इस मंच पर अपनी गरिमा विस्तार के क्रम में आये हैं। पहली बार जिन्हें यह सौभाग्य की तरह मिला होगा, दोबारा जब आये होंगे तब आत्मविश्वास को बढ़ा हुआ महसूस किया होगा और तब भी जब एक आश्वस्त सी प्रस्तुति करके स्वयं भी अपने आपको तृप्त करके गये होंगे।

तानसेन संगीत समारोह में गायन और वादन की विविधताओं में भी अपना एक आदरसम्मत अनुशासन रहा है जिसका पालन मूर्धन्य कलाकारों ने किया है। एक लगभग शती की आवृत्ति का अपना विहँगम है। संगीत की अस्मिता से जुड़े सभी कलाकार इस पुण्य उत्सव में आये हैं। बड़े बरसों पहले निष्णात और विद्वान कलाकार इस बात को रेखांकित करते थे कि वे तानसेन संगीत समारोह के मंच पर अपनी सहभागिता के लिए उसी तरह की प्रतीक्षा करते रहे हैं जिसका अर्थात लगभग मनोकामना से है क्योंकि एक महान कलाकार की स्मृतियों की देहरी पर शीश नवाना सच्चे कलाकारों का स्वप्न हुआ करता है। इस समारोह की सुदीर्घ परम्परा बीसवीं शताब्दी के महान संगीत रसिकों, श्रद्धालुओं और कला को संरक्षण प्रदान करने वाले राजाओं की देन है। यह परम्परा, क्रमशः कला और कला के संरक्षण के प्रति जवाबदेह रहने वाले लोगों और संस्थाओं के साथ-साथ सरकार जिसकी ओर से संस्कृति विभाग ने विनम्रतापूर्वक इसकी निरन्तरता को चिरस्थायी बनाये रखने, उसे सतत परिपक्व और नवाचारों से युक्त करने का प्रयास किया, इन सभी से स्पन्दित होती आयी है।

तानसेन संगीत समारोह की भौतिक जगह भले ही परिस्थितियों और भावनाओं से कुछ जरा-बहुत उठी-बैठी या कुछ कदम चलकर थमी हो, इसकी गरिमा के प्रति भावनात्मक जवाबदारियों और सोच में विस्तार ही हुआ है। एक बड़ी मेहनत, इच्छाशक्ति और एक तरह से वृहद, सच्ची और निष्कलुष सहभागिता के लिए उठाये जोखिमों का भी सु-परिणाम बहुत अच्छे तरीके से सामने आया है। इस पुण्य-पुनीत प्रसंग से समाज अपनी सारी सहजताओं के साथ जुड़े यह विनम्र कर्तव्य रहा है। विगत वर्षों में यह कर्तव्य और आकांक्षा साकार हुई है। संस्कृति विभाग शतायु होते इस समारोह के वैभव को और अधिक विस्तीर्ण करने के लिए निरन्तर कुछ आयामों को विस्तारित कर रहा है। ग्वालियर संगीत की साधना और समर्पण की नगरी है, राजा मानसिंह तोमर जिनकी विरासत इस अनमोल निधि को अक्षुण्ण और संरक्षित करने के लिए आज भी स्मरणीय है और संगीत सम्राट तानसेन, उनके गुरु स्वामी हरिदास जैसे साधकों से इस परम्परा को मिला अमरत्व हम सभी के लिए भी सदा प्रबल ऊष्मा की तरह है, इसे हम अत्यन्त विनम्रता के साथ मानकर समारोह सदी को देख रहे हैं..........................

बुधवार, 12 दिसंबर 2012

जाने कैसे सपनों में खो गयी अखियाँ

पण्डित रविशंकर का निधन कला जगत की एक असाधारण क्षति है। देश के कला रसिकों और जिज्ञासुओं की स्मृतियों में उनकी यादगार सभाएँ हमेशा ध्वनित होती रहेंगी। एक सितार वादक के रूप में उनकी जगह अद्वितीय रही है और उनका यश दो सदियों तक विस्तीर्ण है जिसमें इस सदी का पूरा एक दशक शामिल है।
कुछेक विरोधाभासों के साथ ही कुछ-कुछ विलक्षण साक्ष्य भी हैं जो हमारी चेतना में हमेशा बने रहते हैं। सिनेमा में शास्त्रीय संगीत के कलाकारों की सृजनात्मक उपस्थिति बड़ी दुर्लभ रही है।

 पण्डित भीमसेन जोशी से लेकर उस्ताद बड़े गुलाम अली खाँ और पण्डित शिव शर्मा से लेकर पण्डित हरिप्रसाद चैरसिया और अनेक कलाकारों का वक्त-वक्त पर सिनेमा से जुड़ाव रहा है लेकिन सेकेण्डों और चन्द मिनटों में पूरे होने वाले एक दृश्य के अनुरूप सीमा में बंधकर रचना किये जाने का बन्धन अनुभूति के चरम तक जाने वाले शास्त्रीय संगीतज्ञों के लिए मुश्किल रहा है, यही कारण है कि ये सरोकार लम्बे समय नहीं चले। फिर भी ऐसे महत्वपूर्ण कलाकारों ने जब और जितना सिनेमा के लिए रचा वह इतिहास बनकर रह गया और बड़े महत्व के साथ उसका समय ने साक्ष्य भी रखा और उल्लेख भी किया।

पण्डित रविशंकर का योगदान भी इस नाते अतुलनीय है कि उन्होंने अपने मित्रों के आत्मीय आग्रह पर कुछ फिल्मों से जुड़ना स्वीकार किया और उन फिल्मों के लिए उनके द्वारा की गयी संगीत रचना अविस्मरणीय रही है। महान फिल्मकार सत्यजित रे के साथ उनका जुड़ना भी ऐसी ही घटना रही है। पण्डित रविशंकर के रूप में रे बाबू को अपनी कल्पना के संगीत का चितेरा मिल गया था जब उन्होंने अपनी पहली महानतम फिल्म पाथेर पांचाली का निर्माण किया। इस फिल्म की गणना सर्वकालिक है और विश्वसिनेमा के इतिहास की श्रेष्ठ फिल्मों में उसकी गणना भी होती है। 


 पण्डित रविशंकर, रे बाबू के साथ इसीलिए जुड़ सके क्योंकि उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता का रे बाबू ने भी बड़ा आदर किया। सत्यजित रे अपने सिनेमा की सम्पूर्ण आत्मा से पूरी तरह जुड़ते थे इसीलिए अनुकूल संगीत परिवेश और प्रासंगिकता को लेकर विशेष रूप से पण्डित रविशंकर के प्रति वे एक तरह से निश्चिंत रहते थे। यही कारण रहा कि रे बाबू की बाद की तीन फिल्मों अपराजितो, पारस पाथर और अपूर संसार का संगीत भी पण्डित रविशंकर ने दिया। यह सान्निध्य इन चार फिल्मों की सभी विशेषताओं के साथ संगीत रचना में भी बड़ी खूबियों से भरा है। बाद में पण्डित रविशंकर की दुनिया के असीम विस्तार के बाद उनके पास उतना समय नहीं रहा और रे बाबू को भी उनका विकल्प नहीं मिल सका। परिणाम यह हुआ कि बाद में सत्यजित रे ने अपनी फिल्मों के लिए स्वयं संगीत तैयार करना शुरू किया।

अपनी फिल्म अनुराधा के लिए संगीतकार के रूप में पण्डित रविशंकर की सहमति विख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी को भी उसकी पटकथा सुनाते हुए सहज ही मिल गयी थी। अनुराधा, बलराज साहनी, लीला नायडू की एक यादगार फिल्म है जो एक प्रतिभाशाली स्त्री की घर में घुलकर रह गयी स्वतंत्रता और सृजनात्मक क्षमताओं की फिक्र बड़े मर्मस्पर्शी ढंग से करती है। इस फिल्म के गाने जाने कैसे सपनों में खो गयी अखियाँ, साँवरे काहे मोसे करो जोरा जोरी, कैसे दिन बीते कैसी बीती रतियाँ, सुन मेरे लाल यूँ न हो बेहाल, बहुत दिन हुए तारों के देश में, हाय रे वो दिन क्यों न आये आज भी स्मरण करो तो अनुभूतियों के विविध रंगों का एहसास होने लगता है, ये गाने लता मंगेशकर, मन्ना डे, महेन्द्र कपूर ने गाये थे। 


जब गुलजार मीरा फिल्म बना रहे थे तब उनकी हार्दिक इच्छा थी कि इस फिल्म के सारे गाने लता मंगेशकर गायें और संगीत रचना पण्डित रविशंकर करें लेकिन संगीत निर्देशन के ही मसले पर उनके लिए अपनी यह आकांक्षा पूरी करना मुश्किल हो गया। बाद में मीरा के लिए पण्डित रविशंकर ने ही संगीत तो दिया लेकिन सारे गाने गाये वाणी जयराम ने, एक गाने को छोड़कर जिसे पण्डित दिनकर कैकिणी ने गाया था।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2012

तलाश : सूझ और समझ से बनी एक सधी हुई फिल्म


रीमा कागती निर्देशित फिल्म तलाश को देखना सिनेमा में, खासकर इस दौर के सिनेमा में एक नये अनुभव से गुजरना है। तलाश में रीमा कागती या जोया अख्तर या फरहान अख्तर या अनुराग कश्यप के नामों तक वे ही लोग पहुँच पाते हैं जिन्हें सिनेमा में नायक-नायिका के अलावा भी बहुत कुछ जानने की जिज्ञासा खास इस बात के लिए होती है कि वास्तव में यह फिल्म किस तरह की दृष्टि और समझ का परिणाम है। आमतौर पर दर्शक के पास इतनी तैयारी या फुरसत नहीं होती और सिनेमाहॉल में परदे की तरफ एक बार देखकर खो सा गया दर्शक अन्त तक तय नहीं कर पाता कि उसने अपने आनंद और मनोरंजन के नाम पर क्या प्राप्त किया या क्या खोया.. .. .. ..

मुम्बई पृष्ठभूमि में है और समुद्र के किनारे स्याह रात तेज रफ्तार से आयी एक कार अपने चलाने वाले के साथ अनियंत्रित होकर सीधे समुद्र में जा गिरती है। यह एक सितारे की मौत है और यहीं से मौत की वजह जानने का रहस्य फिल्म को लेकर चल पड़ता है। फिल्म का नायक जो कि एक पुलिस अधिकारी है, उसे यह प्रकरण सुलझाना है लेकिन उसके भटकाव में खुद उसकी जिन्दगी का हादसा भी साथ है। वह अपनी पत्नी के साथ सहज नहीं है। कहानी के मूल में एक स्त्री है जो जीवित नहीं है मगर नायक के साथ उसका मिलना-जुलना और घटनाक्रमों के सूत्रों से जुड़ते जाना रहस्य में एक दिलचस्प पहलू है।


नायक पुलिस अधिकारी अपनी पत्नी के आवेगों और उसको बहकाने का माध्यम बनी एक औरत फ्रेनी से बेइन्तहा चिढ़ता है और ठीक लगभग उसी वक्त वो एक दिवंगत छाया के साथ रहस्यों को सुलझाने के साथ-साथ अपना अकेलापन और आँसू भी बाँट रहा है। तलाश में मुम्बई के रेड लाइट एरिया  के जीवन और वहाँ की कंजस्टडनेस जिसमें भय, असुरक्षा, घुटन और दुर्घटनाएँ साँस ले रही हैं, बड़े सजीव चित्रित होते हैं। आमिर खान फिल्म में ऐसे पुलिस अधिकारी बने हैं जो पूरी फिल्म में एक बार रेड लाइट एरिया के गुण्डे को मारते हैं, शेष पूरी फिल्म में तफ्तीश और सवाल-जवाब लगातार हैं। सिनेमा के हीरो की मौत के पीछे अन्त में जो कारण और खुलासे हैं वे सनसनीखेज नहीं है बल्कि इन्सानी लोभ-लालच और भरोसे तथा धोखेबाजी के इर्द-गिर्द घूमते हैं।

तलाश का रहस्य और अगले घटनाक्रम के प्रति जिज्ञासा बने रहना प्रमुख पहलू है। निर्देशक रीमा कागती ने इसे अन्त तक बनाये रखने में अपनी प्रतिभा का पूरा परिचय दिया है। वे आमिर खान कैम्प की लेखिका हैं और तलाश उनका पहला निर्देशन। उनका काम ठीक से हो जाये इसीलिए आमिर खान ने जोखिम से बचते हुए ऐसे कलाकारों, लेखकों, निर्देशकों को जोडक़र फिल्म को सम्हाला है, जिनके नाम शुरू में आये हैं। कहानी, पटकथा, संवाद लेखन में जोया, फरहान, अनुराग और आमिर के हस्तक्षेप दिखायी देते हैं।

आमिर खान ने अपनी भूमिका को तो केन्द्र में रखा ही है लेकिन अलग-अलग स्थान पर रानी मुखर्जी और करीना कपूर की भूमिकाएँ भी अर्थपूर्ण लगती हैं। गैंग ऑफ वासेपुर से चर्चित नवाजुद्दीन, तैमूर की भूमिका में सबसे अलग और अकेला कन्ट्रास्ट हैं। उनकी भूमिका नकारात्मक है और उनका किरदार एक पैर से चलने में असहज भी है लेकिन एक शातिर वृत्ति के इन्सान को उन्होंने बखूबी जिया है। फिल्म का गीत-संगीत पक्ष, जावेद अख्तर और राम सम्पत के बावजूद बड़ा कमजोर है। तलाश, संवादों और जिज्ञासाओं में सुरुचि पैदा करती है, कुल मिलाकर तीन सितारे वाली फिल्म है। यह सूझ और समझ से बनी एक सधी हुई फिल्म कही जा सकती है।

गुरुवार, 18 अक्तूबर 2012

शोले के सर्जक सलीम खान सम्मानित हुए राष्ट्रीय किशोर कुमार सम्मान से


खण्डवा के लिए 13 अक्टूबर का दिन बड़ा महत्व रखता है। यह महान गायक और हरफनमौला कलाकार स्वर्गीय किशोर कुमार की पुण्यतिथि का दिन है और शहर उनको मन ही मन बड़ी भावुकता के साथ याद करता है। शहर वो दिन भुला नहीं सकता जब खण्डवा शहर में जन्मा वो होनहार कलाकार निष्प्राण देह के रूप में परिजनों द्वारा लाया गया था, उसकी उस अन्तिम जिद और वसीयत के वशीभूत जिसमें यह इच्छा जाहिर की गयी थी कि अन्तिम संस्कार खण्डवा में ही किया जाये। शहर उमड़ पड़ा था 14 अक्टूबर की सुबह बॉम्बे बाजार स्थित कुंजीलाल गांगुली के मकान में जहाँ से किशोर दा ने अन्तिम सफर तय किया था।

मध्यप्रदेश सरकार ने खण्डवा के इस गौरव पुत्र के नाम पर देश का सबसे बड़ा राष्ट्रीय सम्मान स्थापित किया है, किशोर कुमार सम्मान जो हर साल बारी-बारी से सिनेमा के क्षेत्र में निर्देशन, अभिनय, पटकथा और गीत लेखन के लिए प्रदान किया जाता है। साल 2011-12 में पटकथा लेखन के लिए यह सम्मान विख्यात पटकथा और संवाद लेखक श्री सलीम खान को प्रदान किया गया। 13 अक्टूबर को रायचन्द नागड़ा उत्कृष्ट विद्यालय के प्रांगण में एक गरिमापूर्ण समारोह आयोजित कर संस्कृति विभाग की ओर से यह अलंकरण संस्कृति एवं जनसम्पर्क मंत्री श्री लक्ष्मीकान्त शर्मा ने प्रदान किया। इस अवसर पर आदिम जाति एवं अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री श्री विजय शाह, महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती रंजना बघेल, महापौर श्रीमती भावना शाह और पूर्व सांसद श्री नंद कुमार सिंह चौहान के साथ स्थानीय विधायकगण भी उपस्थित थे।

श्री सलीम खान, मुम्बई से इस सम्मान को ग्रहण करने अपनी पत्नी और विख्यात अभिनेत्री श्रीमती हेलेन के साथ इन्दौर होते हुए खण्डवा आये थे। खण्डवा पहुँचते ही वे सबसे पहले स्वर्गीय किशोर कुमार की समाधि स्थल पर गये। उन्होंने श्रीमती हेलेन के साथ समाधि पर पुष्पांजलि अर्पित की और वहीं पर पत्रकारों से बातचीत भी की। श्री सलीम खान ने कहा कि मेरे लिए इस अवार्ड के बड़े मायने हैं, इसलिए यह अवार्ड सिनेमा के क्षेत्र में देश का सबसे बड़ा अवार्ड है और जिनके नाम पर है उनसे और उनके बड़े भाई दादा मुनि से मेरे बड़े शुरू के ताल्लुकात थे जो ताजिन्दगी बने रहे। श्री सलीम खान ने बताया कि उनके कैरियर की पहली कहानी दादामुनि ने ही दो भाई फिल्म के लिए खरीदी थी। दादामुनि से उनका रिश्ता हमेशा प्रगाढ़ रहा। श्री सलीम खान ने कहा कि मेरे लिए यह खुशकिस्मती की बात थी कि वे मुझे हमेशा बराबरी का सम्मान दिया करते थे।

अवार्ड समारोह में संस्कृति मंत्री श्री लक्ष्मीकान्त शर्मा ने राज्य शासन की ओर से शाल, श्रीफल, सम्मान पट्टिका के साथ दो लाख रुपए की राशि का ड्राफ्ट भी उन्हें प्रदान किया। श्री लक्ष्मीकान्त शर्मा ने श्री सलीम खान के कृतित्व की सराहना करते हुए कहा कि मध्यप्रदेश शासन का यह सम्मान ऐसे शख्स को दिया जा रहा है, जिनका सिनेमा चार दशक से दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट किए हुए है। श्री सलीम खान ने सफल फिल्मों की पटकथा लिखकर ऐसा इतिहास रचा है जिसकी बराबरी कोई दूसरा पटकथा लेखक नहीं कर पाया। उनकी फिल्में हाथी मेरे साथी, सीता और गीता, जंजीर, शोले, त्रिशूल, नाम, कब्जा, फलक आदि ने पीढ़ियों को मुग्ध और रोमांचित किए रखा है। संस्कृति मंत्री ने कहा कि मध्यप्रदेश सरकार एक ऐसे फिल्म सर्जक को सम्मानित करके गौरवान्वित है जिसने तमाम अवार्ड स्वीकार नहीं किये लेकिन मध्यप्रदेश सरकार के अवार्ड को मान दिया। इस नाते हमारे लिए वे बड़े सम्माननीय और आदर के पात्र हैं। हम उन्हें इसके लिए हार्दिक बधाई देते हैं और उनका आभार व्यक्त करते हैं।

आदिम जाति एवं अनुसूचित जाति कल्याण मंत्री श्री विजय शाह ने अपने उद्बोधन में कहा कि श्री सलीम खान मानवीय धरातल पर एक समरस और बड़े मन के मालिक हैं। उनके जैसा उदार और आत्मीय इन्सान ढूँढ़े से नहीं मिलता। श्री शाह ने कहा कि श्री सलीम साहब इन्दौर में जन्मे और इधर भोपाल से लेकर सारा क्षेत्र उन्होंने खूब घूमा, जिया और उसकी यादें वे हमेशा साथ रखते हैं। उनका स्वभाव और संवेदनशीलता एकदम निष्पक्ष और अनुकरणीय है। महिला एवं बाल विकास मंत्री श्रीमती रंजना बघेल ने कहा कि श्री सलीम खान साहब एवं श्रीमती हेलेन मुम्बई से इस सम्मान को लेने किशोर कुमार की नगरी खण्डवा आये हैं। यह उनका एक महान गायक के प्रति आदर भाव और मध्यप्रदेश के प्रति अपनेपन को दर्शाता है। पूर्व सांसद श्री नंद कुमार सिंह चौहान ने कहा कि खण्डवा में इस सम्मान का अलंकरण समारोह आयोजित किए जाने से सम्मान की प्रतिष्ठा बढ़ी है। उन्होंने कहा कि पूरा शहर इस सम्मान समारोह का साक्षी होता है, यह अनूठी बात है।

विख्यात अभिनेत्री श्रीमती हेलेन खण्डवा शहर आकर बड़ी खुश और रोमांचित थीं। उन्होंने याद किया कि उन्होंने अनेक यादगार शो किशोर दा के साथ देश-विदेश में किये थे। उनकी निगाह में किशोर दा जैसा व्यक्तित्व होना नामुमकिन है। उन्होंने मंच से कहा कि इस सुखद और यादगार मौके पर मैं अपनी ओर से पूरे खण्डवा शहर का अभिवादन करती हूँ। अलंकरण उपरान्त खण्डवा की महापौर श्रीमती भावना शाह ने आभार व्यक्त किया।

अलंकरण समारोह में इस बार दर्शक-श्रोताओं की उपस्थिति पिछले वर्षों की अपेक्षा बहुत अधिक थी। शहरवासियों ने श्री सलीम खान के सम्मान अलंकरण समारोह के उपरान्त आयोजित विख्यात कलाकार श्री उदित नारायण की गीत-संगीत संध्या का जमकर आनंद लिया। श्री उदित नारायण अपने पन्द्रह साथी कलाकारों एवं अपनी पत्नी गायिका सुश्री दीपा नारायण के साथ कार्यक्रम प्रस्तुति के लिए आये थे। उन्होंने दो घण्टे से भी ज्यादा समय में अनेक सफल फिल्मों जिनमें दिल तो पागल है, लगान, गदर एक प्रेमकथा, दिल, बेटा आदि तमाम फिल्में शामिल थीं।

गुरुवार, 13 सितंबर 2012

हिन्दी सिनेमा की भाषा


आलोचनात्मक ढंग से चर्चा में आयी अनुराग कश्यप की दो भागों में पूरी हुई फिल्म गैंग ऑफ वासेपुर से एक बार फिर हिन्दी सिनेमा में सिने-भाषा को लेकर बातचीत शुरू हुई है। एक लम्बी परम्परा है सिनेमा की जिसके सौ बरस पूरे हुए हैं। सिनेमा हमारे देश में आजादी के पहले आ गया था। दादा साहब फाल्के ने हमारे देश में सिनेमा का सपना देखा और उसको असाधारण जतन और जीवट से पूरा किया। भारत में सिनेमा का सच बिना आवाज का था। दादा फाल्के की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र मूक फिल्म थी। आलमआरा से ध्वनि आयी लेकिन इसके पहले का सिनेमा मूक युग का सिनेमा कहा जाता है। ध्वनि आने तक परदे पर सिनेमा के साथ पात्रों के संवादों को व्यक्त किए जाने की व्यवस्था होती थी। परदे पर संवादों को लिखकर प्रस्तुत करने की पहल भी दर्शकों को तब बड़ी अनुकूल लगती थी। जब सिनेमा में आवाज हुई तभी संवाद सार्थक हुए। यहीं से पटकथा और संवाद लेखक की भूमिका शुरू होती है।

हमारा सिनेमा संवादों की परम्परा के साथ सीधे ही रंगमंच और तत्समय व्याप्त शैलियों से बड़ा प्रभावित रहा है। सिनेमा से पहले रंगमंच था, पात्र थे, अभिव्यक्ति की शैली थी। बीसवीं सदी के आरम्भ में नाटकों में पारसी शैली के संवाद बोले जाते थे। पृथ्वीराज कपूर जैसे महान कलाकार नाटकों के जरिए देश भर में एक तरह का आन्दोलन चला रहे थे जिससे अपने समय के बड़े-बड़े सृजनधर्मी जुड़े थे। नाटकों, रामलीला, रासलीला में पात्रों द्वारा बोले जाने वाले संवादों का असर सिनेमा में लम्बे समय तक रहा है। सोहराब मोदी, अपने समय के नायाब सितारे, निर्माता-निर्देशक की अनेक फिल्में इस बात का प्रमाण रही हैं। बुलन्द आवाज और हिन्दी-उर्दू भाषा का सामन्जस्य उस समय के सिनेमा की परिपाटी रहा। आजादी के बाद का सिनेमा सकारात्मकता, सम्भावनाओं और आशाओं का सिनेमा था। धरती के लाल, कल्पना और चन्द्रलेखा जैसी फिल्में उस परिवेश की फिल्में थीं। नवस्वतंत्र देश का सिनेमा अपनी तैयारियों के साथ आया था। कवि प्रदीप जैसे साहित्यकार पौराणिक और सामाजिक फिल्मों के लिए गीत रचना कर हिन्दी साहित्य का प्रबल समर्थन कर रहे थे। हिन्दी में सिनेमा बनाने वाली धारा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों से आयी। निर्माता, निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, नायक-नायिका, विभिन्न चरित्र कलाकारों में जैसे श्रेष्ठता की एक श्रृंखला थी। इन सबमें हिन्दी के जानकार और अभिव्यक्ति की भाषा में हिन्दी के सार्थक उपयोग की चिन्ता करने वाले लोगों के कारण सिनेमा को एक अलग पहचान मिली।

राजकपूर, बिमलराय जैसे फिल्मकार छठवें दशक से अपनी एक पहचान कायम करने में सफल रहे थे। राजकपूर के पास अपने पिता का तजुर्बा था। उनके पिता ने उनको एक सितारे का बेटा बनाकर नहीं रखा था बल्कि उनको उन सब संघर्षों से जूझने दिया था, जो एक नये और अपनी मेहनत से जगह बनाने वाले कलाकार को करना होते हैं। राजकपूर संगीत से लेकर भाषा तक के प्रति गहरा समर्पण रखते थे। आह, आग, आवारा, श्री चार सौ बीस आदि फिल्मों में हिन्दी के संवादों में कहीं कोई समस्या नहीं है। इधर बिमलराय जैसे फिल्मकार ने बंगला संस्कृति और भाषा से श्रेष्ठ चुनकर हिन्दी के लिए काम किया और अपने समय का श्रेष्ठ सिनेमा बनाया। वे नबेन्दु घोष जैसे लेखक, पटकथाकार, हृषिकेश मुखर्जी जैसे सम्पादक जो कि आगे चलकर बड़े फिल्मकार भी बने और अनेक महत्वपूर्ण फिल्में बनायीं, इन सबके साथ मुम्बई में काम करने आये थे। उनकी बनायी फिल्में हमराही, बिराज बहू, दो बीघा जमीन, परिणीता, देवदास, सुजाता, बन्दिनी आदि मील का पत्थर हैं। हम यदि इन फिल्मों को याद करते हैं तो हमें दिलीप कुमार, बलराज साहनी, नूतन, सुचित्रा सेन, अशोक कुमार ही याद नहीं आते बल्कि मन में ठहरकर रह जाने वाले दृश्य, संवाद और गीत भी यकायक मन-मस्तिष्क में ताजा हो उठते हैं। हिन्दी सिनेमा की भाषा को बचाये रखने की कोशिश पहले नहीं की जाती थी क्योंकि सब कुछ स्वतः ही चला करता था। हिन्दी फिल्मों में हिन्दी को कोई खतरा नहीं था। बाद में चीजें बदलना शुरू हुई। जो लोग इस बदलाव से जुड़े थे और इसका समर्थन कर रहे थे उनका मानना यही था कि नये जमाने के साथ सिनेमा को भी अपनी एक भाषा की जरूरत है। दर्शक एकरूपता से उकता गया है जबकि ऐसा नहीं था। दर्शक समाज इतना बड़ा समूह है कि वह स्तरीयता की परख करना जानता है और यकायक भाषा में भोथरा किया जाने वाला नवाचार उसकी पसन्द नहीं हो सकती। ठीक है, पीढि़याँ आती हैं, जाती हैं, अपनी तरह से वक्त-वक्त पर अपनी दुनिया भी गढ़ी जाती है लेकिन अपनी सहूलियत और बदलाव के लिए मौलिकता और सिद्धान्तसम्मत चीजों को विकृत किया जाये, यह बात गले नहीं उतरती। 

यह एक अच्छी बात रही है कि हिन्दी के साथ उर्दू का समावेश करके सिनेमा को एक नया प्रभाव देने की कोशिश की गयी, वह स्वागतेय भी रही क्योंकि उर्दू तहजीब की भाषा है, उसका अपना परिमार्जन है। फिल्मों में संवाद लेखन करने वाले, गीत लेखन करने वाले उर्दू के साहित्यकार, शायरों का भी लम्बे समय बने रहना और सफल होना इस बात को प्रमाणित करता है कि दर्शकों ने इस नवोन्मेष का स्वागत किया। इसी के साथ-साथ हिन्दी के साथ निरन्तर बने रहने वाले लेखकों, पटकथाकारों और निर्देशकों ने अपनी एक धारा का साथ नहीं छोड़ा। अब चूँकि सत्तर के आसपास एक टपोरी भाषा भी हमारे सिनेमा में परिचित हुई जिसका एक विचित्र सा उपसंहार हम मुन्नाभाई एमबीबीएस में देखते हैं, उसने सिने-भाषा का सबसे बड़ा नुकसान करने का काम किया। उच्चारण, मात्रा और प्रभाव सभी स्तर पर इस तरह की बिगड़ी हिन्दी लगभग चलने सी लगी। हालाँकि साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचन्द से लेकर अमृतलाल नागर, नीरज, शरद जोशी, फणिश्वरनाथ रेणु आदि का सरोकार भी हिन्दी सिनेमा से जुड़ा मगर इन साहित्यकारों का हम ऐसा प्रभाव नहीं मान सकते थे कि उससे सिनेमा का समूचा शोधन ही हो जाता। वक्त-वक्त पर ये विभूतियाँ हिन्दी सिनेमा का हिस्सा बनीं, नीरज ने देव आनंद के लिए अनेकों गीत लिखे, शरद जोशी ने फिल्में और संवाद लिखे, रेणु की कहानी पर तीसरी कसम बनी, नागर जी की बेटी अचला नागर ने निकाह से लेकर बागबान जैसी यादगार फिल्में लिखीं। मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव की कृतियों पर फिल्में बनी, पण्डित भवानीप्रसाद मिश्र दक्षिण में लम्बे समय एवीएम के लिए लिखते रहे लेकिन सकारात्मक विचारों की विरुद्ध प्रतिरोधी विचार ज्यादा प्रबल था लिहाजा वही काबिज हुआ। बच्चन जैसे महान कवि के बेटे अमिताभ बच्चन तक मेजर साब फिल्म में सेना के अधिकारी बने अपने सीने पर जसवीर सिंह राणा की जगह जसविर सिंह राणा की नेम-प्लेट लगाये रहे, लेकिन एक बार भी उन्होंने निर्देशक को शायद नहीं कहा होगा कि जसविर को जसवीर करके लाओ। 

सत्तर के दशक में जब नये सिनेमा के रूप में सशक्त और समानान्तर सिनेमा का प्रादुर्भाव हुआ तब हमने देखा कि एक तरफ से श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी जैसे फिल्मकारों ने अपने सिनेमा में भाषा और हिन्दी के साथ-साथ उच्चारणों की स्पष्टता पर भी ध्यान दिया। अगर कहूँ कि निश्चय ही उसके पीछे स्वर्गीय पण्डित सत्यदेव दुबे जैसे जिद्दी और गुणी रंगकर्मी थे तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। दुबे जी हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने मुम्बई में हिन्दी रंगकर्म की ऐसी अलख जगायी कि अपने काम से अमर हो गये। वे हिन्दी की शुद्धता और उसके उच्चारण तक अपनी बात मनवाकर रहते थे। यही कारण है कि मण्डी, जुनून, निशान्त, अंकुर, भूमिका जैसी फिल्में हमें इस बात का भरोसा दिलाती हैं कि कम से कम एक लड़ाई भाषा के सम्मान के लिए प्रबुद्ध साहित्यकारों, लेखकों और कलाकारों द्वारा जारी रखी गयी। यह काम फिर उनके समकालीनों में सुधीर मिश्रा, प्रकाश झा, केतन मेहता, सईद अख्तर मिर्जा ने भी किया। बी.आर. चोपड़ा की महाभारत के संवाद लेखन में राही मासूम रजा के योगदान को सभी याद करते हैं। इसी तरह रामानंद सागर ने भी रामायण धारावाहिक बनाते हुए उसके संवादों पर विशेष जोर दिया। भारत एक खोज धारावाहिक भी भाषा के स्तर पर एक सशक्त हस्तक्षेप माना जाता है। तीसरी कसम, सद्गति, सारा आकाश जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर कालजयी निर्माण के रूप में जाने जाते हैं। उपन्यासकार गुलशन नंदा का उल्लेख भी यहाँ इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे सामाजिक उपन्यासों के एक लोकप्रिय लेखक थे और उनकी कृतियों पर अपने समय में सफल फिल्में बनीं जिनमें फूलों की सेज से लेकर काजल, सावन की घटा, पत्थर के सनम, नीलकमल, कटी पतंग, खिलौना, शर्मीली, नया जमाना, दाग, झील के उस पार, जुगनू, जोशीला, अजनबी, महबूबा आदि शामिल हैं। 

बिमल राय के सहायक तथा उनकी फिल्मों में सम्पादक रहे प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा भी भाषा एवं हिन्दी के स्तरीय प्रभाव के अनुकूलन का सिनेमा रहा है। उन्होंने सत्यकाम, अनाड़ी, अनुपमा, आशीर्वाद, आनंद, मिली, चुपके-चुपके, खट्टा-मीठा, गोलमाल जैसी अनेक उत्कृष्ट फिल्में बनायीं। स्मरण करें तो इन सभी फिल्मों में भाषा के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों को बड़े महत्व के साथ पेश करने काम किया गया है। हाँ, चुपके-चुपके में हिन्दी भाषा-बोली को हास्य के माध्यम से एक कथा रचने में हृषिदा को बड़ी सफलता मिली। फिल्म का नायक प्यारे मोहन जो कि परिमल त्रिपाठी से इस नकली चरित्र में रूपान्तरित हुआ है, एक-एक शब्द हिन्दी में बोलता है, वाक्य भी उच्च और कई बार संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में बोलता है। ऐसा करके वह अपनी पत्नी के जीजा जी को परेशान किया करता है, आखिर क्लायमेक्स में रहस्य खुलता है और मजे-मजे में फिल्म खत्म हो जाती है। चलते-चलते हम शुद्ध हिन्दी में लिखा फिल्म हम, तुम और वह का एक गाना भी याद करते हैं, प्रिय प्राणेश्वरी, हृदयेश्वरी, यदि आप हमें आदेश करें तो प्रेम का हम श्रीगणेश करें........................
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बुधवार, 15 अगस्त 2012

अन्तत: टायगर परदे पर देखा गया...........

एक था टायगर को लेकर दर्शकों में बड़ी जिज्ञासाएँ थीं, बॉडीगार्ड के बाद सलमान खान की फिल्म का बेसब्री से इन्तजार किया जा रहा था। फिल्म प्रदर्शन के सुनिश्चित दिन शुक्रवार की परिपाटी से अलग दो दिन पहले स्वतंत्रता दिवस के दिन इस फिल्म को रिलीज किया गया है। दो कार्यदिवस के बाद फिर ईद तक तीन दिन छुट्टी के हैं। आज सिनेमाघर के आँगन का जो हाल देखा उससे लग गया है कि एक सप्ताह में फिल्म लागत पार करके मुनाफे की भी अच्छी स्थिति प्राप्त कर लेगी।

भोपाल का रंगमहल सिनेमा सुबह से गुलजार है, परिसर में खासी भीड़ और अरसे बाद अनुशासन बनाने के लिए पुलिस की लाठियाँ भी किसी सिनेमाघर में बाहर निकलीं, सौ-पचास लोग सिनेमाघर के बाहर खड़े रहकर भीड़ के अचम्भे को देख रहे हैं, रह-रहकर सिनेमाघर के माथे पर लगे फिल्म के पोस्टर पर सलमान खान को देखकर फिर भीड़ की तरफ निहारते हुए। भई, गजब का आकर्षण इस हीरो के प्रति। सिनेमाघरों में ऐसी भीड़ दुर्लभ है क्योंकि ऐसा क्रेज केवल इसी सितारे के लिए आकर इकट्ठा होता है।

दर्शक बस यह जानता है कि यह सलमान खान की फिल्म है। प्रभाव ऐसा है, कि यशराज बैनर भी दबा हुआ है, निर्देशक कबीर खान का नाम किसी को जानने की जरूरत नहीं। ज्यादा से ज्यादा इतना पता कर लिया कि कैटरीना कैफ हीरोइन है। कहानी भारत और पाकिस्तान की खुफिया एजेंसियों रॉ और आय एस आय के दो प्रतिनिधियों की प्रेमकथा है। शुरूआत में नैरेशन में जब कहा जाता है कि देश की सुरक्षा के सवाल पर बहुत सी सच्चाइयाँ छुपा दी जाती हैं तब हम सोचते हैं कि पता नहीं फिल्म में ऐसी कौन सी सच्चाई देखने को मिलेगी जिसको पूरा या आधा हम जान पायेंगे लेकिन वह किस्सा मोहब्बत का होता है। जोया, कैटरीना कैफ आय एस आय और टायगर रॉ के प्रतिनिधि होते हैं।

कबीर खान एक कल्पनाशील और काबिल निर्देशक हैं। सलमान खान परदे पर पहली बार किस तरह और कैसे आये, सबसे बड़ा दिमाग निर्देशक को इसके लिए लगाना होता है। पन्द्रह मिनट का लम्बा सीन जिसमें हीरो स्पायडर मैन की तरह दीवार पर चढ़ता, जम्प करता है, खलनायकों को तबीयत से मारता है और फिर सबके धराशायी होने पर गमछा लपेट कर शान से चल देता है, ओफ्ओह...........हॉल में दर्शक इतना हल्ला करते हैं, सीटियाँ और शोर मचाते हैं कि संवाद सुनायी ही नहीं देते। यह विकट जादू है जो अरसे बाद किसी सितारे को हासिल हुआ है, परदे पर सलमान को देखकर दर्शक जैसे सुध-बुध खो देता है।


एक था टायगर की पटकथा रोचक है। हालाँकि कहानी की तार्किकता कहीं-कहीं भटकती दिखायी देती है। कथ्य कई बार गौण होकर समाप्त हो जाता है मगर फिल्म की गति तेज होने से तुरन्त दर्शक ऐसी विसंगतियों को नहीं जान पाता। मोहब्बत के लिए हर जोखिम उठाया जा सकता है, इसे फिल्म में हम हर पन्द्रह मिनट बाद देखते हैं। टायगर को उसके बॉस शेनॉय, गिरीश कर्नाड एक ऑब्जर्वेशन मिशन सौंपते हैं जिसमें उन्हें एक शोधकर्ता, रोशन सेठ की गतिविधियों को देखकर रिपोर्ट करना है, लेकिन वहाँ से कहानी मोहब्बत की राह पर चल पड़ती है। यह फिल्म हमें हाँगकांग, डबलिन, इस्तांबुल, बैंकाक, हवाना से दिल्ली तक की सैर कराती है, खूबसूरत देश, जबरदस्त एक्शन यह सब हम असीम मिश्रा की सिनेमेटोग्राफी से बड़े प्रभावी ढंग से देख पाते हैं। फिल्म का अन्त कल्पनातीत है। जिस समय क्लायमेक्स में दर्शक किसी सशक्त और सराहनीय अन्त की उम्मीद लगाकर बैठा हो, उस वक्त फिर हम एक नैरेशन सुनते हैं जिसमें बता दिया गया है कि टायगर और जोया अपनी दुनिया बनाकर किसी अनजान मुल्क में सुकून से रह रहे हैं।

अब यह एक अजीब सी विवशता ही कहिए कि सलमान केन्द्रित फिल्म में सलमान के काम के लिए क्या लिखा जाये, क्योंकि उनकी अपनी खूब एक्शन उनके अनुकूल है, इससे कमतर हो भी नहीं सकता। डाँस में वे खूब पसन्द किए जाते हैं। एक खासियत उनकी लगातार यह बढ़ रही है कि वे हिन्दी बहुत अच्छी बोलते हैं और संवादों में अच्छे शब्दों का प्रयोग होता है। उनकी फिल्में देखने परिवार आये इसलिए इन्टीमेट सीन भी उनकी फिल्मों में वैसे नहीं होते जैसे आजकल दूसरी फिल्मों में बहुत आम हुआ करते हैं। कैटरीना के लिए बस इतना कह देना कि वे सुन्दर लगती हैं या गुडिय़ा की तरह दीखती हैं, काफी नहीं है, इस फिल्म में उन्होंने बहुत अच्छे एक्शन सीन किए हैं। रणवीर शौरी का काम अच्छा है, गिरीश कर्नाड और रोशन सेठ जैसे जीनियस सितारे हैं मगर रोशन सेठ के लिए अच्छी भूमिका नहीं लिखी जा सकी।


बहरहाल, एक था टायगर उस तरह से सुपरहिट होगी, जिसका सीधा सरोकार बाजार से है। आपके पास इस फिल्म की ऐसी समीक्षा करने का कोई आधार बचता नहीं जिसमें आप तार्किकता की आधारभूत संरचनाओं में इसे परखो। हाँ यह समझ में नहीं आया कि फिल्म का सबसे हिट गाना माशाअल्लाह फिल्म के अन्त में उस वक्त क्यों रखा गया जब शेष टायटल दिखाये जा रहे होते हैं क्योंकि सिनेमाघर वाला बाहर जाने का रास्ता दिखाने के लिए गेट खोल देता है और फिल्म बन्द कर देता है। यह एक बड़ी खामी है....................

मंगलवार, 31 जुलाई 2012

प्रेम का उदय

परिपक्व रंगकर्मियों के काम का हमेशा आकर्षण रहता है। सरोज शर्मा को भोपाल के रंगजगत में श्रेष्ठ रंगकर्म करते हुए लगभग तीन दशक से लगातार देखने के मौके आये हैं। पिछले कुछ समय से वे जहाँ रह रही हैं, वहाँ पास-पड़ोस के बच्चों के साथ उन्होंने अच्छे रंगप्रयोग किए हैं वहीं शहर के प्रतिभाशाली युवा कलाकारों के साथ उनका काम इन अर्थों में मायने रखता है कि उनके माध्यम से एक अच्छी और प्रतिबद्ध पीढ़ी तैयार होगी जो कम से कम जल्दी भटकेगी नहीं और न ही बड़ी ही जल्दी अपने आपको एकदम पारंगत ही मान लेगी। यह मुंशी प्रेमचन्द की जन्मशताब्दी का साल है। यह स्तुत्य है कि उनकी कृतियों को नाटककारों ने इस विशेष साल में मंच पर लाने का उपक्रम शुरू किया है। 

सरोज शर्मा ने भी आज भारत भवन में प्रेम का उदय नाटक का मंचन किया जिसका पूर्वाभ्यास वे तकरीबन डेढ़ माह से कर रही थीं। नाटक की कहानी यायावर बंजारों की दुनिया को नजदीक से देखती है। संदिग्ध गतिविधियों से हमेशा आरोपित और अपराध में संलिप्त जीवन इस दुनिया की नियति रही है मगर उसके बावजूद पुरुषार्थ और जोखिम से पीछे न हटने वाले लोग अपने भीतर एक अच्छी और अनुकूल जिन्दगी की कल्पना भी करते हैं और वैसा जीवन जीना भी चाहते हैं। इस नाटक के नायक भोंदू और उसकी पत्नी बंटी का जीवन भी ऐसा ही है। बंटी अपने पड़ोस के सुख और आनंद से इसलिए आक्रान्त है क्योंकि उसका पति गलत रास्ते पर जाने से डरता है। एक स्त्री की ईष्र्याएँ और असन्तुष्टियाँ कई बार घातक नहीं होतीं मगर उसको खुशी देने और सुख पहुँचाने के लिए दुस्साहस करने वाला पुरुष राह भटक जाता है। लेकिन इसी स्त्री का मन बदलता है और वह दुर्घटनाओं से खुशकिस्मती से बच रह गये जीवन को सँवारती है, अपने पुरुषार्थ से। प्रेम का उदय यही है। 

इस नाटक में मंच परिकल्पना और आकल्पन बहुत प्रभावित करता है। अनूप जोशी बंटी और अनिल गायकवाड़ को इसका श्रेय है। दूसरा पक्ष संगीत का है जो रंगक्षेत्र में लक्ष्मीनारायण ओसले और अनिल संसारे की मौलिक और ऊर्जावान आमद के प्रति बड़ी आशाएँ जगाता है। नाटक में बहुत ज्यादा किरदार नहीं हैं, छोटी सी दुनिया और छोटा सा पड़ोस और दुनिया-समाज को पथभ्रष्ट न होने देने वाली, उनकी निगरानी करने वाली संस्था पुलिस। इसी में कलाकार योगिता यादव चिढ़ी हुई पत्नी, सबक सीखने वाली पत्नी और जीवन को बदलने वाली पत्नी के रूप में ज्यादा प्रभाव छोड़ती हैं। रूपेश तिवारी ने पति भोंदू की भूमिका निभायी है जिसकी अपनी सीमाएँ हैं मगर किरदार के रूप में उन्हें संवादों में नुक्ता लगाने की जरूरत नहीं है। जमीनी किरदारों को उस धरातल की ही भाषा बोलनी चाहिए। बूढ़ा बाबा, चरवाहा, पड़ोसन, बच्चे सबमें बड़ा रंग और जीवन्तता है, बच्चे तो बेडऩी बने अनिल के नाच में जिस तरह भागीदार होते हैं, मजा देते हैं, सही मायने में वे ज्यादा सहजता से नाटक का हिस्सा बनते हैं। 

निर्देशक के रूप में सरोज शर्मा का यह पूरा क्राफ्ट अच्छे ढंग से सम्पादित किया हुआ है हालाँकि उन्होंने बंजारा जीवन और बुन्देली लोकभाषा को अपने ढंग से समाहित किया है। सूत्रधार बहुत ज्यादा जरूरी नहीं लगते और जरूरत है तो केवल योगेश परिहार काफी हैं। समग्रता में नाटक अच्छा है, अच्छा तरश जायेगा, एक-दो प्रदर्शन यदि इसके और तत्काल ही हो जायें।

गुरुवार, 12 जुलाई 2012

गैंग ऑफ वासेपुर : संक्षेप में एक पुनर्व्याख्या

 गैंग ऑफ वासेपुर देखना अपने आपमें एक बड़ा रोमांचक अनुभव है। सिनेमा देखते हुए यद्यपि उसकी विवरणात्मकता में जाने की जहमत कोई उठाना नहीं चाहता और जिस तरह से एक सेकेण्ड में बत्तीस फ्रेम निगाहों से गुजर जाते हैं, हमारी चेतना उससे कहीं ज्यादा आगे जाकर सिनेमा को देखने का काम पूरा कर डालती है। यही कारण है कि हमारे पास व्यक्त करने के लिए प्रतिक्रिया अमूमन होती ही नहीं। हम केवल शुभकामनाएँ देने और खेद व्यक्त करने की मुद्रा में ही हमेशा बने रहते हैं। यह तो गनीमत है कि इस पिछले एक दशक में लगातार सृजनात्मक परिश्रम करते हुए टिग्मांशु धूलिया, अनुराग कश्यप और पीयूष मिश्रा जैसे फिल्म सर्जकों ने अपनी जगह दिखाने और उस जगह पर आपकी तवज्जो को लाकर ठहरा देने का काम किया है वरना हम सस्ती और रंगीन इमरती खा-खाकर अपना हाजमा खराब कर चुके हैं मगर चटखारे लेने से बाज नहीं आ रहे। 

व्यक्तिश: मुझे यही लगता है कि एक सशक्त फिल्म को किस तरह गढऩा कठिन होता है, हरेक के लिए यह उतना सहज भी नहीं। अच्छी फिल्मों का रास्ता कठिन है। अच्छी फिल्मों के बनाने वालों का रास्ता भी उतना ही बल्कि उससे ज्यादा कठिन है। अनुराग कश्यप को कई बरस लग गये गैंग ऑफ वासेपुर तक आने में और यहाँ वे अल्प विराम की मुद्रा में हैं, अगले महीने वे इसी फिल्म का दूसरा भाग प्रदर्शित करेंगे। हिन्दी सिनेमा में उन्होंने यह प्रयोग बड़ी तैयारी के साथ किया है। इस फिल्म का पहला भाग देखते हुए जब हम अन्तिम दृश्य से प्रत्यक्ष होते हैं तो यह जानने की विकट जिज्ञासा रहती है कि शाहिद खान और रामाधीर सिंह की पुरानी दुश्मनी कहाँ जाकर खत्म होगी? प्रतिशोध की मानसिकता भयावह है। सरदार खान अपने पिता शाहिद खान की असमय मौत का बदला लेना चाहता है, वो कहता है, कह कर..................यही वाक्य एक पूरे गाने में भी आया है, ठीक उसी तरह जैसे प्रवृत्तियाँ अनिष्ठ गढऩे को हर दम आतुर हों। अमरीकन फिल्म गॉडफादर का नायक भी उस व्यक्ति से अपना बदला तब भी लिए बगैर नहीं रहता जब वो बीमार, लाचार और अतिवृद्ध हो चुका है क्योंकि बचपन से उसकी आँखों में उस शख्स की तस्वीर है और वह अपने पिता-माँ के साथ हुई हिंसा का एकमात्र गवाह है। 


 पूरी फिल्म में हिंसा और वीभत्स परिणाम हैं, जो बेहद नजदीक से दिखाये गये हैं। यह फिल्म दर्शक से बड़े साहस की मांग भी करती है। देखा जाये तो पहली बार हिन्दुस्तानी दर्शक एक वयस्क फिल्म देख रहा होता है, गैंग ऑफ वासेपुर देखते हुए। यह फिल्म हमारी वयस्कता की भी परीक्षा लेती है। हमें यहाँ किसी भी किस्म की संवेदना या नाटकीयता की जरा भी उम्मीद नहीं करनी चाहिए। हमें बार-बार लगता है कि हम सच के सामने खड़े हैं। सरदार खान के अपनी बीवी नगमा के साथ अन्तरंग दृश्य और चारपायी पर साथ लेटे हुए की जाने वाली बातें दरअसल उस पूरे के पूरे गोपनीय स्थान में हमें साँस रोककर खड़ा कर देती हैं जिसकी हमने कल्पना भी नहीं की होती। जल्दी-जल्दी गर्भवती हो जाने से चिढ़ता हुआ सरदार और नगमा के संवाद बड़े चटख हैं। कुछ बातों पर हँसी भी आती है मगर दरअसल निजता के उस समय की वह बड़ी विडम्बना भी है। सरदार खान का एक और औरत दुर्गा से रिश्ते बना लेना, खासकर उसके उपक्रम सहज पुरुषवृत्ति का ही परिचायक है। सरदार खान पर अन्तिम दृश्य में हमले का प्रारब्ध यही स्त्री बनती है। हम यहाँ आकर दूसरे भाग के लिए ठहर अवश्य जाते हैं लेकिन एक साथ अनेक प्रश्र कौंधने लगते हैं। 

इस फिल्म के लिए वास्तव में अनुराग कश्यप, टिग्मांशु धूलिया जिन्होंने रामाधीर सिंह की भूमिका निभायी है और सम्प्रेषक-सूत्रधार पीयूष मिश्रा जो कि फरहान की भूमिका में है, तीनों को सलाम करना चाहिए। दिलचस्प है कि टिग्मांशु निर्देशक हैं मूल रूप से और हाल ही में पान सिंह तोमर से वे भी अपनी एक दशक की सृजन यात्रा का चरम पेश कर गये हैं। अनुराग कश्यप ने उन्हें रामाधीर सिंह के किरदार के लिए चुना, यह अहम है। एक निर्देशक क्या चाहता है, यह एक निर्देशक से बेहतर कौन समझ सकता है। टिग्मांशु का किरदार इसीलिए पूरी फिल्म में एक तरह का प्रतिरोधी प्रभाव बनाये रखता है। पीयूष मिश्रा इस फिल्म के बहुत कुछ हैं, सूत्रधार, किरदार, गीतकार, संगीत परिकल्पक और गायक भी। इन आयामों में बड़ी आजादी के साथ वो पूरे परिवेश के साथ सार्थक न्याय करते हैं। 


 सरदार खान मनोज वाजपेयी, शाहिद खान जयदीप अहलावत, नगमा खातून रिचा चड्ढा, दुर्गा रीमा सेन अपनी भूमिकाएँ किरदार की तरह ही निबाहते हैं। वास्तव में गैंग ऑफ वासेपुर के रूप में हम ऐसा यथार्थ देखते हैं जो जितना कल्पनातीत है उतना ही हमारे संज्ञान से अछूता भी नहीं रहा है लेकिन न तो हम वहाँ पहुँच पाये और न ही अब तक कोई आइना लेकर हमारे सामने खड़ा हुआ। अब निगाहें फिल्म के दूसरे भाग पर टिकी हैं, यदि इसी प्रवाह और वातावरण में हम उस भाग को देखते हुए वही धारणाओं को बनाये रख सके जो इस फिल्म से बनी है तो निश्चित ही अनुराग कश्यप हमारे समय के एक असाधारण फिल्मकार के रूप में स्थापित होंगे।

रविवार, 8 जुलाई 2012

बालू शर्मा की शिल्प सर्जना






बालू शर्मा यह उनका प्रचलित नाम है, वैसे वे बालकृष्ण शर्मा हैं। चिर-परिचित शिल्पकार हैं। आदमकद शिल्प सर्जना में उनका काम इधर लगभग अपनी मौलिकताओं के साथ उनके ही पास है। दूसरे उदाहरण एकदम से ध्यान में नहीं आते। कुछ वर्षों का उनसे परिचय प्रगाढ़ आत्मीयता में तब्दील हो गया है। वे उज्जैन में रहते हैं, महाकाल की नगरी। वहीं से उनकी रचनात्मकता विस्तार दूर देश तक हुआ है। मालवा अंचल का यह प्रमुख शहर अपनी विलक्षण विरासत के कारण दुनिया में जाना जाता है। 

सृजनात्मकता साहित्य से लेकर अभिव्यक्ति के व्यापक आयामों का स्पर्श यहाँ देशज खूबियों के साथ करती है। पेंटिंग और शिल्पकला में यहाँ एक लम्बी परम्परा है जो वाकणकर से श्रद्धेय होती है। उसका विस्तार बड़ा है। आंचलिकता और उसके सारे रंग यहाँ सर्जना में दिखायी देते हैं। बालू शर्मा के पास अपनी अनूठी कल्पनाशीलता और रंग-समझ है। उनकी दृष्टि जीवन, रहन-सहन, हमारी उत्सवप्रियता, मांगलिक सरोकार और उसमें सदियों जीने और डूबे रहने वाली उत्कण्ठा तक जाती है। उनके शिल्पों को ध्यान से देखो, अकेले खड़े हुए या एक साथ समूह में, अलग-अलग अनुभूतियाँ छोड़ते हैं। हम उनमें मनुष्यों को ठहरे हुए देखते हैं, जो शायद उतनी देर हमारे लिए ही ठहरे हुए होते हैं। बाद में अकेले में वे जरूर कोलाहल करते होंगे, आपस में बातचीत या हँसी-खुशी बाँटते होंगे। हो सकता है दुख भी बाँटते हों लेकिन यह सब उनकी दुनिया का हिस्सा है। 

बालू शर्मा के ये शिल्प देखकर इससे भी ज्यादा विचार आते हैं। प्राय: शिल्पों का आकार हमारे कद के बराबर ही है लेकिन उनको गहनता से देखो और उनमें एक-एक मनुष्य, पुरुष या स्त्री की कल्पना करो तो उनके कद का अनुमान लगाना कठिन होता है। कलाकार ने इनको बनाते हुए पता नहीं यह सब सोचा होगा कि नहीं लेकिन इतना तो है कि बालू शर्मा अपने बचपन, मेले, तीज-त्यौहार और जीवन के साथ-साथ सामने से होकर गुजर गये मगर खुद में गहरे ठहर गये लोगों को भी अपनी सर्जना का आधार बनाया है। वे किरदारों को गढ़ते हैं, यह कहा जाये तो शायद अतिश्योक्ति न हो। उनके कलाकर्म को हम दो अलग-अलग रंगतों में देखते हैं, एक स्याह सलेटी रंग और दूसरा रंग-बिरंगे परिधान, गहने, श्रृंगार प्रसाधन, पगड़ी, धोती से भरे-पूरे लोग। बहुत सारे शिल्प उन्होंने बनाये हैं, नवाचार के साथ बनाया करते हैं। 


 उनके शिल्प विभिन्न कला संग्रहालयों में संग्रहीत हैं जिनमें भारत भवन, कालिदास अकादमी, ललित कला अकादमी इत्यादि शामिल हैं। बालू शर्मा अपने इस विशिष्ट काम के लिए नेशनल अवार्ड भी प्राप्त कर चुके हैं। वे लेकिन अपनी इन उपलब्धियों से बेफिक्र लगते हैं, खुद कभी बताते-गिनाते भी नहीं। एक कलाकार जो अपने आप में इतना शान्त और गम्भीर है वो दरअसल कितने मुखर और हमें कम से कम अपरिचित दिखायी देने वाले शिल्पों और चेहरों में कितनी कथाएँ समावेशित कर दिया करता है, यह विस्मय का विषय है। हालाँकि बालू इन सारी धारणाओं और मनन-चिन्तन से परे हमेशा जमीन पर बने रहते हैं जो कि उनकी खूबी है।

रविवार, 17 जून 2012

चिडिय़ाघर के बाबू जी राजेन्द्र गुप्ता



सब चैनल पर सप्ताह के पहले पाँच दिन प्रसारित होने वाले दो-तीन दिलचस्प धारावाहिकों में से एक चिडिय़ाघर को इन दिनों अनिल दुबे निर्देशित कर रहे हैं। अनिल एक तजुर्बेकार निर्देशक और पटकथाकार हैं, जिन्हें धारावाहिकों और सिनेमा का लम्बा अनुभव रहा है। चिडिय़ाघर की संरचना बड़ी रोचक है। परिवार के मुखिया बाबूजी हैं, उनके तीन बेटे हैं, दो बहुए हैं, एक पोता है और एक सेवक है जिसका नाम है गधा प्रसाद। घर का नाम चिडिय़ाघर इसलिए है क्योंकि बाबूजी की पत्नी का नाम चिडिय़ा था। गधा प्रसाद छोटी सी उम्र में उनके साथ मायके से आ गया था तब से यहीं का होकर रह गया। वह भी परिवार का हिस्सा है। बुद्धि और प्रखरता में उसका हाथ तंग है मगर वह अद्भुत रूप से संवेदना और आत्मीयता का ऐसा धनी है जो अपनी क्षमताओं, स्वभाव और सीमाओं में भी सभी को स्वीकार्य ही नहीं है बल्कि इस तरह जुड़ा हुआ है कि उसको अलग करके देखा ही नहीं जा सकता।

राजेन्द्र गुप्ता, वरिष्ठ रंगकर्मी और सिनेमा तथा टेलीविजन के अत्यन्त दक्ष कलाकार हैं, वे चिडिय़ाघर के मुखिया बाबूजी के रूप में पूरे घर को एकसूत्रता में बांधकर रखते हैं। वो पूरे परिवार को आज भी नैतिक शिक्षा का पाठ पढ़ाते हैं। दिलचस्प यह है कि परिवार के पूरे सदस्य उनकी कक्षा में उपस्थित होकर उनसे सरोकारों को समझते हैं, अपने समझ-नासमझी के प्रश्र भी करते हैं, जिनके समाधान बाबूजी सहजता से और कई बार किं कर्तव्य विमूढ़ होकर करते हैं। बहरहाल इस धारावाहिक को देखना रोचक अनुभव है। 

चिडिय़ाघर में गधा प्रसाद एक अलग तरह का आकर्षण है। ढीला-ढाला पायजामा और बुशर्ट पहले, हाथ से हाथ बांधे, पेट पर चढ़ाये गधा प्रसाद बाबूजी की एक तरह से ऊर्जा ही है। बाबू जी कभी गधा प्रसाद के बगैर दिखायी नहीं देते। अभी पिछले भागों में जब एक छुटभैया नेता ने बाबूजी को थाने में बन्द करवा दिया था, तब अपना झोला उठाकर गधा प्रसाद थाने पहुँच गया था उनको छुड़ाने लेकिन हुआ यह कि पुलिस ने उसे भी बाबूजी के साथ बन्द कर दिया। बाबूजी और गधा प्रसाद के आपसी संवाद ध्यान से सुनने वाले होते हैं। कई बार अपनी सीमाओं में भी गधा प्रसाद ऐसी बात कह जाता है जो बाबूजी को हैरान कर देती है, उसी सिधाई में भी जीवन में उसके पिछड़े होने की कसक और दर्द कई बार इस तरह नजर आता है कि वो मन को छू जाता है। वह अपनी सीमाओं में भी परिवार के प्रति अपने समर्पण और निश्छल प्रेम के ऐसे प्रमाण अपनी बातों से देता है जो किसी समझदार की भी क्षमताओं के नहीं होते। जीतू शिवहरे गधा प्रसाद के किरदार को बखूबी निबाह रहे हैं।

चिडिय़ाघर के सदस्यों के विभिन्न स्वभाव हैं। बड़ा बेटा घोटक है जो रेल्वे की नौकरी करता है, उसके दिमाग में रेल और स्टेशन की दुनिया एक सुरूर सी रहती-बहती है। उसकी पत्नी खूबसूरत है, परिवार को जोडक़र रखने में अपनी भूमिका बखूबी निबाहती है मगर वो भी आखिर चिडिय़ाघर रूपी एक घर का हिस्सा है जहाँ सभी अपनी-अपनी झक को बेपरवाही के साथ जिया करते हैं। एक बेटा गोमुख है जो पढ़ाता है, उसकी पत्नी मयूरी को नाचने का शौक है, कान में खूबसूरत झुमके पहनती है और प्राय: खुद को नृत्य मुद्रा में होने के एहसासों मे बड़ी मोहक अदा से अपने सिर को इस तरह झकझोरती है कि झुमके बज उठते हैं। सबसे छोटा बेटा और पोता भी इसी जीवन का अनूठा हिस्सा हैं।

इस धारावाहिक की खूबी इसके प्रति सुरुचि के साथ आकर्षित होना है। चिडिय़ाघर को देखते हुए न तो किसी तरह की उत्तेजना मन में होती है और न ही किसी तरह का रोमांच। घटनाएँ इस तरह घटित होती हैं कि हम सहज ही उसका हिस्सा हो जाते हैं, उसके साथ बहते चले जाते हैं। 

अनिल दुबे काम में असाधारण क्षमताओं वाले निर्देशक हैं। इस टिप्पणीकार ने स्वयं उन्हें लगातार तीसरे दिन तक जागकर बिना जम्हाई लिए काम करते देखा है। चिडिय़ाघर में भी वे हर वक्त सेट पर होते हैं, सुबह से लेकर रात और पता नहीं अगली सुबह तक और सब तरह की छुट्टियों में भी। राजेन्द्र गुप्त एक मिलनसार कलाकार हैं जो मुम्बई मे एक बड़े कलाकार समूह के एक तरह से अविभावक, बड़े भाई की तरह हैं। जाने कितने बरस से उनके घर चौपाल लगती है और बड़ी तादात में कलाकार वहाँ अपने अवकाश में खूब बातचीत करते हैं, अभिव्यक्ति देते हैं और गाते-बजाते हैं। यह मेजबानी अनवरत जारी है। उनसे मिलकर हमेशा ऐसी खुशी मिलती है जैसे बीस-पच्चीस साल की पहचान हो। चिडिय़ाघर उनकी भी अभिव्यक्ति का एक महत्वपूर्ण धारावाहिक है, जिसे जिन्दगी को समझने के लिहाज से, यदि फुर्सत हो तो देखा जरूर जाना चाहिए।

स्त्री हिंसा और सत्यमेव जयते



सत्यमेव जयते के 17 जून के एपिसोड में स्त्री हिंसा पर आमिर खान ने अलग-अलग घटनाओं, त्रासदी झेलने वाली स्त्रियों और उनमें से कुछेक के आत्मविश्वास पर बात की है। हमारे देश में बहुत सारे लाइलाज मर्ज हैं जिनका समाधान आज तक नहीं हुआ। व्ही. शान्ताराम ने पिछली शताब्दी के चौथे दशक में दुनिया न माने फिल्म का निर्माण किया था जिसमें एक अनाथ लडक़ी निर्मला का ब्याह उसके रिश्तेदार पैसे की लालच में धोखे से एक बूढ़े से कर देते हैं। अनाथ निर्मला यह त्रासदी भोगती है कि पिता की उम्र के व्यक्ति के सामने उसे अर्धांगिनी के रूप में खड़ा होना पड़ता है। इस फिल्म में एक दृश्य है जिसमें उम्रदराज पति अपनी मूछें काली कर रहा है, निर्देशक इसे सीधे एक लोहार द्वारा पुराने बरतन चमकाने से जोड़ता है। प्रताडऩा ने अपने रूप बदले हैं, इस समय स्त्री अपनी घुटन में जीने और बाहर आने, दो तरह की परिस्थितियों से जूझ रही है। आँसू हर हाल में है, घुटते हुए भी और लड़ते हुए भी।


 17 जून के ही एपिसोड को देखते हुए प्रकाश झा की एक सशक्त फिल्म मृत्युदण्ड की याद आ गयी जिसमें स्त्रियाँ घर में अलग ही तरह की प्रताडऩा का शिकार हैं। परिवार में नपुंसक मठाधीश पति है जिसने समाज में पत्नी को बाँझ आरोपित कर रखा है। उसी परिवार की छोटी बहू पर जब उसका पति हाथ उठाता है तो वह हाथ रोककर कहती है, पति हो, परमेश्वर बनने की कोशिश मत करना। देव आनंद की कॉमर्शियल फिल्म हरे राम हरे कृष्ण का जिक्र भी करने की इच्छा हुई है जिसमें आपस में लड़ते-झगड़ते माता-पिता के साथ सहमे भाई-बहन एक कमरे में भय और अन्देशे को जिया करते हैं। 


 गोविन्द निहलानी की फिल्म अर्धसत्य याद आयी। इस फिल्म के नायक ओम पुरी थे जो अनंत वेलणकर का किरदार निबाहते हैं। सत्ता और व्यवस्था की विद्रूपताओं और अराजकता से लड़ता एक पुलिस इन्स्पेक्टर। इस फिल्म में बेशक द्वन्द्व राजनेता रामा शेट्टी से चलता है मगर अनंत के अवचेतन में अपने बर्बर पिता की खराब छबि है जो बात-बात पर उसकी माँ को पीटने लगता है। बचपन से ही वो इस घटना से घुटता है, एक बार पिता के साथ तू-तड़ाक में बात होती है तो वह झुंझला कर बोल देता है, तू हमेशा मेरी माँ को मारा करता था। इस किरदार की पूरी काया को हम विद्रोही देखते हैं, बोलते हुए, चुप रहते हुए। अन्त में उसकी लड़ाई का अन्त एक हिंसक परिणति से होता है जब वो रामा शेट्टी को मार देता है।

इस सदी और खासकर आज की स्थितियाँ और संघर्ष अब अपनी अस्मिता की रक्षा करने और समाज में अपनी स्पेस बनाने की चुनौती के ज्यादा हैं। मैं आज की सम्मानित कलाकार तीजन बाई को देखता हूँ तो उनकी शक्ति और आत्मविश्वास पर गर्व हो उठता है। वे पद्मभूषण हैं। छत्तीसगढ़ी लोकशैली में महाभारत की लोकगाथा पण्डवानी गाने वाली तीजन बाई ने भी यह प्रताडऩा सही थी कभी। आज वे बहुओं वाली हैं मगर जब वे शादी होकर अपने ससुराल गयीं तब पति के हिंसक व्यवहार ने उनका जीना मुहाल कर दिया था। कला और गायन में भी बाधक बना आदमी जब एक दिन उनको एक कार्यक्रम में ही मारने पहुँच गया तब तीजन बाई ने भी जवाब में उसे मारने के लिए तम्बूरा उठा लिया। तीजन बहादुरी और आत्मबल की अनोखी मिसाल हैं, हम सब उनका बहुत आदर करते हैं।


 सत्यमेव जयते में करुण सच्ची घटनाएँ, आजाद मुल्क और तमाम विरोधाभासी घटनाओं को रोकने और प्रतिरोध करने की वैधानिक संस्थाओं की सक्रियता और उपस्थिति के बावजूद हम जब सुनते हैं तो आहत होते हैं। कुछ उदाहरण हैं जहाँ बहादुरी है, जूझा गया है, लड़ा गया है और खड़ा भी हुआ गया है मगर यह सब आसान प्रक्रिया नहीं है। यह कठिन प्रक्रिया है। जूझती हुई स्त्री मानसिक रूप से अपने आपको खण्डित और पराजित इस तरह मान लेती है कि वो इस त्रासद अवसाद से बाहर ही नहीं आ पाती। सु-समाज का सपना हम देखते हैं, इतने विरोधाभासों के बावजूद उस पर विश्वास करते हैं, यह हमारा आशावादी दृष्टिकोण है मगर जिन्होंने दर्द सहे हैं, कसक जिनके मन से कभी जा न पायी है, उन्हें तैयार होने में, तैयार करने में बड़ी मेहनत करनी होती है। 

पीढिय़ों को मजबूत और सक्षम आत्मबल का संस्कार देने में हमें और ज्यादा समझ और मेहनत की जरूरत लगती है। अक्सर परिजन अपनी पढ़ती-लिखती बेटियों को स्कूटी खरीदकर देते हैं, इससे इतन जब मुझे अपने शहर में कोई लडक़ी या युवती मोटर साइकिल और कई बार बुलेट चलाती दीख जाती है तो मुझे उसके निडर और निर्भीक होने का एहसास होता है। हमें स्त्रियों को, बेटियों को निडर और निर्भीक बनाना चाहिए। खुद की कुण्ठाओं, अपने आसपास की विफलता, षडयन्त्र, धोखे या पराजय से उपजी निराशा का पत्नी, बच्चों के ऊपर शारीरिक अत्याचार की विकृति के रूप में प्रदर्शन नहीं करना चाहिए। वैचारिक असहमतियों के भी सार्थक समाधान कर पाने की क्षमता होनी चाहिए। जिन्दगी के रिश्ते बिगाडक़र उसके दोषारोपण दूसरों पर करने के बजाय गर्त में गिरने के पहले ही सम्हल जाना चाहिए।


शनिवार, 16 जून 2012

लाख की नाक

रचनात्मक उपक्रमों से समाज का जुडऩा बड़ा जरूरी होता है। हालाँकि यह बहुत कठिन भी है। लेकिन इसके बावजूद इस काम में लगे लोग बिना इसकी फिक्र या इसके लिए चितिन्त हुए, अपना काम किया करते हैं। बड़े शहरों का परिप्रेक्ष्य तो ऊपरवाला जाने, लेकिन अपेक्षाकृत छोटे शहरों में यह जुनून प्रबल ढंग से देखने मिलता है।

रंगकर्मी मित्र प्रेम गुप्ता के आग्रह पर कल दोपहर भोपाल से चार घण्टे दूर दो साल पहले जिले में तब्दील हो गये शहर हरदा मेरा जाना हुआ। प्रेम ने ही भोपाल के ही एक और महत्वपूर्ण रंग-निर्देशक के. जी. त्रिवेदी से भी इस मित्रवत संगत के लिए अनुरोध किया था, वे भी साथ चले। प्रेम भोपाल में पच्चीस-तीस सालों से बच्चों का रंगकर्म कर रहे हैं, भाभी वैशाली गुप्ता कोरियोग्राफर और रंग-निर्देशक हैं, वे भी उनके साथ कद से कद मिलाकर उनके जुनून में सहभागी हैं। प्रेम ने हरदा में अपनी संस्था चिल्ड्रन्स थिएटर अकादमी की ओर से वहाँ के रंगकर्मी संजय तेनगुरिया को एक कार्यशाला का रचनात्मक भार सौंपा था। संजय ने इस काम को बखूबी निभाया। पिछले माह लम्बा बीमार पड़ जाने के बावजूद उन्होंने बच्चों के साथ आखिरकार सर्वेश्वर दयाल सक्सेना के नाटक लाख की नाक को तैयार किया, जिसका लगभग पच्चीस मिनट का मंचन देखकर बहुत आनंद आया।

जिस उच्चतर माध्यमिक विद्यालय के हॉल में प्रस्तुति थी, वहाँ आयोजन शुरू होने के एक-डेढ़ घण्टे तक परीक्षा चली थी और आज सुबह से फिर परीक्षा थी। संजय ने अपने सहयोगियों के साथ शाम की परीक्षा सम्पन्न होने के बाद हॉल खाली किया और आयोजन सम्पन्न होने के बाद अगली सुबह के लिए फिर परीक्षा कक्ष को तैयार किया। कुर्सी-मेज हटाना-जमाना जैसा काम।

बहरहाल सुखद प्रस्तुति के क्षण थे। बच्चों का रंगमंच और आज का समय पर हम सबके वक्तव्य भी हुए। हरदा शहर की विनम्र और व्यवहारकुशल नगरपालिका अध्यक्ष जी गरिमापूर्ण उपस्थिति इस अवसर पर थी। बच्चों के साथ रंग-संसार गढऩा बलुआ मिट्टी से खिलौने बनाने जैसा आनंद देता है मगर वह उतना ही चुनौतीपूर्ण भी है। माता-पिता की निगाह में बच्चे का मतलब जब बहुत ज्यादा रूप से मेरिट और प्रतिशत का अर्थात या पर्याय हो जाये तो चित्रकला, संगीत, नृत्य या नाटक के लिए बच्चों को कौन खुशी-खुशी अनुमति देगा? अतिउत्साही और अपसंस्कृति में संस्कृति की परिभाषा से सहमत कतिपय अविभावक चैनलों के प्रतिस्पर्धी शो तक ही अपनी दृष्टि की इति-श्री मान लेते हैं। ऐसे वक्त में हरदा में बच्चे खेलते हैं, लाख की नाक नाटक।

गुरुवार, 14 जून 2012

सीरज की दुनिया से ..............


सिरेमिक शिल्पकार, चित्रकार और यायावर लेखक मित्र सीरज सक्सेना (नई दिल्ली) ने दो दिन पहले मुझे आकाशवाणी से प्रसारित अपने इंटरव्यू की लिंक भेजी थी। स्तंभ “दुनिया मेरे आगे” (जनसत्ता) में उनकी टिप्पणियों से मैं प्रभावित रहा हूँ, तथापि आज तक मुलाक़ात से वंचित हूँ लेकिन आत्मीयता इतनी गहरा रही है कि जल्द मिलने का योग है। 

फेसबुक में सीरज जी का स्टूडियो जैसे बुला रहा है। काम करते हुए वे और व्यवस्थित रखे हुए उनके शिल्प दोनों में खूब आकर्षण है। उनका इंटरव्यू दो बार सुना। एक बात जो बहुत अच्छी उन्होने बताई, कि बचपन से अपनी माँ को कम करते हुए देखते-देखते उनको प्रेरणा मिली। उन्होने बताया कि वे खूबसूरत आकृति के पकवान बनाया करती थीं, जिसे वे भी सीख गए थे। सचमुच हमारे तीज-त्यौहारों में बनने वाले पकवान में चिड़िया, खिलौने क्या कुछ नहीं होते...! लेखन के बारे उन्होने कहा कि माँ, हमारे मामा, नाना-नानी को चिट्ठी लिखवाया करती थीं उनसे। दृश्य बंध लिखने की प्रेरणा उनको वहाँ से हुई। यह सब सुनते हुए कई बार बचपन में आवाजाही हुई। वृत्तांत की परंपरा में हमारे ही घर से क्या कुछ नहीं आया...!!

एक बड़ी मौजूँ बात उन्होने प्रश्नकर्ता के उत्तर में कही कि अपनी साधना में उन्होने धनोपार्जन की जगह कलाउपार्जन को मूल ध्येय बनाया। सीरज, दुनिया के कई देशों में अपने काम और पुरुषार्थ के ज़रिए हो आए हैं। एक बड़ी संवेदनशील मगर यथार्थपरक बात वे कहते हैं कि समाज में कला के लिए अनुकूल जगह या प्रोत्साहन नहीं है। उसे अपने जीवन का हिस्सा बनाने में लोगों की रुचियाँ नहीं हैं। नाटक, संगीत, कला या नृत्य के बगैर सब कुछ चल रहा है। कलाकार अपनी ज़िद से, अपने आत्मसंतोष के लिए, आत्मसुख के लिए स्पेस क्रिएट करता है। 

सच है, समाज और सरोकारों में कला फैशन की तरह स्वीकारी जा रही है। भद्रावरण वाले लोग कई बार अपनी झेंप मिटाने के लिए इसका हिस्सा होते हैं। उनकी उपस्थिति ऐसे वातावरण में उनको कितनी सार्थकता प्रदान करती है, इसका पता शायद उन्हीं को होगा। यहाँ भी सहभागिता ऐसे वातावरण में अपने होने को, अपनी ही ओर से बे-वजह प्रमाणित करने की है...........

बातचीत में सीरज अपनी साधना को संक्षेप में एक यात्रा की तरह रेखांकित करते हैं, आखिर यायावर जो ठहरे। शुरू में उन्होने बताया है कि वे महू (मध्यप्रदेश) में जन्में और इंदौर में उनकी पढ़ाई हुई, वही कला भी परवान चढ़ी। उनके पिता सेना की नौकरी में रहे हैं, सीरज खुद भी एक ऊर्जस्व फौजी से दीखते हैं। जड़-चेतन से गहरा लगाव उनके ज़मीनी होने की पहचान है। उनकी साधना बहुत सारी जिज्ञासा और सरोकारों का सुरुचिपूर्ण आख्यान प्रतीत होती है, उन और उनके काम, प्रत्यक्षदर्शी होने के बाद बहुत कुछ कह सकूँगा, फिलहाल इतना ही...................