आलोचनात्मक ढंग से चर्चा में आयी अनुराग कश्यप की दो भागों में पूरी हुई फिल्म गैंग ऑफ वासेपुर से एक बार फिर हिन्दी सिनेमा में सिने-भाषा को लेकर बातचीत शुरू हुई है। एक लम्बी परम्परा है सिनेमा की जिसके सौ बरस पूरे हुए हैं। सिनेमा हमारे देश में आजादी के पहले आ गया था। दादा साहब फाल्के ने हमारे देश में सिनेमा का सपना देखा और उसको असाधारण जतन और जीवट से पूरा किया। भारत में सिनेमा का सच बिना आवाज का था। दादा फाल्के की पहली फिल्म राजा हरिश्चन्द्र मूक फिल्म थी। आलमआरा से ध्वनि आयी लेकिन इसके पहले का सिनेमा मूक युग का सिनेमा कहा जाता है। ध्वनि आने तक परदे पर सिनेमा के साथ पात्रों के संवादों को व्यक्त किए जाने की व्यवस्था होती थी। परदे पर संवादों को लिखकर प्रस्तुत करने की पहल भी दर्शकों को तब बड़ी अनुकूल लगती थी। जब सिनेमा में आवाज हुई तभी संवाद सार्थक हुए। यहीं से पटकथा और संवाद लेखक की भूमिका शुरू होती है।
हमारा सिनेमा संवादों की परम्परा के साथ सीधे ही रंगमंच और तत्समय व्याप्त शैलियों से बड़ा प्रभावित रहा है। सिनेमा से पहले रंगमंच था, पात्र थे, अभिव्यक्ति की शैली थी। बीसवीं सदी के आरम्भ में नाटकों में पारसी शैली के संवाद बोले जाते थे। पृथ्वीराज कपूर जैसे महान कलाकार नाटकों के जरिए देश भर में एक तरह का आन्दोलन चला रहे थे जिससे अपने समय के बड़े-बड़े सृजनधर्मी जुड़े थे। नाटकों, रामलीला, रासलीला में पात्रों द्वारा बोले जाने वाले संवादों का असर सिनेमा में लम्बे समय तक रहा है। सोहराब मोदी, अपने समय के नायाब सितारे, निर्माता-निर्देशक की अनेक फिल्में इस बात का प्रमाण रही हैं। बुलन्द आवाज और हिन्दी-उर्दू भाषा का सामन्जस्य उस समय के सिनेमा की परिपाटी रहा। आजादी के बाद का सिनेमा सकारात्मकता, सम्भावनाओं और आशाओं का सिनेमा था। धरती के लाल, कल्पना और चन्द्रलेखा जैसी फिल्में उस परिवेश की फिल्में थीं। नवस्वतंत्र देश का सिनेमा अपनी तैयारियों के साथ आया था। कवि प्रदीप जैसे साहित्यकार पौराणिक और सामाजिक फिल्मों के लिए गीत रचना कर हिन्दी साहित्य का प्रबल समर्थन कर रहे थे। हिन्दी में सिनेमा बनाने वाली धारा पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, बिहार, दक्षिण और पूर्वोत्तर राज्यों से आयी। निर्माता, निर्देशक, गीतकार, संगीतकार, नायक-नायिका, विभिन्न चरित्र कलाकारों में जैसे श्रेष्ठता की एक श्रृंखला थी। इन सबमें हिन्दी के जानकार और अभिव्यक्ति की भाषा में हिन्दी के सार्थक उपयोग की चिन्ता करने वाले लोगों के कारण सिनेमा को एक अलग पहचान मिली।
राजकपूर, बिमलराय जैसे फिल्मकार छठवें दशक से अपनी एक पहचान कायम करने में सफल रहे थे। राजकपूर के पास अपने पिता का तजुर्बा था। उनके पिता ने उनको एक सितारे का बेटा बनाकर नहीं रखा था बल्कि उनको उन सब संघर्षों से जूझने दिया था, जो एक नये और अपनी मेहनत से जगह बनाने वाले कलाकार को करना होते हैं। राजकपूर संगीत से लेकर भाषा तक के प्रति गहरा समर्पण रखते थे। आह, आग, आवारा, श्री चार सौ बीस आदि फिल्मों में हिन्दी के संवादों में कहीं कोई समस्या नहीं है। इधर बिमलराय जैसे फिल्मकार ने बंगला संस्कृति और भाषा से श्रेष्ठ चुनकर हिन्दी के लिए काम किया और अपने समय का श्रेष्ठ सिनेमा बनाया। वे नबेन्दु घोष जैसे लेखक, पटकथाकार, हृषिकेश मुखर्जी जैसे सम्पादक जो कि आगे चलकर बड़े फिल्मकार भी बने और अनेक महत्वपूर्ण फिल्में बनायीं, इन सबके साथ मुम्बई में काम करने आये थे। उनकी बनायी फिल्में हमराही, बिराज बहू, दो बीघा जमीन, परिणीता, देवदास, सुजाता, बन्दिनी आदि मील का पत्थर हैं। हम यदि इन फिल्मों को याद करते हैं तो हमें दिलीप कुमार, बलराज साहनी, नूतन, सुचित्रा सेन, अशोक कुमार ही याद नहीं आते बल्कि मन में ठहरकर रह जाने वाले दृश्य, संवाद और गीत भी यकायक मन-मस्तिष्क में ताजा हो उठते हैं। हिन्दी सिनेमा की भाषा को बचाये रखने की कोशिश पहले नहीं की जाती थी क्योंकि सब कुछ स्वतः ही चला करता था। हिन्दी फिल्मों में हिन्दी को कोई खतरा नहीं था। बाद में चीजें बदलना शुरू हुई। जो लोग इस बदलाव से जुड़े थे और इसका समर्थन कर रहे थे उनका मानना यही था कि नये जमाने के साथ सिनेमा को भी अपनी एक भाषा की जरूरत है। दर्शक एकरूपता से उकता गया है जबकि ऐसा नहीं था। दर्शक समाज इतना बड़ा समूह है कि वह स्तरीयता की परख करना जानता है और यकायक भाषा में भोथरा किया जाने वाला नवाचार उसकी पसन्द नहीं हो सकती। ठीक है, पीढि़याँ आती हैं, जाती हैं, अपनी तरह से वक्त-वक्त पर अपनी दुनिया भी गढ़ी जाती है लेकिन अपनी सहूलियत और बदलाव के लिए मौलिकता और सिद्धान्तसम्मत चीजों को विकृत किया जाये, यह बात गले नहीं उतरती।
यह एक अच्छी बात रही है कि हिन्दी के साथ उर्दू का समावेश करके सिनेमा को एक नया प्रभाव देने की कोशिश की गयी, वह स्वागतेय भी रही क्योंकि उर्दू तहजीब की भाषा है, उसका अपना परिमार्जन है। फिल्मों में संवाद लेखन करने वाले, गीत लेखन करने वाले उर्दू के साहित्यकार, शायरों का भी लम्बे समय बने रहना और सफल होना इस बात को प्रमाणित करता है कि दर्शकों ने इस नवोन्मेष का स्वागत किया। इसी के साथ-साथ हिन्दी के साथ निरन्तर बने रहने वाले लेखकों, पटकथाकारों और निर्देशकों ने अपनी एक धारा का साथ नहीं छोड़ा। अब चूँकि सत्तर के आसपास एक टपोरी भाषा भी हमारे सिनेमा में परिचित हुई जिसका एक विचित्र सा उपसंहार हम मुन्नाभाई एमबीबीएस में देखते हैं, उसने सिने-भाषा का सबसे बड़ा नुकसान करने का काम किया। उच्चारण, मात्रा और प्रभाव सभी स्तर पर इस तरह की बिगड़ी हिन्दी लगभग चलने सी लगी। हालाँकि साहित्यकारों में मुंशी प्रेमचन्द से लेकर अमृतलाल नागर, नीरज, शरद जोशी, फणिश्वरनाथ रेणु आदि का सरोकार भी हिन्दी सिनेमा से जुड़ा मगर इन साहित्यकारों का हम ऐसा प्रभाव नहीं मान सकते थे कि उससे सिनेमा का समूचा शोधन ही हो जाता। वक्त-वक्त पर ये विभूतियाँ हिन्दी सिनेमा का हिस्सा बनीं, नीरज ने देव आनंद के लिए अनेकों गीत लिखे, शरद जोशी ने फिल्में और संवाद लिखे, रेणु की कहानी पर तीसरी कसम बनी, नागर जी की बेटी अचला नागर ने निकाह से लेकर बागबान जैसी यादगार फिल्में लिखीं। मन्नू भण्डारी और राजेन्द्र यादव की कृतियों पर फिल्में बनी, पण्डित भवानीप्रसाद मिश्र दक्षिण में लम्बे समय एवीएम के लिए लिखते रहे लेकिन सकारात्मक विचारों की विरुद्ध प्रतिरोधी विचार ज्यादा प्रबल था लिहाजा वही काबिज हुआ। बच्चन जैसे महान कवि के बेटे अमिताभ बच्चन तक मेजर साब फिल्म में सेना के अधिकारी बने अपने सीने पर जसवीर सिंह राणा की जगह जसविर सिंह राणा की नेम-प्लेट लगाये रहे, लेकिन एक बार भी उन्होंने निर्देशक को शायद नहीं कहा होगा कि जसविर को जसवीर करके लाओ।
सत्तर के दशक में जब नये सिनेमा के रूप में सशक्त और समानान्तर सिनेमा का प्रादुर्भाव हुआ तब हमने देखा कि एक तरफ से श्याम बेनेगल और गोविन्द निहलानी जैसे फिल्मकारों ने अपने सिनेमा में भाषा और हिन्दी के साथ-साथ उच्चारणों की स्पष्टता पर भी ध्यान दिया। अगर कहूँ कि निश्चय ही उसके पीछे स्वर्गीय पण्डित सत्यदेव दुबे जैसे जिद्दी और गुणी रंगकर्मी थे तो कोई अतिश्योक्ति न होगी। दुबे जी हिन्दी भाषा के प्रबल समर्थक थे। उन्होंने मुम्बई में हिन्दी रंगकर्म की ऐसी अलख जगायी कि अपने काम से अमर हो गये। वे हिन्दी की शुद्धता और उसके उच्चारण तक अपनी बात मनवाकर रहते थे। यही कारण है कि मण्डी, जुनून, निशान्त, अंकुर, भूमिका जैसी फिल्में हमें इस बात का भरोसा दिलाती हैं कि कम से कम एक लड़ाई भाषा के सम्मान के लिए प्रबुद्ध साहित्यकारों, लेखकों और कलाकारों द्वारा जारी रखी गयी। यह काम फिर उनके समकालीनों में सुधीर मिश्रा, प्रकाश झा, केतन मेहता, सईद अख्तर मिर्जा ने भी किया। बी.आर. चोपड़ा की महाभारत के संवाद लेखन में राही मासूम रजा के योगदान को सभी याद करते हैं। इसी तरह रामानंद सागर ने भी रामायण धारावाहिक बनाते हुए उसके संवादों पर विशेष जोर दिया। भारत एक खोज धारावाहिक भी भाषा के स्तर पर एक सशक्त हस्तक्षेप माना जाता है। तीसरी कसम, सद्गति, सारा आकाश जैसी फिल्में साहित्यिक कृतियों पर कालजयी निर्माण के रूप में जाने जाते हैं। उपन्यासकार गुलशन नंदा का उल्लेख भी यहाँ इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि वे सामाजिक उपन्यासों के एक लोकप्रिय लेखक थे और उनकी कृतियों पर अपने समय में सफल फिल्में बनीं जिनमें फूलों की सेज से लेकर काजल, सावन की घटा, पत्थर के सनम, नीलकमल, कटी पतंग, खिलौना, शर्मीली, नया जमाना, दाग, झील के उस पार, जुगनू, जोशीला, अजनबी, महबूबा आदि शामिल हैं।
बिमल राय के सहायक तथा उनकी फिल्मों में सम्पादक रहे प्रख्यात फिल्मकार हृषिकेश मुखर्जी का सिनेमा भी भाषा एवं हिन्दी के स्तरीय प्रभाव के अनुकूलन का सिनेमा रहा है। उन्होंने सत्यकाम, अनाड़ी, अनुपमा, आशीर्वाद, आनंद, मिली, चुपके-चुपके, खट्टा-मीठा, गोलमाल जैसी अनेक उत्कृष्ट फिल्में बनायीं। स्मरण करें तो इन सभी फिल्मों में भाषा के साथ-साथ सामाजिक सरोकारों को बड़े महत्व के साथ पेश करने काम किया गया है। हाँ, चुपके-चुपके में हिन्दी भाषा-बोली को हास्य के माध्यम से एक कथा रचने में हृषिदा को बड़ी सफलता मिली। फिल्म का नायक प्यारे मोहन जो कि परिमल त्रिपाठी से इस नकली चरित्र में रूपान्तरित हुआ है, एक-एक शब्द हिन्दी में बोलता है, वाक्य भी उच्च और कई बार संस्कृतनिष्ठ हिन्दी में बोलता है। ऐसा करके वह अपनी पत्नी के जीजा जी को परेशान किया करता है, आखिर क्लायमेक्स में रहस्य खुलता है और मजे-मजे में फिल्म खत्म हो जाती है। चलते-चलते हम शुद्ध हिन्दी में लिखा फिल्म हम, तुम और वह का एक गाना भी याद करते हैं, प्रिय प्राणेश्वरी, हृदयेश्वरी, यदि आप हमें आदेश करें तो प्रेम का हम श्रीगणेश करें........................
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