गुरुवार, 6 अगस्त 2015

॥ बिना पैराग्राफ ॥

पता नहीं होता, कई बार दिखायी पड़ता है कि रास्ता खुद अपनी चाल चल रहा है। हम यह सोचते लिया करते हैं कि हम ही रास्ते पर चल रहे हैं। एक जगह खड़े रहकर यह भरम मिटने लगता है जब हम से आगे रास्ता बहुत दूर तक जाता हुआ दिखायी देता है, उस समय हमारी आँखें हम से आगे पैदल, लगभग दौड़ती हुई रास्ते को उस पूरे दूर में देख आना चाहती हैं। होता अक्सर यही है कि दूर तक दिखायी देता रास्ता कहीं आगे जा कर हम से ओझल हो जाता है। 

न जाने क्यों कभी लगता है कि हमारी पैदल चलती, दौड़ती, भागती आँखें भी उस अछोर के साथ चली गयी हैं। ऐसे रास्तों को देखता हुआ मैं अक्सर कामना किया करता हूँ,‍ विफल सी कामना कि मुझसे आगे, मेरे लिए ही पैदल भागती चली गयी दृष्टि शायद लौटकर आये और उस अछोर का सच्चा ‍ठिया बतलाये। बहुत देर तक बाट जोहते हुए मैं अपने आप से थकने लगता हूँ। मैं बीच रास्ते पर बैठ जाना चाहता हूँ। न जाने कैसे इसी क्षण घोर व्यग्रता में मुझे कोई पीछे लौटाना चाहता है। किसी का हाथ पीछे से मेरी आँखें मूँद लेना चाहता है। मैं तत्क्षण अनेक असहजताओं के बीच उसे हथेलियों और उनकी महक से भी नहीं पहचान पाता। मैं कुछ बोल भी नहीं पाता। परायी या अपनी, कई बार हथेलियों से मुँदी आँखें कुछ भी पहचान नहीं पातीं। 

मैं एक बड़े खाली से, एक बड़े दूर से आगे चलकर न जाने कहाँ मुड़ गये रास्ते के छोर को देखने गयी आँखों के लौटने की प्रतीक्षा करता हूँ, देह में गड़ी आँखें दूसरी हैं, वे अभी भी हथेलियों से मुँदी हैं और मैं पहचान नहीं पा रहा हूँ...........................